श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 454 जिउ राती जलि माछुली तिउ राम रसि माते राम राजे ॥ गुर पूरै उपदेसिआ जीवन गति भाते राम राजे ॥ जीवन गति सुआमी अंतरजामी आपि लीए लड़ि लाए ॥ हरि रतन पदारथो परगटो पूरनो छोडि न कतहू जाए ॥ प्रभु सुघरु सरूपु सुजानु सुआमी ता की मिटै न दाते ॥ जल संगि राती माछुली नानक हरि माते ॥२॥ पद्अर्थ: राती = मस्त। जलि = जल में। रसि = रस में, आनंद में। माते = मस्त। गुर पूरै = पूरे गुरु ने। जीवन गति = अच्छा आत्मिक जीवन देने वाला। भाते = भा जाते हैं, अच्छे लगते हैं। अंतरजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। लड़ि = पल्ले से। कतहू = कहीं भी। सुघरू = कुशलता वाला (सुंदर आत्मिक घड़त वाला)। सरूपु = रूप वाला। सुजानु = सिआना। दाते = दाति देने वाला।2। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों को) पूरे गुरु ने (हरि-नाम-स्मरण का) उपदेश दे दिया, वह परमात्मा के नाम के स्वाद में ऐसे मस्त रहते हैं जैसे (गहरे) पानी में मछली खुश रहती है, वे मनुष्य आत्मिक जीवन के दाते प्रभु को प्यारे लगते हैं। हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला मालिक प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है वह उन मनुष्यों को खुद ही अपने पल्ले से लगा लेता है, वह सर्व-व्यापक प्रभु उनके अंदर अपने श्रेष्ठ नाम-रत्न प्रगट कर देता है उन्हें फिर छोड़ के कहीं नहीं जाता। हे नानक! परमात्मा सुंदर आत्मिक घाड़त वाला है, सुंदर रूप वाला है, सियाना है, (जिस मनुष्यों को पूरा गुरु उपदेश देता है उन पर हुई हुई) उस परमात्मा की बख्शिश कभी मिटती नहीं (इस वास्ते वह मनुष्य) हरि-नाम में यूँ मस्त रहते हैं जैसे मछली (गहरे) पानी की संगति में।2। चात्रिकु जाचै बूंद जिउ हरि प्रान अधारा राम राजे ॥ मालु खजीना सुत भ्रात मीत सभहूं ते पिआरा राम राजे ॥ सभहूं ते पिआरा पुरखु निरारा ता की गति नही जाणीऐ ॥ हरि सासि गिरासि न बिसरै कबहूं गुर सबदी रंगु माणीऐ ॥ प्रभु पुरखु जगजीवनो संत रसु पीवनो जपि भरम मोह दुख डारा ॥ चात्रिकु जाचै बूंद जिउ नानक हरि पिआरा ॥३॥ पद्अर्थ: चात्रिकु = पपीहा। जाचै = मांगता है। बूँद = बूँद। प्रान अधारा = जीवात्मा का सहारा। खजीना = खजाने। सुत = पुत्र। सभ हूँ ते = सब से। पुरखु = सर्व व्यापक। निरारा = निराला, मुश्किल। गति = आत्मिक अवस्था। जानीऐ = जानी जा सकती। सासि = हरेक सांस के साथ। गिरासि = हरेक ग्रास के साथ। माणीऐ = भोगा जा सकता है। जग जीवनो = जग जीवन, जगत की जिंदगी (का सहारा)। जपि = जप के। डारा = दूर कर लिए।3। अर्थ: हे भाई! जैसे पपीहा (स्वाति नक्षत्र की बरखा की) बूँद मांगता है (वैसे ही संत-जन परमात्मा के नाम-जल की बूँद मांगते हैं, वैसे ही संत-जनों के लिए) परमात्मा का नाम-जल जिंदगी का सहारा; दुनिया का धन-पदार्थ, खजाने, पुत्र, भाई, मित्र- इन सबसे उनको परमात्मा प्यारा लगता है। हे भाई! जिस परमात्मा की ऊँची अवस्था जानी नहीं जा सकती वह (सारे संसार से) निराला और सर्व-व्यापक प्रभु उनको प्यारा लगता है; हरेक सांस के साथ हरेक ग्रास के साथ- कभी भी परमात्मा उनको भूलता नहीं। (पर, हे भाई!) उस परमात्मा के मिलाप का आनंद गुरु के शब्द की इनायत से ही पाया जा सकता है। हे भाई! जो परमात्मा सर्व-प्यापक है सारे जगत की जिंदगी (का सहारा) है, संत जन उस के नाम-जल का रस पीते हैं, उसका नाम जप-जपके वह (अपने अंदर से) भटकना और मोह के दुख दूर कर लेते हैं। हे भाई! जैसे पपीहा (बरखा की) बूँद मांगता है वैसे ही संत-जनों के लिए परमात्मा का नाम-जल जीवन का आसरा है।3। मिले नराइण आपणे मानोरथो पूरा राम राजे ॥ ढाठी भीति भरम की भेटत गुरु सूरा राम राजे ॥ पूरन गुर पाए पुरबि लिखाए सभ निधि दीन दइआला ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई सुंदर गुर गोपाला ॥ सूख सहज आनंद घनेरे पतित पावन साधू धूरा ॥ हरि मिले नराइण नानका मानोरथुो पूरा ॥४॥१॥३॥ पद्अर्थ: ढाठी = गिर पड़ी। भीति = दीवार। भरमि = भटकना। सूरा = शूरवीर। पूरन = सारे गुणों का मालिक। पूरबि = पहले जनम में। निधि = खजाना। दइआला = दया करने वाला। आदि = शुरू में। मधि = बीच का। अंति = आखिर में। गुर = बड़ा। गोपाल = धरती का पालणहार। सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। साधू = गुरु। मानोरथुो = (असल शब्द है ‘मानोरथु’, यहां पढ़ना है ‘मानोरथो’)।4। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य अपने परमात्मा (के चरणों) में लीन हो जाते हैं उनकी जिंदगी का निशाना पूरा हो जाता है (प्रभु चरणों में लीन होना ही इन्सानी जीवन का उद्देश्य है), शूरवीर गुरु को मिल के (उनके अंदर से) भटकना की दीवार गिर जाती है (जो परमात्मा से विछोड़े रखती थी)। (पर, हे भाई!) पूर्ण गुरु भी उनको ही मिलता है जिनके माथे पर पूर्बले जीवन के मुताबिक सारे-सारे गुणों के खजाने दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने (गुरु मिलाप का लेख) लिखा हुआ है। (ऐसे भाग्यशालियों को ये निष्चय बन जाता है कि) वह सबसे बड़ा और सृष्टि का पालनहार प्रभु ही जगत के आरम्भ में (अटल) था, जगत रचना के बीच में (अटल) है, और आखिर में (अटल) रहेगा। हे भाई! विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाले गुरु की चरण-धूल जिस मनुष्य को प्राप्त हो जाती है उसे आत्मिक अडोलता के अनेक सुख आनंद मिल जाते हैं। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य प्रभु चरणों में मिल जाता है उसका जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है।4।1।3। आसा महला ५ छंत घरु ६ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥ जा कउ भए क्रिपाल प्रभ हरि हरि सेई जपात ॥ नानक प्रीति लगी तिन्ह राम सिउ भेटत साध संगात ॥१॥ पद्अर्थ: जा कउ = जिन पर। क्रिपाल = दयावान। सेई = वह लोग। जपात = जपते हैं। सिउ = साथ। साध संगति = गुरु की संगति में।1। अर्थ: सलोकु; जिस मनुष्यों पर प्रभु जी दयावान होते हैं वही मनुष्य परमात्मा का नाम सदा जपते हैं। पर, हे नानक! गुरु की संगति में मिल के ही उनकी प्रीति परमात्मा के साथ बनती है।1। छंतु ॥ जल दुध निआई रीति अब दुध आच नही मन ऐसी प्रीति हरे ॥ अब उरझिओ अलि कमलेह बासन माहि मगन इकु खिनु भी नाहि टरै ॥ खिनु नाहि टरीऐ प्रीति हरीऐ सीगार हभि रस अरपीऐ ॥ जह दूखु सुणीऐ जम पंथु भणीऐ तह साधसंगि न डरपीऐ ॥ करि कीरति गोविंद गुणीऐ सगल प्राछत दुख हरे ॥ कहु नानक छंत गोविंद हरि के मन हरि सिउ नेहु करेहु ऐसी मन प्रीति हरे ॥१॥ पद्अर्थ: छंत: निआई = तरह। रीति = मर्यादा। अब = अब, तब। आच = सेक। मन = हे मन! हरे = हरि की। उरझिओ = फस गया। अलि = भँवरा। बासन = सुगंधि। मगन = मस्त। टरै = टालता, परे हटता। टरीऐ = हटना चाहिए। हभि = सारे। रस = स्वाद। अरपीऐ = भेट कर देने चाहिए। जह = जहाँ। पंथु = रास्ता। भणीऐ = कहा जाता है। तह = वहाँ। न डरपीऐ = नहीं डरते। कीरति = महिमा। गुणीऐ = गुणों की। प्राछत = पछतावे। हरे = दूर कर देता है। छंत = महिमा के गीत। मन = हे मन! करेहु = कर। हरे = हरि की।1। अर्थ: छंतु: हे भाई! परमात्मा और जीवात्मा के प्यार की मर्यादा पानी और दूध के प्यार जैसी है। (जब पानी दूध से एक-रूप हो जाता है) तब (पानी) दूध को सेक नहीं लगने देता। हे मन! परमात्मा का प्यार ऐसा ही है (वह जीव को विकारों का सेक नहीं लगने देता)। (जब कमल-फूल खिलता है अपनी सुगंधि बिखेरता है) तब भौरा कमल-फूल की सुगंधि में मस्त हो जाता है (कमल-फूल से) एक पल वास्ते भी परे नहीं हटता (फूल की पंखुड़ियों में) फंस जाता है। (इसी तरह हे भाई!) परमात्मा की प्रीति से एक छिन के लिए भी परे नहीं हटना चाहिए, सारे शारीरिक सुख, सारे मायावी स्वाद (उस प्रीति से) सदके कर देने चाहिए। (इसका नतीजा ये निकलता है कि) जहां जमों (के देश) का रास्ता बताया जाता है जहाँ सुनते हैं (कि जमों से) दुख (मिलता है) वहाँ गुरु की संगति करने की इनायत से कोई डर नहीं आता। सो, हे मन! परमात्मा की महिमा करता रह, वह परमात्मा सारे पछतावे सारे दुख दूर कर देता है। हे नानक! कह: (हे मन!) गोबिंद हरि की सिफतों के गीत गाता रह। परमात्मा से प्यार बनाए रख। हे मन! परमात्मा की प्रीति ऐसी है (कि विकारों का सेक नहीं लगने देती, और जमों के वश नहीं पड़ने देती)।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |