श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 473 पउड़ी ॥ सतिगुरु वडा करि सालाहीऐ जिसु विचि वडीआ वडिआईआ ॥ सहि मेले ता नदरी आईआ ॥ जा तिसु भाणा ता मनि वसाईआ ॥ करि हुकमु मसतकि हथु धरि विचहु मारि कढीआ बुरिआईआ ॥ सहि तुठै नउ निधि पाईआ ॥१८॥ पद्अर्थ: वडा करि सालाहीऐ = गुण गाएं और कहें कि गुरु बड़ा है। जिसु विचि = इस गुरु में। वडीआ वडिआईआ = बड़े ऊँचे गुण। सहि = पति प्रभु ने,शहु ने। मेले = मिलाए हैं (गुरु से जो मनुष्य)। नदरी आइआ = (उन मनुष्यों को गुरु के गुण) दिखते हैं। मसतकि = (जीव के) माथे पर। विचहु = जीव के मन में से। सहि तुठै = अगर पति प्रभु प्रसन्न हो जाए। नउनिधि = नौ ख्जाने, भाव संसार के सारे पदार्थ। पुरातन संस्कृत पुस्तकों में ‘कुबेर’ के नौ खजाने माने गए हैं; महापद्मश्च पद्मश्च, शंखो मकर कच्छपौ॥ ये ‘कुबेर’ धन का देवता और उत्तर दिशा का मालिक गिना गया है। झख और किन्नरों का राजा भी यही हैं इसका ठिकाना कैलाश पर्वत पर है। इसका शरीर बेढब्बा सा बताया गया है; तीन लातें, आठ चाँद, और एक आँख की जगह एक-एक पीला सा निशान। शब्द ‘कुबेर’ के अक्षरी अर्थ भी यही है; ‘वह जिसका शरीर कुत्सित है’– कुत्सितं बेरं शरीरं यस्य॥ पाईआ = (खजाने) मिल जाते हैं।18। अर्थ: सतिगुरु के गुण गाने चाहिए और कहना चाहिए कि गुरु बहुत बड़ा है, क्योंकि गुरु में बड़े गुण हैं। जिस मनुष्यों को प्रभु-पति ने (गुरु से) मिलाया है, उन्हें वे गुण आँखों से दिखते हैं, और अगर प्रभु चाहे तो उनके मन में भी गुण बस जाते हैं। प्रभु अपने हुक्म के मुताबिक उन मनुष्यों के माथे पे हाथ रख के उनके मन में से बुराईआं मार के निकाल देता है। अगर पति-प्रभु प्रसन्न हो जाए, तो जानो, सारे पदार्थ मिल जाते हैं।18। सलोकु मः १ ॥ पहिला सुचा आपि होइ सुचै बैठा आइ ॥ सुचे अगै रखिओनु कोइ न भिटिओ जाइ ॥ सुचा होइ कै जेविआ लगा पड़णि सलोकु ॥ कुहथी जाई सटिआ किसु एहु लगा दोखु ॥ अंनु देवता पाणी देवता बैसंतरु देवता लूणु पंजवा पाइआ घिरतु ॥ ता होआ पाकु पवितु ॥ पापी सिउ तनु गडिआ थुका पईआ तितु ॥ जितु मुखि नामु न ऊचरहि बिनु नावै रस खाहि ॥ नानक एवै जाणीऐ तितु मुखि थुका पाहि ॥१॥ पद्अर्थ: सुचै = स्वच्छ चौके में। कोइ....जाइ = (जिस भोजन को) किसी मनुष्य ने जा के अभी अपवित्र नहीं किया है। सुचे अगै रखिओनु = (वह भोजन) इस (नहा धो के आए मनुष्य) के आगे (किसी ने) रख दिया। जेविआ = खाया। लगा पढ़णि = पढ़ने लगा। कुहथी जाई = गंदी जगह पर। पाकु = पवित्र। तनु = (उन देवताओं का) शरीर। गडिआ = मिलाया। तितु = उस पर। जितु मुखि = जिस मुंह से। रस खाहि = स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं। एवै = इस तरह (जैसे ऊपर लिखे पवित्र पदार्थों पर थूकें पड़ती हैं)।1। (नोट: भूतकाल का अर्थ वर्तमान काल में करना है।) अर्थ: सबसे पहले (ब्राहमण नहा-धो के और) स्वच्छ हो के स्वच्छ चौके पर आ के बैठता है, उसके आगे (जजमान) वह भोजन ला के रखता है जिसे अब किसी ने छूआ तक नहीं था (अपवित्र नहीं किया था)। (ब्राहमण) स्वच्छ हो के उस (स्वच्छ) भोजन को खाता है, और (खा के) श्लोक पढ़ने लग पड़ता है; (पर इस पवित्र भोजन को) गंदी जगह (भाव, पेट में) डाल लेता है। (उस पवित्र भोजन को) गंदी जगह (फेंकने का) दोष किस पर आया? अन्न-पानी-आग और नमक-चारे ही देवता हैं (भाव, पवित्र पदार्थ हैं), पाँचवां घी भी पवित्र है, जो इन चारों में डाला जाता है। तो (भाव, इन पाँचों को मिलाने से) बड़ा पवित्र भोजन तैयार होता है। पर, देवताओं के इस शरीर को (भाव, इस पवित्र भोजन की) पापी (मनुष्य) से संगत होती है, जिस के कारण उस पे थूकें पड़ती हैं। हे नानक! इस तरह समझ लेना चाहिए कि जिस मुंह से मनुष्य नाम नहीं स्मरण करते, और नाम-स्मरण के बिना स्वादिष्ट पदार्थ खाते हैं, उस मुंह पर (भी) धिक्कारें पड़ती हैं।1। मः १ ॥ भंडि जमीऐ भंडि निमीऐ भंडि मंगणु वीआहु ॥ भंडहु होवै दोसती भंडहु चलै राहु ॥ भंडु मुआ भंडु भालीऐ भंडि होवै बंधानु ॥ सो किउ मंदा आखीऐ जितु जमहि राजान ॥ भंडहु ही भंडु ऊपजै भंडै बाझु न कोइ ॥ नानक भंडै बाहरा एको सचा सोइ ॥ जितु मुखि सदा सालाहीऐ भागा रती चारि ॥ नानक ते मुख ऊजले तितु सचै दरबारि ॥२॥ पद्अर्थ: भंडु = स्त्री। भंडि = स्त्री से। जंमीऐ = पैदा होते हैं। निंमीऐ = प्राणी का शरीर बनता है। मंगणु = मंगनी। भंडहु = स्त्री के द्वारा। राहु = (संसार की उत्पक्ति का) रास्ता। भालीऐ = ढूँढते हैं, और स्त्री की तलाश करते हैं। बंधानु = रिश्तेदारी। जितु = जिस स्त्री से। भंडहु ही भंडु = स्त्री से स्त्री। सालाहीऐ = प्रभु की महिमा करें। भागा रती चारि = भाग्यों की चार रक्तियां, भाग्यों की मणी, भाव, अच्छे भाग्यों के कारण वह सुख सोहाना लगता है।2। अर्थ: स्त्री से जनम लेते हैं, स्त्री (के पेट) में ही प्राणी का शरीर बनता है। स्त्री के (ही) द्वारा मंगनी और विवाह होता है। स्त्री के द्वारा (और लोगों से) संबंध बनता है और स्त्री से ही (जगत की उत्पक्ति का) रास्ता चलता है। अगर स्त्री मर जाए तो और स्त्री की तलाश करते हैं, स्त्री से ही (औरों से) रिश्तेदारी बनती है। जिस स्त्री (जाति) से राजा (भी) पैदा होते हैं, उसे बुरा कहना ठीक नहीं है। स्त्री से ही स्त्री पैदा होती है (जगत में) कोई भी जीव-स्त्री के बिना पैदा नहीं हो सकता। हे नानक! केवल एक सच्चा प्रभु ही है, जो स्त्री से पैदा नहीं हुआ। (चाहे मनुष्य हो, चाहे स्त्री, जो भी) अपने मुंह से सदा प्रभु के गुण गाता है, उसके माथे पे भाग्यों की मणि है, भाव उनका माथा भाग्योंशाली है। हे नानक! वही मुख उस सच्चे प्रभु के दरबार में सुंदर लगते हैं। नोट: शब्द ‘भंड’ व्याकरण के अनुसार पुलिंग है। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’। पउड़ी ॥ सभु को आखै आपणा जिसु नाही सो चुणि कढीऐ ॥ कीता आपो आपणा आपे ही लेखा संढीऐ ॥ जा रहणा नाही ऐतु जगि ता काइतु गारबि हंढीऐ ॥ मंदा किसै न आखीऐ पड़ि अखरु एहो बुझीऐ ॥ मूरखै नालि न लुझीऐ ॥१९॥ पद्अर्थ: आखै आपणा = (हरेक जीव) कहता है, ‘ये मेरी अपनी चीज है’ भाव, हरेक जीव को ममता है। जिसु नाही = जिसको ममता नहीं है। संढीऐ = भरते हैं। ऐत जगि = इस जगत में। काइत = क्यों? गारबि = अहंकार में। हंढीऐ = खपते हैं। लुझीऐ = झगड़ें।19। अर्थ: जगत में हरेक जीव को ममता लगी हुई है। जिसे ममता नहीं वह चुन के अलग दिखा दो, भाव, कोई विरला ही है जिसे ममता नहीं है। अपने-अपने किए कर्मों का लेखा खुद ही भरना पड़ता है। जब इस जगत में सदा रहना ही नहीं है, तो क्यूँ अहंकार में खपना? (भाव, उपदेश) पढ़ के समझ लें कि किसी को भी बुरा नहीं कहना चाहिए और मूर्ख के साथ उलझना नहीं चाहिए।19। सलोकु मः १ ॥ नानक फिकै बोलिऐ तनु मनु फिका होइ ॥ फिको फिका सदीऐ फिके फिकी सोइ ॥ फिका दरगह सटीऐ मुहि थुका फिके पाइ ॥ फिका मूरखु आखीऐ पाणा लहै सजाइ ॥१॥ पद्अर्थ: फिकै बोलीऐ = अगर फीके वचन बोलें। फिको = फीका ही। फिको फिका = रूखे वचन बोलने वाले मनुष्य को रूखा ही कहा जाता है, भाव, जो मनुष्य रूखे वचन बोले, उसकी बाबत ये कहते हैं कि वह रूखा है। फिके = रूखे वचन बोलने वाले मनुष्य की। सोइ = शोभा, लोगों की राय। पाणा = जुतीयां।1। अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य रूखे वचन बोलता रहे, तो उसका तन और मन दोनों रूखे हो जाते हैं (भाव, मनुष्य के अंदर से प्रेम खत्म हो जाता है)। रूखा बोलने वाला लोगों में रूखा ही मशहूर हो जाता है औरलोग भी उसे रूखे वचन से सदा याद करते हैं। रूखा (भाव, प्रेम से वंचित) मनुष्य (प्रभु की) दरगाह में रद्द हो जाता है और उसके मुंह पर थूकें ही पड़ती हैं (भाव, धिक्कारें ही पड़ती हैं)। (प्रेम हीन) रूखे मनुष्य को मूर्ख कहना चाहिए, प्रेम से वंचित को जूतियों की मार पड़ती है (भाव, हर जगह उसकी सदा बेइज्जती होती है)।1। मः १ ॥ अंदरहु झूठे पैज बाहरि दुनीआ अंदरि फैलु ॥ अठसठि तीरथ जे नावहि उतरै नाही मैलु ॥ जिन्ह पटु अंदरि बाहरि गुदड़ु ते भले संसारि ॥ तिन्ह नेहु लगा रब सेती देखन्हे वीचारि ॥ रंगि हसहि रंगि रोवहि चुप भी करि जाहि ॥ परवाह नाही किसै केरी बाझु सचे नाह ॥ दरि वाट उपरि खरचु मंगा जबै देइ त खाहि ॥ दीबानु एको कलम एका हमा तुम्हा मेलु ॥ दरि लए लेखा पीड़ि छुटै नानका जिउ तेलु ॥२॥ पद्अर्थ: पैज = पाज, दिखावे की इज्ज्त। फैलु = फैलसूफी, दिखावा। ते = वह मनुष्य। सेती = से। देखने वीचारि = ईश्वर को देखने के ध्यान में (जुड़े रहते हैं)। किसै केरी = किसी की। नाह = पति (देखें शलोक 3 पउड़ी 1)। वाट उपरि = राह में, जिंदगी रूपी रास्ते पर। खरचु मंगा = (नाम रूपी) खाना ही मांगते हैं। देइ = (प्रभु) देता है। दीबानु = अदालत। कलम = भाव, लेखा लिखने वाला (हरि खुद ही फैसला करने वाला और खुद ही लिखने वाला है)। हमा तुमा मैलु = सारे अच्छे बुरे जीवों का मेला (प्रभु के दर पर होगा)। जिउ तेलु = जैसे तेल पीढ़ते हैं, जैसे पीढ़ के तेल निकाला जाता है।2। अर्थ: जो मनुष्य मन से तो झूठे हैं, पर बाहर से झूठी इज्जत बनाए बैठे हैं, और जगत में दिखावा बनाए रखते हैं, वे चाहे अठारह तीर्थों पर (जा के) स्नान करें, उनके मन की कपट की मैल नहीं उतरती। जिस मनुष्यों के अंदर (कोमलता और प्रेम रूपी) पुट है, पर बाहर (रूखापन रूपी) गुदड़ी है, जगत में वह बंदे नेक हैं; उनका रब के साथ नेह लगा हुआ है और वह ईश्वर का दीदार करने के विचार में ही (सदा जुड़े रहते हैं)। वह मनुष्य प्रभु के प्यार में (रंगे हुए कभी) हसते हैं, प्रेम में ही (कभी) रोते हैं, और प्रेम में ही (कभी) चुप भी कर जाते हैं (भाव, प्रेम में ही मस्त रहते हैं); उन्हें सच्चे पति (प्रभु) के बिना किसी और की अधीनता नहीं होती। जिंदगी-रूपी राह पर पड़े हुए वह मनुष्य ईश्वर के दर से ही नाम-रूपी खुराक मांगते हैं, जब ईश्वर देता है तब खाते हैं। हे नानक! (उन्हें ये बात दृढ़ है) कि प्रभु खुद ही फैसला करने वाला है और खुद ही लेखा लिखने वाला है, सारे अच्छे-बुरे जीवों का मेला उसी के दर पर होता है; प्रभु सबसे (किए कर्मों का) लेखा मांगता है और बुरे मनुष्यों को ऐसे पीढ़ता है जैसे तेल। (भाव, उनके बुरे संस्कार अंदर से निकालने के लिए उन्हें दुख रूपी कोल्हू में डाल के पीढ़ता है)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |