श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आठ पहर हरि के गुन गावै भगति प्रेम रसि माता ॥ हरख सोग दुहु माहि निराला करणैहारु पछाता ॥२॥

पद्अर्थ: गावै = गाता है। रसि = स्वाद में। माता = मस्त। हरख = खुशी। सोग = ग़मी। दुहु माहि = दोनों में। निराला = (निर+आलय। आलय = घर) अलग, निर्लिप।2।

नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु जी दयावान होते हैं, वह) परमात्मा की भक्ति और प्यार के स्वाद में मस्त हो के आठों पहर परमात्मा के गुण गाता रहता है। (इस तरह) वह खुशी और ग़मी दोनों से निर्लिप रहता है, वह सदा विधाता-प्रभु के साथ सांझ डाले रखता है।2।

जिस का सा तिन ही रखि लीआ सगल जुगति बणि आई ॥ कहु नानक प्रभ पुरख दइआला कीमति कहणु न जाई ॥३॥१॥९॥

पद्अर्थ: सा = था। तिन ही = उसी (प्रभु) ने ही। जुगति = जीवन मर्यादा।3।

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘ि’ क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है।

अर्थ: (हे भाई! प्रभु की दया से) जो मनुष्य उस प्रभु का ही सेवक बन जाता है, वह प्रभु ही उसको माया के बंधनों से बचा लेता है, उस मनुष्य की सारी जीवन-मर्यादा सदाचारी बन जाती है।

हे नानक! कह: सर्व-व्यापक प्रभु जी (अपने सेवकों पर सदैव) दयावान रहते हैं। प्रभु की दयालता का मूल्य नहीं बताया जा सकता।3।1।9।

नोट: शीर्षक में लिखा है ‘तिपदे’ (तीन बंदों वाले शब्द-बहुवचन)। पर, यहाँ सिर्फ यही एक ‘तिपदा’ दर्ज है।

गूजरी महला ५ दुपदे घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पतित पवित्र लीए करि अपुने सगल करत नमसकारो ॥ बरनु जाति कोऊ पूछै नाही बाछहि चरन रवारो ॥१॥

पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए लोग। लीए करि = बना लिए। बरनु = (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण। कोऊ = कोई भी। बाछहि = चाहते हैं, मांगते हैं। रवारो = धूल।1।

अर्थ: हे भाई! विकारों में गिरे हुए जिस लोगों को पवित्र करके परमात्मा अपने (दास) बना लेता है, सारी दुनिया उनके आगे सिर झुकाती है। कोई नहीं पूछता उनका वर्ण कौन सा है उनकी जाति क्या है। सब लोग उनके चरणों की धूल मांगते हैं।1।

ठाकुर ऐसो नामु तुम्हारो ॥ सगल स्रिसटि को धणी कहीजै जन को अंगु निरारो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ठाकुर = हे ठाकुर! ऐसो = एसी सामर्थ्य वाला। धणी = मालिक। कहीजै = कहलवाता है। जन को = दास का। अंगु = पक्ष। निरारो = निराला, अनोखा।1। रहाउ।

अर्थ: हे मालिक प्रभु! तू अपने येवक का अनोखा ही पक्ष करता है, तेरा नाम आश्चर्यजनक शक्ति वाला है (तेरे नाम की इनायत से तेरा सेवक) सारी दुनिया का मालिक कहलवाने लग पड़ता है।1। रहाउ।

साधसंगि नानक बुधि पाई हरि कीरतनु आधारो ॥ नामदेउ त्रिलोचनु कबीर दासरो मुकति भइओ चमिआरो ॥२॥१॥१०॥

पद्अर्थ: बुधि = सद् बुद्धि। आधारो = आसरा। दासरो = निमाणा सा सेवक। मुकति = विकारों से खलासी। चंमिआरो = रविदास चमार।2।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य साधु-संगत में आ के (सद्) बुद्धि प्राप्त कर लेता है, परमात्मा की महिमा उसकी जिंदगी का आसरा बन जाती है। (महिमा की इनायत से ही) नामदेव, त्रिलोचन, कबीर, रविदास चमार- हरेक ने (माया के बंधनों से) निजात प्राप्त कर ली।2।1।10।

गूजरी महला ५ ॥ है नाही कोऊ बूझनहारो जानै कवनु भता ॥ सिव बिरंचि अरु सगल मोनि जन गहि न सकाहि गता ॥१॥

पद्अर्थ: कोऊ = कोई भी। बूझनहारो = समझने की सामर्थ्य वाला। कवनु = कौन? भता = भांति, किस्म। बिरंचि = ब्रहमा। अरु = और। गहि न साकहि = पकड़ नहीं सकते। गता = गति, हालत।1।

अर्थ: हे भाई! कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जो परमात्मा के सही रूप को समझने की ताकत रखता हो। कौन जान सकता है कि वह कैसा है? शिव, ब्रहमा और सारे ऋषी मुनी भी उस परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझ सकते।1।

प्रभ की अगम अगाधि कथा ॥ सुनीऐ अवर अवर बिधि बुझीऐ बकन कथन रहता ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = गहरी। सुनीऐ = सुना जाता है। अवर बिधि = और तरीके। बुझीऐ = समझा जाता है। रहता = परे, बगैर।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा कैसा है: इस बात की समझ मनुष्य (की समझ) से परे है (मनुष्यी समझ के लिए) बहुत गहरी है। (उसके स्वरूप के बारे में लोगों से) सुनते कुछ और हैं, और समझते किसी और तरह हैं, क्योंकि (उसका स्वरूप) बताने से बयान करने से बाहर है।1। रहाउ।

आपे भगता आपि सुआमी आपन संगि रता ॥ नानक को प्रभु पूरि रहिओ है पेखिओ जत्र कता ॥२॥२॥११॥

पद्अर्थ: आपे = स्वयं। संगि = साथ। रता = मस्त। को = का। जत्र कता = जहाँ तहां, हर जगह।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपना) भक्त है, खुद ही मालिक हैं, खुद ही अपने आप में मस्त है (क्योंकि, हे भाई!) नानक का परमात्मा सारे संसार में व्यापक है, (नानक ने) उसको हर जगह देखा है।2।2।11।

गूजरी महला ५ ॥ मता मसूरति अवर सिआनप जन कउ कछू न आइओ ॥ जह जह अउसरु आइ बनिओ है तहा तहा हरि धिआइओ ॥१॥

पद्अर्थ: मता = सलाह। मसूरति = मश्वरा। अवर = और। जन = दास, सेवक। जह जह = जहाँ जहाँ। अउसरु = समय, मौका।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक को कोई सलाह मश्वरा, कोई समझदारी वाली बात- यह सब कुछ भी नहीं जरूरत। जहाँ-जहाँ (कोई मुश्किल) आ बनती है, वहाँ वहाँ (परमात्मा का सेवक) परमात्मा का ही ध्यान धरता है।1।

प्रभ को भगति वछलु बिरदाइओ ॥ करे प्रतिपाल बारिक की निआई जन कउ लाड लडाइओ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ को बिरदाइओ = प्रभु का बिरद, परमात्मा की आदि कदीमों का स्वभाव। भगति वछलु = भक्ति (करने वालों) का प्यार। प्रतिपाल = पालना, रक्षा। बारिक = बालक, बच्चा। निआई = जैसा। कउ = को।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का मूल-कदीमी स्वभाव है कि वह भक्ति (करने वालों) का प्यारा है। वह (सबकी) बच्चों की तरह पालना करता है, और अपने सेवक को लाड लडाता है।1। रहाउ।

जप तप संजम करम धरम हरि कीरतनु जनि गाइओ ॥ सरनि परिओ नानक ठाकुर की अभै दानु सुखु पाइओ ॥२॥३॥१२॥

पद्अर्थ: संजम = इन्द्रियों को वश करने के प्रयत्न। जप = (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए खास मंत्रों के) जाप। तप = धूणियां तपाना। करम धरम = (शास्त्रों के अनुसार निहित) धार्मिक कर्म। जनि = जन ने, सेवक ने। अभै दानु = निर्भैता की दाति।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक ने (सदा) परमात्मा के महिमा का ही गीत गाया है, (सेवक के लिए ये महिमा ही) जप-तप है, संजम है, और (निहित) धार्मिक कर्म है। हे नानक! परमात्मा का सेवक परमात्मा की ही शरण पड़ा रहता है, (प्रभु के दर से ही वह) निडरता की दाति प्राप्त करता है, आत्मिक आनंद हासिल करता है।2।3।12।

गूजरी महला ५ ॥ दिनु राती आराधहु पिआरो निमख न कीजै ढीला ॥ संत सेवा करि भावनी लाईऐ तिआगि मानु हाठीला ॥१॥

पद्अर्थ: पिआरो = प्यारे (हरि) को। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ढीला = ढील। संत = गुरु। करि = कर के। भावनी = श्रद्धा। लाईऐ = बनानी चाहिए। तिआगि = त्याग के। हाठीला = हठ।1।

अर्थ: हे भाई! उस प्यारे हरि को हर समय दिन-रात स्मरण करते रहा करो, आँख झपकने जितने समय के लिए भी (इस काम में) ढील नहीं करनी चाहिए। (हे भाई! अपने मन में से) अहंकार और हठ त्याग के, गुरु की बताई हुई सेवा करके (परमात्मा के चरणों में) श्रद्धा बनानी चाहिए।1।

मोहनु प्रान मान रागीला ॥ बासि रहिओ हीअरे कै संगे पेखि मोहिओ मनु लीला ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सोहनु = सुंदर प्रभु। प्रान मान = प्राणों पर गर्व। रागीला = रंगीला, सदा खुश मिजाज। हीअरे कै संगे = (मेरे) हृदय के साथ। हीअरा = हृदय। पेखि = देख के। लीला = करिश्मा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सुंदर हरि सदा खुश स्वभाव वाला है, मेरे प्राणों का माण है। वह सुंदर हरि (सदा) मेरे हृदय के साथ बस रहा है, मेरा मन उसके करिश्में देख-देख के मस्त हो रहा है।1। रहाउ।

जिसु सिमरत मनि होत अनंदा उतरै मनहु जंगीला ॥ मिलबे की महिमा बरनि न साकउ नानक परै परीला ॥२॥४॥१३॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। (शब्द ‘मनु’ और ‘मनि’ में फर्क देखें)। मनहु = मन से। जंगीला = जंगाल, मैल। मिलबे की = (उस परमात्मा को) मिलने की। महिमा = बड़ाई। साकउ = सकूँ।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा का स्मरण करने से मन में आनंद पैदा होता है, और मन में से (विकारों की) मैल उतर जाती है, उसके चरणों में जुड़ने की महानता मैं बयान नहीं कर सकता, महानता परे से परे है (परला छोर नहीं ढूँढ सकता)।2।4।13।

गूजरी महला ५ ॥ मुनि जोगी सासत्रगि कहावत सभ कीन्हे बसि अपनही ॥ तीनि देव अरु कोड़ि तेतीसा तिन की हैरति कछु न रही ॥१॥

पद्अर्थ: मुनि = समाधि लगा के चुप टिके रहने वाले। जोगी = योगाभ्यास करने वाले। सासत्रगि = शास्त्रज्ञ, शास्त्रों के जानने वाले। कहावत = कहलाते हैं। बसि = वश में। कीने = किए हैं। तीनि देव = ब्रहमा विष्णु शिव। अरु = और। कोड़ि = करोड़। हैरति = हैरानगी।1।

अर्थ: कोई अपने आप को मुनि कहलवाते हैं, कोई शास्त्र-वेत्ता कहलवाते हैं; इन सभी को प्रबल माया ने अपने वश में किया हुआ है। (ब्रहमा-विष्णु-शिव ये बड़े) तीन देवते और (बाकी के) तैंतीस करोड़ देवते- (माया का इतना बल देख के) इन सब की हैरानगी की कोई सीमा ना रह गई।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh