श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 501 कउडी कउडी जोरत कपटे अनिक जुगति करि धाइओ ॥ बिसरत प्रभ केते दुख गनीअहि महा मोहनी खाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: जोरत = जोड़ते हुए, इकट्ठे करते हुए। कपटे = धोखे से। जुगति = ढंग। धाइओ = भटकता फिरा। केते = कितने? गनीअहि = गिने जा सकते हैं। महा मोहनी = मन को ठगने वाली सबसे बड़ी (माया)। खाइओ = आत्मिक जीवन को खा गई।1। अर्थ: ठगी से एक-एक कौड़ी करके माया एकत्र करता रहता है अनेक ढंग-तरीके बरत के माया की खातिर दौड़ता फिरता है। परमात्मा का नाम भुलाने के कारण इसे अनेक ही दुख आ घेरते हैं। मन को मोह लेने वाली प्रबल माया इसके आत्मिक जीवन को खा जाती है।1। करहु अनुग्रहु सुआमी मेरे गनहु न मोहि कमाइओ ॥ गोबिंद दइआल क्रिपाल सुख सागर नानक हरि सरणाइओ ॥२॥१६॥२५॥ नोट: शब्द ‘लाइओ, गाइओ’ आदि भूतकाल को वर्तमान काल में समझना है। पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। सुआमी = हे स्वामी! गनहु न = ना गिनो, ना विचारो। मोहि कमाइओ = मेरे किए कर्मों को।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे गोबिंद! हे दयालु! हे कृपालु! हे सुखों के समुंदर! हे हरि! मैं तेरी शरण आया हूँ। हे मेरे मालिक! मेरे पर मेहर कर, मेरे किए कर्मों की तरफ ध्यान ना करना।2।16।25। गूजरी महला ५ ॥ रसना राम राम रवंत ॥ छोडि आन बिउहार मिथिआ भजु सदा भगवंत ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ (से)। रवंत = जपता रह। छोडि = छोड़ के। मिथिआ = झूठे, नाशवान। आन = और। भगवंत = भगवान।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपनी जीभ से सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रह। और झूठे व्यवहारों (के मोह) को छोड़ के सदा भगवान का भजन करा कर।1। रहाउ। नामु एकु अधारु भगता ईत आगै टेक ॥ करि क्रिपा गोबिंद दीआ गुर गिआनु बुधि बिबेक ॥१॥ पद्अर्थ: आधारु = आसरा। ईत = इस लोक में। आगै = परलोक में। टेक = सहारा। गोबिंद = हे गोबिंद! गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बिबेक बुधि = अच्छे बुरे कर्म परख करने वाली बुद्धि।1। अर्थ: हे गोबिंद! जिस अपने भक्तों को तूने कृपा करके गुरु का ज्ञान बख्शा है, और अच्छे-बुरे की परख कर सकने वाली बुद्धि दी है, तेरा नाम ही उनकी जिंदगी का आसरा बन गया है, इसलोक और परलोक में उनको तेरा ही सहारा है।1। करण कारण सम्रथ स्रीधर सरणि ता की गही ॥ मुकति जुगति रवाल साधू नानक हरि निधि लही ॥२॥१७॥२६॥ पद्अर्थ: करण = जगत। कारणु = मूल। सम्रथ = सारी ही ताकतों वाला। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी पति। ता की = उस (हरि) की। गही = पकड़ी। मुकति जुगति = माया के मोह से खलासी का साधन, मुक्ति की जुगती। रवाल साधू = गुरु की चरण धूल। निधि = खजाना। लही = मिल गई।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) मायावी बंधनों से निजात पाने का तरीका (सिर्फ) गुरु की चरण-धूल है, गुरु की शरण पड़ने वाले ने ही परमात्मा का नाम-खजाना हासिल किया है, और, उस परमात्मा की शरण ली है जो सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है, जो लक्ष्मी का पति है।2।17।26। गूजरी महला ५ घरु ४ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ छाडि सगल सिआणपा साध सरणी आउ ॥ पारब्रहम परमेसरो प्रभू के गुण गाउ ॥१॥ पद्अर्थ: चउपदे = चार बंदों वाले शब्द। सगल = सारी ही। साध = गुरु।1। अर्थ: (हे मन! जीवन-जुगति प्राप्त करने के लिए अपनी) सारी ही समझदारियां छोड़ दे, गुरु का आसरा ले (गुरु की शिक्षा पर चल के) परमेश्वर पारब्रहम प्रभु के गुण गाता रहा कर।1। रे चित चरण कमल अराधि ॥ सरब सूख कलिआण पावहि मिटै सगल उपाधि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चरण कमल = सुंदर कोमल चरण (कमल फूल के जैसे)। उपाधि = रोग।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों की आराधना किया कर, सारे सुख आनंद हासिल कर लेगा, (नाम-जपने की इनायत से) हरेक रोग मिट जाता है।1। रहाउ। मात पिता सुत मीत भाई तिसु बिना नही कोइ ॥ ईत ऊत जीअ नालि संगी सरब रविआ सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: सुत = पुत्र। ईत ऊत = इस लोक में और परलोक में। जीअ नालि = जीअ के साथ जिंद के साथ। रविआ = व्यापक।2। अर्थ: हे मन! माता-पिता-पुत्र-मित्र-भाई, परमात्मा के बिना कोई भी (साथ निभने वाला साथी) नहीं है। जो परमात्मा सारी सृष्टि में व्यापक है वही इस लोक और परलोक में जीव के साथ रहने वाला साथी है।2। कोटि जतन उपाव मिथिआ कछु न आवै कामि ॥ सरणि साधू निरमला गति होइ प्रभ कै नामि ॥३॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। मिथिआ = व्यर्थ। कामि = काम में। निरमला = पवित्र। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। नामि = नाम में जुड़ने से।3। अर्थ: (हे मन! आत्मिक पवित्रता के वास्ते गुरु की शरण के बिना और) करोड़ों ही प्रयत्न और उपाय व्यर्थ हैं, (पवित्रता के लिए इनमें से) कोई भी काम नहीं आ सकता। गुरु की शरण पड़ने से ही मनुष्य पवित्र जीवन वाला हो सकता है, परमात्मा के नाम में जुड़ने से ही उच्च आत्मिक अवस्था बन सकती है।3। अगम दइआल प्रभू ऊचा सरणि साधू जोगु ॥ तिसु परापति नानका जिसु लिखिआ धुरि संजोगु ॥४॥१॥२७॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सरणि साधू जोगु = गुरमुखों को अपनी शरण में रखने की सामर्थ्य वाला। जिसु लिखिआ = जिसके माथे पर लिखा। धुरि = धुर दरगाह से। संजोगु = मिलाप।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) अगम्य (पहुँच से परे) दयावान परमात्मा सब (व्यक्तियों) से ऊँचा है, गुरमुखों को अपनी शरण में रखने (व उपाधियों-व्याधियों से बचाने) की सामर्थ्य वाला है। पर वह परमात्मा उसी मनुष्य को मिल सकता है जिसके माथे पर धुर-दरगाह से मिलाप का संजोग लिखा होता है।4।1।27। गूजरी महला ५ ॥ आपना गुरु सेवि सद ही रमहु गुण गोबिंद ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि लहि जाइ मन की चिंद ॥१॥ पद्अर्थ: गुरु सेवि = गुरु की शरण पड़ के। सद = सदा। रमहु = याद करता रह। सासि सासि = हरेक सांस से। चिंद = चिन्ता।1। अर्थ: हे भाई! अपने गुरु की शरण पड़ के सदा ही गोविंद के गुण गाता रह, अपनी हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करता रह, तेरे मन की हरेक चिन्ता दूर हो जाएगी।1। मेरे मन जापि प्रभ का नाउ ॥ सूख सहज अनंद पावहि मिली निरमल थाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। मिली = मिला रहेगा। निरमल = पवित्र रखने वाला।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम जपता रह (नाम-जपने की इनायत से) सुख, आत्मिक अडोलता, आनंद प्राप्त करेगा, तुझे वह जगह मिली रहेगी जो तुझे हमेशा स्वच्छ रख सके।1। रहाउ। साधसंगि उधारि इहु मनु आठ पहर आराधि ॥ कामु क्रोधु अहंकारु बिनसै मिटै सगल उपाधि ॥२॥ पद्अर्थ: संगि = संगत में। उधारि = (विकारों से) बचा ले। उपाधि = रोग।2। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के अपने इस मन को (विकारों से) बचाए रख, आठों पहर परमात्मा की आराधना करता रह, (तेरे अंदर से) काम-क्रोध-अहंकार नाश हो जाएगा, तेरा हरेक रोग दूर हो जाएगा।2। अटल अछेद अभेद सुआमी सरणि ता की आउ ॥ चरण कमल अराधि हिरदै एक सिउ लिव लाउ ॥३॥ पद्अर्थ: अछेद = अविनाशी। अभेद = गहरा, जिसका भेद ना पाया जा सके। लिव = लगन।3। अर्थ: हे भाई! उस मालिक प्रभु की शरण में टिका रह जो सदा कायम रहने वाला है जो नाश-रहित है जिसका भेद नहीं पाया जा सकता। हे भाई! अपने हृदय में प्रभु के सुंदर कोमल चरणों की आराधना किया कर, परमात्मा के चरणों में प्यार डाले रख।3। पारब्रहमि प्रभि दइआ धारी बखसि लीन्हे आपि ॥ सरब सुख हरि नामु दीआ नानक सो प्रभु जापि ॥४॥२॥२८॥ पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। प्रभि = प्रभु ने। नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे भाई! पारब्रहम प्रभु ने जिस मनुष्यों पर मेहर की उनको उसने स्वयं बख्श लिया (उनके पिछले पाप क्षमा कर दिए) उनको उसने सारे सुखों का खजाना अपना हरि-नाम दे दिया। हे नानक! (कह: हे भाई!) तू भी उस प्रभु का नाम जपा कर।4।2।28। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |