श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 503 सतिगुर सेवि लगे हरि चरनी वडै भागि लिव लागी ॥ कवल प्रगास भए साधसंगे दुरमति बुधि तिआगी ॥२॥ पद्अर्थ: सेवि = सेवा करके, शरण पड़ के। भागि = किस्मत से। लिव = लगन। कवल = हृदय कमल। संगे = संगति में। दुरमति = खोटी मति वाली।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य बड़ी किस्मत से गुरु की शरण पड़ कर प्रभु चरणों में जुड़ते हैं, उनकी लगन (परमात्मा के साथ) लग जाती है, गुरु की संगति में रहके उनके हृदय कमल-फूल की तरह खिल जाते हैं, वह खोटी मति वाली बुद्धि त्याग देते हैं।2। आठ पहर हरि के गुण गावै सिमरै दीन दैआला ॥ आपि तरै संगति सभ उधरै बिनसे सगल जंजाला ॥३॥ पद्अर्थ: गावै = गाता है। दैआला = दया का घर। उधरै = (संसार समुंदर से) पार लांघ जाती है। जंजाला = बंधन।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य आठों पहर परमात्मा के गुण गाता है, दीनों पर दया करने वाले का नाम स्मरण करता है, वह खुद (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाता है, उसके सारे मायावी बंधन नाश हो जाते हैं।3। चरण अधारु तेरा प्रभ सुआमी ओति पोति प्रभु साथि ॥ सरनि परिओ नानक प्रभ तुमरी दे राखिओ हरि हाथ ॥४॥२॥३२॥ पद्अर्थ: अधारु = आसरा। ओति = उने (बुने) हुए में। पोति = परोए हुए में। ओति पोति = जैसे ताने पेटे के धागे आपस में मिले होते हैं। प्रभू = मालिक। दे = दे के। हरि = हे हरि!।4। अर्थ: हे प्रभु! हे स्वामी! जिस मनुष्य ने तेरे चरणों को अपनी जिंदगी का सहारा बना लिया, तू मालिक! ताणे-पेटे की तरह सदा उसके साथ रहता है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी शरण आ पड़ा, हे हरि! तू उसको अपना हाथ दे के (संसार-समुंदर से) बचाता है।4।32। नोट: ये 32 शब्द सिर्फ महला ५ के हैं।
गूजरी असटपदीआ महला १ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ एक नगरी पंच चोर बसीअले बरजत चोरी धावै ॥ त्रिहदस माल रखै जो नानक मोख मुकति सो पावै ॥१॥ पद्अर्थ: एक नगरी = एक ही (शरीर) शहर में। पंच = पाँच। बसीअले = बसे हुए हैं। बरजत = रोकते रोकते, वर्जते हुए भी। धावै = (हरेक चोर चोरी करने के लिए) दौड़ पड़ता है। त्रिह = माया के तीन गुण। दस = इंद्रिय। माल = संपत्ति, धन-दौलत। नानक = हे नानक! सो = वह मनुष्य।1। अर्थ: इस एक ही (शरीर-) नगर में (कामादिक) पाँच चोर बसे हुए हैं, मना करते-करते भी (इनमें से हरेक इस नगर के आत्मिक गुणों को) चुराने के लिए उठ दौड़ता है। (परमात्मा को अपने हृदय में बसा के) जो मनुष्य (इन पाँचों से) माया के तीन गुणों से और दस इन्द्रियों से (अपने आत्मिक गुणों की) पूंजी बचा के रखता है, हे नानक! वह (इनसे) सदा के लिए निजात प्राप्त कर लेता है।1। चेतहु बासुदेउ बनवाली ॥ रामु रिदै जपमाली ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बासुदेउ = सर्व व्यापक प्रभु! बनमाली = सारी बनस्पती जिसकी माला है, परमात्मा। रिदै = हृदय में। जप माली = माला।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सर्व-व्यापक जगत के मालिक परमात्मा को सदा याद रखो। प्रभु को अपने हृदय में टिकाओ- (इसको अपनी) माला (बनाओ)।1। रहाउ। उरध मूल जिसु साख तलाहा चारि बेद जितु लागे ॥ सहज भाइ जाइ ते नानक पारब्रहम लिव जागे ॥२॥ पद्अर्थ: उरध मूल = (जो) ऊँची जड़ वाली (है) वह माया जिसका मूल-प्रभु माया के प्रभाव से ऊपर है। जिसु = जिस माया की। साख = टहनियां, पसारा। तलाहा = नीचे की ओर, माया के असर तहत। जितु = जिस (माया) में, जिस (माया के बल के जिक्र) में। सहज भाइ = सहजे ही। जाइ = चली जाती है, परे हट जाती है। ते = (क्योंकि) वह लोग। जागे = जागते रहते हैं, सुचेत रहते हैं।2। अर्थ: जिस माया का मूल प्रभु, माया के प्रभाव से ऊपर है, जगत पसारा जिस माया के प्रभाव से नीचे है, चारों वेद जिस (माया के बल के वर्णन) में लगे रहे हैं, वह माया सहजे ही (उन लोगों से) परे हट जाती है (जो परमात्मा को अपने हृदय में बसाते हैं, क्योंकि) वह लोग, हे नानक! परमात्मा (के चरणों) में तवज्जो जोड़ के (माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं।2। पारजातु घरि आगनि मेरै पुहप पत्र ततु डाला ॥ सरब जोति निरंजन स्मभू छोडहु बहुतु जंजाला ॥३॥ पद्अर्थ: पारजातु = स्वर्ग का एक वृक्ष जो सारी ही कामनाएं पूरी करने के समर्थ माना गया है, सर्व इच्छा पूरक प्रभु। घरि = घर में, हृदय में। आगनि = आँगन में। पुहप = फूल। ततु = सारे जगत का मूल। संभू = स्वयं भु, अपने आप से जन्मा हुआ।3। अर्थ: (ये सारा जगत जिस पारजात-प्रभु) फूल-पत्तियां-डालियां आदि पसारा है, जो प्रभु सारे जगत का मूल है, जिसकी ज्योति सब जीवों में पसर रही है, जो माया के प्रभाव से परे है, जिसका प्रकाश अपने आप से है, वह (सर्व-इच्छा-पूरक) पारजात (-प्रभु) मेरे हृदय आँगन में प्रगट हो गया है (और मेरे अंदर से माया वाले जंजाल समाप्त हो गए हैं)। (हे भाई! तुम भी परमात्मा को अपने हृदय में बसाओ, इस तरह) माया के बहुते जंजाल छोड़ सकोगे।3। सुणि सिखवंते नानकु बिनवै छोडहु माइआ जाला ॥ मनि बीचारि एक लिव लागी पुनरपि जनमु न काला ॥४॥ पद्अर्थ: सिखवंते = हे शिक्षा लेने वाले! मनि = मन में। बीचारि = विचार में। पुनरपि = (पुनः अपि) बार बार। काला = काल, मौत।4। अर्थ: हे (मेरी) शिक्षा सुनने वाले भाई! जो विनती नानक करता है वह सुन- (अपने हृदय में परमात्मा का नाम धारण कर, इस तरह तू) माया के बंधन त्याग सकेगा। जिस मनुष्य के मन में सोच-मण्डल में परमात्मा की लगन लग जाती है वह बार-बार जनम-मरण (के चक्कर) में नहीं आता।4। सो गुरू सो सिखु कथीअले सो वैदु जि जाणै रोगी ॥ तिसु कारणि कमु न धंधा नाही धंधै गिरही जोगी ॥५॥ पद्अर्थ: कथीअले = कहा जाता है। वैदु = हाकम। तिसु कारणि = उस (प्रभु के स्मरण) की इनायत से। धंधै = धंधे में, जंजाल में। गिरही = गृहस्थी।5। अर्थ: (जिस मनुष्य ने परमात्मा को हृदय में बसा लिया है) वह गुरु कहा जा सकता है, वह (असल) सिख कहा जा सकता है, वह (असल) वैद्य कहा जा सकता है क्योंकि वह अन्य (आत्मिक) रोगियों का रोग समझ लेता है। परमात्मा के नाम-जपने की इनायत से दुनिया का काम-धंधा उसको व्याप नहीं सकता। (प्रभु के स्मरण के सदका) वह माया के बंधनों में नहीं (फंसता), वह गृहस्थी (होते हुए भी) जोगी है।5। कामु क्रोधु अहंकारु तजीअले लोभु मोहु तिस माइआ ॥ मनि ततु अविगतु धिआइआ गुर परसादी पाइआ ॥६॥ पद्अर्थ: तजीअले = त्यागा। तिस = तृष्णा। अविगतु = अव्यक्त, अदृश्य प्रभु।6। अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की मेहर से अपने मन में जगत मूल अदृश्य प्रभु को स्मरण किया है और उससे मिलाप हासिल कर लिया है उसने काम-क्रोध और अहंकार त्याग दिया है, उसने लोभ-मोह और माया की तृष्णा त्याग दी है।6। गिआनु धिआनु सभ दाति कथीअले सेत बरन सभि दूता ॥ ब्रहम कमल मधु तासु रसादं जागत नाही सूता ॥७॥ पद्अर्थ: कथीअले = कही जाती है। सेत = सफेद, फीका। बरन = रंग। सेत बरन = जिनके रंग फीके हो जाते हैं। दूता = कामादिक वैरी। मधु = शहद। तासु = तस्य, उस (शहद) का। रसादं = (अद् = खाना, चखना) रस चखने वाला।7। अर्थ: परमात्मा के साथ गहरी सांझ बननी, प्रभु-चरणों में तवज्जो जुड़नी -ये सब प्रभु की दाति ही कही जा सकती है, (जिसको ये दाति मिलती है उसको देख के) कामादिक वैरियों के रंग उड़ जाते हैं, (क्योंकि नाम-जपने की इनायत से उसके हृदय में, मानो) ब्रहम-रूपी कमल का शहद (टपकने लग जाता है) उस (नाम-अमृत शहद का) रस वह मनुष्य चखता है (इस करके वह माया के हमलों से) सुचेत रहता है, (माया के मोह की नींद में) गाफिल नहीं होता।7। महा ग्मभीर पत्र पाताला नानक सरब जुआइआ ॥ उपदेस गुरू मम पुनहि न गरभं बिखु तजि अम्रितु पीआइआ ॥८॥१॥ पद्अर्थ: जुआइआ = जुड़ा हुआ, व्यापक। मम = मेरा। पुनहि = पुनः , दुबारा फिर। गरभं = गर्भवास, जनम। बिखु = (माया-) जहर। तजि = छोड़ के।8। अर्थ: हे नानक! जो प्रभु बड़े जिगरे वाला है, सारे पाताल (सारा संसार जिस पारजात प्रभु) की पत्तियां (पसारा) हैं, जो सब जीवों में व्यापक है, गुरु के उपदेश की इनायत से मैंने उसका नाम अमृत पीया है और माया का जहर त्यागा है, अब मेरा बार-बार गर्भवास (जनम-मरण) नहीं होगा।8।1। गूजरी महला १ ॥ कवन कवन जाचहि प्रभ दाते ता के अंत न परहि सुमार ॥ जैसी भूख होइ अभ अंतरि तूं समरथु सचु देवणहार ॥१॥ पद्अर्थ: कवन कवन = कौन कौन से? जाचहि = मांगते हैं। प्रभ दाते = हे दातार प्रभु! ता के = उन जीवों के। सुमार = गिनती, लेखे। अभ अंतरि = अभ्यन्तर, धुर अंदर, मन में। सचु = सदा स्थिर रहने वाला।1। अर्थ: हे दातार प्रभु! बेअंत जीव (तेरे दर से दातें) मांगते हैं उनकी गिनती के अंत नहीं पड़ सकते। जैसी (किसी के) धुर अंदर (मांगने की) भूख होती है, हे देवनहार प्रभु! तू (पूरी करता है), तू सदा स्थिर है और दातें देने योग्य है।1। ऐ जी जपु तपु संजमु सचु अधार ॥ हरि हरि नामु देहि सुखु पाईऐ तेरी भगति भरे भंडार ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ऐ जी = हे प्रभु जी! सचु अधारु = सदा स्थिर रहने वाला आसरा। भंडार = खजाने।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! (हम जीवों को) अपना नाम दे (तेरे नाम की इनायत से ही) आत्मिक आनंद मिलता है (इस पदार्थ की तेरे घर में कोई कमी नहीं है) तेरी भक्ति के (तेरे पास) खजाने भरे पड़े हैं। तेरा नाम ही (हमारे लिए) जप है तप है संजम है, तेरा नाम ही (हमारे वास्ते) सदा स्थिर रहने वाला आसरा है।1। रहाउ। सुंन समाधि रहहि लिव लागे एका एकी सबदु बीचार ॥ जलु थलु धरणि गगनु तह नाही आपे आपु कीआ करतार ॥२॥ पद्अर्थ: सुंन = शून्य, वह अवस्था जहाँ कोई फुरना ना उठे। रहहि = तू रहता है। एका एकी = तू अकेला ही। सबदु = वचन, हुक्म, इरादा। धरणि = धरती। गगनु = आकाश। तह = तब। आपु = अपने आप को। करतार = हे कर्तार!।2। अर्थ: हे कर्तार! जब तूने अपने आप को खुद ही प्रगट किया था, तब ना पानी था, ना सूखा था, ना धरती थी, ना आकाश था, तब तू खुद ही अफूर अवस्था में (अपने अंदर) तवज्जो जोड़ के समाधि लगाए बैठा था, तू अकेला खुद ही अपने इरादे को समझता था।2। ना तदि माइआ मगनु न छाइआ ना सूरज चंद न जोति अपार ॥ सरब द्रिसटि लोचन अभ अंतरि एका नदरि सु त्रिभवण सार ॥३॥ पद्अर्थ: तदि = तब। मगनु = मस्त (जीव)। छाइआ = माया के प्रभाव (में)। अपार = अपर, कोई और, अन्य। सरब द्रिसटि लोचन = सारे जीवों को देखने वाली आँख। अभ अंतरि = अभ्यन्तर (तेरे अपने अंदर ही) धुर अंदर। सार = संभाल।3। अर्थ: तब ना ये माया थी, ना इस माया के प्रभाव में मस्त कोई जीव था, ना तब सुरज था, ना चंद्रमा था, ना ही कोई और ज्योति थी। हे प्रभु! सारे जीवों को देख सकने वाली तेरी आँख, तीनों भवनों की सार ले सकने वाली तेरी अपनी ही नजर तेरे अपने ही अंदर टिकी हुई थी।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |