श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 506 लब लोभ लहरि निवारणं हरि नाम रासि मनं ॥ मनु मारि तुही निरंजना कहु नानका सरनं ॥८॥१॥५॥ पद्अर्थ: निवारणं = दूर करने के समर्थ। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। मनं = मन में। निरंजना = हे निरंजन! हे माया रहित प्रभु!।8। अर्थ: हे नानक! परमात्मा का नाम (आत्मिक जीवन की राशि है, इस) सरमाए को अपने मन में संभाल के रख, ये लब और लोभ की लहरों को दूर करने के समर्थ है। अपने मन को (लोभ-लालच की ओर से) काबू कर के रख, और कह: हे निरंजन! मैं तेरी शरण आया हूँ।8।1।5। नोट: पहली 4 अष्टपदीयां ‘घरु १’ की थीं। ये अष्टपदी ‘घरु ४’ की है। आखिरी अंक १ का यही भाव है। अंक ५ बताता है कि गुरु नानक साहिब की कुल पाँच अष्टपदियां हैं। गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ निरति करी इहु मनु नचाई ॥ गुर परसादी आपु गवाई ॥ चितु थिरु राखै सो मुकति होवै जो इछी सोई फलु पाई ॥१॥ पद्अर्थ: निरति = नाच। करी = मैं करूँ। नचाई = मैं नचाता हूँ। परसादी = कृपा से। आपु = स्वैभाव। गवाई = मैं गवाता हूँ। थिर = अडोल। राखै = रखता है। मुकति = (माया के बंधनों से) खलासी (की उम्मीद लिए हुए)। इछी = मैं इच्छा करता हूँ। पाई = मैं पाता हूँ।1। अर्थ: (हे भाई! रास-धारिए रास डाल-डाल के नाचते हैं और भक्त कहलवाते हैं) मैं भी नाचता हूँ (पर शरीर को नचाने की जगह) मैं (अपने) इस मन को नचाता हूँ (भाव,) गुरु की कृपा से (अपने अंदर से) मैं स्वैभाव दूर करता हूँ, (और इस तरह) मैं जो भी इच्छा करता हूँ (परमात्मा के दर से) वही फल पा लेता हूँ। (हे भाई! रासों में नाचने कूदने से मुक्ति नहीं मिलती, ना ही कोई भक्त बन सकता है) जो मनुष्य चित्त को (प्रभु-चरणों में) अडोल रखता है वह माया के बंधनों से खलासी (का आशावान) हो जाता है।1। नाचु रे मन गुर कै आगै ॥ गुर कै भाणै नाचहि ता सुखु पावहि अंते जम भउ भागै ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुर कै आगै = गुरु के सामने, गुरु के सन्मुख रह के। भाणै नाचहि = अगर तू हुक्म में नाचे, हुक्म में चले, जैसे नचाए वैसे नाचे। अंते = आखिरी वक्त। जम भउ = मौत का डर। रहाउ। अर्थ: हे मन! गुरु की हजूरी में नाच (गुरु के हुक्म में चल)। हे मन! अगर तू वैसे नाचेगा जैसे गुरु नचाएगा (अगर तू गुरु के हुक्म में चलेगा) तो आनंद पाएगा, आखिरी वक्त पर मौत का डर (भी तुझसे दूर) भाग जाएगा।1। रहाउ। आपि नचाए सो भगतु कहीऐ आपणा पिआरु आपि लाए ॥ आपे गावै आपि सुणावै इसु मन अंधे कउ मारगि पाए ॥२॥ पद्अर्थ: नचाए = मर्जी में चलाए, इशारों पर चलाए। कहीऐ = कहा जाता है। आपे = खुद ही। मारगि = (सही) रास्ते पर।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा अपने इशारों पर चलाता है जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्यार बख्शता है वह मनुष्य (दरअसल) भक्त कहा जा सकता है। परमात्मा खुद ही (उस मनुष्य के वास्ते, रजा में चलने का गीत) गाता है। खुद ही (यह गीत उस मनुष्य को) सुनाता है, और, माया के मोह में अंधे हुए इस मन को सही जीवन-राह पर लाता है।2। अनदिनु नाचै सकति निवारै सिव घरि नीद न होई ॥ सकती घरि जगतु सूता नाचै टापै अवरो गावै मनमुखि भगति न होई ॥३॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर समय। नाचै = नाचता है, (परमात्मा के इशारों पर) नाचता है, प्रभु की रजा में चलता है। सकति = माया (का प्रभाव)। निवारै = दूर करता है। सिव = कल्याण स्वरूप परमात्मा। सिव घरि = प्रभु के चरणों में। नीद = गफ़लत की नींद। अवरो = माया का ही गीत। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा की रजा में चलता है वह (अपने अंदर से) माया (का प्रभाव) दूर कर लेता है। (हे भाई!) कल्याण-स्वरूप प्रभु के चरणों में जुड़ने से माया के मोह की नींद हावी नहीं हो सकती। जगत माया के मोह में सोया हुआ (माया के हाथों पे) नाचता-कूदता है (दुनियावी दौड़-भाग करता रहता है)। (हे भाई!) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य से परमात्मा की भक्ति नहीं हो सकती।3। सुरि नर विरति पखि करमी नाचे मुनि जन गिआन बीचारी ॥ सिध साधिक लिव लागी नाचे जिन गुरमुखि बुधि वीचारी ॥४॥ पद्अर्थ: सुरनरि = देवता स्वभाव मनुष्य। विरती = प्रवृति। विरति पखि = प्रवृति के पक्ष में, दुनिया के काम काज करते हुए भी। करमी = (परमात्मा की) कृपा से। नाचे = (प्रभु के इशारों पे) नाचते आ रहे हैं, रजा में चलते हैं। मुनिजन = ऋषि मुनि लोग। बीचारी = विचारवान। गुरमुखि = गुरु की शरण में पड़ के।4। अर्थ: हे भाई! दैवी स्वभाव वाले मनुष्य दुनियावी काम-कार करते हुए भी, ऋषि मुनि लोग आत्मिक जीवन की सूझ से विचारवान हो के, परमात्मा की कृपा से (परमात्मा की रजा में चलने वाला) नाच नाचते हैं। आत्मिक जीवन की तलाश के वास्ते साधन करने के समय जो मनुष्य गुरु के द्वारा श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त करके विचारवान हो जाते हैं उनकी तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ी रहती है, वह (भी रजा में चलने वाला) नाच नाचते हैं।4। खंड ब्रहमंड त्रै गुण नाचे जिन लागी हरि लिव तुमारी ॥ जीअ जंत सभे ही नाचे नाचहि खाणी चारी ॥५॥ पद्अर्थ: त्रैगुण = माया के तीन गुण। खाणी चारी = चार खाणियों के जीव (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज)।5। अर्थ: हे प्रभु! सारे जीव-जंतु (माया के हाथों पर) नाच रहे हैं, चारों खाणियों के जीव नाच रहे हैं, खण्डों-ब्रहमण्डों के सारे जीव त्रिगुणी माया के प्रभाव में नाच रहे हैं; पर, हे प्रभु! जिन्हें तेरे चरणों की लगन लगी है वह तेरी रजा में चलने का नाच नाचते हैं।5। जो तुधु भावहि सेई नाचहि जिन गुरमुखि सबदि लिव लाए ॥ से भगत से ततु गिआनी जिन कउ हुकमु मनाए ॥६॥ पद्अर्थ: तुधु भावहि = तुझे अच्छे लगते हैं। सेई = वही लोग। सबदि = शब्द के द्वारा। ततु = जगत का मूल प्रभु। गिआनी = गहरी सांझ डालने वाले। कउ = को।6। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे प्यारे लगते हैं वही तेरे इशारे पर चलते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु के सन्मुख करके, गुरु के शब्द में जोड़ के अपने चरणों की प्रीति बख्शता है, जिन्हें अपना भाणा मीठा करके मनाता है वही मनुष्य असल भक्त हैं (रासों में नाचने वाले भक्त नहीं हैं), वही मनुष्य सारे जगत के मूल परमात्मा के साथ गहरी समीपता बनाए रखते हैं।6। एहा भगति सचे सिउ लिव लागै बिनु सेवा भगति न होई ॥ जीवतु मरै ता सबदु बीचारै ता सचु पावै कोई ॥७॥ पद्अर्थ: सचे सिउ = सदा कायम रहने वाले हरि के साथ। लिव = लगन। जीवतु मरै = जीवित मरता है, दुनिया के मेहनत-कमाई करता हुआ माया के मोह से अछोह हो जाता है।7। अर्थ: हे भाई! वही उत्तम भक्ति कहलवा सकती है जिसके द्वारा सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा सें प्यार बना रहे। ऐसी भक्ति (गुरु की बताई) सेवा करे बिना नहीं हो सकती। जब मनुष्य दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ ही माया के मोह की ओर से अछोह हो जाता है तब वह गुरु के शब्द को अपने सोच-मण्डल में टिकाए रखता है, तब ही मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा का मिलाप हासल करता है।7। माइआ कै अरथि बहुतु लोक नाचे को विरला ततु बीचारी ॥ गुर परसादी सोई जनु पाए जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥८॥ पद्अर्थ: कै अरथि = के वास्ते।8। अर्थ: हे भाई! माया कमाने की खातिर तो बहुत सी दुनिया (माया के हाथों पर) नाच रही है, कोई विरला मनुष्य है जो असल आत्मिक जीवन को पहचानता है। हे प्रभु! वही वही मनुष्य गुरु की कृपा से तेरा मिलाप हासिल करता है जिस पर तेरी मेहर होती है।8। इकु दमु साचा वीसरै सा वेला बिरथा जाइ ॥ साहि साहि सदा समालीऐ आपे बखसे करे रजाइ ॥९॥ पद्अर्थ: दमु = सांस। बिरथा = व्यर्थ। साहि साहि = हरेक सांस के साथ। रजाइ = हुक्म।9। अर्थ: हे भाई! जो भी एक सांस सदा कायम रहने वाले परमात्मा को भूला रहे वह समय व्यर्थ चला जाता है। हरेक सांस के साथ परमात्मा को अपने दिल में बसा के रखना चाहिए। (पर ये उद्यम वही मनुष्य कर सकता है जिस पर) परमात्मा खुद ही मेहर करके बख्शिश करे।9। सेई नाचहि जो तुधु भावहि जि गुरमुखि सबदु वीचारी ॥ कहु नानक से सहज सुखु पावहि जिन कउ नदरि तुमारी ॥१०॥१॥६॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता।10। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तुझे अच्छे लगते हैं वही तेरी रजा में चलते हैं क्योंकि वे गुरु की शरण पड़ कर गुरु के शब्द को अपनी सोच-मण्डल में टिका लेते हैं। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) जिस पर तेरी मेहर की नजर पड़ती है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता का आनंद पाते हैं।10।1।6।
अष्टपदियां महला ३------01
गूजरी महला ४ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि बिनु जीअरा रहि न सकै जिउ बालकु खीर अधारी ॥ अगम अगोचर प्रभु गुरमुखि पाईऐ अपुने सतिगुर कै बलिहारी ॥१॥ पद्अर्थ: जीअरा = कमजोर जीवात्मा। खीर = दूध। अधार = आसरा। खीर अधारी = खीर अधारि, दूध के सहारे पर। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = अ+गो+च+र, जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। गुरमुखि = गुरु की ओर मुंह करने से, गुरु की शरण पड़ने से। कै = से।1। अर्थ: हे भाई! मेरी कमजोर जिंद परमात्मा (के मिलाप) के बिना धैर्य नहीं धर सकती, जैसा छोटा बच्चा दूध के सहारे ही जीता है। हे भाई! वह प्रभु! जो अगम्य (पहुँच से परे) है (जिस तक जीव अपनी समझदारी के बल पर नहीं पहुँच सकता), जिस तक मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती, गुरु की शरण पड़ने से ही मिलता है, (इस वास्ते) मैं अपने गुरु से सदा सदके जाता हूँ।1। मन रे हरि कीरति तरु तारी ॥ गुरमुखि नामु अम्रित जलु पाईऐ जिन कउ क्रिपा तुमारी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कीरति = महिमा। तरु तारी = तारी तैर, पार लांघने का उद्यम कर। अंम्रित जलु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा की महिमा के द्वारा (संसार समुंदर से) पार लांघने का यत्न किया कर। हे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल गुरु की शरण पड़ने से मिलता है। (पर, हे प्रभु! तेरा नाम-जल उनको ही मिलता है) जिनपे तेरी कृपा हो। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |