श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 508 जिउ बोलावहि तिउ बोलह सुआमी कुदरति कवन हमारी ॥ साधसंगि नानक जसु गाइओ जो प्रभ की अति पिआरी ॥८॥१॥८॥ पद्अर्थ: बोलावहि = तू बोलाता है। बोलह = हम बोलते हैं। सुआमी = हे स्वामी! कुदरति = ताकत। साध संगि = गुरु की संगति में। गाइओ = गाया।8। अर्थ: हे कर्तार! हे स्वामी! हमारी (तेरे पैदा किए हुए जीवों की) क्या बिसात है? जैसे तू हमें बोलाता है वैसे ही हम बोलते हैं। हे नानक! (कह: कर्तार की प्रेरणा से ही मनुष्य ने) साधु-संगत में टिक के प्रभु की महिमा की है, ये महिमा प्रभु को बड़ी प्यारी लगती है।8।1।8। गूजरी महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नाथ नरहर दीन बंधव पतित पावन देव ॥ भै त्रास नास क्रिपाल गुण निधि सफल सुआमी सेव ॥१॥ पद्अर्थ: नाथ = हे जगत के मालिक! नरहर = (नर हरि, नर सिंह) हे परमात्मा! देव = हे प्रकाश रूप! त्रास = डर, सहम। भै = डर। गुण निधि = हे गुणों के खजाने। सफल सेव = जिसकी सेवा भक्ति फलदायक है।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे जगत के मालिक! हे नरहर! हे दीनों के सहायक! हे विकारियों को पवित्र करने वाले! हे प्रकाश-स्वरूप! हे सारे डरों-सहमों के नाश करने वाले! हे कृपालु! हे गुणों के खजाने! हे स्वामी! तेरी सेवा-भक्ति जीवन को कामयाब बना देती है।1। हरि गोपाल गुर गोबिंद ॥ चरण सरण दइआल केसव तारि जग भव सिंध ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुर = हे (सबसे) बड़े! केसव = हे सुंदर लंबे केसों वाले परमात्मा! भव सिंध = संसार समुंदर। तारि = पार लंघा।1। रहाउ। अर्थ: हे हरि! हे गोपाल! हे गुर गोबिंद! हे दयालु! हे केशव! अपने चरणों की शरण में रख के मुझे इस संसार समुंदर में से पार लंघा ले।1। रहाउ। काम क्रोध हरन मद मोह दहन मुरारि मन मकरंद ॥ जनम मरण निवारि धरणीधर पति राखु परमानंद ॥२॥ पद्अर्थ: हरन = दूर करने वाला। मद मोह दहन = हे मोह की मस्ती जलाने वाले! मन मकरंद = हे मन को सुगंधि देने वाले! धरणी धर = हे धरती के सहारे! पति = इज्जत। परमानंद = हे सबसे ऊँचे आनंद के मालिक!।2। अर्थ: हे काम-क्रोध को दूर करने वाले! हे मोह के नशे को जलाने वाले! हे मन को (जीवन-) सुगंधि देने वाले मुरारी प्रभु! हे धरती के आसरे! हे सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक! (जगत के विकारों में, मेरी) लज्जा रख, मेरे जनम-मरण का चक्कर खत्म कर।2। जलत अनिक तरंग माइआ गुर गिआन हरि रिद मंत ॥ छेदि अह्मबुधि करुणा मै चिंत मेटि पुरख अनंत ॥३॥ पद्अर्थ: जलत = जल रहों को। तरंग = लहरें। हरि = हे हरि! रिद = हृदय में। छेदि = नाश कर। अहंबुद्धि = अहंकार। करुणा = तरस! करुणा मै = करुणामय, हे तरस स्वरूप प्रभु! पुरख अनंत = हे सर्व-व्यापक बेअंत प्रभु!।3। अर्थ: हे हरि! माया-अग्नि की बेअंत लहरों में जल रहे जीवों के हृदय में गुरु के ज्ञान का मंत्र टिका। हे तरस-स्वरूप हरि! हे सर्व व्यापक बेअंत प्रभु! (हमारा) अहंकार दूर कर (हमारे दिलों में से) चिन्ता मिटा दे।3। सिमरि समरथ पल महूरत प्रभ धिआनु सहज समाधि ॥ दीन दइआल प्रसंन पूरन जाचीऐ रज साध ॥४॥ पद्अर्थ: पल महूरत = हर पल हर घड़ी। सहज = आत्मिक अडोलता। जाचीऐ = मांगनी चाहिए। रज = चरण धूल। साध = संत जन।4। अर्थ: हे समर्थ प्रभु! हर पल हर घड़ी (तेरा नाम) स्मरण करके मैं अपनी तवज्जो आत्मिक अडोलता की समाधि में जोड़े रखूँ। हे दीनों पर दया करने वाले! हे सदा खिले रहने वाले! सर्व-व्यापक! (तेरे दर से तेरे) संत-जनों की चरण-धूल (ही सदा) मांगनी चाहिए।4। मोह मिथन दुरंत आसा बासना बिकार ॥ रखु धरम भरम बिदारि मन ते उधरु हरि निरंकार ॥५॥ पद्अर्थ: मिथन = झूठा। दुरंत = बुरे अंत वाली। बिदारि = नाश कर। ते = से। निरंकार = हे निरंकार!।5। अर्थ: हे हरि! हे निरंकार! मुझे (संसार समुंदर से) बचा ले, मेरे मन से भटकना दूर कर दे। हे हरि! झूठे मोह से, बुरे अंत वाली आशा से, विकारों की वासनाओं से, मेरी लज्जा रख।5। धनाढि आढि भंडार हरि निधि होत जिना न चीर ॥ खल मुगध मूड़ कटाख्य स्रीधर भए गुण मति धीर ॥६॥ पद्अर्थ: आढि = आढय, धनाढ, धनी। निधि = खजाना। चीर = कपड़ा। खल = मूर्ख। मुगध = मूर्ख। कटाख् = निगाह। स्रीधर = लक्ष्मी पति।6। अर्थ: हे हरि! जिनके पास (तन ढकने के लिए) कपड़े का टुकड़ा भी नहीं होता, वह तेरे गुणों के खजाने प्राप्त करके (मानो) धनाढों के धनाढ बन जाते हैं। हे लक्ष्मी-पति! महा-मूर्ख और दुष्ट तेरी मेहर की निगाह से गुणवान, बुद्धिमान, धैर्यवान बन जाते हैं।6। जीवन मुकत जगदीस जपि मन धारि रिद परतीति ॥ जीअ दइआ मइआ सरबत्र रमणं परम हंसह रीति ॥७॥ पद्अर्थ: जीवन मुकत = दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ ही माया के मोह से स्वतंत्र। मन = हे मन! परतीति = श्रद्धा। मइआ = तरस। सरबत्र रमणं = सर्व व्यापक। परम हंसहि रीति = सबसे ऊँचे हंसों की जीवन जुगति। हंस = अच्छे बुरे कामों का निर्णय कर सकने वाला (जैसे हंस दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है)।7। अर्थ: हे मन! जीवन-मुक्त करने वाले जगदीश का नाम जप। हे भाई! दिल में उसके वास्ते श्रद्धा टिका, सब जीवों से दया-प्यार वाला सलूक रख, परमात्मा को सर्व-व्यापक जान- उच्च जीवन वाले हंस (मनुष्यों) की ये जीवन-जुगति है।7। देत दरसनु स्रवन हरि जसु रसन नाम उचार ॥ अंग संग भगवान परसन प्रभ नानक पतित उधार ॥८॥१॥२॥५॥१॥१॥२॥५७॥ पद्अर्थ: देत = देता है। स्रवन = श्रवण, कान। जसु = यश, महिमा। रसन = जीभ। परसन = छूह।8। अर्थ: हे भाई! परमात्मा खुद ही अपने दर्शन बख्शता है, कानों में अपनी महिमा देता है, जीवों को अपने नाम का उच्चारण देता है, सदा अंग-संग बसता है। हे नानक! (कह:) हे हरि! हे भगवान! तेरी छूह विकारियों का भी पार-उतारा करने योग्य है।8।1।2।5।1।1।2।57। गूजरी की वार महला ३॥ भाव पउड़ी वार: एक वह भी वक्त था जब प्रभु खुद ही खुद था, सृष्टि का वजूद नहीं था। पैदा होने और मरने के नियम बना के प्रभु ने अपने हुक्म मेुं सृष्टि रची, अपनी ज्योति इसमें टिका दी, त्रिगुणी माया रच के जीवों को धंधे में लगा दिया। इस त्रिगुणी माया का मोह बहुत विशाल है और पापों का मूल है। जो मनुष्य गुर-शब्द के द्वारा भक्ति करता है वह निर्मल रहता है। इस मोह से चतुराई से नहीं बचा जा सकता। जो गुर-शब्द के द्वारा ‘अहंकार’ को गवाता है वह प्रभु में मिल जाता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के महिमा करता है, वह प्रभु-चरणों में पहुँचता है। ढंग-तरीकों से रब नहीं मिलता। गुर-शब्द के द्वारा जो मनुष्य प्रभु के ‘नाम’ रूप ‘अमृतसर’ में नहाता है उसकी तृष्णा बुझ जाती है। जिस पर मेहर करे उसको गुरु मिलता है, गुरु की कृपा से ‘निहचल नाम धनु’ मिलता है। प्रभु की कृपा से अगर गुरु मिल जाए तो ‘अहंकार’ दूर होता है, तृष्णा मिट के मन सुखी होता है। गुरु के सन्मुख होने से कपट विकार अगिआन’ दूर हो जाते हैं; महिमा की इनायत से अंदर ज्योति प्रकाश हो के ‘अनंद’ प्राप्त होता है। गुरु के सन्मुख होने से ‘अहंकार’ मिट जाता है, रजा में चलता है; इस तरह ‘नाम’ जपने से ‘हरि का महलु’ मिल जाता है। जो मनुष्य गुरु का हो रहता है; उसके अंदर परमात्मा का प्यार पैदा होता है; वह सदा रूहानी प्यार की मौज में और याद में मस्त रहता है। दूसरी तरफ, अपने मन के पीछे चल के मनुष्य कामादिक विकारों में फंसते हैं। ये विकार मानो, यमो का मार्ग है, इस राह पड़ के दुखी होते हैं। परमात्मा मनुष्य के शरीर में ही बसता है, पर जीव रसों के भोगने में ही लगा रहता है और परमात्मा भोगों से निर्लिप है; इस लिए एक ही जगह बसते हुए भी जीव और प्रभु का विछोड़ा बना रहता है। झूठ, कुसत्य, अभिमान आदि, जैसे, काया-रूप किले को कठिन किवाड़ लगे हुए हैं, मन के पीछे चलने वाले को ये किवाड़ दिखाई नहीं देते; इन्होंने ही जीव की प्रभु से दूरी बना रखी है। लोभी मन लोभ में फंसा हुआ माया के लिए भटकता फिरता है। दुनिया वाली इज्जत अथवा ऊँची जाति तो परलोक में सहायता नहीं करती; सो मनमुख दोनों जहानों में दुखी रहता है। जिस पर प्रभु की कृपा हो उनको गुरु मिलता है, वह बंदगी करते हैं, प्रभु उनके मन में प्रगट होता है उन्हें सुख रूपी ‘फायदा’ मिलता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं वे गफ़लत की नींद में नहीं सोते, परमात्मा के नाम का रस चखते हैं और ‘सहज’ अवस्था में टिके रहते हैं। गुरु शब्द के द्वारा जो मनुष्य माया की ओर से सुचेत रहके प्रभु की महिमा करता है वह प्रभु की हजूरी में टिका रहता है। ‘दूजा भाव’ माया का मोह भी प्रभु ने खुद ही पैदा किया है; बड़े-बड़े कहने-कहाने वाले इस ‘दूजे भाव’ में ही फंसे रहे। गुरमुख को सूझ पड़ती है और उसे ‘सोग विजोग’ नहीं व्यापता। जिसने माया का मोह पैदा किया है अगर उसीके दर पर अरदास करते रहें तो इस मोह का जोर नहीं पड़ता और इससे उपजा दुख मिट जाता है। माया के मोह से रक्षा करने वाला प्रभु खुद ही है, जो मनुष्य उसे ध्याते हैं वे माया वाली चिन्ता छोड़ के ‘अचिंत’ रहते हैं। संसार-समुंदर भी प्रभु है, इसमें से तैराने वाला जहाज और मल्लाह भी खुद प्रभु ही है, खुद ही राह बताने वाला है। उसका ‘नाम’ स्मरण करने से सारे पाप काटे जाते हैं। समूचा भाव: ये जगत-रचना प्रभु ने स्वयं की है, इसमें अपनी ज्योति टिका रखी है। त्रिगुणी माया भी खुद ही बनाने वाला है; इसके प्रभाव तले जीवों को उसने धंधे में जोड़ा हुआ है। किसी तरह की चतुराई मनुष्य को इस मोह से नहीं बचा सकती। (पउड़ी 1 से 4) जिस पर मेहर हो उसे गुरु मिलता है। गुरु के सन्मुख हो के महिमा करें, नाम ‘अमृतसर’ में नहाएं तो तृष्णा-अग्नि बुझ जाती है, अहंकार मिटता है, कपट-विकार दूर होते हैं, रजा में चलने की विधि आती है और हृदय में प्रभु का प्यार पैदा होता है। (पउड़ी 5 से 11) प्रभु काया-किले के अंदर ही बसता है; पर मनमुख कामादिक किले के अंदर ही फंसे रहते हैं और प्रभु से विछुड़े रहते हैं। झूठ-कुसत्य के कठोर किवाड़ प्रभु से उनकी दूरी बनाए रखते हैं। लोभ का ग्रसा हुआ मनुष्य सारी उम्र नाक-नमूज की खातिर भटकता है, ये नाक-नमूज यहीं रह जाने हैं, सो, दोनों जहानों में दुख पाता है। (पउड़ी 12 से 15) जिस पर मेहर हो वे गुरु की शरण पड़ के बंदगी करते हैं; गफ़लत की नींद में नहीं सोते। माया की तरफ से सुचेत रहके महिमा करते हैं और प्रभु की हजूरी में रहते हैं। (पउड़ी 16 से 18) माया का मोह प्रभु ने खुद ही पैदा किया है; बड़े-बड़े कारण वाले भी इस में फंस जाते हैं। संसार-समुंदर भी खुद है और जहाज और मल्लाह भी खुद ही है, खुद ही राह बताने वाला है। अगर उसके दर पर अरदास करते रहें तो इससे बचा लेता है। (पउड़ी 19 से 22) मुख्य भाव: प्रभु की रची हुई इस जगत माया के मोह से सिर्फ वही मनुष्य बचता है जिसको प्रभु की अपनी मेहर से गुरु मिले, और गुरु के बताए हुए राह पर चल के वह मनुष्य प्रभु की महिमा करता रहे। वार की बनावट: ये ‘वार’ गुरु अमरदास जी की रचना है, इसमें 22 पउड़ियां हैं, हरेक पौड़ी में पाँच-पाँच तुकें हैं। हरेक पौड़ी के साथ 2–2 शलोक हैं; पौड़ी नंबर 4 के साथ पहला शलोक कबीर जी का है, बाकी सारे शलोक गुरु अमरदास जी के हैं। कबीर जी का एक शलोक होना भी बताता है कि ‘वार’ और ‘शलोक’ एक ही वक्त नहीं लिखे गए क्योंकि ‘वार’ के शलोकों की बनावट में एक-सुरता नहीं रह गई। अगर इनके लिखे जाने का वक्त एक ही होता तो पौड़ी नंबर 4 के साथ सिर्फ एक ही शलोक ना होता। इस पौड़ी के शलोकों को पढ़ के देखो; गुरु अमरदास जी ने ये शलोक उच्चारा भी कबीर जी के शलोक के प्रथाय ही है (देखें शलोक कबीर जी नं: 58)। सो, ये दोनों शलोक गुरु अरजन साहिब जी ने इस पउड़ी के भाव के साथ मिलते देख के दर्ज किए हैं पर ये नहीं हो सकता कि अगर गुरु अमरदास जी के सारे शलोक भी साथ ही उचारते तो इस पौड़ी नं: 4 को खाली छोड़ देते। सो, सारे ही शलोक बीड़ तैयार करते समय गुरु अरजन साहिब ने दर्ज किए। गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी॥ (508) सिकंदर और इब्राहिम एक ही कुल के थे और तुरने-सिर थे। इब्राहिम कुचरित्र था। इसने एक बार एक नवयुवक ब्राहमण नव-ब्याहुता से जबरन छेड़खानी की, ब्राहमण ने सिकंदर के पास फरियाद की। सिकंदर और इब्राहिम दोनों में टकराव हुआ, इब्राहिम पकड़ा गया। पर, जब वह अपने किए पर पछताया तो सिकंदर ने उसे छोड़ दिया। इस घटना को ढाढियों ने ‘वारों’ में गाया। उसी ही सुर पर गुरु अमरदास जी की ये वार गाने की आज्ञा है। उस वार का नमूना: पापी खान बिराहम पर चढ़िआ सेकंदर। गूजरी की वार महला ३ सिकंदर बिराहिम की वार की धुनी गाउणी इहु जगतु ममता मुआ जीवण की बिधि नाहि ॥ गुर कै भाणै जो चलै तां जीवण पदवी पाहि ॥ ओइ सदा सदा जन जीवते जो हरि चरणी चितु लाहि ॥ नानक नदरी मनि वसै गुरमुखि सहजि समाहि ॥१॥ पद्अर्थ: मम = मेरा। ममता = (हरेक चीज को) ‘मेरी’ बनाने का ख्याल। बिधि = तरीका। पदवी = दर्जा। सहजि = सहज अवस्था में, अडोलता में, वह अवस्था जहाँ दुनिया के लालच में हरेक पदार्थ को अपना बनाने की चाह ना कूदे। नदरी = मेहर करने वाला प्रभु!।1। अर्थ: ये जगत (भाव, हरेक जीव) (ये चीज ‘मेरी’ बन जाए, ये चीज ‘मेरी’ हो जाए- इस) अपनत्व में इतना फसा पड़ा है कि इसे जीने की विधि नहीं रही। जो जो मनुष्य सतिगुरु के कहने पर चलता है वह जीवन-जुगति सीख लेता है। जो मनुष्य प्रभु के चरणों में चित्त जोड़ता है, वह समझो सदा ही जीते हैं, (क्योंकि) हे नानक! गुरु के सन्मुख रहने से मेहर का मालिक प्रभु मन में आ बसता है और गुरमुखि उस अवस्था में आ पहुँचते हैं जहाँ पदार्थों की ओर मन नहीं डोलता।1। मः ३ ॥ अंदरि सहसा दुखु है आपै सिरि धंधै मार ॥ दूजै भाइ सुते कबहि न जागहि माइआ मोह पिआर ॥ नामु न चेतहि सबदु न वीचारहि इहु मनमुख का आचारु ॥ हरि नामु न पाइआ जनमु बिरथा गवाइआ नानक जमु मारि करे खुआर ॥२॥ पद्अर्थ: सहसा = संशय, तौखला। आपै = खुद ही। धंधै मार = धंधों की मार। आचारु = रहन-सहन।2। अर्थ: जिस मनुष्यों का माया से मोह-प्यार है जो माया के प्यार में मस्त हो रहे हैं (इस गफ़लत में से) कभी जागते नहीं, उनके मन में संशय और कष्ट टिका रहता है, उन्होंने दुनिया के झमेलों का ये खपाना अपने सिर पर लिया हुआ है। अपने मन के पीछे चलने वाले लोगों की रहन-सहन ये है कि वे कभी गुर-शब्द नहीं विचारते। हे नानक! उन्हें परमात्मा का नाम नसीब नहीं हुआ, वह जनम व्यर्थ गवाते हैं और जम उन्हें मार के ख्वार करता है (भाव, वे मौत से सदा सहमे रहते हैं)।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |