श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 514 पउड़ी ॥ काइआ कोटु अपारु है मिलणा संजोगी ॥ काइआ अंदरि आपि वसि रहिआ आपे रस भोगी ॥ आपि अतीतु अलिपतु है निरजोगु हरि जोगी ॥ जो तिसु भावै सो करे हरि करे सु होगी ॥ हरि गुरमुखि नामु धिआईऐ लहि जाहि विजोगी ॥१३॥ पद्अर्थ: काइआ = मानव शरीर। अतीतु = विरक्त। अलिपतु = जिस पर (माया का) असर ना हो सके। निरजोगु = निरबंध, मुक्त। विजोगी = विछोड़े, विजोग।13। अर्थ: मनुष्य का शरीर (मानो) एक बड़ा किला है जो मनुष्य को भाग्यों से मिलता है, इस शरीर में प्रभु स्वयं बस रहा है और (कहीं तो) रस भोग रहा है, (कहीं) खुद जोगी प्रभु विरक्त है, माया के असर से परे है और निरबंध है। जो उसको अच्छा लगता है वह वही करता है, जो कुछ प्रभु करता है वही होता है (जीवों का ‘रस भोगी’ बनाने वाला भी वह स्वयं ही है और ‘अतीतु अलिपत’ विरक्त बनाने वाला भी खुद)। अगर, गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम स्मरण करें तो (मायावी रस-रूप) सारे विछोड़े (भाव, प्रभु से विछोड़े का मूल) दूर हो जाते हैं।13। सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु आपि अखाइदा गुर सबदी सचु सोइ ॥ वाहु वाहु सिफति सलाह है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है सचि मिलावा होइ ॥ नानक वाहु वाहु करतिआ प्रभु पाइआ करमि परापति होइ ॥१॥ पद्अर्थ: वाहु वाहु = (जब हम कोई आश्चर्यजनक नजारा देखते हैं, कोई बहुत ही सुंदर ख्याल सुनते हैं तो मस्त हो के ‘वाह वाह’ कहते हैं, जैसे, हम उस नजारे या ख्याल की ‘तारीफ’ करते हैं। सो, ‘वाह वाह’ कहना एक तरह से महिमा है, पर साथ ही ये भाव भी होता है कि इसकी कीर्ति के लिए हमारे पास सटीक शब्द नहीं हैं। शब्द ‘वाह’ को शब्द ‘वाहुगुरू’ का संखेप कहना गलत है, ये ख्याल शब्द ‘वाहिगुरू’ की जगह ‘वाहुगुर’ बनाने के लिए टपला लगाने के लिए सहायक होता है। शब्द ‘गुरू’ और ‘वाहि’ दोनों ही अलग-अलग अर्थ हैं) महिमा। वाहु वाहु बाणी = महिमा की वाणी। सचु है = प्रभु का रूप है।1। अर्थ: कोई (विरला) मनुष्य समझता है कि ‘वाह वाह’ कहना परमात्मा की महिमा करनी है, वह सच्चा प्रभु खुद ही सतिगुरु के शब्द के माध्यम से (मनुष्य से) ‘वाहु वाहु’ कहलवाता है (भाव, महिमा कराता है) परमात्मा की महिमा की वाणी परमात्मा का रूप है, (इससे) परमात्मा में मेल होता है। हे नानक! (प्रभु की) महिमा करते हुए प्रभु मिल पड़ता है; (पर, ये महिमा) प्रभु की मेहर से मिलती है।1। मः ३ ॥ वाहु वाहु करती रसना सबदि सुहाई ॥ पूरै सबदि प्रभु मिलिआ आई ॥ वडभागीआ वाहु वाहु मुहहु कढाई ॥ वाहु वाहु करहि सेई जन सोहणे तिन्ह कउ परजा पूजण आई ॥ वाहु वाहु करमि परापति होवै नानक दरि सचै सोभा पाई ॥२॥ अर्थ: गुरु के शब्द द्वारा ‘वाहु वाहु’ कहती जीभ सुंदर लगती है, प्रभु मिलता ही गुरु के पूरन शब्द द्वारा है। बड़े भाग्यों वालों के मुंह में से प्रभु ‘वाहु वाहु’ कहलवाता है, जो मनुष्य ‘वाहु वाहु’ करते हैं, वह सुंदर लगते हैं और सारी दुनिया उनके चरण परसने आती है। हे नानक! प्रभु की मेहर से प्रभु की महिमा होती है और सच्चे दर पर शोभा मिलती है।2। पउड़ी ॥ बजर कपाट काइआ गड़्ह भीतरि कूड़ु कुसतु अभिमानी ॥ भरमि भूले नदरि न आवनी मनमुख अंध अगिआनी ॥ उपाइ कितै न लभनी करि भेख थके भेखवानी ॥ गुर सबदी खोलाईअन्हि हरि नामु जपानी ॥ हरि जीउ अम्रित बिरखु है जिन पीआ ते त्रिपतानी ॥१४॥ अर्थ: अहंकारी मनुष्यों के शरीर-रूपी किले में झूठ और फरेब रूपी कड़े फाटक लगे हुए हैं, पर अंधे और अज्ञानी मनुष्यों के भ्रम में भूले होने के कारण उन्हें दिखते नहीं। भेख करने वाले मनुष्य भेख कर करके थक गए हैं, पर उन्हें भी किसी उपाय करने से (ये फाटक) नहीं दिखे, (हां) जो मनुष्य हरि का नाम जपते हैं, उनके कपाट सतिगुरु के शब्द की इनायत से खुलते हैं। प्रभु (का नाम) अमृत का वृक्ष है, जिन्होंने (इसका) रस पीया है वे तृप्त हो गए हैं।14। सलोकु मः ३ ॥ वाहु वाहु करतिआ रैणि सुखि विहाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ सदा अनंदु होवै मेरी माइ ॥ वाहु वाहु करतिआ हरि सिउ लिव लाइ ॥ वाहु वाहु करमी बोलै बोलाइ ॥ वाहु वाहु करतिआ सोभा पाइ ॥ नानक वाहु वाहु सति रजाइ ॥१॥ अर्थ: हे मेरी माँ! प्रभु की महिमा करते हुए (मनुष्य जनम रूपी) रात सुखी गुजरती है और सदा मौज बनी रहती है। प्रभु की महिमा करते हुए प्रभु के साथ तवज्जो जुड़ती है, पर, कोई विरला मनुष्य प्रभु की मेहर से प्रभु का प्रेरा हुआ ‘वाहु वाहु’ की वाणी उचारता है। प्रभु की महिमा करते हुए शोभा मिलती है, और हे नानक! ये महिमा (मनुष्य को) प्रभु की रजा में जोड़े रखती है।1। मः ३ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है गुरमुखि लधी भालि ॥ वाहु वाहु सबदे उचरै वाहु वाहु हिरदै नालि ॥ वाहु वाहु करतिआ हरि पाइआ सहजे गुरमुखि भालि ॥ से वडभागी नानका हरि हरि रिदै समालि ॥२॥ अर्थ: प्रभु की महिमा की वाणी प्रभु (का रूप ही) है, जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख है उसने तलाश के ढूँढ ली है, गुरु के शब्द द्वारा वह ‘वाहु वाहु’ कहता है और हृदय से (परो के रखता है)। गुरमुखों ने सहज ही तलाश करके प्रभु की महिमा करते हुए प्रभु को पा लिया है। हे नानक! वह मनुष्य बड़े भाग्यों वाले हैं जो प्रभु के नाम को अपने हृदय में संभालते हैं।2। पउड़ी ॥ ए मना अति लोभीआ नित लोभे राता ॥ माइआ मनसा मोहणी दह दिस फिराता ॥ अगै नाउ जाति न जाइसी मनमुखि दुखु खाता ॥ रसना हरि रसु न चखिओ फीका बोलाता ॥ जिना गुरमुखि अम्रितु चाखिआ से जन त्रिपताता ॥१५॥ अर्थ: हे मनमुख (मन!) दरगाह में बड़ा नाम और ऊँची जाति, साथ नहीं जाएंगे, (इनमें भूला हुआ) दुख भोगेगा, जीभ से तूने प्रभु के नाम का स्वाद नहीं चखा और फीका (माया संबंधी वचन ही) बोलता है। हे सदा लोभ में रते हुए लोभी मन! मोहनी माया की चाह के कारण तू दसों दिशाओं में भटकता फिरता है। जिस मनुष्यों ने गुरु के सन्मुख हो के (नाम-रूप) अमृत चखा है वे तृप्त हो गए हैं।15। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |