श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 519 पउड़ी ॥ नित जपीऐ सासि गिरासि नाउ परवदिगार दा ॥ जिस नो करे रहम तिसु न विसारदा ॥ आपि उपावणहार आपे ही मारदा ॥ सभु किछु जाणै जाणु बुझि वीचारदा ॥ अनिक रूप खिन माहि कुदरति धारदा ॥ जिस नो लाइ सचि तिसहि उधारदा ॥ जिस दै होवै वलि सु कदे न हारदा ॥ सदा अभगु दीबाणु है हउ तिसु नमसकारदा ॥४॥ पद्अर्थ: सासि = सांस से। गिरासि = ग्रास से। सासि गिरासि = साँस लेते हुए और खाते हुए। परवदिगार = पालने वाला। रहंम = रहम, तरस। जाणु = अंतरयामी। बुझि = समझ के। सचि = सच में। अभगु = अ+भगु, ना नाश होने वाला। दीबाणु = दरबार।4। अर्थ: (हे भाई!) पालनहार प्रभु का नाम साँस लेते हुए खाते हुए हर वक्त जपना चाहिए। वह प्रभु जिस बंदे पर मेहर करता है उसको (अपने मन में से) नहीं भुलाना, वह स्वयं जीवों को पैदा करने वाला है और स्वयं ही मारता है, वह अंतरजामी (जीवों के दिल की) हरेक बात जानता है और उसको समझ के (उस पर) विचार भी करता है, एक पलक में कुदरत के अनेक रूप बना देता है, जिस मनुष्य को वह सच में जोड़ता है उसको (विकारों से) बचा लेता है। प्रभु जिस जीव के पक्ष में हो जाता है वह जीव (विकारों के मुकाबले और मानव जनम की बाजी) कभी नहीं हारता, उस प्रभु का दरबार सदा अटल है, मैं उसको नमस्कार करता हूँ।4। सलोक मः ५ ॥ कामु क्रोधु लोभु छोडीऐ दीजै अगनि जलाइ ॥ जीवदिआ नित जापीऐ नानक साचा नाउ ॥१॥ अर्थ: हे नानक! काम क्रोध और लोभ (आदि विकार) छोड़ देने चाहिए, (इन्हें) आग में जला दें, जब तक जीवित हैं (प्रभु का) सच्चा नाम सदा स्मरण करते रहें।1। मः ५ ॥ सिमरत सिमरत प्रभु आपणा सभ फल पाए आहि ॥ नानक नामु अराधिआ गुर पूरै दीआ मिलाइ ॥२॥ पद्अर्थ: आहि = हैं। गुरि = गुरु ने।2। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के द्वारा प्रभु का नाम स्मरण किया है, गुरु ने उसको प्रभु के साथ मिला दिया है, और प्यारा प्रभु स्मरण करके उसने सारे फल हासिल कर लिए हैं (भाव, दुनियावी सारी ही वासनाएं उसकी समाप्त हो गई हैं)।2। पउड़ी ॥ सो मुकता संसारि जि गुरि उपदेसिआ ॥ तिस की गई बलाइ मिटे अंदेसिआ ॥ तिस का दरसनु देखि जगतु निहालु होइ ॥ जन कै संगि निहालु पापा मैलु धोइ ॥ अम्रितु साचा नाउ ओथै जापीऐ ॥ मन कउ होइ संतोखु भुखा ध्रापीऐ ॥ जिसु घटि वसिआ नाउ तिसु बंधन काटीऐ ॥ गुर परसादि किनै विरलै हरि धनु खाटीऐ ॥५॥ पद्अर्थ: संसारि = संसार में। जि = जिस को। गुरि = गुरु ने। बलाइ = बिपता। ओथै = ‘जन’ की संगत में। ध्रापीऐ = त्प्त हो जाता है। जिसु घटि = जिसके हृदय में। भुखा = तृष्णा का मारा हुआ।5। अर्थ: जिस मनुष्य को सतिगुरु ने उपदेश दिया है वह जगत में (रहता हुआ ही माया के बंधनों से) आजाद है; उसकी बिपता दूर हो जाती है, उसके फिक्र मिट जाते हैं, उसका दर्शन करके (सारा) जगत निहाल हो जाता है, उस जन की संगत में जीव पापों की मैल धो के निहाल होता है; उसकी संगति में अमर करने वाला सच्चा नाम स्मरण करते हैं, तृष्णा का मारा हुआ बंदा भी वहाँ तृप्त हो जाता है, उसके मन को संतोष आ जाता है। जिस मनुष्य के हृदय में प्रभु का नाम आ बसता है उसके (माया वाले) बंधन काटे जाते हैं, पर, किसी विरले मनुष्य ने गुरु की कृपा से नाम-धन कमाया है।5। सलोक मः ५ ॥ मन महि चितवउ चितवनी उदमु करउ उठि नीत ॥ हरि कीरतन का आहरो हरि देहु नानक के मीत ॥१॥ पद्अर्थ: चितवउ = मैं सोचता हूँ। चितवनी = सोच। करउ = करूँ। उठि = उठ के।1। अर्थ: मैं अपने मन में (ये) सोचता हूँ कि नित्य (सवेरे) उठ के उद्यम करूँ। हे नानक के मित्र! मुझे अपनी महिमा का आहर बख्श।1। मः ५ ॥ द्रिसटि धारि प्रभि राखिआ मनु तनु रता मूलि ॥ नानक जो प्रभ भाणीआ मरउ विचारी सूलि ॥२॥ पद्अर्थ: द्रिसटि = (मेहर की) नजर। प्रभि = प्रभु ने। मूलि = मूल में, कर्तार में। प्रभ भाणीआ = प्रभु को अच्छी लगती हैं। मरउ = मैं कर रही हूँ। सूलि = दुख में।2। अर्थ: हे नानक! जो (जीव-स्त्रीयां) प्रभु को भा गई हैं, जिनको प्रभु ने मेहर की नजर करके रख लिया है उनका मन और तन प्रभु में रंगा रहता है, पर मैं अभागिन दुख में मर रही हूँ (हे प्रभु! मेरे पर कृपा कर)।2। पउड़ी ॥ जीअ की बिरथा होइ सु गुर पहि अरदासि करि ॥ छोडि सिआणप सगल मनु तनु अरपि धरि ॥ पूजहु गुर के पैर दुरमति जाइ जरि ॥ साध जना कै संगि भवजलु बिखमु तरि ॥ सेवहु सतिगुर देव अगै न मरहु डरि ॥ खिन महि करे निहालु ऊणे सुभर भरि ॥ मन कउ होइ संतोखु धिआईऐ सदा हरि ॥ सो लगा सतिगुर सेव जा कउ करमु धुरि ॥६॥ पद्अर्थ: बिरथा = (संस्कृत: व्यथा) पीड़ा, दुख। अरपि धरि = हवाले कर दे। दुरमति = बुरी मति। जरि जाइ = जल जाती है। बिखमु = मुश्किल। अगै = परलोक में। ऊणे = कमी, खाली। सुभर = नाको नाक। करमु = बख्शिश। धुरि = धुर से, प्रभु की दरगाह में से।6। अर्थ: (हे भाई!) दिल का जो दुख हो वह अपने सतिगुरु के आगे विनती कर, अपनी सारी चतुराई छोड़ दे और मन तन गुरु के हवाले कर दे। सतिगुरु के पैर पूज (भाव, गुरु का आसरा ले, इस तरह) बुरी मति (रूपी ‘व्यथा) जल जाती है, गुरमुखों की संगति में ये मुश्किल संसार समुंदर तैर जाते हैं। (हे भाई!) गुरु के बताए हुए राह पर चलो, परलोक में डर-डर के नहीं मरोगे, गुरु (गुणों से) विहीन बंदों को (गुणों से) नाको-नाक भर के एक पल में निहाल कर देता है, (गुरु के द्वारा अगर) सदा प्रभु को स्मरण करें तो मन को संतोष आता है। पर, गुरु की बताई सेवा में वही मनुष्य लगता है जिस पर धुर से बख्शिश हो।6। सलोक मः ५ ॥ लगड़ी सुथानि जोड़णहारै जोड़ीआ ॥ नानक लहरी लख सै आन डुबण देइ न मा पिरी ॥१॥ पद्अर्थ: सुथानि = अच्छे ठिकाने पर। लहरी = लहरें। सै = सैकड़ों। आन = और-और, भाव, विकारों। मा पिरी = मेरा प्यारा।1। अर्थ: (मेरी प्रीत) अच्छे ठिकाने पर (भाव, प्यारे प्रभु के चरणों में) अच्छी तरह लग गई है जोड़नहार प्रभु ने खुद जोड़ी है, (जगत में) सैकड़ों और लाखों और-और ही (विकारों की) लहरें चल रही हैं। पर, हे नानक! मेरा प्यारा (मुझे इन लहरों में) डूबने नहीं देता।1। मः ५ ॥ बनि भीहावलै हिकु साथी लधमु दुख हरता हरि नामा ॥ बलि बलि जाई संत पिआरे नानक पूरन कामां ॥२॥ पद्अर्थ: भीहावले बनि = डरावने जंगल में। हिकु = एक। लधमु = मैंने ढूँढा है। हरता = नाश करने वाला। पूरन कामा = काम पूरा हो गया।2। अर्थ: (संसार रूपी इस) डरावने जंगल में मुझे हरि नाम रूप एक ही साथी मिला है जो दुखों का नाश करने वाला है। हे नानक! मैं प्यारे गुरु से सदके हूँ (जिसकी मेहर से मेरा ये) काम सिरे चढ़ा है।2। पउड़ी ॥ पाईअनि सभि निधान तेरै रंगि रतिआ ॥ न होवी पछोताउ तुध नो जपतिआ ॥ पहुचि न सकै कोइ तेरी टेक जन ॥ गुर पूरे वाहु वाहु सुख लहा चितारि मन ॥ गुर पहि सिफति भंडारु करमी पाईऐ ॥ सतिगुर नदरि निहाल बहुड़ि न धाईऐ ॥ रखै आपि दइआलु करि दासा आपणे ॥ हरि हरि हरि हरि नामु जीवा सुणि सुणे ॥७॥ पद्अर्थ: पाईअनि = पाए जाते हैं (व्याकरण के अनुसार ‘पाइनि’ से ‘कर्मवाच’ Passive Voice है)। वाहु वाहु = शाबाश। पहि = पास। करमी = (प्रभु की) मेहर से। बहुड़ि = फिर, दुबारा। धाईऐ = भटकते हैं। सुण सुणे = सुन सुन के।7। अर्थ: (हे प्रभु!) अगर तेरे (प्यार के) रंग में रंगे जाएं तो, मानो, सारे खजाने मिल जाते हैं; तुझे स्मरण करते हुए (किसी बात से) पछताना नहीं पड़ता (भाव, कोई ऐसा बुरा काम नहीं कर सकते जिस कारण पछताना पड़े) जिस सेवकों को तेरा आसरा होता है उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। पर, हे मन! पूरे गुरु को शाबाश (कह, जिसके द्वारा ‘नाम’) स्मरण करके सुख मिलता है। महिमा का खजाना सतिगुरु के पास ही है, मिलता है परमात्मा की कृपा से। अगर सतिगुरु मेहर की नजर से देखे तो बारंबार नहीं भटकते। दया का घर प्रभु खुद अपने सेवक बना के (इस भटकना से) बचाता है, मैं भी उस प्रभु का नाम सुन सुन के जी रहा हूँ।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |