श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ भगता का बोलिआ परवाणु है दरगह पवै थाइ ॥ भगता तेरी टेक रते सचि नाइ ॥ जिस नो होइ क्रिपालु तिस का दूखु जाइ ॥ भगत तेरे दइआल ओन्हा मिहर पाइ ॥ दूखु दरदु वड रोगु न पोहे तिसु माइ ॥ भगता एहु अधारु गुण गोविंद गाइ ॥ सदा सदा दिनु रैणि इको इकु धिआइ ॥ पीवति अम्रित नामु जन नामे रहे अघाइ ॥१४॥

पद्अर्थ: पवै थाइ = स्वीकार होता है। टेक = आसरा। सचि = सच में। नाइ = नाम में। अधारु = आसरा। रैणि = रात। अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं। परवाणु = स्वीकार, मानने लायक। माइ = माया।14।

अर्थ: बंदगी करने वाले मनुष्यों का वचन मानने के लायक होता है, प्रभु की दरगाह में (भी) स्वीकार होता है। हे प्रभु! भक्तों को तेरा आसरा होता है, वे सच्चे नाम में रंगे रहते हैं। प्रभु जिस मनुष्य पर मेहरवान होता है उसका दुख दूर हो जाता है। हे दयालु प्रभु! बंदगी करने वाले बंदे तेरे हो के रहते हैं, तू उनपे कृपा करता है; (जिस मनुष्य पर तू मेहर करता है) उसको माया तंग नहीं कर सकती, कोई दुख-दर्द कोई बड़े से बड़ा रोग उसे सता नहीं सकता। गोविंद के गुण गा गा के यह (महिमा) भक्तों (की जिंदगी) का आसरा बन जाती है; दिन रात सदा ही एक प्रभु को स्मरण कर-कर के, नाम-रूपी अमृत पी पी के सेवक नाम में ही तृप्त रहते हैं।14।

सलोक मः ५ ॥ कोटि बिघन तिसु लागते जिस नो विसरै नाउ ॥ नानक अनदिनु बिलपते जिउ सुंञै घरि काउ ॥१॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। अनदिनु = हर रोज। घरि = घर में।1।

अर्थ: जिस मनुष्य को परमात्मा का नाम विसर जाता है उसको करोड़ो विघन आ घेरते हैं; हे नानक! (ऐसे लोग) हर रोज यूँ बिलकते हैं जैसे सूने घरों में कौए शोर डालते हैं (पर वहाँ उन्हें मिलता कुछ नहीं)।1।

मः ५ ॥ पिरी मिलावा जा थीऐ साई सुहावी रुति ॥ घड़ी मुहतु नह वीसरै नानक रवीऐ नित ॥२॥

पद्अर्थ: पिरी मिलावा = प्यारे पति का मेल। जा = जब। सुहावी = सोहणी। मुहतु = महूरत, दो घड़ी। रवीऐ = स्मरण करें।2।

अर्थ: वही ऋतु सुंदर है जब प्यारे प्रभु-पति का मेल होता है। सो, हे नानक! उसे हर वक्त याद करें, कभी घड़ी दो घड़ी भी उस प्रभु को ना भूलें।2।

पउड़ी ॥ सूरबीर वरीआम किनै न होड़ीऐ ॥ फउज सताणी हाठ पंचा जोड़ीऐ ॥ दस नारी अउधूत देनि चमोड़ीऐ ॥ जिणि जिणि लैन्हि रलाइ एहो एना लोड़ीऐ ॥ त्रै गुण इन कै वसि किनै न मोड़ीऐ ॥ भरमु कोटु माइआ खाई कहु कितु बिधि तोड़ीऐ ॥ गुरु पूरा आराधि बिखम दलु फोड़ीऐ ॥ हउ तिसु अगै दिनु राति रहा कर जोड़ीऐ ॥१५॥

पद्अर्थ: वरीआम = शूरवीर। होड़ीऐ = रोकें। सताणी = ताण वाली, ताकतवर। हठ = हठीली। पंचा = पाँच कामादिकों ने। नारी = इंद्रिय। अउधूत = त्यागी। जिणि = जीत के। त्रै गुण = तीन गुणों के सारे जीव। भरमु = भटकना। कोटु = किला। खाई = खाली। कितु बिधि = किस विधी से। दलु = फौज। कर = हाथ।15।

नोट: इस पउड़ी के पहले शलोक में के शब्द ‘कोटि’ और इस शब्द ‘कोटु’ में फर्क याद रखने योग्य है।

अर्थ: (कामादिक विकार) बड़े शूरवीर और बहादर (सिपाही) हैं, किसी ने इन्हें रोका नहीं, इन पाँचों ने बड़ी बलशाली और हठीली फौज एकत्र की हुई है, (दुनियादार तो कहाँ रहे) त्यागियों को (भी) ये दस इंद्रिय चिपका देते हैं, सबको जीत जीत के अपने मुताबिक ढाले जाते हैं। बस! यही बात ये चाहते हैं, सारे ही त्रैगुणी जीव इनके दबाव तले हैं। कोई इन्हें मोड़ नहीं सका, (माया की खातिर जीवों की) भटकना (ये, मानो, इन पाँचों का) किला है और माया (का मोह, उस किले के इर्द-गिर्द गहरी) खाई (खुदी हुई) है, (ये किला) कैसे तोड़ा जाए?

पूरे सतिगुरु को याद करने से ये ताकतवर फौज सर की जा सकती है, (यदि प्रभु की मेहर हो तो) मैं दिन-रात हाथ जोड़ के उस गुरु के सामने खड़ा रहूँ।15।

सलोक मः ५ ॥ किलविख सभे उतरनि नीत नीत गुण गाउ ॥ कोटि कलेसा ऊपजहि नानक बिसरै नाउ ॥१॥

पद्अर्थ: किलविख = पाप। नीत नीत = हर रोज, सदा ही।1।

अर्थ: हे नानक! सदा ही प्रभु की महिमा करो, (महिमा की इनायत से) सारे पाप उतर जाते हैं, अगर प्रभु का नाम भूल जाए तो करोड़ों दुख लग जाते हैं।1।

मः ५ ॥ नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी होवै जुगति ॥ हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे होवै मुकति ॥२॥

पद्अर्थ: सतिगुरि भेटिऐ = यदि गुरु मिल जाए। जुगति = जीने की विधि, जिंदगी गुजारने का तरीका। पूरी = मुकंमल, जिस में कोई कमी ना रहे। विचे = माया में वरतते हुए ही। मुकति = माया के बंधनों से आजादी।2।

नोट: ‘सतिगुरि’ है अधिकरण कारक, एकवचन। और ‘भेटिअै’ है पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute.

अर्थ: हे नानक! अगर सतिगुरु मिल जाए तो जीने का सही सलीका आ जाता, और हँसते खेलते खाते पहनते (भाव, दुनिया के सारे काम करते हुए) माया में बरतते हुए भी कामादिक विकारों से बचे रह सकते हैं।2।

पउड़ी ॥ सो सतिगुरु धनु धंनु जिनि भरम गड़ु तोड़िआ ॥ सो सतिगुरु वाहु वाहु जिनि हरि सिउ जोड़िआ ॥ नामु निधानु अखुटु गुरु देइ दारूओ ॥ महा रोगु बिकराल तिनै बिदारूओ ॥ पाइआ नामु निधानु बहुतु खजानिआ ॥ जिता जनमु अपारु आपु पछानिआ ॥ महिमा कही न जाइ गुर समरथ देव ॥ गुर पारब्रहम परमेसुर अपर्मपर अलख अभेव ॥१६॥

पद्अर्थ: भरम गढ़ु = भ्रम का किला। जिनि = जिस (गुरु) ने। वाहु वाहु = सोहणा। देइ = देता है। तिनै = उस (गुरु) ने ही। जिता = जीत लिया। आपु = अपने आप को। महिमा = बड़ाई। समरथ = ताकत वाला, समर्थ। अपरंपर = जिसका परला छोर ना दिखे। अलख = जो समझ में ना आ सके। अभेद = जिसका भेद ना पाया जा सके।16।

अर्थ: धन्य है वह सतिगुरु जिसने (हमारा) भ्रम का किला तोड़ दिया है, अत्भुद महिमा वाला है वह गुरु जिसने (हमें) ईश्वर से जोड़ दिया है; गुरु अमु नाम-खजाना रूपी दवाई देता है, (इस दवाई से) उस गुरु ने ही (हमारा ये) बड़ा भयानक रोग नाश कर दिया है।

(जिस मनुष्य ने गुरु से) प्रभु-नाम रूपी बड़ा खजाना हासिल किया है उसने अपने आप को पहचान लिया है और मानव-जन्म (की) अपार (बाजी) जीत ली है।

समर्थ गुरदेव की महिमा बयान नहीं की जा सकती। सतिगुरु उस परमेश्वर पारब्रहम का रूप है और बेअंत है अलख है और अभेव है।16।

सलोकु मः ५ ॥ उदमु करेदिआ जीउ तूं कमावदिआ सुख भुंचु ॥ धिआइदिआ तूं प्रभू मिलु नानक उतरी चिंत ॥१॥

अर्थ: हे नानक! (प्रभु की भक्ति का) उद्यम करते हुए आत्मिक जीवन मिलता है, (इस नाम की) कमाई करने से सुख की प्राप्ति होती है; नाम स्मरण करने से परमात्मा को मिल लेते है और चिन्ता मिट जाती है।1।

मः ५ ॥ सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥२॥

नोट: यही शलोक राग आसा महला ५ छंत घरु ७ के शीर्षक के तले भी आया है।

पद्अर्थ: सुभ = भली। चिंतन = सोच। रमण = स्मरण। निरमलु = पवित्र। न विसरउ = ना भुलाऊँ।2।

अर्थ: हे भगवान! मुझ नानक पर कृपा कर कि मैं एक घड़ी भी तेरा नाम ना भुलाऊँ। पवित्र संत-संग करूँ, गोबिंद का स्मरण करूँ और भली सोचें सोचूँ।2।

पउड़ी ॥ तेरा कीता होइ त काहे डरपीऐ ॥ जिसु मिलि जपीऐ नाउ तिसु जीउ अरपीऐ ॥ आइऐ चिति निहालु साहिब बेसुमार ॥ तिस नो पोहे कवणु जिसु वलि निरंकार ॥ सभु किछु तिस कै वसि न कोई बाहरा ॥ सो भगता मनि वुठा सचि समाहरा ॥ तेरे दास धिआइनि तुधु तूं रखण वालिआ ॥ सिरि सभना समरथु नदरि निहालिआ ॥१७॥

पद्अर्थ: होइ = होता है, घटित होता है। काहे = क्यूँ? तिसु = उसको। अरपीऐ = भेट कर दें। आइऐ चिति = (पूरब पूरन कारदंतक, Locative Absolute) अगर चिक्त में आ जाए। बेसुमार = बेअंत। पोहे = दबाव डाले। बाहरा = आकी। वुठा = बसा। सचि = सत्य के द्वारा, सच से, (भक्तों के) स्मरण से। समाहरा = समाया हुआ। निहालिआ = निहाल करने वाला।17।

अर्थ: अगर (हे प्रभु!) जो कुछ घटित होता है तेरा ही किया हुआ होता है तो (हम) क्यूँ (किसी से) डरें? जिस को मिल के प्रभु का नाम जपा जाए, उसके आगे अपना आप भेट कर देना चाहिए, क्योंकि अगर बेअंत साहिब चिक्त में आ बसे तो निहाल हो जाते हैं, जिसके पक्ष में निरंकार हो जाए, उस पर कोई दबाव नहीं डाल सकता, क्योंकि हरेक चीज उस परमात्मा के वश में है, उसके हुक्म से परे नहीं जा सकता, (भक्तों के) स्मरण के कारण वह प्रभु भक्तों के मन में आ बसता है (उनके अंदर) समा जाता है।

हे प्रभु! तेरे दास तुझे याद करते हैं, तू उनकी रक्षा करता है, तू सब जीवों के सिर पर हाकिम है, मेहर की नजर करके (जीवों को) सुख देने वाला है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh