श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लोकन की चतुराई उपमा ते बैसंतरि जारि ॥ कोई भला कहउ भावै बुरा कहउ हम तनु दीओ है ढारि ॥१॥

पद्अर्थ: लोकन की = लोगों वाली। उपमा = बड़ाई। ते = वे सारी। बैसंतरि = आग में। जारि = जला दी हैं। कहउ = बेशक कहे। ढारि दीओ = ढाल दिया है, भेटा कर दी है, देह अध्यास दूर कर दिया है, शारीरिक मोह छोड़ दिया है।1।

नोट: ‘कहउ’ है हुकमी भविष्यत, अन्य-पुरुष, एक वचन। ये ध्यान रखना कि ये शब्द यहाँ ‘वर्तमान काल, उत्तम पुरुष एक वचन’ नहीं है।

अर्थ: दुनिया वाली समझदारी, और दुनियावी बड़प्पन-इन्हें मैंने आग में जला दिया है। चाहे मुझे कोई अच्छा कहे चाहे कोई बुरा कहे, मैंने तो अपना शरीर (ठाकुर के चरणों में) भेट कर दिया है।1।

जो आवत सरणि ठाकुर प्रभु तुमरी तिसु राखहु किरपा धारि ॥ जन नानक सरणि तुमारी हरि जीउ राखहु लाज मुरारि ॥२॥४॥

पद्अर्थ: ठाकुर प्रभ = हे ठाकुर! हे प्रभु! राखहु = तू रखता है। धारि = धार के। मुरारि = हे मुरारी!।2।

अर्थ: हे मालिक! हे प्रभु! जो भी कोई (भाग्यशाली) तेरी शरण आ पड़ता है, तू मेहर करके उसकी रक्षा करता है। हे दास नानक! (कह:) हे हरि जी! हे मुरारी! मैं तेरी शरण आया हूँ, मेरी इज्जत रख।2।4।

देवगंधारी ॥ हरि गुण गावै हउ तिसु बलिहारी ॥ देखि देखि जीवा साध गुर दरसनु जिसु हिरदै नामु मुरारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। देखि = देख के। जीवा = मैं जीता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है। जिसु हिरदै = जिस हृदय में। नामु मुरारी = मुरारी का नाम (मुर+अरि, मुर = दैत्य का वैरी, परमात्मा)।1। रहाउ।

अर्थ: मैं उस (गुरु, साधु) से कुर्बान जाता हूँ जो (हर समय) परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है। उस गुरु का साधु के दर्शन कर करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है जिसके हृदय में (सदा) परमात्मा का नाम बसता है।1। रहाउ।

तुम पवित्र पावन पुरख प्रभ सुआमी हम किउ करि मिलह जूठारी ॥ हमरै जीइ होरु मुखि होरु होत है हम करमहीण कूड़िआरी ॥१॥

पद्अर्थ: पावन = पवित्र। पुरख = सर्व व्यापक। किउ करि = कैसे? मिलह = हम मिलें। जूठारी = मलीन। जीइ = जी में, दिल में। मुखि = मुँह में। करमहीण = बद्किस्मत। कूड़िआरी = झूठ के बंजारे।1।

नोट: ‘जीइ’ शब्द ‘जीउ’ से बना अधिकरण कारक, एकवचन।

अर्थ: हे स्वामी! हे सर्व-व्यापक प्रभु! तू सदा ही पवित्र है, पर हम मैले जीवन वाले हैं, हम तुझे कैसे मिल सकते हैं? हमारे दिल में कुछ और होता है, हमारे मुँह पर कुछ और होता है (मुँह से हम कुछ और कहते हैं), हम बुरे भाग्यों वाले हैं, हम सदा झूठी माया के ग्राहक बने रहते हैं।1।

हमरी मुद्र नामु हरि सुआमी रिद अंतरि दुसट दुसटारी ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरणि तुम्हारी ॥२॥५॥

पद्अर्थ: मुद्र = मोहर, चिन्ह, निशान, भेस, दिखावा। रिद = हृदय। दुसट = बुरा, बुरे विचार।2।

अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! तेरा नाम हमारा दिखावा है (हम दिखावे के तौर पर जपते रहते हैं), पर हमारे हृदय में सदा बुरे विचार भरे रहते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे स्वामी! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, जैसे भी हो सके मुझे (इस पाखण्ड से) बचा ले।2।4।

देवगंधारी ॥ हरि के नाम बिना सुंदरि है नकटी ॥ जिउ बेसुआ के घरि पूतु जमतु है तिसु नामु परिओ है ध्रकटी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुंदरि = (स्त्री-लिंग) सुंदर स्त्री। नकटी = नाक कटी, बद्शकल। बेसुआ = वेश्वा। घरि = घर में। जमतु है = पैदा हो जाता है। परिओ है = पड़ जाता है। ध्रकटी = धरकट स्त्री का पुत्र, व्यभचारिन का पुत्र, हरामी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना ये सुंदर (मानव) काया बद्शकल ही जानो। जैसे अगर किसी वैश्या के घर पुत्र पैदा हो जाए, तो उसका नाम हरामी पड़ जाता है (चाहे वह शकल से सुंदर ही क्यों ना हो)।1। रहाउ।

जिन कै हिरदै नाहि हरि सुआमी ते बिगड़ रूप बेरकटी ॥ जिउ निगुरा बहु बाता जाणै ओहु हरि दरगह है भ्रसटी ॥१॥

पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। सुआमी = मालिक प्रभु। ते = वह लोग। बिगड़ रूप = बिगड़ी हुई शकल वाले, बद्शकल। बेरकटी = (रकट = रक्त, लहू) बिगड़े हुए खून वाले, कोढ़ी। भ्रसटी = भ्रष्ट, विकारों में गिरे हुए, गंदे आचरण वाला।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में मालिक प्रभु की (याद) नहीं, वे मनुष्य बद्सूरत ही हैं; वे कोढ़ी हैं। जैसे कोई गुरु से बेमुख मनुष्य (चाहे चतुराई की) बहुत सारी बातें करनी जानता हो (लोगों को अपनी बातों से रिझा ले, पर) परमात्मा की दरगाह में भ्रष्ट ही (गिना जाता) है।1।

जिन कउ दइआलु होआ मेरा सुआमी तिना साध जना पग चकटी ॥ नानक पतित पवित मिलि संगति गुर सतिगुर पाछै छुकटी ॥२॥६॥ छका १

पद्अर्थ: पग = पैर। चकटी = चट्टे, परसे। पतित = विकारों में गिरे हुए। मिलि = मिल के। छुकटी = विकारों से बच जाते हैं।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) जिस मनुष्यों पर प्यारा प्रभु मेहरवान होता है वे मनुष्य संत जनों के पैर परसते रहते हैं। गुरु की संगति में मिल के विकारी मनुष्य भी अच्छे आचरण वाले बन जाते हैं, गुरु के डाले हुए मार्ग पर चल के वे विकारों के पँजे में से बच निकलते हैं।2।9। छका १।

नोट: 'छका/छक्का' छह शब्दों का संग्रह।

नोट: शीर्षक में सिर्फ पहले शब्द के साथ ही शब्द ‘महला ४’ बरता गया है। फिर कहीं नहीं। आखिरी शब्द ‘छका १’ ने ही काम चला दिया है।

देवगंधारी महला ५ घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

माई गुर चरणी चितु लाईऐ ॥ प्रभु होइ क्रिपालु कमलु परगासे सदा सदा हरि धिआईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! लाईऐ = जोड़ना चाहिए। कमलु = कमल फूल। परगासे = खिल उठता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ना चाहिए। (गुरु के माध्यम से जब) परमात्मा दयावान होता है, तो (हृदय का) कमल-पुष्प खिल उठता है। हे माँ! सदा (गुरु की शरण पड़ के) परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए।1। रहाउ।

अंतरि एको बाहरि एको सभ महि एकु समाईऐ ॥ घटि अवघटि रविआ सभ ठाई हरि पूरन ब्रहमु दिखाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: अंतरि = (शरीरों के) अंदर। सभ महि = सारी सृष्टि में। घटि अवघटि = हरेक शरीर में। सभ ठाई = सभ जगहों में। दिखाईऐ = दिखाई देता है।1।

अर्थ: हे माँ! शरीरों के अंदर एक परमात्मा ही बस रहा है, बाहर सारे जगत पसारे में भी एक परमात्मा ही बस रहा है, सारी सृष्टि में वही एक व्यापक है। हरेक शरीर में हर जगह सर्व-व्यापक परमात्मा ही (बसता) दिखाई दे रहा है।1।

उसतति करहि सेवक मुनि केते तेरा अंतु न कतहू पाईऐ ॥ सुखदाते दुख भंजन सुआमी जन नानक सद बलि जाईऐ ॥२॥१॥

पद्अर्थ: उसतति = बड़ाई, उपमा, महिमा। मुनि केते = बेअंत मुनि जन। कतहू = किसी तरफ से भी। सुख दाते = हे सुख देने वाले! दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! सद = सदा।2।

अर्थ: हे प्रभु! बेअंत ऋषि-मुनि जन, और, बेअंत (तेरे) सेवक-जन तेरी उपमा करते आ रहे हैं, किसी से भी तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सका। हे दास नानक! (कह:) हे सुख देने वाले! हे दुखों के नाश करने वाले! तुझसे सदा सदके जाना चाहिए।2।1।

देवगंधारी ॥ माई होनहार सो होईऐ ॥ राचि रहिओ रचना प्रभु अपनी कहा लाभु कहा खोईऐ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! होनहार = जो (प्रभु के हुक्म में) जरूर घटित होनी है। राचि रहिओ = खचित है, व्यस्त है। रचना = खेल। कहा = कहाँ। खोईऐ = खो रहा है।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! (जगत में) वही कुछ घटित हो रहा है जो (परमात्मा की मर्जी के अनुसार, आज्ञा मुताबिक) जरूर होना है। परमात्मा खुद अपनी इस जगत खेल में व्यस्त है, कहीं लाभ हो रहा है, कहीं कुछ गवा रहा है।1। रहाउ।

कह फूलहि आनंद बिखै सोग कब हसनो कब रोईऐ ॥ कबहू मैलु भरे अभिमानी कब साधू संगि धोईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: कह = कहाँ। फूलहि = बढ़ते फूलते हैं। बिखै = विषौ विकार। सोग = शोक, गम। हसनो = हसीं। कब = कब। रोईऐ = रोएं। भरे = भरे हुए, लिबड़े हुए। अभिमानी = अहंकारी। साधू संगि = गुरु की संगति में।1।

अर्थ: हे माँ! (जगत में) कहीं खुशियां बढ़-फूल रही हैं, कहीं विषय-विकारों के कारण चिन्ता-फिक्र बढ़ रहे हैं। कहीं हसीं हो रही है, कहीं रोया जा रहा है। कहीं कोई अहंकारी मनुष्य अहंकार की मैल से लिप्त हैं, कहीं गुरु की संगति में बैठ के (अहं की मैल को) धोया जा रहा है।1।

कोइ न मेटै प्रभ का कीआ दूसर नाही अलोईऐ ॥ कहु नानक तिसु गुर बलिहारी जिह प्रसादि सुखि सोईऐ ॥२॥२॥

पद्अर्थ: मेटै = मिटा सकता। अलोईऐ = देखते हैं। कहु = कह। जिह प्रसादि = जिसकी कृपा से। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोईऐ = लीन रह सकते हैं।2।

अर्थ: (हे माँ! जगत में परमात्मा के बिना) कोई दूसरा नहीं दिखता, कोई जीव उस परमात्मा का किया (हुक्म) मिटा नहीं सकता।

हे नानक! कह: मैं उस गुरु से कुर्बान हूँ जिसकी कृपा से (परमात्मा की रजा में रह के) आत्मिक आनंद में लीन रह सकते हैं।2।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh