श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 530 महा किलबिख कोटि दोख रोगा प्रभ द्रिसटि तुहारी हाते ॥ सोवत जागि हरि हरि हरि गाइआ नानक गुर चरन पराते ॥२॥८॥ पद्अर्थ: किलबिख = पाप। कोटि = करोड़ों। दोख = दोष, ऐब। प्रभ = हे प्रभु! द्रिसटि = निगाह। हाते = नाश हो जाते हैं, हत्या हो जाती है। पराते = पड़ते हैं।2। अर्थ: हे प्रभु! (जीवों के किए हुए) बड़े-बड़े पाप, करोड़ों एैब और रोग तेरी मेहर की निगाह से नाश हो जाते हैं। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य गुरु के चरणों में आ पड़ते हैं वे सोते जागते हर वक्त परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहते हैं।2।8। देवगंधारी ५ ॥ सो प्रभु जत कत पेखिओ नैणी ॥ सुखदाई जीअन को दाता अम्रितु जा की बैणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह। देखिओ = मैंने देख लिया है। नैणी = अपनी आँखों से। को = का। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। जा की बैणी = जिसकी महिमा वाले गुरु वचनों में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जो परमात्मा सब जीवों को दातें देने वाला है सारे सुख देने वाला है, जिस परमात्मा की महिमा भरे गुरु-शबदों में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है, उसको मैंने (गुरु की कृपा से) हर जगह अपनी आँखों से देख लिया है।1। रहाउ। अगिआनु अधेरा संती काटिआ जीअ दानु गुर दैणी ॥ करि किरपा करि लीनो अपुना जलते सीतल होणी ॥१॥ पद्अर्थ: अधेरा = अंधेरा। संती = संत जनों ने। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुर दैणी = देनहार गुरु ने। जलते = जल रहे। सीतल = ठंडा ठार, शांत चिक्त।1। अर्थ: हे भाई! संत जनों ने (मेरे अंदर से) अज्ञान अंधेरा काट दिया है, देवनहार गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन की दाति बख्शी है। प्रभु ने मेहर करके मुझे अपना (सेवक) बना लिया है (तृष्णा की आग में) जल रहा मैं शांत-चिक्त हो गया हूँ।1। करमु धरमु किछु उपजि न आइओ नह उपजी निरमल करणी ॥ छाडि सिआनप संजम नानक लागो गुर की चरणी ॥२॥९॥ पद्अर्थ: करमु धरमु = (शास्त्रों के अनुसार माना हुआ) धार्मिक काम। उपजि न आइओ = मुझसे हो नहीं सका। निरमल करणी = (तीर्थ स्नान आदि द्वारा) स्वच्छता का काम। छाडि = छोड़ के। संजम = इन्द्रियों को वश में करने के यत्न।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! शास्त्रों के अनुसार मिथा हुआ कोई) धार्मिक कर्म मुझसे हो नहीं सका, (तीर्थ-स्नान के द्वारा) शरिरिक स्वच्छता वाला कोई काम मैं कर नहीं सका, अपनी चतुराई छोड़ के मैं गुरु की चरणी आ पड़ा हूँ।2।9। देवगंधारी ५ ॥ हरि राम नामु जपि लाहा ॥ गति पावहि सुख सहज अनंदा काटे जम के फाहा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपि = जप के। लाहा = लाभ। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सहज = आत्मिक अडोलता।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जप-जप के मानव जनम का लाभ कमा। (अगर तू नाम जपेगा तो) ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर लेगा, आत्मिक अडोलता के सुख आनंद पाएगा, तेरी (आत्मिक) मौत की फाँसी काटी जाएंगी।1। रहाउ। खोजत खोजत खोजि बीचारिओ हरि संत जना पहि आहा ॥ तिन्हा परापति एहु निधाना जिन्ह कै करमि लिखाहा ॥१॥ पद्अर्थ: खोजत खोजत = तलाश करते करते। पहि = पास। आहा = है। निधाना = खजाना। करमि = (परमात्मा की) कृपा से।1। अर्थ: हे भाई! तलाश करते-करते मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि (ये लाभ) प्रभु के संत-जनों के पास है, और, ये नाम-खजाना उन मनुष्यों को मिलता है, जिनके माथे पर परमात्मा की बख्शिश से (कृपा से इसका प्राप्त होना) लिखा हुआ है।1। से बडभागी से पतिवंते सेई पूरे साहा ॥ सुंदर सुघड़ सरूप ते नानक जिन्ह हरि हरि नामु विसाहा ॥२॥१०॥ पद्अर्थ: से पतवंते = वे हैं इज्जत वाले। साहा = शाहूकार। सुघड़ = अच्छे जीवन वाले। विसाहा = खरीदा।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) वही मनुष्य ऊँचे भाग्यों वाले हैं वही इज्जत वाले हैं, वही पूरे शाहूकार हैं, वही सुंदर हैं, सु-जीवन वाले हैं, सुंदर स्वरूप हैं, जिन्होंने परमात्मा के नाम का माल-असवाब (वखर) खरीदा है।2।10। देवगंधारी ५ ॥ मन कह अहंकारि अफारा ॥ दुरगंध अपवित्र अपावन भीतरि जो दीसै सो छारा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! कह = क्यूँ? अहंकारि = अहंकार से। अफारा = अफरा हुआ। दुरगंध = बदबू। अपावन = अपवित्र, गंदा। भीतरि = (तेरे शरीर के) अंदर। छारा = नाशवान।1। रहाउ। अर्थ: हे मन! तू क्यों अहंकार से आफरा हुआ है? (तेरे शरीर के) अंदर बदबू है, गंदगी है, और, जो ये तेरा शरीर दिख रहा है ये भी नाशवान है।1। रहाउ। जिनि कीआ तिसु सिमरि परानी जीउ प्रान जिनि धारा ॥ तिसहि तिआगि अवर लपटावहि मरि जनमहि मुगध गवारा ॥१॥ पद्अर्थ: जिन = जिस (कर्तार) ने। कीआ = पैदा किया है। परानी = हे प्राणी! जीउ = प्राण। धारा = सहारा दिया है। तिसहि = उस (कर्तार) को। तिआगि = छोड़ के। मरि = मर के। मुगध = हे मूर्ख! गवारा = हे गवार!।1। अर्थ: हे प्राणी! जिस परमात्मा ने तुझे पैदा किया है, जिसने तेरी जिंद तेरे प्राणों को (शरीर का) आसरा दिया हुआ है उसका स्मरण किया कर। हे मूर्ख! हे गवार! तू उस परमात्मा को भुला के और ही पदार्थों के साथ चिपका रहता है, जनम-मरण के चक्र में पड़ा रहेगा।1। अंध गुंग पिंगुल मति हीना प्रभ राखहु राखनहारा ॥ करन करावनहार समरथा किआ नानक जंत बिचारा ॥२॥११॥ पद्अर्थ: अंध = अंधा। पिंगुल = लूला। मति हीना = मूर्ख। प्रभ = हे प्रभु!।2। अर्थ: हे सब जीवों की रक्षा करने में समर्थ प्रभु! (जीव माया के मोह में) अंधे हुए पड़े हैं, तेरे भजन से गूँगे हो रहे हैं, तेरे रास्ते पर चलने से लूले हो चुके हैं, मूर्ख हो गए हैं, उनको तू खुद (इस मोह में से) बचा ले। हे नानक! (कह:) हे सब कुछ खुद कर सकने वाले और जीवों से करा सकने की स्मर्था रखने वाले प्रभु! इन जीवों के वश में कुछ भी नहीं (तू खुद इनकी सहायता कर)।2।11। देवगंधारी ५ ॥ सो प्रभु नेरै हू ते नेरै ॥ सिमरि धिआइ गाइ गुन गोबिंद दिनु रैनि साझ सवेरै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नेरै हू ते नेरै = नजदीक से नजदीक, पास ही। रैनि = रात। साझ = शाम।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! दिन-रात शाम-सवेरे (हर वक्त) परमात्मा के गुण गाता रह, परमात्मा का नाम स्मरण करता रह, परमात्मा का ध्यान धरता रह। वह परमात्मा तेरे साथ ही बसता है।1। रहाउ। उधरु देह दुलभ साधू संगि हरि हरि नामु जपेरै ॥ घरी न मुहतु न चसा बिल्मबहु कालु नितहि नित हेरै ॥१॥ पद्अर्थ: उधरु देह = (उद्धार देह) शरीर का (संसार समुंदर से) पार उतारा कर ले। दुलभ देह = जो मानव शरीर मुश्किल से मिला है। साध संगि = गुरु की संगति में। जपेरै = जपता रह। मुहतु = आधी घड़ी। चसा = निमख मात्र। न बिलंबहु = देर ना कर। कालु = मौत। हेरै = ताक रही है।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में टिक के परमात्मा का नाम जपा कर, और, अपने इस मानव शरीर को (विकारों के समुंदर में डूबने से) बचा ले जो बड़ी मुश्किल से तुझे मिला है। हे भाई! मौत तुझे हर वक्त सदा देख रही है, तूने (नाम स्मरण करने में) एक घड़ी भी ढील नही करनी, आधी घड़ी भी देर नहीं करनी, रक्ती भर भी विलम्ब नहीं करनी।1। अंध बिला ते काढहु करते किआ नाही घरि तेरै ॥ नामु अधारु दीजै नानक कउ आनद सूख घनेरै ॥२॥१२॥ छके २ ॥ पद्अर्थ: बिला = बिल, खड। अंध = अंधी। ते = से, में से। करते = हे कर्तार! घरि तेरै = तेरे घर में। अधारु = आसरा। कउ = को। घनेरै = बहुत।2। अर्थ: हे कर्तार! तेरे घर में किसी चीज की कमी नहीं (मेहर कर, तू खुद जीवों को माया के मोह की) घोर अंधेरी गुफा (बिल) में से निकाल ले। हे कर्तार! नानक को अपने नाम का आसरा दे, तेरे नाम में बेअंत सुख आनंद हैं।2।12। छके 2। देवगंधारी ५ ॥ मन गुर मिलि नामु अराधिओ ॥ सूख सहज आनंद मंगल रस जीवन का मूलु बाधिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। सहज = आत्मिक अडोलता। मंगल = खुशी। मूलु = आदि। बाधिओ = बाँध लिया।1। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) मन! जिस मनुष्य ने गुरु को मिल के परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसने आत्मिक अडोलता के सुख आनंद और खुशियों वाली जिंदगी का आरम्भ कर दिया।1। रहाउ। करि किरपा अपुना दासु कीनो काटे माइआ फाधिओ ॥ भाउ भगति गाइ गुण गोबिद जम का मारगु साधिओ ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। कीनो = बना लिया। फाधिओ = फाही। भाउ = प्यार। गाइ = गा के। मारगु = रास्ता। साधिओ = सुधार कर लिया, वश में कर लिया।1। अर्थ: हे मन! परमात्मा ने कृपा करके जिस मनुष्य को अपना दास बना लिया, उसने उसके माया के मोह वाले बंधन काट दिए। उस मनुष्य ने (प्रभु चरणों में) प्रेम (करके, प्रभु की) भक्ति (करके) गोबिंद के गुण गा के (आत्मिक मौत) के रास्ते को अपने वश में कर लिया।1। भइओ अनुग्रहु मिटिओ मोरचा अमोल पदारथु लाधिओ ॥ बलिहारै नानक लख बेरा मेरे ठाकुर अगम अगाधिओ ॥२॥१३॥ पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। मोरचा = (लोहे को) जंग लगना, जंगाल। अमोल = कीमती। नानक = हे नानक! बेरा = बारी। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधिओ = अथाह।2। अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य पर परमात्मा की मेहर हुई, उस (के मन से माया के मोह) का जंग उतर गया, उसने परमात्मा का कीमती नाम-पदार्थ पा लिया। हे नानक! (कह:) मैं लाखों बार कुर्बान जाता हूँ अपने उस मालिक प्रभु से जो (जीवों की बुद्धि की) पहुँच से परे है, और, जो अथाह (गुणों वाला) है।2।13। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |