श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सो ऐसा हरि नित सेवीऐ मेरी जिंदुड़ीए जो सभ दू साहिबु वडा राम ॥ जिन्ही इक मनि इकु अराधिआ मेरी जिंदुड़ीए तिना नाही किसै दी किछु चडा राम ॥ गुर सेविऐ हरि महलु पाइआ मेरी जिंदुड़ीए झख मारनु सभि निंदक घंडा राम ॥ जन नानक नामु धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए धुरि मसतकि हरि लिखि छडा राम ॥४॥५॥

पद्अर्थ: सेवीऐ = सेवा भक्ति करनी चाहिए। सभ दू = सब से। साहिबु = मालिक। इक मनि = एक मन से, तवज्जो/ध्यान जोड़ के। चडा = अधीनता, अधीनगी। गुर सेविऐ = अगर गुरु की सेवा की जाए (शब्द ‘सेवीऐ’ और ‘सेविऐ’ का फर्क याद रखें)। हरि महलु = परमात्मा का घर, परमात्मा की हजूरी। सभि = सारे। घंडा = चालाक, झगड़ालू। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। लिखि छडा = लिख रखा है।4।

अर्थ: हे मेरी सुंदर सी जीवात्मा! सदा उस परमात्मा की सेवा-भक्ति करनी चाहिए जो सबसे बड़ा मालिक है। जिस मनुष्यों ने तवज्जो जोड़ के एक परमात्मा का स्मरण किया उन्हें किसी की कोई अधीनगी नहीं रह जाती। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! गुरु की शरण पड़ने से परमात्मा का दर प्राप्त हो जाता है, (फिर) सारे ही चालाक निंदक पड़े लगाते रहें जोर (उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते)। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! (उन मनुष्यों ने ही) परमात्मा का नाम स्मरण किया है (जिनके) माथे पर परमात्मा ने धुर दरगाह से (स्मरण का) लेख लिख रखा है।4।5।

बिहागड़ा महला ४ ॥ सभि जीअ तेरे तूं वरतदा मेरे हरि प्रभ तूं जाणहि जो जीइ कमाईऐ राम ॥ हरि अंतरि बाहरि नालि है मेरी जिंदुड़ीए सभ वेखै मनि मुकराईऐ राम ॥ मनमुखा नो हरि दूरि है मेरी जिंदुड़ीए सभ बिरथी घाल गवाईऐ राम ॥ जन नानक गुरमुखि धिआइआ मेरी जिंदुड़ीए हरि हाजरु नदरी आईऐ राम ॥१॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। जीअ = जीव। प्रभ = हे प्रभु! जीइ = जी में, मन में। कमाईऐ = कमाते हैं। मनि = मन में। मुकराईऐ = मुकर जाते हैं, जबान से फिर जाते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। घाल = मेहनत। गवाईऐ = गायब हो जाती है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। हाजरु = प्रत्यक्ष, हर जगह बसता। आईऐ = आ जाता है।1।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे मेरे हरि! हे मेरे प्रभु! (सृष्टि के) सारे जीव तेरे (ही पैदा किए हुए) हैं, तू (सब जीवों में) मौजूद है, जो कुछ (जीवों के) जी में चित्रित होता है तू (वह सब कुछ) जानता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! परमात्मा हमारे अंदर बाहर (हर जगह) हमारे साथ है, जो कुछ हमारे मन में होता है वह सब देखता है, (पर फिर भी हम) मुकर जाते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्यों को परमात्मा कहीं दूर बसता प्रतीत होता है, उनकी की हुई मेहनत व्यर्थ चली जाती है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्यों ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम स्मरण किया है उन्हें परमात्मा हर जगह बसता दिखता है।1।

से भगत से सेवक मेरी जिंदुड़ीए जो प्रभ मेरे मनि भाणे राम ॥ से हरि दरगह पैनाइआ मेरी जिंदुड़ीए अहिनिसि साचि समाणे राम ॥ तिन कै संगि मलु उतरै मेरी जिंदुड़ीए रंगि राते नदरि नीसाणे राम ॥ नानक की प्रभ बेनती मेरी जिंदुड़ीए मिलि साधू संगि अघाणे राम ॥२॥

पद्अर्थ: से = (बहुवचन) वे। मनि = मन में। भाणै = पसंद आ गए। पैनाइआ = सिरोपा दिया जाता है, आदर मिलता है। अहि = दिन। निसि = रात। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे जाते हैं। नीसाणे = (माथे पर) निशान। मिलि साधू = गुरु को मिल के। अघाणे = तृष्णा की ओर से तृप्त रहते हैं।2।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! वह मनुष्य (असल) सेवक हैं जो प्यारे परमात्मा के मन में अच्छे लगते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! वे मनुष्य परमात्मा की हजूरी में आदर पाते हैं, वह दिन-रात सदा कायम रहने वाले परमात्मा में लीन रहते हैं। हे मेरी सोहणी जीवात्मा! उनकी संगति में रहने से (मन से विकारों की) मैल उतर जाती है वे सदा प्रभु के प्रेम रंग में रंगे रहते हैं। उनके माथे पर प्रभु के मेहर की निगाह का निशान होता है। हे मेरी सुंदर जीवात्मा! (कह:) हे प्रभु! नानक की ये आरजू है (कि नानक गुरु की संगति में टिका रहे) गुरु की संगति में रहने से (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं।2।

हे रसना जपि गोबिंदो मेरी जिंदुड़ीए जपि हरि हरि त्रिसना जाए राम ॥ जिसु दइआ करे मेरा पारब्रहमु मेरी जिंदुड़ीए तिसु मनि नामु वसाए राम ॥ जिसु भेटे पूरा सतिगुरू मेरी जिंदुड़ीए सो हरि धनु निधि पाए राम ॥ वडभागी संगति मिलै मेरी जिंदुड़ीए नानक हरि गुण गाए राम ॥३॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। गोबिंदे = गोबिंदु। त्रिसना = तृष्णा, माया की प्यास। मनि = मन में। भेटे = मिलता है। निधि = खजाना। पाए = ढूँढ लेता है।3।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जिंदे! (कह:) हे मेरी जीभ! परमात्मा का नाम जपा कर, हरि नाम जप-जप के माया का लालच दूर हो जाता है। हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य पर परमात्मा कृपा करता है, उसके मन में अपना नाम बसा देता है, जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, वह प्रभु का नाम-धन नाम-खजाना ढूँढ लेता है। हे नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जिंदे! जिस मनुष्य को बड़े भाग्यों से गुरु की संगति प्राप्त होती है वह (सदा) परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहता है।3।

थान थनंतरि रवि रहिआ मेरी जिंदुड़ीए पारब्रहमु प्रभु दाता राम ॥ ता का अंतु न पाईऐ मेरी जिंदुड़ीए पूरन पुरखु बिधाता राम ॥ सरब जीआ प्रतिपालदा मेरी जिंदुड़ीए जिउ बालक पित माता राम ॥ सहस सिआणप नह मिलै मेरी जिंदुड़ीए जन नानक गुरमुखि जाता राम ॥४॥६॥ छका १ ॥

पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हरेक जगह में। बिधाता = विधाता, पैदा करने वाला। सहस = हजारों। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। जाता = सांझ पड़ती है।4।

अर्थ: हे मेरी सोहणी जीवात्मा! सब जीवों को दातें देने वाला प्रभु परमात्मा हरेक जगह में बस रहा है, उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, वह विधाता प्रभु सभी घटों में व्यापक है। जैसे माता-पिता अपने बच्चों को पालते हैं, वैसे ही परमात्मा सारे जीवों को पालता है। हे दास नानक! (कह:) हे मेरी सोहणी जीवात्मा! हजारों चतुराईयों से वह परमात्मा नहीं मिल सकता, गुरु की शरण पड़ने से उसके साथ गहरी साँझ पड़ जाती है।4।6। छका1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh