श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 550 मः ३ ॥ आपणा आपु न पछाणै मूड़ा अवरा आखि दुखाए ॥ मुंढै दी खसलति न गईआ अंधे विछुड़ि चोटा खाए ॥ सतिगुर कै भै भंनि न घड़िओ रहै अंकि समाए ॥ अनदिनु सहसा कदे न चूकै बिनु सबदै दुखु पाए ॥ कामु क्रोधु लोभु अंतरि सबला नित धंधा करत विहाए ॥ चरण कर देखत सुणि थके दिह मुके नेड़ै आए ॥ सचा नामु न लगो मीठा जितु नामि नव निधि पाए ॥ जीवतु मरै मरै फुनि जीवै तां मोखंतरु पाए ॥ धुरि करमु न पाइओ पराणी विणु करमा किआ पाए ॥ गुर का सबदु समालि तू मूड़े गति मति सबदे पाए ॥ नानक सतिगुरु तद ही पाए जां विचहु आपु गवाए ॥२॥ पद्अर्थ: भै = डर में। अंकि = गोद में। सहसा = तौख़ला, शंका। अनदिनु = हर रोज। सबला = बलवान। जितु = जिसके द्वारा। नव निधि = नौ खजाने, सारे पदार्थ। फुनि = दुबारा। मोखंतरु = मोख का अंतरा, मोक्ष का रहस्य।2। अर्थ: मूर्ख मनुष्य अपने आप की पहिचान नहीं करता और-और लोगों को कह: कह के दुखी करता रहता है, (सतिगुरु के दर पर पहुँच के भी) अंधे की मूलभूत (दूसरों को दुखी करने वाली) आदत नहीं जाती, और (वह हरि से) विछुड़ के दुख सहता है। मूर्ख मनुष्य सतिगुरु के भय में रह के मन (के पिछले बुरे संस्कारों) को तोड़ के (नए हरि नाम-जपने वाले संस्कार) नहीं घड़ता, (ऐसे कर्म नहीं करता कि वह) (प्रभु की) गोद में समाया रहे, (जिस कारण) हर रोज किसी भी वक्त उसकी चिन्ता दूर नहीं होती, (और वह) शब्द (का आसरा लिए) बिना दुख पाता है। मूर्ख के हृदय में काम, क्रोध और लोभ प्रबल है, और सदा धंधे करते हुए उम्र गुजरती है। पैर, हाथ, (आँखें) देख-देख के और (कान) सुन-सुन के थक गए हैं, (उम्र के) दिन गुजर गए हैं, (मरने के दिन नजदीक आ गए हैं)। जिस नाम के माध्यम से नौ निधियाँ प्राप्त हो जाएं वह सच्चा नाम (मूर्ख को) अच्छा नहीं लगता, (लगे भी कैसे?) (संसार में) कार-व्यवहार करता हुआ (जो, संसार से) मुर्दा हो जाए (इस तरह) मर के फिर (हरि की याद में) पुनर्जीवित (चैतन्य) हो, तो ही मुक्ति का भेद मिलता है। पर जिस मनुष्य को धुर से ही परमात्मा की कृपा नसीब ना हुई हो, वह (पिछले अच्छे संस्कारों वाले) कामों के बिना (अब बंदगी वाले संस्कार) कैसे पाए? हे मूर्ख! सतिगुरु के शब्द को (हृदय में) सम्भाल (क्योंकि) ऊँची आत्मिक अवस्था और भली मति शब्द से ही मिलती है। (पर) हे नानक! सतिगुरु भी तभी मिलता है जब मनुष्य हृदय में से अहंकार दूर करता है।2। पउड़ी ॥ जिस दै चिति वसिआ मेरा सुआमी तिस नो किउ अंदेसा किसै गलै दा लोड़ीऐ ॥ हरि सुखदाता सभना गला का तिस नो धिआइदिआ किव निमख घड़ी मुहु मोड़ीऐ ॥ जिनि हरि धिआइआ तिस नो सरब कलिआण होए नित संत जना की संगति जाइ बहीऐ मुहु जोड़ीऐ ॥ सभि दुख भुख रोग गए हरि सेवक के सभि जन के बंधन तोड़ीऐ ॥ हरि किरपा ते होआ हरि भगतु हरि भगत जना कै मुहि डिठै जगतु तरिआ सभु लोड़ीऐ ॥४॥ पद्अर्थ: किव = क्यूँ? निमख = आँख झपकने जितने समय भर के लिए। कलिआण = सुख। मुहि डिठै = अगर मुँह देखें, दर्शन करने से।4। अर्थ: जिस मनुष्य के हृदय में प्यारा प्रभु निवास करे, उसे किसी बात की चिन्ता नहीं रह जातीं प्रभु हर किस्म के सुख देने वाला है, उसका स्मरण किए बिना एक छिन भर भी नहीं रहना चाहिए। जिस मनुष्य ने हरि को स्मरण किया है, उसे सारे सुख प्राप्त होते हैं, (इस वास्ते) सदा साधु-संगत में ही बैठना चाहिए और (प्रभु के गुणों के बारे में) विचार करनी चाहिए। हरि के भक्त के सारे कष्ट, भूख व रोग दूर हो जाते हैं, और सारे बंधन टूट जाते हैं, (क्योंकि) हरि का भक्त हरि की अपनी कृपा से बनता है। चाहिए तो ये कि हरि के भक्तों के दर्शन करके (भाव, उनकी संगति में रह के) सारा संसार ही तैर जाए (पर, अफसोस, संसार इस राह पर चलता ही नहीं)।4। सलोक मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का सुआउ न पाइआ ॥ नानक रसना सबदि रसाइ जिनि हरि हरि मंनि वसाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ। सुआउ = स्वाद। रसाइ = रस जाती है, भीग जाती है। जिनि = जिस जीभ ने।1। अर्थ: जिस जीभ ने हरि (के नाम) का स्वाद नहीं चखा, वह जीभ जल जाए (भाव, वह जीभ किसी काम की नहीं); हे नानक! वह जीभ गुरु के शब्द में रस जाती है जिस (जीभ) ने परमात्मा मन में बसाया है।1। मः ३ ॥ सा रसना जलि जाउ जिनि हरि का नाउ विसारिआ ॥ नानक गुरमुखि रसना हरि जपै हरि कै नाइ पिआरिआ ॥२॥ अर्थ: जिस जीभ ने हरि का नाम विसारा है, वह जीभ जल जाए। हे नानक! (दरअसल) सतिगुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य की जीभ (ही) हरि का नाम जपती है हरि के नाम से प्यार करती है।2। पउड़ी ॥ हरि आपे ठाकुरु सेवकु भगतु हरि आपे करे कराए ॥ हरि आपे वेखै विगसै आपे जितु भावै तितु लाए ॥ हरि इकना मारगि पाए आपे हरि इकना उझड़ि पाए ॥ हरि सचा साहिबु सचु तपावसु करि वेखै चलत सबाए ॥ गुर परसादि कहै जनु नानकु हरि सचे के गुण गाए ॥५॥ पद्अर्थ: विगसै = खुश होता है। जितु = जिधर। मारगि = (सीधे) राह पर। उझड़ि = कुमार्ग।5। अर्थ: प्रभु खुद ही ठाकुर, खुद ही सेवक और भक्त है, स्वयं ही करता है और स्वयं (जीवों से) करवाता है, खुद ही देखता है, खुद ही प्रसन्न होता है, जिधर चाहता है उधर (जीवों को) लगाता है, इन्हें खुद ही सीधे रास्ते पर डालता है, और इनको खुद ही गलत राह पर चला देता है। हरि सच्चा मालिक है, उसका न्याय भी अचूक है, वह स्वयं ही सारे तमाशे करके देख रहा है। दास नानक कहता है कि सतिगुरु की मेहर से (ही मनुष्य ऐसे) सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु के गुण गाता है।5। सलोक मः ३ ॥ दरवेसी को जाणसी विरला को दरवेसु ॥ जे घरि घरि हंढै मंगदा धिगु जीवणु धिगु वेसु ॥ जे आसा अंदेसा तजि रहै गुरमुखि भिखिआ नाउ ॥ तिस के चरन पखालीअहि नानक हउ बलिहारै जाउ ॥१॥ पद्अर्थ: को = कोई। हंढै = घूमता फिरे। धिगु = धिक्कार। वेसु = भेस, (फकीर वाला) पहिरावा।1। अर्थ: कोई विरला फ़कीर ही फकीरी (के आदर्श) को समझता है, (फ़कीर हो के) अगर घर घर माँगता फिरे, तो उसके जीने को धिक्कार है और उसके (फकीरी) भेस को भी धिक्कार है। अगर (दरवेश हो के) आशा और चिन्ता को त्याग दे तो सतिगुरु के सन्मुख रह के नाम की भिक्षा मांगे, तो, हे नानक! मैं उससे सदके हूँ, उसके चरण धोने चाहिए।1। मः ३ ॥ नानक तरवरु एकु फलु दुइ पंखेरू आहि ॥ आवत जात न दीसही ना पर पंखी ताहि ॥ बहु रंगी रस भोगिआ सबदि रहै निरबाणु ॥ हरि रसि फलि राते नानका करमि सचा नीसाणु ॥२॥ पद्अर्थ: तरवरु = वृक्ष। पंखेरू = पक्षी। पर = पंख। निरबाणु = वासना रहित, चाहत रहित। रसि = रस में। नीसाणु = निशान, टिक्का। करमि = बख्शिश से, कृपा द्वारा।2। अर्थ: हे नानक! (संसार एक) वृक्ष (के समान है, इस वृक्ष) पर (माया के मोह रूपी) एक फल (लगा हुआ है), (इस पेड़ पर ही) दो (किस्म के, गुरमुख और मनमुख) पक्षी (बैठे) हैं। इन पक्षियों के पंख नहीं हैं और वे आते-जाते दिखते भी नहीं (भाव, ये पता नहीं चलता कि ये जीव पक्षी कहाँ से आते हैं और कहाँ चले जाते हैं)। बहुत सारे तो रंग (-तमाशें में स्वाद लेने) वाले हैं (जो) रसों के भोग में (गलतान) हैं और निर्वाण (पक्षी) शब्द में (लीन) रहते हैं। हे नानक! हरि की कृपा से (जिनके माथे पर) सच्चा निशान है, वे नाम के रस (रूपी) फल (के स्वाद) में मस्त हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |