श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 552 मः ३ ॥ मनमुख माइआ मोहु है नामि न लगो पिआरु ॥ कूड़ु कमावै कूड़ु संग्रहै कूड़ु करे आहारु ॥ बिखु माइआ धनु संचि मरहि अंते होइ सभु छारु ॥ करम धरम सुच संजम करहि अंतरि लोभु विकारु ॥ नानक जि मनमुखु कमावै सु थाइ ना पवै दरगहि होइ खुआरु ॥२॥ पद्अर्थ: मनमुख = मन का मुरीद। संग्रहै = एकत्र करता है। आहारु = खुराक। बिखु = जहर। संचि = इकट्ठी करके। छारु = राख। संजम = इन्द्रियों को वश में रखने के साधन।2। अर्थ: मनमुख का माया में मोह है (इस करके) नाम में उसका प्यार नहीं बनता, वह (माया रूपी) झूठ कमाता, झूठ एकत्र करता है और झूठ को ही अपनी खुराक बनाता है (भाव, जिंदगी का आसरा समझता है)। (मन के अधीन हुए मनुष्य) विष रूपी माया धन को इकट्ठा कर करके खपते मरते हैं, जबकि आखिर में वह सारा धन राख हो जाता है (भाव, राख की तरह व्यर्थ हो जाता है) वे अपनी और से (आत्मिक काम भी करते हैं) कर्म-धर्म-पवित्रता के साधन व और संयम (भी) करते हैं (पर) उनके हृदय में लोभ व विकार (ही) रहता है। हे नानक! मन के अधीन हुआ मनुष्य जो कुछ (भी) करता है वह स्वीकार नहीं होता और प्रभु की हजूरी में वह ख्वार होता है।2। पउड़ी ॥ आपे खाणी आपे बाणी आपे खंड वरभंड करे ॥ आपि समुंदु आपि है सागरु आपे ही विचि रतन धरे ॥ आपि लहाए करे जिसु किरपा जिस नो गुरमुखि करे हरे ॥ आपे भउजलु आपि है बोहिथा आपे खेवटु आपि तरे ॥ आपे करे कराए करता अवरु न दूजा तुझै सरे ॥९॥ पद्अर्थ: खाणी = जगत की उत्पक्ति के तरीके (अण्डज, जेरज, सेतज व उत्भुज)। बाणी = बोलियां। खंड = जगत के हिस्से। ब्रहमंड = जगत। बोहिथ = जहाज। खेवटु = मल्लाह। सरे = बराबर।9। अर्थ: प्रभु स्वयं ही खाणियां, बोलियां, खण्ड व ब्रहमण्ड बनाता है, स्वयं ही समुंदर व सागर है और उसने स्वयं ही इस में (महिमा रूपी) रत्न छुपा के रखे हैं; जिस पर कृपा करता है और जिसको सतिगुरु के सन्मुख करता है, उसे स्वयं ही वह रत्न प्राप्त करवा देता है। प्रभु खुद ही (संसार) समुंदर है, खुद ही जहाज है, स्वयं ही मल्लाह है और स्वयं ही तैरता है, स्वयं ही सब कुछ करता कराता है। हे प्रभु! तेरे जैसा दूसरा कोई नहीं।9। सलोक मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा सफल है जे को करे चितु लाइ ॥ नामु पदारथु पाईऐ अचिंतु वसै मनि आइ ॥ जनम मरन दुखु कटीऐ हउमै ममता जाइ ॥ उतम पदवी पाईऐ सचे रहै समाइ ॥ नानक पूरबि जिन कउ लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ आइ ॥१॥ पद्अर्थ: पदारथु = धन। अचिंतु = चिन्ता से रहित प्रभु। जनम मरन दुखु = सारी उम्र का दुख, ये अहंकार ममता जो सारी उम्र का दुख है। उतम पदवी = प्रभु में समाए रहने का रुतबा। पूरबि = आदि से।1। अर्थ: अगर मनुष्य मन टिका के सतिगुरु की (बताए हुए) कर्म करे, तो वह सेवा जरूर फल देती है; नाम धन मिल जाता है और चिन्ता मुक्त (प्रभु) हृदय में आ बसता है, अहंकार ममता दूर हो जाती है। और ये सारी उम्र का दुख काटा जाता है। (हजूरी में) बड़ा रुतबा मिलता है, मनुष्य सच्चे हरि में समाया रहता है। (पर, सतिगुरु का मिलना कोई आसान बात नहीं); हे नानक! शुरू से ही (किए हुए अच्छे कर्मों के अनुसार) जिनके हृदय में (अच्छे संस्कार) उकरे हुए हैं, उन्हें ही सतिगुरु आ मिलता है (भाव, वही सतिगुरु को पहचान लेते हैं)।1। मः ३ ॥ नामि रता सतिगुरू है कलिजुग बोहिथु होइ ॥ गुरमुखि होवै सु पारि पवै जिना अंदरि सचा सोइ ॥ नामु सम्हाले नामु संग्रहै नामे ही पति होइ ॥ नानक सतिगुरु पाइआ करमि परापति होइ ॥२॥ पद्अर्थ: जुग = समय, जीवन। कलि = झगड़े, कष्ट। कलिजुग = वह जीवन काल जो झगड़ों से भरा पड़ा है, परमात्मा से विछोड़े का समय (“इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता”)। पति = इज्जत।2। अर्थ: सतिगुरु (प्रभु के) नाम में भीगा हुआ होता है और कलियुग (के जीवों के उद्धार) के लिए जहाज बनता है; (क्योंकि) वह नाम को संभालता है और नाम-धन इकट्ठा करता है (हरि की दरगाह में) आदर भी नाम से ही मिलता है। हे नानक! सतिगुरु को मिल के प्रभु की मेहर से ही (भाव, बख्शिश के पात्र बनने से ही) नाम की प्राप्ति होती है।2। पउड़ी ॥ आपे पारसु आपि धातु है आपि कीतोनु कंचनु ॥ आपे ठाकुरु सेवकु आपे आपे ही पाप खंडनु ॥ आपे सभि घट भोगवै सुआमी आपे ही सभु अंजनु ॥ आपि बिबेकु आपि सभु बेता आपे गुरमुखि भंजनु ॥ जनु नानकु सालाहि न रजै तुधु करते तू हरि सुखदाता वडनु ॥१०॥ पद्अर्थ: पारसु = वह पत्थर जिसके साथ छूने से धातुएं सोना बन जाती हैं। कंचनु = सोना। खंडनु = नाश करने वाला। घट = शरीर। अंजनु = कालिख, सुरमा, माया। बिबेकु = परख, पहचान, ज्ञान। बेता = जानने वाला। भंजनु = नाश करने वाला।10। अर्थ: प्रभु स्वामी स्वयं ही पारस है, स्वयं ही लोहा है और उसने स्वयं ही (उससे) सोना बनाया है। खुद ही ठाकुर है, खुद ही सेवक है और खुद ही पाप दूर करने वाला है, सारे शरीरों में खुद ही व्यापक हो के मायावी पदार्थ भोगता है और सारी माया भी खुद ही है। खुद ही बिबेक (भाव, ज्ञान) है, खुद ही सारे (विवेक) को जानने वाला है और खुद ही सतिगुरु के सन्मुख हो के (माया के बंधन) तोड़ने वाला है।10। सलोकु मः ४ ॥ बिनु सतिगुर सेवे जीअ के बंधना जेते करम कमाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे ठवर न पावही मरि जमहि आवहि जाहि ॥ बिनु सतिगुर सेवे फिका बोलणा नामु न वसै मनि आइ ॥ नानक बिनु सतिगुर सेवे जम पुरि बधे मारीअहि मुहि कालै उठि जाहि ॥१॥ पद्अर्थ: जेते = जितने भी। ठवर = आसरा। ना पावही = नहीं पा सकते।1। अर्थ: सतिगुरु की बताई हुई कार किए बिना जितने भी कर्म जीव करते हैं वे उनके लिए बंधन बनते हैं (भाव, वह कर्म और भी ज्यादा माया के मोह में फंसाते हैं) सतिगुरु की सेवा के बिना और कोई आसरा जीवों को नहीं मिलता (और इसलिए) पैदा होते मरते रहते हैं। गुरु के बताए हुए स्मरण से टूट के मनुष्य और ही फीके बोल बोलता है, इसके हृदय में नाम नहीं बसता; (इसका नतीजा ये निकलता है कि) हे नानक! सतिगुरु की सेवा के बिना जीव (को जैसे) जमपुरी में (बधे की) मार पड़ती है और (चलने के वक्त) संसार से मुकालिख़ कमा के जाते हैं।1। मः ३ ॥ इकि सतिगुर की सेवा करहि चाकरी हरि नामे लगै पिआरु ॥ नानक जनमु सवारनि आपणा कुल का करनि उधारु ॥२॥ पद्अर्थ: इकि = कई मनुष्य। चाकरी = नौकरी। कुल = परिवार।2। अर्थ: कई मनुष्य सतिगुरु की बताई हुई नाम-जपने की कार करते हैं और उनका प्रभु के नाम में प्यार बन जाता है। हे नानक! वे अपना मानव जनम सवार लेते हैं और अपनी कुल का भी उद्धार कर लेते हैं।2। पउड़ी ॥ आपे चाटसाल आपि है पाधा आपे चाटड़े पड़ण कउ आणे ॥ आपे पिता माता है आपे आपे बालक करे सिआणे ॥ इक थै पड़ि बुझै सभु आपे इक थै आपे करे इआणे ॥ इकना अंदरि महलि बुलाए जा आपि तेरै मनि सचे भाणे ॥ जिना आपे गुरमुखि दे वडिआई से जन सची दरगहि जाणे ॥११॥ पद्अर्थ: चाटसाल = पाठशाला। पाधा = पढ़ाने वाला, शिक्षक। आणे = लाता है। इक थै = कहीं तो, एक जगह तो।11। अर्थ: प्रभु स्वयं ही पाठशाला है, स्वयं ही अध्यापक है, और स्वयं ही छात्र पढ़ने के लिए लाता है, खुद ही माँ-बाप है और खुद ही बालकों को समझदार करता है; एक जगह सब कुछ पढ़ के खुद ही समझता है, और एक जगह खुद ही बालकों को अंजान बना देता है। हे सच्चे हरि! जब खुद तेरे मन को अच्छा लगता है तो तू (इनमें से) किसी एक को अपने महल में धुर अंदर बुला लेता है। जिस गुरमुखों को तू खुद आदर देता है, वह सच्ची दरगाह में प्रगट हो जाते हैं।11। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |