श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 567 हउ बलिहारी साचे नावै ॥ राजु तेरा कबहु न जावै ॥ राजो त तेरा सदा निहचलु एहु कबहु न जावए ॥ चाकरु त तेरा सोइ होवै जोइ सहजि समावए ॥ दुसमनु त दूखु न लगै मूले पापु नेड़ि न आवए ॥ हउ बलिहारी सदा होवा एक तेरे नावए ॥४॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। नावै = नाम से। निहचलु = अटल। न जावए = न जाए, नहीं जाता। चाकरु = सेवक। सहजि = अडोल आत्मिक अवस्था में। समावए = समाए, लीन होता है। नेड़ि = नजदीक। होवा = मैं होऊँ। तेरे नावए = तेरे नाम से।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरे सदा-स्थिर रहने वाले नाम से कुर्बान जाता हूँ। तेरा राज कभी भी नाश होने वाला नहीं है। हे प्रभु! तेरा राज सदा अटल रहने वाला है, ये कभी भी नाश नहीं हो सकता। वही मनुष्य तेरा असल भक्त-सेवक है जो (तेरा नाम स्मरण करके) आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। कोई वैरी कोई दुख उस पर हावी नहीं हो सकता, कोई पाप उसके नजदीक नहीं फटकता। हे प्रभु! मैं सदा तेरे नाम से बलिहार जाता हूँ।4। जुगह जुगंतरि भगत तुमारे ॥ कीरति करहि सुआमी तेरै दुआरे ॥ जपहि त साचा एकु मुरारे ॥ साचा मुरारे तामि जापहि जामि मंनि वसावहे ॥ भरमो भुलावा तुझहि कीआ जामि एहु चुकावहे ॥ गुर परसादी करहु किरपा लेहु जमहु उबारे ॥ जुगह जुगंतरि भगत तुमारे ॥५॥ पद्अर्थ: जुगह जुगंतरि = जुग जुग अंतरि, हरेक युग में। कीरति = महिमा। तेरै दुआरे = तेरे दर पे। साचा = सदा स्थिर रहने वाला। मुरारे = (मुर+अरि) परमात्मा। तामि = तब से ही। मंनि = (उनके) मन में। वसावहे = तू (नाम) बसाता है। भरमों = भटकना। तुझहि = तू ही। एहु = यह भ्रम भुलेखा। चुकावहे = तू चुका देता है, तू समाप्त कर देता है। जमहु = जम से। लेहु उबारे = बचा लेता है।5। अर्थ: हे प्रभु! हरेक युग में ही तेरे भक्त मौजूद रहे हैं, जो, हे स्वामी! तेरे दर पर तेरी महिमा करते हैं, जो सदा तुझे ही सदा-स्थिर प्रभु को स्मरण करते हैं। हे प्रभु! तूझ सदा-स्थिर को वे तभी जप सकते हैं जब तू खुद उनके मन में अपना नाम बसाता है, जब तू उनके मन में से माया वाली भटकना दूर करता है जो तूने खुद ही पैदा की हुई है। हे प्रभु! गुरु की कृपा से तू अपने भक्तों पर मेहर करता है, और उनको जमों से बचा लेता है। हरेक युग में ही तेरे भक्त-सेवक मौजूद हैं।5। वडे मेरे साहिबा अलख अपारा ॥ किउ करि करउ बेनंती हउ आखि न जाणा ॥ नदरि करहि ता साचु पछाणा ॥ साचो पछाणा तामि तेरा जामि आपि बुझावहे ॥ दूख भूख संसारि कीए सहसा एहु चुकावहे ॥ बिनवंति नानकु जाइ सहसा बुझै गुर बीचारा ॥ वडा साहिबु है आपि अलख अपारा ॥६॥ पद्अर्थ: अलख = (अलक्ष्य) अदृष्य। अपारा = जिसके गुणों का पार ना पाया जा सके। किउ करि = कैसे? करउ = मैं करूँ। हउ = मैं। आखि ना जाणा = मैं कहना नहीं जानता। तेरा = तेरा (स्वरूप)। बुझावहे = तू समझ देता है। संसारि = संसार में। सहसा = सहम। जाइ = दूर हो जाता है।6। अर्थ: हे मेरे बड़े मालिक! हे अदृष्य मालिक! हे बेअंत मालिक! मैं (तेरे दर पर) कैसे विनती करूँ? मुझे तो विनती करनी भी नहीं आती। अगर तू खुद (मेरे पर) मेहर की निगाह करे तो ही मैं तेरे सदा-स्थिर नाम जल से सांझ डाल सकता हूँ। तेरा सदा-स्थिर नाम मैं तब ही पहचान सकता हूँ (तब ही इसकी कद्र पा सकता हूँ) जब तू स्वयं मुझे उसकी सूझ बख्शे, जब तू मेरे मन में से माया की तृष्णा और (इससे पैदा होने वाले) उन दुखों का सहम दूर करे जो कि जगत में तूने स्वयं ही पैदा किए हुए हैं। नानक विनती करता है कि जब मनुष्य गुरु के शब्द की विचार समझता है तो (इसके अंदर से दुख आदि का) सहम दूर हो जाता है (और यकीन बन जाता है कि) अदृष्य और बेअंत प्रभु खुद (सब जीवों के सिर पर) बड़ा मालिक है।6। तेरे बंके लोइण दंत रीसाला ॥ सोहणे नक जिन लमड़े वाला ॥ कंचन काइआ सुइने की ढाला ॥ सोवंन ढाला क्रिसन माला जपहु तुसी सहेलीहो ॥ जम दुआरि न होहु खड़ीआ सिख सुणहु महेलीहो ॥ हंस हंसा बग बगा लहै मन की जाला ॥ बंके लोइण दंत रीसाला ॥७॥ पद्अर्थ: बंके = बाँके। लोइण = आँखें। दंत = दाँत। रसीला = (रस+आलय) सुंदर। नक = नाक (बहुवचन)। जिन = जिस के (जिसु = जिस का। जिन = जिन्हों का, जिस के)। लंमड़े = सुंदर लंबे। वाला = बाल, केश। कंचन काइआ = सोने का शरीर, सुंदर आरोग्य देह। ढाला = ढाला हुआ। सोवंन = सोने का। क्रिसन माला = वैजयंती माला (विष्णु की)। दुआरि = दर पे। सिख = शिक्षा। सहेलीहो = हे जीव स्त्रीयो! हंस हंसा = बड़े हंस, बहुत श्रेष्ठ मनुष्य। बग बगा = बड़े बगुले, महा ठग। लहै = दूर हो जाता है।7। अर्थ: (हे सर्व-व्यापक विधाता! जगत की सारी सुंदरता तूने अपने स्वरूप से रची है। तूने ऐसे ऐसे स्त्री-पुरुष जिनके नैन-दाँत, नाक, केश आदि सारे ही अंग महान सुंदर हैं। उनमें, हे प्रभु! तू खुद ही बैठा जीवन ज्योति जगा रहा है। सो) हे प्रभु! तेरे नैन बांके हैं, तेरे दाँत सुंदर हैं, तेरा नाम सुंदर है, तेरे सुंदर लंबे केश हैं (जिनके सुंदर नाक हैं, जिनके सुंदर लंबे केश हैं; ये भी हे प्रभु! तेरे ही नाक व तेरे ही केश हैं)। हे प्रभु! तेरा शरीर सोने जैसा शुद्ध निरोग है और सुडोल है, मानो, सोने में ही ढला हुआ है। हे सहेलियो! (हे सत्संगी सज्जनों!) तुम उस परमात्मा (के नाम) की माला जपो (उस परमात्मा का नाम बार बार जपो) जिसका शरीर अरोग्य और सुडोल है, जैसे, सोने में ढला हुआ है। हे जीव-सि्त्रयो! मेरी शिक्षा सुनो! (अगर तुम भी उस आरोग्य और सुडोल स्वरूप वाले सर्व-व्यापक विधाता का नाम जपोगी, तो) तुम भी (अंत के समय) यम-राज के दरवाजे पर लाइन में खड़ी नहीं होवोगी। (जो लोग उस परमात्मा का नाम जपते हैं उनके) मन में से विकारों की मैल उतर जाती है। (नाम-जपने की इनायत से) महा-पाखण्डी बगुलों से श्रेष्ठ हंस बन जाते हैं (पाखण्डी लोगों से उच्च जीवन वाले गुरमुख बन जाते हैं)। हे सहेलियो! (उस सर्व-व्यापक प्रभु के) सुंदर नैन हैं, सुंदर दाँत हैं (इस दिखाई देते संसार की सारी ही सुंदरता का श्रोत प्रभु खुद ही है)।7। तेरी चाल सुहावी मधुराड़ी बाणी ॥ कुहकनि कोकिला तरल जुआणी ॥ तरला जुआणी आपि भाणी इछ मन की पूरीए ॥ सारंग जिउ पगु धरै ठिमि ठिमि आपि आपु संधूरए ॥ स्रीरंग राती फिरै माती उदकु गंगा वाणी ॥ बिनवंति नानकु दासु हरि का तेरी चाल सुहावी मधुराड़ी बाणी ॥८॥२॥ पद्अर्थ: मधुराड़ी = सोहणी मीठी। कुहकनि = कूकती हैं। कोइला = कोयलें। तरल = चंचल। जुआणी = जवानी। भाणी = प्यारी लगी। सारंग = हाथी। पगु = पैर। ठिमि ठिमि = मटक मटक के। आपु = अपने आप को। संधूरए = मस्त करता है। स्रीरंग = श्री रंग, लक्ष्मी पति प्रभु। माती = मतवाली। उदक = पानी। वाणी = उपमा भरपूर वाणी, महिमा की वाणी। बिनवंति = विनती करता है।8। अर्थ: (कहीं मीठी वैराग भरी सुर में कोयलें कूक रही हैं, कहीं चंचल जवानी में मद्-मस्त सुंदरियां हैं जो मस्त हाथी की तरह बड़ी मटक से चलती हैं। हे प्रभु! ये कोयल की मीठी बोली और चंचल जवानी का मद सब कुछ तूने खुद ही पैदा किया है। सो, हे प्रभु!) तेरी (मस्त) चाल (मन को) सुख देने वाली है, तेरी बोली सोहानी और मधुर है। (तेरी ही पैदा की हुई) चंचल जवानी की मद् भरी सुंदरीयां हैं। ये चंचल जवानी प्रभु ने खुद ही पैदा की, उसे खुद को ही इसका पैदा करना अच्छा लगा, उसने अपने ही मन की इच्छा पूरी की। (चंचल जवानी से मद्-मस्त सुंदरियों में बैठ के प्रभु खुद ही) मस्त हाथी की तरह मटक-मटक के पैर धरता है, वह खुद ही अपने आप को (जवानी के मद् में) मस्त कर रहा है। (प्रभु की अपनी ही कृपा से कोई अति भाग्यशाली जीव-स्त्री उस) लक्ष्मी-पति के प्रेम रंग में रंगी हुई (उसके नाम में) मस्त फिरती है, (उसका जीवन पवित्र हो जाता है) जैसे गंगा का पानी (पवित्र माना जाता है)। हरि का दास नानक विनती करता है: हे प्रभु! तेरी चाल सुहानी है और तेरी बोली मीठी-मीठी है।8।2। वडहंसु महला ३ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आपणे पिर कै रंगि रती मुईए सोभावंती नारे ॥ सचै सबदि मिलि रही मुईए पिरु रावे भाइ पिआरे ॥ सचै भाइ पिआरी कंति सवारी हरि हरि सिउ नेहु रचाइआ ॥ आपु गवाइआ ता पिरु पाइआ गुर कै सबदि समाइआ ॥ सा धन सबदि सुहाई प्रेम कसाई अंतरि प्रीति पिआरी ॥ नानक सा धन मेलि लई पिरि आपे साचै साहि सवारी ॥१॥ पद्अर्थ: पिर = पति। कै रंगि = के प्रेम रंग में। रती = रंगी हुई। मुईए = हे मरी हुई! हे मरजाणी! हे माया के मोह में अछूती हो चुकी! नरे = हे जीव-स्त्री! सचै = सदा स्थिर प्रभु में। सबदि = गुरु के शब्द द्वारा। रावे = माणता है, मिला हुआ है। भाइ = प्रेम के कारण। कंति = कंत ने। सिउ = साथ। नेहु = प्यार। आपु = स्वै भाव। सा धन = जीव-स्त्री। सुहाई = सुहाने जीवन वाली। कसाई = कसी हुई, खींची हुई। प्रेम कसाई = प्रेम में खिंची हुई। पिरि = पिर ने। साहि = शाहि, शाह ने।1। नोट: शब्द ‘पिर’, ‘पिरु’ और ‘पिरि’ के व्याकर्णक अर्थ का ध्यान रखें। अर्थ: हे माया के मोह से अछूती हो चुकी जीव-स्त्री! तू भाग्यशाली हो गई है, क्योंकि तू अपने पति के प्रेम रंग में रंगी गई है। गुरु के शब्द की इनायत से तू सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन रहती है, तुझे तेरे इस प्रेम-प्यार के कारण प्रभु-पति अपने चरणों में जोड़े रखता है। जिस जीव-स्त्री ने सदा कायम रहने वाले प्रभु से प्यार किया, स्नेह पैदा किया, प्रभु-पति ने उसका जीवन सुंदर बना दिया। जब जीव-स्त्री ने (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर किया, तब उसने (अपने अंदर ही) प्रभु-पति को पा लिया, गुरु के शब्द की इनायत से (उसका मन प्रभु में) लीन हो गया। प्रभु-प्रेम की खिची हुई सदाचारी जीव-स्त्री गुरु के शब्द के द्वारा सोहणे जीवन वाली बन जाती है, उसके हृदय में प्रभु चरणों की प्रीति टिकी रहती है। हे नानक! (कह:) ऐसी सदाचारी जीव-स्त्री को प्रभु-पति ने स्वयं ही अपने साथ मिला लिया है, सदा कायम रहने वाले शाह ने उसका जीवन सँवार दिया है।1। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |