श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 576 वडहंसु महला ४ ॥ देह तेजनड़ी हरि नव रंगीआ राम ॥ गुर गिआनु गुरू हरि मंगीआ राम ॥ गिआन मंगी हरि कथा चंगी हरि नामु गति मिति जाणीआ ॥ सभु जनमु सफलिउ कीआ करतै हरि राम नामि वखाणीआ ॥ हरि राम नामु सलाहि हरि प्रभ हरि भगति हरि जन मंगीआ ॥ जनु कहै नानकु सुणहु संतहु हरि भगति गोविंद चंगीआ ॥१॥ पद्अर्थ: तेजनड़ी = सोहणी तेजणि, सुंदर घोड़ी। नव रंगीआ = नए रंग वाली। चंगी = बढ़िया। गति = उच्च आत्मि्क अवस्था। मिति = मर्यादा, माप। करतै = कर्तार ने। नामि = नाम में। वखाणीआ = उचारी। सलाहि = सलाह के। हरि जन = हरि के भक्त।1। अर्थ: हे भाई! वह काया सुंदर घोड़ी है (जीव-राही की जीवन-यात्रा के लिए बढ़िया घोड़ी है) जो परमात्मा के प्रेम के नए रंग में रंगी रहती है, जो गुरु से आत्मिक जीवन की श्रेष्ठ समझ मांगती रहती है, जो (गुरु से) आत्मिक जीवन की सूझ मांगती है, परमात्मा की सोहणी महिमा करती है, परमात्मा का नाम जपती है, जो ये समझने का यत्न करती है कि परमात्मा कैसा और कितना बड़ा है। कर्तार ने (ऐसी काया घोड़ी का) सारा जन्म सफल कर दिया है, क्योंकि वह परमात्मा के नाम में लीन रहती है, परमात्मा की महिमा उचारती रहती है। हे भाई! परमात्मा के भक्त परमात्मा के नाम की महिमा गा के परमात्मा की भक्ति (की दाति) मांगते रहते हैं। दास नानक कहता है: हे संत जनो! (ये सुंदर काया-घोड़ी प्राप्त करके) परमात्मा की सुंदर भक्ति (करते रहो)।1। देह कंचन जीनु सुविना राम ॥ जड़ि हरि हरि नामु रतंना राम ॥ जड़ि नाम रतनु गोविंद पाइआ हरि मिले हरि गुण सुख घणे ॥ गुर सबदु पाइआ हरि नामु धिआइआ वडभागी हरि रंग हरि बणे ॥ हरि मिले सुआमी अंतरजामी हरि नवतन हरि नव रंगीआ ॥ नानकु वखाणै नामु जाणै हरि नामु हरि प्रभ मंगीआ ॥२॥ पद्अर्थ: देह = शरीर, काया (-घोड़ी)। जीनु = काठी। सुविना = सोने की। जड़ि = जड़ के। घणे = बहुत। नव तन = नया। नव रंगीआ = नवरंगी, नए रंग वाली।2। अर्थ: वह काया (-घोड़ी, जैसे) सोने की है (बहुत कीमती बन जाती है, जिस पर) परमात्मा का नाम-रत्न जड़ के सोने की काठी डाली जाती है (जिस पर परमात्मा के नाम से भरपूर गुरु-शब्द की काठी डाली जाती है)। (हे भाई! जिस मनुष्य ने) परमात्मा का नाम रत्न जड़ के गुरु-शब्द की काठी डाल दी, उसको परमात्मा मिल गया, उसने परमात्मा के गुण (अपने अंदर बसा लिए), उसे सुख ही सुख प्राप्त हो गए। हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु का शब्द हासिल कर लिया, जिसने परमात्मा का नाम-स्मरण करना आरम्भ कर दिया, वह अति भाग्यशाली हो गया, उसके अंदर परमात्मा का प्रेम उघड़ पड़ा। नानक कहता है: (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा के नाम से गहरी सांझ डालता है, जो मनुष्य हर वक्त परमात्मा का नाम मांगता है, उसे वह मालिक हरि मिल जाता है जो हरेक के दिल की जानने वाला है, जो सदा नया-नरोया रहने वाला है, जो सदा नए करिश्मों का मालिक है।2। कड़ीआलु मुखे गुरि अंकसु पाइआ राम ॥ मनु मैगलु गुर सबदि वसि आइआ राम ॥ मनु वसगति आइआ परम पदु पाइआ सा धन कंति पिआरी ॥ अंतरि प्रेमु लगा हरि सेती घरि सोहै हरि प्रभ नारी ॥ हरि रंगि राती सहजे माती हरि प्रभु हरि हरि पाइआ ॥ नानक जनु हरि दासु कहतु है वडभागी हरि हरि धिआइआ ॥३॥ पद्अर्थ: कड़ीआलु = लगाम। मुखे = मुखि, (काया घोड़ी के) मुंह में। गुरि = गुरु ने। अंकसु = अंकुश, हाथी को चलाने के लिए बरता जाता लोहे का कुंडा। मैगलु = हाथी (मदकल)। सबदि = शब्द द्वारा। वसि = वश में। वसगति = वश में। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। सा धन = जीव-स्त्री। कंति = कंत ने। अंतरि = अंदर, हृदय में। हरि सेती = हरि के साथ। घरि = घर में, प्रभु की हजूरी में। सोहै = सोहणी लगती है। रंगि = प्रेम रंग में। राती = रंगी हुई। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। माती = मस्त। हरि दासु = हरि का सेवक। जनु = दास।3। अर्थ: हे भाई! गुरु ने (जिस मनुष्य की काया-घोड़ी के) मुंह में लगाम दे दी, अंकुश रख दिया, उसका मन-हाथी गुरु के शब्द की इनायत से वश में आ गया। जिस जीव-स्त्री का मन वश में आ गया, उसने सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया, प्रभु कंत ने उस जीव-स्त्री को प्यार करना शुरू कर दिया, उसके हृदय में परमात्मा से प्रेम पैदा हो गया, वह जीव-स्त्री प्रभु की हजूरी में सुंदर लगती है। जो जीव-स्त्री प्रभु के प्रेम रंग में रंगी जाती है, जो आत्मिक अडोलता में मस्त रहती है, वह परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेती है। हरि का सेवक नानक दास कहता है: हे भाई! अति भाग्यशाली जीव ही परमात्मा का नाम स्मरण करते हैं।3। देह घोड़ी जी जितु हरि पाइआ राम ॥ मिलि सतिगुर जी मंगलु गाइआ राम ॥ हरि गाइ मंगलु राम नामा हरि सेव सेवक सेवकी ॥ प्रभ जाइ पावै रंग महली हरि रंगु माणै रंग की ॥ गुण राम गाए मनि सुभाए हरि गुरमती मनि धिआइआ ॥ जन नानक हरि किरपा धारी देह घोड़ी चड़ि हरि पाइआ ॥४॥२॥६॥ पद्अर्थ: देह = काया, शरीर। जी = हे भाई! जितु = जिस (काया-घोड़ी) से। मिलि सतिगुर = गुरु को मिल के। मंगलु = आत्मिक आनंद देने वाला गीत। सेवकी = सेवक भावना से। जाइ = जा के। प्रभ रंग महली = परमात्मा की आनंद भरी हजूरी में। मनि = मन में। सुभाए = सु भाए, प्रेम से। चढ़ि = चढ़ के।4। अर्थ: हे भाई! वह काया (मनुष्य की जीवन-यात्रा में, मानो) घोड़ी है जिस (काया) के माध्यम से मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है, और, गुरु को मिल के परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है। सेवक-भाव से जो मनुष्य परमात्मा की महिमा के गीत गा के परमात्मा की सेवा भक्ति करता है वह परमात्मा की आनंद भरी हजूरी में जा पहुँचता है और परमात्मा के मिलाप का आनंद लेता है। वह मनुष्य प्रेम से अपने मन में परमात्मा के गुण गाता है, गुरु की मति पर चल कर मन में परमात्मा का ध्यान धरता है। हे नानक! जिस दास पर परमात्मा मेहर करता है वह अपनी काया-घोड़ी पर चढ़ कर परमात्मा को मिल जाता है।4।2।6। रागु वडहंसु महला ५ छंत घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ गुर मिलि लधा जी रामु पिआरा राम ॥ इहु तनु मनु दितड़ा वारो वारा राम ॥ तनु मनु दिता भवजलु जिता चूकी कांणि जमाणी ॥ असथिरु थीआ अम्रितु पीआ रहिआ आवण जाणी ॥ सो घरु लधा सहजि समधा हरि का नामु अधारा ॥ कहु नानक सुखि माणे रलीआं गुर पूरे कंउ नमसकारा ॥१॥ पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। लधा = ढूँढता है। जी = हे भाई! वारो वारा = वार वार के, सदके करके। भवजलु = संसार समुंदर। चूकी = खत्म हो जाती है। कांणि = अधीनता। जमाणी = यमों की। असथिरु = अडोल चिक्त। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रहिआ = खत्म हो गया। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समधा = समा गया, लीनता हो गई। अधारा = आसरा। सुखि = आनंद से। रलीआं = खुशियां। कंउ = को।1। अर्थ: हे भाई! गुरु को मिल के (ही) प्यारा प्रभु मिलता है, (जिसे गुरु के माध्यम से प्रभु मिल जाता है वह) अपना ये शरीर ये मन (गुरु के) हवाले करता है। जो मनुष्य अपना तन-मन गुरु के हवाले करता है, वह संसार समुंदर को जीत लेता है, उसकी यमों की अधीनता खत्म हो जाती है वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (गुरु से ले के) पीता है, और, अडोल चिक्त हो जाता है, उसके जनम-मरन का चक्र समाप्त हो जाता है। उस मनुष्य को वह घर (प्रभु के चरणों में ठिकाना) मिल जाता है (जिसकी इनायत से) वह आत्मिक अडोलता में लीन रहता है, परमात्मा का नाम (उसकी जिंदगी का) आसरा बन जाता है। हे नानक! कह: वह मनुष्य सुख में रह कर आत्मिक खुशियां पाता है (ये सारी इनायत गुरु की ही है) पूरे गुरु को (सदा) नमस्कार करनी चाहिए।1। सुणि सजण जी मैडड़े मीता राम ॥ गुरि मंत्रु सबदु सचु दीता राम ॥ सचु सबदु धिआइआ मंगलु गाइआ चूके मनहु अदेसा ॥ सो प्रभु पाइआ कतहि न जाइआ सदा सदा संगि बैसा ॥ प्रभ जी भाणा सचा माणा प्रभि हरि धनु सहजे दीता ॥ कहु नानक तिसु जन बलिहारी तेरा दानु सभनी है लीता ॥२॥ पद्अर्थ: सजण = हे सज्जन! मैडड़े = मेरे। गुरि = गुरु ने। सबदु सचु = सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाला शब्द। मंगलु = महिमा का गीत। मनहु = मन से। अदेसा = अंदेशा, चिन्ता फिक्र। कतहि = किसी भी और जगह। संगि = (प्रभु के) साथ। बैसा = बैठा रहता है, टिका रहता है। प्रभ भाणा = प्रभु को प्यारा लगता है। प्रभि = प्रभु ने। सहजे = आत्मिक अडोलता में (टिका के)। बलिहारी = सदके। सभनी = और सब जीवों ने।1। अर्थ: हे मेरे सज्जन! हे मेरे मित्र! सुन, (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) गुरु ने प्रभु की सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाला शब्द-मंत्र दिया है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाले शब्द को सदा हृदय में बसाता है, जो मनुष्य परमात्मा की महिमा के गीत (सदा) गाता है, उसके मन से चिन्ता-फिक्र उतर जाते हैं, वह मनुष्य परमात्मा का मिलाप हासिल कर लेता है, (प्रभु को छोड़ के) किसी और जगह वह नहीं भटकता वह सदा ही प्रभु चरणों में लीन रहता है। वह मनुष्य प्रभु को (सदा) प्यारा लगता है, सदा स्थिर प्रभु का ही उसको मान-आसरा रहता है, परमात्मा ने उसको आत्मिक अडोलता में टिका के अपना नाम-धन बख्श दिया है। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) मैं उस सेवक से सदके जाता हूँ, तेरे नाम की दाति उससे सब जीव लेते हैं।2। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |