श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 583

जिनी आपणा कंतु पछाणिआ हउ तिन पूछउ संता जाए ॥ आपु छोडि सेवा करी पिरु सचड़ा मिलै सहजि सुभाए ॥ पिरु सचा मिलै आए साचु कमाए साचि सबदि धन राती ॥ कदे न रांड सदा सोहागणि अंतरि सहज समाधी ॥ पिरु रहिआ भरपूरे वेखु हदूरे रंगु माणे सहजि सुभाए ॥ जिनी आपणा कंतु पछाणिआ हउ तिन पूछउ संता जाए ॥३॥

पद्अर्थ: जिनी = जिन्होंने। कंतु = पति, पति प्रभु। हउ = मैं। पूछउ = पूछूँ, मैं पूछता हूँ। जाए = जा के। आपु = स्वै भाव। करी = मैं करता हूँ। सचड़ा = सदा कायम रहने वाला। सहजि = आत्मिक अडोलता से। सुभाए = प्यार से। आए = आ के। साचु = सदा स्थिर हरि नाम। साचि = सदा स्थिर हरि नाम में। सबदि = शब्द में। धन = जीव-स्त्री। भरपूरे = हर जगह व्यापक। हदूरे = अंग संग। माणे = माणि।3।

अर्थ: हे सखी! जिस संत जनों ने अपने पति-प्रभु के साथ सांझ डाल ली है, मैं जा के उनको पूछती हूँ। स्वै भाव त्याग के मैं उनकी सेवा करती हूँ। हे सखी! सदा कायम रहने वाला प्रभु-पति आत्मिक अडोलता में टिकने से प्रेम में जुड़ने से ही मिलता है। सदा-स्थिर प्रभु आ के उस जीव-स्त्री को मिल जाता है, जो सदा-स्थिर हरि-नाम जपने की कमाई करती है, जो सदा स्थिर हरि-नाम स्मरण में जुड़ी रहती है, जो गुरु के शब्द में रंगी रहती है। वह जीव-स्त्री सदा सुहाग वाली रहती है, वह कभी पति-विहीन नहीं होती, उसके अंदर आत्मिक अडोलता की समाधि लगी रहती है।

हे सखी! प्रभु-पति हर जगह मौजूद है, उसे तू अपने अंग-संग बसता देख, आत्मिक अडोलता में टिक के, प्रेम में जुड़ के उसके मिलाप का आनंद ले।

हे सखी! जिस संत-जनों ने अपने प्रभु-पति के साथ सांझ डाल ली है, मैं जा के उनसे पूछती हूँ (कि उसका मिलाप किस तरह हो सकता है?)।3।

पिरहु विछुंनीआ भी मिलह जे सतिगुर लागह साचे पाए ॥ सतिगुरु सदा दइआलु है अवगुण सबदि जलाए ॥ अउगुण सबदि जलाए दूजा भाउ गवाए सचे ही सचि राती ॥ सचै सबदि सदा सुखु पाइआ हउमै गई भराती ॥ पिरु निरमाइलु सदा सुखदाता नानक सबदि मिलाए ॥ पिरहु विछुंनीआ भी मिलह जे सतिगुर लागह साचे पाए ॥४॥१॥

पद्अर्थ: पिरहु = प्रभु पति से। भी = दुबारा भी। मिलह = हम मिल सकती हैं। जे लागह = अगर हम लगें। साचे सतिगुर पाए = सच्चे सतिगुरु के चरणों में। सबदि = शब्द में (जोड़ के)। दूजा भाउ = माया का प्यार। सचे ही सचि = सदा कायम रहने वाले प्रभु में ही। राती = मस्त। भराती = भटकना। निरमाइलु = पवित्र।4।

अर्थ: हे सखी! हम जीव-स्त्रीयां प्रभु-पति से विछुड़ी हुई फिर भी उसको मिल सकती हैं अगर हम सच्चे सतिगुरु के चरणों में लगें। हे सखी! गुरु सदा दयावान है, वह (शरण पड़े के) अवगुण (अपने) शब्द में (जोड़ के) जला देता है। (हे सखी! गुरु की शरण पड़ने वाले के अवगुण शब्द द्वारा जला देता है, माया का प्यार दूर कर देता है)। (गुरु के चरणों में लगी हुई जीव-स्त्री) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में ही रंगी रहती है। सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ के वह सदा आनंद लेती है, उसका अहंकार उसकी भटकना दूर हो जाती है।

हे नानक! प्रभु-पति पवित्र करने वाला है, सदा सुख देने वाला है, (अपने गुरु) शब्द के माध्यम से उससे मिला देता है।

हे सखी! हम जीव-स्त्रीयां प्रभु-पति से विछुड़ी हुई फिर भी उसको मिल सकती हैं, यदि हम सच्चे सतिगुरु के चरण लगें।4।1।

वडहंसु महला ३ ॥ सुणिअहु कंत महेलीहो पिरु सेविहु सबदि वीचारि ॥ अवगणवंती पिरु न जाणई मुठी रोवै कंत विसारि ॥ रोवै कंत समालि सदा गुण सारि ना पिरु मरै न जाए ॥ गुरमुखि जाता सबदि पछाता साचै प्रेमि समाए ॥ जिनि अपणा पिरु नही जाता करम बिधाता कूड़ि मुठी कूड़िआरे ॥ सुणिअहु कंत महेलीहो पिरु सेविहु सबदि वीचारे ॥१॥

पद्अर्थ: महेली = महिला, स्त्री। कंत महेलिहो = हे प्रभु पति की जीव स्त्रीयो! सबदि = शब्द से। जाणई = जाने, जानती। मुठी = ठगी हुई, जिसने आत्मिक जीवन लुटा लिया है। रोवै = दुखी होती है। संमालि = सम्भाल के, दिल में बसा के। सारि = संभाल के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाली जीव-स्त्री। प्रेमि = प्रेम में। जिनि = जिस ने। करम बिधाता = जीवों के किए कर्मों के अनुसार पैदा होने वाला। कूड़ि = झूठ में, माया के पसारे में।1।

अर्थ: हे प्रभु-पति की जीव सि्त्रयो! (मेरी बात) सुन लेनी (वह ये है कि) गुरु शब्द के द्वारा प्रभु के गुणों पर विचार करके प्रभु-पति की सेवा-भक्ति किया करो। जो जीव-स्त्री प्रभु-पति के साथ गहरी सांझ नहीं डालती, वह अवगुणों से भरी रहती है, प्रभु-पति को भुला के वह आत्मिक जीवन लुटा बैठती है, और, दुखी होती है। पर, जो जीव-स्त्री पति को हृदय में बसा के प्रभु के गुण सदा याद कर कर के (प्रभु के दर पर सदा) आरजू करती रहती है, उसका पति (-प्रभु) कभी मरता नहीं, उसे कभी छोड़ के नहीं जाता।

जो जीव-स्त्री गुरु की शरण पड़ कर प्रभु के साथ गहरी सांझ बना लेती है, गुरु के शब्द के माध्यम से प्रभु के साथ जान-पहचान बनाती है, वह सदा कायम रहने वाले प्रभु के प्रेम में लीन रहती है। जिस जीव-स्त्री ने अपने उस प्रभु-पति के साथ सांझ नहीं बनाई जो सब जीवों को उनके कर्मों के अनुसार पैदा करने वाला है, उस झूठ की बंजारन को माया का मोह ठग रखता है (इस वास्ते) हे प्रभु-पति की जीव-सि्त्रयो! (मेरी विनती) सुन लेनी- गुरु शब्द के द्वारा प्रभु के गुणों की विचार करके प्रभु की सेवा-भक्ति किया करो।1।

सभु जगु आपि उपाइओनु आवणु जाणु संसारा ॥ माइआ मोहु खुआइअनु मरि जमै वारो वारा ॥ मरि जमै वारो वारा वधहि बिकारा गिआन विहूणी मूठी ॥ बिनु सबदै पिरु न पाइओ जनमु गवाइओ रोवै अवगुणिआरी झूठी ॥ पिरु जगजीवनु किस नो रोईऐ रोवै कंतु विसारे ॥ सभु जगु आपि उपाइओनु आवणु जाणु संसारे ॥२॥

पद्अर्थ: उपाइओनु = उसने पैदा किया है। आवण जाणु = पैदा होना मरना। खुआइअनु = उसने गलत रास्ते पर डाल दिए हैं। वारो वारा = बार बार। मरि जंमै = मर के पैदा होना है। वधहि = बढ़ते हैं। विहूणी = विहीन। गिआन = आत्मिक जीवन की समझ। मूठी = लूटी जाती है। रोवै = दुखी होती है। अवगुणिआरी = अवगुणों से भरी हुई। झूठी = झूठे मोह में फंसी हुई। जग जीवनु = जगत का जीवन। किस नो रोईऐ = किस पर रोएं, किसी के मरने पर रोने की आवश्यक्ता नहीं। विसारे = भूल के।2।

अर्थ: हे भाई! सारा जगत और जगत का जनम मरण परमात्मा ने खुद बनाया है। माया का मोह (पैदा करके इस मोह में जगत को परमात्मा ने) आप ही भुलाया हुआ है (तभी तो) बार बार पैदा होता मरता रहता है। (माया के मोह में फंस के जीव) बार बार पैदा होता मरता रहता है, (इसमें) विकार बढ़ते रहते हैं। आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित दुनिया आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी लुटा बैठती है। गुरु के शब्द के बिना जीव-स्त्री प्रभु-पति का मिलाप हासिल नहीं कर सकती। अपना जन्म व्यर्थ गवा लेती है; अवगुणों से भरी हुई, और झूठे मोह में फसी हुई दुखी होती रहती है।

पर, हे भाई! प्रभु खुद ही जगत का जीवन (-आधार) है, किसी की आत्मिक मौत मरने पर रोना भी क्या हुआ? (जीव-स्त्री) प्रभु-पति को भुला के दुखी होती रहती है। हे भाई! सारे जगत को प्रभु ने खुद ही पैदा किया है, जगत का जनम-मरण भी प्रभु ने खुद ही बनाया है।2।

सो पिरु सचा सद ही साचा है ना ओहु मरै न जाए ॥ भूली फिरै धन इआणीआ रंड बैठी दूजै भाए ॥ रंड बैठी दूजै भाए माइआ मोहि दुखु पाए आव घटै तनु छीजै ॥ जो किछु आइआ सभु किछु जासी दुखु लागा भाइ दूजै ॥ जमकालु न सूझै माइआ जगु लूझै लबि लोभि चितु लाए ॥ सो पिरु साचा सद ही साचा ना ओहु मरै न जाए ॥३॥

पद्अर्थ: सचा = सदा जीवित। सद ही = हमेशा ही। न जाए = ना पैदा होता है। भूली फिरै = भूली फिरती है। धन = जीव-स्त्री। रंड = विछुड़ी हई, पति विहीन, रंडी। दूजै भाए = माया के प्यार में। आव = उम्र। तनु = शरीर। छीजै = कमजोर होता जाता है। जासी = नाश हो जाएगा। लूझै = झगड़ता है। लबि = लोभ में।3।

अर्थ: हे भाई! वह प्रभु-पति सदा जीवित है, सदा ही जीता है, वह ना मरता है ना पैदा होता है। अंजान जीव-स्त्री उससे वंचित हुई फिरती है, माया के मोह में फंस के प्रभु से विछुड़ी रहती है। औरों के प्यार के कारण प्रभु से विछुड़ी रहती है, माया के मोह में फंस के दुख सहती है, (इस मोह में इसकी) उम्र गुजरती जाती है, और, शरीर कमजोर होता जाता है। (जगत का नियम तो है ही ये कि) जो कुछ यहाँ पैदा हुआ है वह सब कुछ नाश हो जाता है, पर माया के मोह के कारण (इस अटल नियम को भुला के जीव को किसी के मरने पर) दुख होता है। जगत (सदैव) माया की खातिर लड़ता-झगड़ता है, उसको (सिर पर) मौत नहीं सूझती, लब में लोभ में चिक्त लगाए रखता है।

हे भाई! वह प्रभु-पति सदा जीता है, सदा ही जीवित है, वह ना मरता है ना पैदा होता है।3।

इकि रोवहि पिरहि विछुंनीआ अंधी ना जाणै पिरु नाले ॥ गुर परसादी साचा पिरु मिलै अंतरि सदा समाले ॥ पिरु अंतरि समाले सदा है नाले मनमुखि जाता दूरे ॥ इहु तनु रुलै रुलाइआ कामि न आइआ जिनि खसमु न जाता हदूरे ॥ नानक सा धन मिलै मिलाई पिरु अंतरि सदा समाले ॥ इकि रोवहि पिरहि विछुंनीआ अंधी न जाणै पिरु है नाले ॥४॥२॥

पद्अर्थ: इकि = कई, बहुत। रोवहि = दुखी होती हैं। पिरहि = प्रभु पति से। अंधी = माया के मोह में अंधी हो चुकी जीव-स्त्री। परसादी = कृपा से। अंतरि = हृदय में। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाली जीव-स्त्री। जाता = समझती है। कामि = किसी काम में। जिनि = जिस (जीव-स्त्री) ने। हदूरे = अंग संग बसता। सा धन = जीव-स्त्री।4।

नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन।

अर्थ: कई जीव-स्त्रीयां ऐसी हैं जो प्रभु-पति से विछुड़ के दुखी रहती हैं। माया के मोह में अंधी हुई जीव-स्त्री ये नहीं समझती कि प्रभु-पति हर वक्त साथ बसता है। गुरु की कृपा से जो जीव-स्त्री प्रभु-पति को सदा अपने हृदय में बसाए रखती है, उसे सदा जीता-जागता प्रभु मिल जाता है, वह जीव-स्त्री सदा प्रभु-पति को अपने दिल में बसाए रखती है उसको वह सदा अंग-संग दिखाई देता है। पर, अपने मन के पीछे चलने वाली प्रभु को दूर बसता समझती है। हे भाई! जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति को अंग-संग बसता नहीं समझा, उसका ये शरीर (विकारों में) बेकार होता रहता है, और किसी काम नहीं आता। हे नानक! जो जीव-स्त्री (गुरु की कृपा से) प्रभु-पति को सदा अपने हृदय में बसाए रखती है, वह (गुरु की) मिलाई हुई प्रभु से मिल जाती है।

कई जीव-स्त्रीयां ऐसी हैं जो प्रभु-पति से विछुड़ के दुख पाती हैं। माया के मोह में अंधी हो चुकी जीव-स्त्री ये नहीं समझती कि प्रभु-पति हर वक्त साथ बसता है।4।2।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh