श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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लाइ चितु करि चाकरी मंनि नामु करि कमु ॥ बंनु बदीआ करि धावणी ता को आखै धंनु ॥ नानक वेखै नदरि करि चड़ै चवगण वंनु ॥४॥२॥

पद्अर्थ: चाकरी = नौकरी। कंमु = नौकरी का काम। बंनु = रोक के रख। धावणी = नौकरी के लिए दौड़ भाग। ता = तब ही। धंनु = धन्य। चवगण = चौगुना। वंनु = रंग।4।

अर्थ: (हे भाई! नौकर रोजी कमाने के लिए मेहनत से मालिक की सेवा करता है, तू भी) पूरे ध्यान से (प्रभु मालिक की) नौकरी कर (जैसे नौकर अपने मालिक के हुक्म को भुलाता नहीं, तू भी) परमात्मा मालिक के नाम को मन में पक्का करके रख, यही है उसकी सेवा। विकारों को (अपने नजदीक आने से) रोक दे, ये है परमात्मा की नौकरी की दौड़-भाग। (यदि ये उद्यम करेगा) तो हर कोई तुझे साबाशी देगा। हे नानक! ऐसी नौकरी करने से परमात्मा तुझे मेहर की नजर से देखेगा, तेरी जीवात्मा पर चौगुना आत्मिक-रूप चढ़ेगा।4।2।

नोट: धन कमाने के लिए आम तौर पर चार तरीके हैं: किसानी, दुकान, व्यापार और नौकरी। इस शब्द में फरमाते हैं कि दुनिया का धन यहाँ से चलने के वक्त साथ छोड़ देगा, साथ निभने वाला तो नाम-धन है, उसे इकट्ठा करने के लिए वैसे ही मेहनत करनी है जैसे किसान खेती के लिए मेहनत करता है, दुकानदार दुकान में, व्यापारी व्यापार में और मुलाजिम नौकरी में।

सोरठि मः १ चउतुके ॥ माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥

पद्अर्थ: नीका = अच्छा, प्यारा। ससुरै = ससुर का। चतुरु = समझदार। को = को, के वास्ते। को = का। बाहरु घरु = घर बाहर, घर घाट। दानु = सेवा (दूसरों की)। इसनानु = पवित्रता, पवित्र आचरण। तितु = उस में, उससे। तनि = शरीर से। तितु तनि = उस शरीर से। धूड़ि धुमाई = धूल ही उड़ाई।1।

अर्थ: जो मनुष्य कभी माता-पिता का प्यारा पुत्र था, कभी ससुर का चतुर दामाद था, कभी पुत्र-पुत्री के लिए प्यारा पिता, कभी भाई का बड़ा (स्नेह भरा) भाई था, जब अकालपुरुख का हुक्म हुआ तो उसने घर-बार सब कुछ छोड़ दिया, पलक झपकते ही सब कुछ पराया हो गया है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे ने ना नाम जपा ना सेवा की और ना ही पवित्र आचरण बनाया। इस मानव शरीर से मिट्टी ही उड़ाता रहा।1।

मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सखाई = मित्र। परउ = मैं पड़ता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। रहाउ।

अर्थ: जिस मनुष्य का मन गुरु के उपदेश में पतीजता है वह परमात्मा के नाम को असल मित्र समझता है। मैं तो गुरु के पैर लगता हूँ, गुरु से सदके जाता हूँ जिसने ये सच्ची मति दी है (कि परमात्मा असल मित्र है)।1। रहाउ।

जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥

पद्अर्थ: बेधिआ = भेदा। जन = प्रभु के दास, संत जन। वादु = झगड़ा। मगनु = मस्त। अहि = दिन। निसि = रात। मगु = रास्ता। जोहै = देखता है। मरै = आत्मिक मौत मरता है। बिखु = जहर। गंधण वैणि = गंदे बोल में। रता = मस्त। हितकारी = हितैषी, प्यार करने वाला। रंगि = (प्रभु के) रंग में। रसि = रस में। मनमुखि = जिस मनुष्य का मुंह अपने ही मन की ओर है, जो अपने मन के पीछे चलता है। पति = इज्जत।2।

अर्थ: मनमुख का मन जगत से झूठे प्यार में परोया रहता है, संत-जनों से वह झगड़ा खड़ा किए रखता है। माया (के मोह) में मस्त वह दिन रात वह माया की राह ही देखता रहता है, परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण करता, इस तरह (माया के मोह का) जहर खा खा के आत्मिक मौत मर जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य गंदे गीतों (गाने-सुनने) में मस्त रहता है, गंदे गीतों से ही हित करता है, परमात्मा की महिमा वाली वाणी में उसकी तवज्जो नहीं जुड़ती। ना वह परमात्मा के प्यार में रंगा जाता है ना वह नाम-रस से आकर्षित होता है। मनमुख इसी तरह अपनी इज्जत गवा लेता है।2।

साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥

पद्अर्थ: साध सभा = सत्संग। सहजु = अडोलता का आनंद, शांति का रस। राई = रक्ती भी। दर = परमात्मा का दरवाजा। मीटि = मीट के। अखी मीटि चलिआ = आँखें बंद करके ही चलता रहा। अंधिआरा = अंधा। घरु दरु = प्रभु का घर प्रभु का दर। दरि = दर पर।3।

अर्थ: साधु-संगत में जा के मनमुख आत्मिक अडोलता का आनंद कभी नहीं पाता, उसकी जीभ को नाम जपने में थोड़ा सा भी स्वाद नहीं आता। मनमुख अपने मन को तन को धन को ही अपना समझे बैठता है परमात्मा के दर की उसे कोई समझ नहीं होती। मनमुख अंधा (जीवन सफर में) आँखे बँद करके ही चलता जाता है, हे भाई! परमात्मा का घर परमात्मा का दर उसे कभी दिखता ही नहीं। आखिर अपने किए का ये लाभ कमाता है कि यमराज के दरवाजे पर बँधा हुआ (मार खाता है, इस सजा से बचने के लिए) उसे कोई सहारा नहीं मिलता।3।

नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥

पद्अर्थ: अखी वेखा = मैं आँखों से देख सकता हूँ। कंनी = कानों से। सालाही = मैं महिमा करता हूँ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन वाला नाम। वसाई = मैं बसा सकता हूँ। समाई = व्यापक। सति = सत वाला। नामि = नाम में (जुड़ने से)।4।

नोट: इस शब्द के सारे बंद चौतुके हैं, हरेक बंद में चार-चार तुकें हैं पहले दो शबदों के हरेक बंद में तीन-तीन तुके हैं।

अर्थ: (पर हम जीवों के भी क्या वश?) अगर प्रभु स्वयं मेहर की नजर करे तो ही मैं उसे आँखों से देख सकता हूँ, उसके गुणों का बयान नहीं किया जा सकता। (उसकी मेहर हो तो ही) कानों से उसकी महिमा सुन-सुन के गुरु के शब्द के माध्यम से मैं उसकी महिमा कर सकता हूँ, और अटल आत्मिक जीवन देने वाला उसका नाम दिल में बसा सकता हूँ।

हे नानक! प्रभु निरभय है निराकार है निर्वैर है उसकी ज्योति सारे जगत में पूर्ण रूप में व्यापक है, उसके सदा स्थिर रहने वाले नाम में टिकने से ही आदर मिलता है, पर गुरु की शरण के बिना मन की भटकन दूर नहीं होती (और भटकन दूर हुए बिना नाम में जुड़ा नहीं जा सकता)।4।3।

सोरठि महला १ दुतुके ॥ पुड़ु धरती पुड़ु पाणी आसणु चारि कुंट चउबारा ॥ सगल भवण की मूरति एका मुखि तेरै टकसाला ॥१॥

पद्अर्थ: दुतुके = दो-दो तुकों वाले सारे ‘बंद’। पुड़ु = चक्की का पुड़। पाणी = बादल, आकाश। कुंट = कूट, पासा। आसणु = निवास स्थान। भवण = सृष्टि। मूरति = मूर्तियां, जीव-जंतु। मुखि = मुखी, श्रेष्ठ। तेरै मुखि टकसाला = तेरी श्रेष्ठ टकसाल में घड़े गए हैं।1।

अर्थ: हे प्रभु! ये सारी सृष्टि तेरा ही चुबारा है, चारों तरफ उस चुबारे की चार दीवारें हैं, धरती उस चुबारे की (नीचे की) पुड़ (चक्की का हिस्सा) है (फर्श है), आकाश उस चुबारे का (ऊपरी) पुड़ है (छत है)। इस चुबारे में तेरा निवास है। सारी सृष्टि (के जीव-जंतुओं) की मूर्तियां तेरी ही श्रेष्ठ टकसाल में घड़ी हुई हैं।1।

मेरे साहिबा तेरे चोज विडाणा ॥ जलि थलि महीअलि भरिपुरि लीणा आपे सरब समाणा ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चोज = करिश्मे, तमाशे। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। भरिपुरि = भरपूर, नाको नाक। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मालिक! तेरे आश्चर्यजनक करिश्मे हैं। तू पानी में, धरती के अंदर, धरती के ऊपर (सारे अंतरिक्ष में) भरपूर व्यापक है। तू खुद ही सब जगह मौजूद है। रहाउ।

जह जह देखा तह जोति तुमारी तेरा रूपु किनेहा ॥ इकतु रूपि फिरहि परछंना कोइ न किस ही जेहा ॥२॥

पद्अर्थ: किनेहा = कैसा? बयान से परे। इकतु रूप = एक रूप (होते हुए), एक खुद ही खुद होते हुए। परछंना = छुपा हुआ।2।

अर्थ: मैं जिधर देखता हूँ तेरी ही ज्योति (प्रकाशमान) है, पर तेरा स्वरूप कैसा है (ये बयान से परे है)। तू खुद ही खुद होते हुए भी इन बेअंत जीवों में छुप के घूम रहा है (आश्चर्य ये है कि) कोई एक जीव किसी दूसरे जैसा नहीं है।2।

अंडज जेरज उतभुज सेतज तेरे कीते जंता ॥ एकु पुरबु मै तेरा देखिआ तू सभना माहि रवंता ॥३॥

पद्अर्थ: अंडज = अण्डे से जन्मे हुए। जेरज = ज्योर गर्भ से जन्मे हुए। उतभुज = पानी से धरती में पैदा होए हुए। सेतज = स्वेत (पसीने) से पैदा होए हुए। पूरबु = आश्चर्यजनक खेल, बड़ाई। रवंता = रमा हुआ, व्यापक।3।

अर्थ: अण्डे में से, गर्भ में से, धरती में से, पसीने में से पैदा होए हुए ये सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं (ये सारे अनेक रंगों और किस्मों के हैं), पर मैं तेरे आश्चर्यजनक खेल को देखता हूँ कि तू इन सभी जीवों में मौजूद है।3।

तेरे गुण बहुते मै एकु न जाणिआ मै मूरख किछु दीजै ॥ प्रणवति नानक सुणि मेरे साहिबा डुबदा पथरु लीजै ॥४॥४॥

पद्अर्थ: किछु = कोई अच्छी अकल। लीजै = निकाल ले।4।

अर्थ: नानक विनती करता है: हे प्रभु! तेरे अनेक गुण हैं, मुझे किसी एक की भी पूरी समझ नहीं हैं। हे मेरे मालिक! सुन! मुझ मूर्ख को सद-बुद्धि दे, मैं विकारों में डूब रहा हूँ जैसे पत्थर पानी में डूब जाता है। मुझे निकाल ले।4।4।

सोरठि महला १ ॥ हउ पापी पतितु परम पाखंडी तू निरमलु निरंकारी ॥ अम्रितु चाखि परम रसि राते ठाकुर सरणि तुमारी ॥१॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। पतित = गिरा हुआ, विकारों में पड़ा हुआ। अंम्रितु = अटल आत्मिक जीवन देने वाला नाम रस। रसि = रस में। ठाकुर = हे ठाकुर! 1।

अर्थ: हे मेरे ठाकुर! मैं विकारी हूँ, (सदा वकारों में ही) गिरा रहता हूँ, बड़ा ही पाखण्डी हूँ, तू पवित्र निरंकार है। (इतनी ज्यादा दूरी होते हुए मैं तेरे चरणों में कैसे पहुँचू?)। (पर तू शरण पड़े की इज्जत रखने वाला है) जो लोग तेरी शरण पड़ते हैं; वे अटल आत्मिक जीवन देने वाला तेरा नाम-रस चख के उस सबसे उच्च रस में मस्त रहते हैं।1।

करता तू मै माणु निमाणे ॥ माणु महतु नामु धनु पलै साचै सबदि समाणे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: करता = हे कर्तार! महतु = महत्वता, बड़ाई। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे कर्तार! (दुनिया में किसी को धन का गुमान, किसी को गुणों का फख़र। मेरे पास तो गुण नहीं हैं) मुझे निमाण के लिए तो तू ही माण है (मुझे तेरा ही माण है आसरा है) जिनके पल्ले परमात्मा का नाम धन है, जो गुरु-शब्द के द्वारा सदा-स्थिर रहने वाले प्रभु में लीन रहते हैं उन्हें ही मान मिलता है उन्हें ही बड़प्पन मिलता है। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh