श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ९ ॥ प्रीतम जानि लेहु मन माही ॥ अपने सुख सिउ ही जगु फांधिओ को काहू को नाही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रीतम = हे सज्जन! माही = में। सिउ = साथ। फांधिओ = बंधा हुआ है। को = कोई मनुष्य। काहू को = किसी का।1। रहाउ।

अर्थ: हे मित्र! (अपने) मन में (ये बात) पक्के तोर पर समझ लें कि सारा संसार अपने सुख के साथ ही बँधा हुआ है। कोई भी किसी का (आखिर तक निभाने वाला साथी) नहीं (बनता)।1। रहाउ।

सुख मै आनि बहुतु मिलि बैठत रहत चहू दिसि घेरै ॥ बिपति परी सभ ही संगु छाडित कोऊ न आवत नेरै ॥१॥

पद्अर्थ: आनि = आ के। मिलि = मिल के। चहु दिसि = चारों तरफ। रहत घरै = घेरे रहते हैं। संगु = साथ। कोऊ = कोई भी।1।

अर्थ: हे मित्र! (जब मनुष्य) सुख में (होता है, तब) कई यार दोस्त मिल के (उसके पास) बैठते हैं, और, (उसे) चारों और से घेरे रखते हैं। (पर जब उसे कोई) मुसीबत आती है, सारे ही साथ छोड़ जाते हैं, (फिर) कोई भी (उसके) नजदीक नहीं फटकता।1।

घर की नारि बहुतु हितु जा सिउ सदा रहत संग लागी ॥ जब ही हंस तजी इह कांइआ प्रेत प्रेत करि भागी ॥२॥

पद्अर्थ: नारि = स्त्री। हितु = प्यार। जा सिउ = जिस से। संगि = साथ (‘संगु’ और ‘संगि’ में फर्क है)। हंस = जीवात्मा। कांइआ = शरीर। प्रेत = गुजर चुका, मर चुका। करि = कह के।2।

अर्थ: हे मित्र! घर की स्त्री (भी) जिससे बड़ा प्यार होता है, जो सदा (पति के) साथ लगी रहती है, जिस वक्त (पति की) जीवात्मा इस शरीर को छोड़ देती है, (स्त्री उससे ये कह के) परे हट जाती है कि ये मर चुका है मर चुका है।2।

इह बिधि को बिउहारु बनिओ है जा सिउ नेहु लगाइओ ॥ अंत बार नानक बिनु हरि जी कोऊ कामि न आइओ ॥३॥१२॥१३९॥

पद्अर्थ: इह बिधि को = इस तरह का। बिउहारु = व्यवहार। अंत बार = आखिरी समय में। कामि = काम में।3।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे मित्र! दुनिया का) इस तरह का व्यवहार बना हुआ है जिससे (मनुष्य ने) प्यार डाला हुआ है। (पर, हे मित्र! आखिरी समय में परमात्मा के बिना और कोई भी (मनुष्य की) मदद नहीं कर सकता।3।12।139।

नोट: सारे शबदों का वेरवा यूँ है:
सोरठि महला १----------------12
सोरठि महला ३----------------12
सोरठि महला ४----------------09
सोरठि महला ५----------------94
सोरठि महला ९----------------12
कुल जोड़----------------------139


सोरठि महला १ घरु १ असटपदीआ चउतुकी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई ॥ त्रिसना राचि न पर घरि जावा त्रिसना नामि बुझाई ॥ घर भीतरि घरु गुरू दिखाइआ सहजि रते मन भाई ॥ तू आपे दाना आपे बीना तू देवहि मति साई ॥१॥

पद्अर्थ: दुबिधा = दु तरफा मन, परमात्मा के बिना और आसरे की तलाश। न पड़उ = मैं नहीं पड़ता। न पूजउ = मैं नहीं पूजता। मढ़ै = मढ़ियां, समाधि, कब्र। मसाणि = शमशान, जहाँ मुर्दे जलाए जाते हैं। न जाई = मैं नहीं जाता। राचि = फस के। पर घरि = पराए घर में, परमात्मा के बिना किसी और घर में। मन = मन को। भाई = पसंद आ गई है। दाना = जानने वाला। बीना = पहचानने वाला। साई = हे सांई!।1।

अर्थ: मैं परमात्मा के बिना किसी और आसरे की तलाश में नहीं पड़ता, मैं प्रभु के बिना किसी और को नहीं पूजता, मैं कहीं समाधियों, शमशानों में भी नहीं जाता। माया की तृष्णा में फंस के मैं (परमात्मा के दर के बिना) किसी और घर में नहीं जाता, मेरी मायावी तृष्णा परमात्मा के नाम ने मिटा दी है। गुरु ने मुझे मेरे हृदय में ही परमात्मा का निवास-स्थान दिखा दिया है, और अडोल अवस्था में रंगे हुए मेरे मन को वह सहज-अवस्था अच्छी लग रही है।

हे मेरे सांई! (ये सब तेरी ही मेहर है) तू खुद ही (मेरे दिल की) जानने वाला है; खुद ही पहचानने वाला है, तू खुद ही मुझे (अच्छी) मति देता है (जिस कारण तेरा दर छोड़ के किसी और तरफ नहीं भटकता)।1।

मनु बैरागि रतउ बैरागी सबदि मनु बेधिआ मेरी माई ॥ अंतरि जोति निरंतरि बाणी साचे साहिब सिउ लिव लाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बैरागि = वैराग में, वियोग के अहसास में, विरह में। रतउ = रंगा हुआ। बैरागी = त्यागी। बेधिआ = भेदा हुआ। निरंतरि = दूरी के बिना, एक रस। रहाउ।

अर्थ: हे मेरी माँ! मेरा मन गुरु के शब्द में भेदा गया है (परोया गया है। शब्द की इनायत से मेरे अंदर परमात्मा से विछुड़ने का अहिसास पैदा हो गया है)। वही मनुष्य (दरअसल में) त्यागी है जिसका मन परमात्मा के बिरह-रंग में रंगा गया है। उस (वैरागी) के अंदर प्रभु की ज्योति जग पड़ती है, वह एक-रस महिमा की वाणी में (मस्त) रहता है, सदा कायम रहने वाले मालिक प्रभु (के चरणों में) उसकी तवज्जो जुड़ी रहती है।1। रहाउ।

असंख बैरागी कहहि बैराग सो बैरागी जि खसमै भावै ॥ हिरदै सबदि सदा भै रचिआ गुर की कार कमावै ॥ एको चेतै मनूआ न डोलै धावतु वरजि रहावै ॥ सहजे माता सदा रंगि राता साचे के गुण गावै ॥२॥

पद्अर्थ: असंख = बेअंत। बैराग = वैराग की बातें। भै = परमात्मा के डर अदब में। धावतु = माया की ओर दौड़ते को। रहावै = काबू रखता है। सहजे = सहज में।2।

अर्थ: अनेक ही वैरागी वैराग की बातें करते हैं, पर असल वैरागी वह है जो (परमात्मा के विरह-रंग में इतना रंगा हुआ है कि वह) पति-प्रभु को प्यारा लगने लगता है, वह गुरु के शब्द के द्वारा अपने दिल में (परमात्मा की याद को बसाता है और) सदा परमात्मा के भय-अदब में मस्त (रह के) गुरु के द्वारा बताए हुए कार्य करता है। वह बैरागी सिर्फ परमात्मा को याद करता है (जिस कारण उसका) मन (माया की ओर) डोलता नहीं, वह बैरागी (माया की तरफ) भागते मन को रोक के (प्रभु चरणों में) रोके रखता है। अडोल अवस्था में मस्त वह वैरागी सदा (प्रभु के नाम-) रंग में रंगा रहता है, और सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता है।2।

मनूआ पउणु बिंदु सुखवासी नामि वसै सुख भाई ॥ जिहबा नेत्र सोत्र सचि राते जलि बूझी तुझहि बुझाई ॥ आस निरास रहै बैरागी निज घरि ताड़ी लाई ॥ भिखिआ नामि रजे संतोखी अम्रितु सहजि पीआई ॥३॥

पद्अर्थ: पउणु = पवन, हवा (की तरह चंचल)। बिंदु = रक्ती भर भी। स्रोत = इंद्रिय। जलि = जलन, तृष्णा अग्नि। भाई = हे भाई!।3।

अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य का) चंचल मन रक्ती भर भी आत्मिक आनंद में निवास देने वाले नाम में बसता है (वह मनुष्य असल बैरागी है, और वह बैरागी) आत्मिक आनंद लेता है। हे प्रभु! तूने स्वयं (उस वैरागी को जीवन के सही रास्ते की) समझ दी है, (जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा-) अग्नि बुझ गई है, और उसकी जीभ उसकी आँखें (आदि) इंद्रिय सदा-स्थिर (हरि-नाम) में रंगे रहते हैं। वह बैरागी दुनिया की आशाओं से निर्मोह हो के जीवन व्यतीत करता है, वह (दुनियावी घर-धाट के अपनत्व को त्याग के) उस घर में तवज्जो जोड़े रखता है जो सच-मुच उसका अपना ही रहेगा। ऐसे बैरागी (गुरु-दर से मिली) नाम-भिक्षा से अघाए रहते हैं, तृप्त रहते हैं, संतुष्ट रहते हैं (क्योंकि उनको गुरु ने) अडोल आत्मिक अवस्था में टिका के आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस पिला दिया है।3।

दुबिधा विचि बैरागु न होवी जब लगु दूजी राई ॥ सभु जगु तेरा तू एको दाता अवरु न दूजा भाई ॥ मनमुखि जंत दुखि सदा निवासी गुरमुखि दे वडिआई ॥ अपर अपार अगम अगोचर कहणै कीम न पाई ॥४॥

पद्अर्थ: दूजी = कोई और झाक। राई = रक्ती भी। दुखि = दुख में। दे = देता है। अगोचर = अ+गोचर, जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं। कीम = कीमत। कहणै = कहने से।4।

अर्थ: जब तक (मन में) रक्ती भर भी कोई और झाक है किसी और आसरे की तलाश है तब तक विरह अवस्था पैदा नहीं हो सकती। (पर हे प्रभु! ये विरह की) दाति देने वाला एक तू खुद ही है, तेरे बिना कोई और (ये दाति) देने वाला नहीं है, और ये सारा जगत तेरा अपना ही (रचा हुआ) है।

अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य सदा दुख में टिके रहते हैं, जो लोग गुरु की शरण पड़ते हैं उनको प्रभु (नाम की दाति दे के) आदर-सम्मान बख्शता है। उस बेअंत अगम्य (पहुँच से परे) और अगोचर प्रभु की कीमत (जीवों के) बयान करने से नहीं बताई जा सकती (उसके बराबर का और कोई कहा नहीं जा सकता)।4।

सुंन समाधि महा परमारथु तीनि भवण पति नामं ॥ मसतकि लेखु जीआ जगि जोनी सिरि सिरि लेखु सहामं ॥ करम सुकरम कराए आपे आपे भगति द्रिड़ामं ॥ मनि मुखि जूठि लहै भै मानं आपे गिआनु अगामं ॥५॥

पद्अर्थ: सुंन = शून्य अवस्था, अफुर अवस्था, निर्विचार अवस्था। सुंन समाधि = वह जो निर्विचार अवस्था में टिका रहता है, जिस पर माया वाले फुरने अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। परमारथु = परम अर्थ, सबसे ऊँचा श्रेष्ठ धन। पति = मालिक। मसतकि = माथे पर। जगि = जगत में। सिरि सिरि = हरेक सिर पर, हरेक जीव अपने-अपने सिर पर। सहामं = सहता है। करम = काम। सुकरम = अच्छे काम। द्रिड़ामं = (हृदय में) दृढ़ करता है। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। जूठि = मैल। भै = डर में। अगामं = अगम प्रभु।5।

अर्थ: परमात्मा एक ऐसी आत्मिक अवस्था का मालिक है कि उस पर माया के फुरने असर नहीं डाल सकते, वह तीनों ही भवनों का मालिक है, उसका नाम जीवों के लिए महान ऊँचा श्रेष्ठ धन है। जगत में जितने भी जीव जन्म लेते हैं उनके माथे पर (उनके किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार परमात्मा की रज़ा में ही) लेख (लिखा जाता है, हरेक जीव को) अपने-अपने सिर पर लिखा लेख सहना पड़ता है। परमात्मा स्वयं ही (साधारण) काम और अच्छे काम (जीवों से) करवाता है, खुद ही (जीवों के हृदय में अपनी) भक्ति दृढ़ करता है। अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) गहरी सांझ बख्शता है। (सच्चा वैरागी) परमात्मा के डर-अदब में रच जाता है, उसके मन में और मुँह में (पहले जो भी विकारों की निंदा आदि की) मैल (होती है वह) दूर हो जाती है।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh