श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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इहु तनु हाटु सराफ को भाई वखरु नामु अपारु ॥ इहु वखरु वापारी सो द्रिड़ै भाई गुर सबदि करे वीचारु ॥ धनु वापारी नानका भाई मेलि करे वापारु ॥८॥२॥

पद्अर्थ: हाटु = दुकान। सराफ़ = शाह। को = का। द्रिढ़ै = दृढ़ कर लेता है, पक्की तरह याद रखता है। धनु = भाग्यशाली। मेलि = मेल में, सत्संग में।8।

अर्थ: हे भाई! ये मानव शरीर परमात्मा-सर्राफ़ की दी हुई एक हाट है जिसमें कभी ना खत्म होने वाला नाम-सौदा है। वही जीव-व्यापारी इस सौदे का (अपने शरीर हाट में) दृढ़ता से वणज करता है जो गुरु के शब्द में विचार करता है। हे नानक! वह जीव-व्यापारी भाग्यशाली है जो साधु-संगत में (रह के) ये व्यापार करता है।8।2।

सोरठि महला १ ॥ जिन्ही सतिगुरु सेविआ पिआरे तिन्ह के साथ तरे ॥ तिन्हा ठाक न पाईऐ पिआरे अम्रित रसन हरे ॥ बूडे भारे भै बिना पिआरे तारे नदरि करे ॥१॥

पद्अर्थ: साथ = सार्थ, काफ़ले, संगी साथी। ठाक = रोक। रसन = जीभ (से)। अंम्रित हरे = हरि का नाम अमृत। भारे = पापों के भार से लदे हुए।1।

अर्थ: जिस लोगों ने सतिगुरु का पल्ला पकड़ा है, हे सज्जन! उनके संगी-साथी भी पार लांघ जाते हैं। जिनकी जीभ परमात्मा का नाम-अमृत चखती है उनके (जीवन-यात्रा में विकार आदि की) रुकावटें नहीं पड़ती। हे सज्जन! जो लोग परमात्मा के डर-अदब से वंचित रहते हैं वे विकारों के भार से लादे जाते हैं और संसार समुंदर में डूब जाते हैं। पर जब परमात्मा मेहर की निगाह करता है तो उनको भी पार लंघा लेता है।1।

भी तूहै सालाहणा पिआरे भी तेरी सालाह ॥ विणु बोहिथ भै डुबीऐ पिआरे कंधी पाइ कहाह ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भी = सदा ही। तूहै = तुझे ही। पिआरे = हे सज्जन प्रभु! सालाह = महिमा। बोहिथ = जहाज (नाम का)। भै = भय (सागर) में। कंधी = किनारा। कहाह = कहाँ?। रहाउ।

अर्थ: हे सज्जन प्रभु! सदा तुझे ही सलाहना चाहिए, हमेशा तेरी ही महिमा करनी चाहिए। (इस संसार-समुंदर में से पार लांघने के लिए तेरी महिमा ही जीवों के लिए जहाज है, इस) जहाज के बिना भव-सागर में डूब जाते हैं। (कोई भी जीव समुंदर का) दूसरा छोर ढूँढ नहीं सकता। रहाउ।

सालाही सालाहणा पिआरे दूजा अवरु न कोइ ॥ मेरे प्रभ सालाहनि से भले पिआरे सबदि रते रंगु होइ ॥ तिस की संगति जे मिलै पिआरे रसु लै ततु विलोइ ॥२॥

पद्अर्थ: सलाही = साराहनीय हरि। सालाहनि = (जो लोग) साराहते हैं। सबदि = गुरु के शब्द में। रसु लै = नाम अमृत चखता है। विलोइ = (नाम दूध को) मथ के। ततु = जगत का मूल प्रभु।2।

अर्थ: हे सज्जन! सलाहने योग्य परमात्मा की महिमा करनी चाहिए, उस जैसा और कोई नहीं है। जो लोग प्यारे प्रभु की महिमा करते हैं वे भाग्यशाली हैं। गुरु के शब्द में गहरी लगन रखने वाले व्यक्ति को परमात्मा का प्रेम रंग चढ़ता है। ऐसे आदमी की संगति अगर (किसी को) प्राप्त हो जाए तो वह हरि नाम का रस लेता है। और (नाम-दूध को) मथ के वह जगत के मूल प्रभु में मिल जाता है।2।

पति परवाना साच का पिआरे नामु सचा नीसाणु ॥ आइआ लिखि लै जावणा पिआरे हुकमी हुकमु पछाणु ॥ गुर बिनु हुकमु न बूझीऐ पिआरे साचे साचा ताणु ॥३॥

पद्अर्थ: पति = पति प्रभु। परवाना = राहदारी। साच का = सदा स्थिर रहने वाला प्रभु नाम का। सचा = सदा स्थिर रहने वाला। नीसाणु = मोहर। हुकमी हुकमु = परमात्मा के हुक्म को। ताणु = बल, ताकत।3।

अर्थ: हे भाई! सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम प्रभु-पति को मिलने के लिए (इस जीवन-सफर में) राहदारी है, ये नाम सदा-स्थिर रहने वाली मेहर है। (प्रभु का यही हुक्म है कि) जगत में जो भी आया है उसने (प्रभु को मिलने के लिए, ये नाम-रूपी राहदारी) लिख के अपने साथ ले जानी है। हे भाई! प्रभु की इस आज्ञा को समझ (पर इस हुक्म को समझने के लिए गुरु की शरण पड़ना पड़ेगा) गुरु के बिना प्रभु का हुक्म समझा नहीं जा सकता। हे भाई! (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के समझ लेता है, विकारों का मुकाबला करने के लिए उसको) सदा-स्थिर प्रभु का बल हासिल हो जाता है।3।

हुकमै अंदरि निमिआ पिआरे हुकमै उदर मझारि ॥ हुकमै अंदरि जमिआ पिआरे ऊधउ सिर कै भारि ॥ गुरमुखि दरगह जाणीऐ पिआरे चलै कारज सारि ॥४॥

पद्अर्थ: निंमिआ = माँ के पेट में टिका। उदरि मझारि = पेट में। ऊधउ = उल्टा। कारज = जनम उद्देश्य, वह काम जो करने के लिए जगत में आया। सारि = संभाल के, संवार के।4।

अर्थ: हे भाई! जीव परमात्मा के हुक्म अनुसार (पहले) माता के गर्भ में ठहरता है, और माँ के पेट में (दस महीने निवास रखता है)। उल्टे सिर भार रह के प्रभु के हुक्म अनुसार ही (फिर) जनम लेता है। (किसी खास जीवन उद्देश्य के लिए ही जीव जगत में आता है) जो जीव गुरु की शरण पड़ कर जीवन-उद्देश्य को सँवार के यहाँ से जाता है वही परमात्मा की हजूरी में आदर पाता है।4।

हुकमै अंदरि आइआ पिआरे हुकमे जादो जाइ ॥ हुकमे बंन्हि चलाईऐ पिआरे मनमुखि लहै सजाइ ॥ हुकमे सबदि पछाणीऐ पिआरे दरगह पैधा जाइ ॥५॥

पद्अर्थ: जादो जाइ = चला जाता है। बंन्हि = बाँध के। सबदि = शब्द से।5।

अर्थ: हे सज्जन! परमात्मा की रजा के अनुसार ही जीव जगत में आता है, रजा के अनुसार ही यहाँ से चला जाता है। जो मनुष्य अपने मन के पीछे चलता है (और माया के मोह में फंस जाता है) उसे प्रभु की रजा के अनुसार ही बाँध के (भाव, जबरदस्ती) यहाँ से रवाना किया जाता है (क्योंकि मोह के कारण वह इस माया को छोड़ना नहीं चाहता)। परमात्मा की रजा के अनुसार ही जिसने गुरु के शब्द के द्वारा (जीवन-उद्देश्य को) पहचान लिया है वह परमात्मा की हजूरी में आदर सहित जाता है।5।

हुकमे गणत गणाईऐ पिआरे हुकमे हउमै दोइ ॥ हुकमे भवै भवाईऐ पिआरे अवगणि मुठी रोइ ॥ हुकमु सिञापै साह का पिआरे सचु मिलै वडिआई होइ ॥६॥

पद्अर्थ: गणत गणाईऐ = गिनतियां गिनता है। दोइ = द्वैत, मेर तेर। भवै = भटकता है। भवाईऐ = भटकना में पाया जाता है। अवगणि = अवगुणों से। मुठी = लूटी हुई, ठगी हुई। रोइ = रोती है (दुनिया)।6।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा की रजा के अनुसार ही (कहीं) माया की सोच सोची जा रही है, प्रभु की रजा में ही कहीं अहंकार व कहीं द्वैत है। प्रभु की रजा के अनुसार ही (कहीं कोई माया की खातिर) भटक रहा है, (कहीं कोई) जनम-मरन के चक्कर में डाला जा रहा है, कहीं पाप की ठगी हुई दुनिया (अपने दुख) रो रही है।

जिस मनुष्य को शाह-प्रभु की रजा की समझ आ जाती है, उसे सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मिल जाता है, उसकी (लोक-परलोक में) उपमा होती है।6।

आखणि अउखा आखीऐ पिआरे किउ सुणीऐ सचु नाउ ॥ जिन्ही सो सालाहिआ पिआरे हउ तिन्ह बलिहारै जाउ ॥ नाउ मिलै संतोखीआं पिआरे नदरी मेलि मिलाउ ॥७॥

पद्अर्थ: आखणि = कहने में। संताखीआं = मुझे संतोष आ जाए। मिलाउ = मिलूँ, मैं मिल जाऊँ।7।

अर्थ: हे भाई! (जगत में माया का प्रभाव इतना है कि) परमात्मा का सदा-स्थिर रहने वाला नाम स्मरणा बड़ा कठिन हो रहा है, ना ही प्रभु-नाम सुना जा रहा है (माया के प्रभाव तले जीव नाम नहीं स्मरण करते, नाम नहीं सुनते)। हे भाई! मैं उन लोगों से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने प्रभु की महिमा की है। (मेरी यही प्रार्थना है कि उन की संगति में) मुझे भी नाम मिले और मेरा जीवन संतोषी हो जाए, मेहर की नज़र वाले प्रभु के चरणों में मैं जुड़ा रहूँ।7।

काइआ कागदु जे थीऐ पिआरे मनु मसवाणी धारि ॥ ललता लेखणि सच की पिआरे हरि गुण लिखहु वीचारि ॥ धनु लेखारी नानका पिआरे साचु लिखै उरि धारि ॥८॥३॥

पद्अर्थ: काइआ = शरीर। मसवाणी = स्याही की दवात। ललता = जीभ। लेखणि = कलम। धनु = धन्य, भाग्यशाली। उरि = हृदय में। धारि = धारण करके।8।

अर्थ: हे भाई! हमारा शरीर कागज बन जाए, यदि मन को स्याही की दवात बना लें, यदि हमारी जीभ प्रभु की महिमा बनने के लिए कलम बन जाए, तो हे भाई! (सौभाग्य इसी बात में है कि) परमात्मा के गुणों को अपने विचार-मण्डल में ला के (अपने अंदर) उकरते चलो। हे नानक! वह लिखारी धन्य है जो सदा-स्थिर प्रभु के नाम को हृदय में टिका के (अपने अंदर) उकर लेता है।8।3।

सोरठि महला १ पहिला दुतुकी ॥ तू गुणदातौ निरमलो भाई निरमलु ना मनु होइ ॥ हम अपराधी निरगुणे भाई तुझ ही ते गुणु सोइ ॥१॥

पद्अर्थ: गुणदातौ = (जीवों को) गुणों की दाति देने वाला। निरगुणे = गुण हीन। ते = से। सोइ गुणु = वह (निर्मलता का) गुण।1।

अर्थ: हे प्रभु! तू (जीवों को अपने) गुणों की दाति देने वाला है, तू पवित्र स्वरूप है। (पर विकारों के कारण) हम जीवों का मन पवित्र नहीं है। हम पापी हैं, गुण हीन हैं। हे प्रभु! (पवित्रता का) वह गुण तेरी ओर से ही मिल सकता है।1।

मेरे प्रीतमा तू करता करि वेखु ॥ हउ पापी पाखंडीआ भाई मनि तनि नाम विसेखु ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: वेखु = संभाल कर (मेरी)। हउ = मैं। भाई = हे प्रभु! नाम विसेखु = नाम की विशेषता, नाम की महत्वता।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रीतम प्रभु! तू मेरा कर्तार है, मुझे पैदा करके (अब तू ही) मेरी संभाल कर (और मुझे विकारों से बचा)। मैं पापी हूँ, पाखण्डी हूँ। हे प्यारे! मेरे मन में मेरे तन में अपने नाम की महत्वता (पैदा कर)।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh