श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 668 धनासरी महला ४ ॥ हरि हरि बूंद भए हरि सुआमी हम चात्रिक बिलल बिललाती ॥ हरि हरि क्रिपा करहु प्रभ अपनी मुखि देवहु हरि निमखाती ॥१॥ पद्अर्थ: बूँद = बरखा की बूँद। चात्रिक = पपीहा। बिलल बिललाती = तरले लेता। प्रभ = हे प्रभु! मुखि = मुँह में। निमखाती = एक निमख के लिए भी, आँख झपकने जितने समय के लिए।1। अर्थ: हे हरि! हे स्वामी! मैं पपीहा तेरे नाम की बूँद के लिए तड़प रहा हूँ। (मेहर कर), तेरा नाम मेरे वास्ते (स्वाति) बूँद बन जाए। हे हरि! हे प्रभु! अपनी मेहर कर, आँख झपकने जितने समय के लिए ही मेरे मुँह में (अपने नाम की स्वाति) बूँद डाल दे।1। हरि बिनु रहि न सकउ इक राती ॥ जिउ बिनु अमलै अमली मरि जाई है तिउ हरि बिनु हम मरि जाती ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रहि न सकउ = मैं रह नहीं सकता। राती = रक्ती भर समय के लिए भी। अमली = नशई, नशे का आदी मनुष्य। मरि जाई है = मरने लगता है, तड़फ उठता है। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना मैं रक्ती भर समय के लिए भी नहीं रह सकता। जैसे (अफीम आदि) नशे के बिना अमली (नशे का आदी) मनुष्य तड़प उठता है, वैसे ही परमात्मा के नाम के बिना मैं घबरा जाता हूँ। रहाउ। तुम हरि सरवर अति अगाह हम लहि न सकहि अंतु माती ॥ तू परै परै अपर्मपरु सुआमी मिति जानहु आपन गाती ॥२॥ पद्अर्थ: सरवर = तालाब, समुंदर। अति अगाह = बहुत गहरा। माती = मात्रा भर, रक्ती भर भी। अपरंपरु = परे से परे। गाती = गति। मिति = माप।2। अर्थ: हे प्रभु! तू (गुणों का) बड़ा ही गहरा समुंदर है, हम तेरी गहराई का अंत रक्ती भर भी नहीं पा सकते। तू परे से परे है, तू बेअंत है। हे स्वामी! तू कैसा है और कितना बड़ा है; ये भेद तू खुद ही जानता है।2। हरि के संत जना हरि जपिओ गुर रंगि चलूलै राती ॥ हरि हरि भगति बनी अति सोभा हरि जपिओ ऊतम पाती ॥३॥ पद्अर्थ: रंगि चलूले = गाढ़े रंग में। राती = रंगे जाते हैं। पाती = पति, इज्जत।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के जिस संत जनों ने परमात्मा का नाम जपा, वे गुरु के (बख्शे हुए) गाढ़े प्रेम-रंग में रंगे गए, उनके अंदर परमात्मा की भक्ति का रंग बन गया, उनको (लोक-परलोक में) बड़ी शोभा मिली। जिन्होंने प्रभु का नाम जपा, उन्हें श्रेष्ठ सम्मान प्राप्त हुआ।3। आपे ठाकुरु आपे सेवकु आपि बनावै भाती ॥ नानकु जनु तुमरी सरणाई हरि राखहु लाज भगाती ॥४॥५॥ पद्अर्थ: ठाकुरु = मालिक। भाती = भांति भांति के, तरीके, विउंत। भगाती = भक्तों की।4। अर्थ: पर, हे भाई! भक्ति करने की विधि प्रभु खुद ही बनाता है (खुद ही सबब बनाता है), वह खुद ही मालिक है खुद ही सेवक है। हे प्रभु! तेरा दास नानक तेरी शरण आया है। तू खुद ही अपने भक्तों की इज्जत रखता है।4।5। धनासरी महला ४ ॥ कलिजुग का धरमु कहहु तुम भाई किव छूटह हम छुटकाकी ॥ हरि हरि जपु बेड़ी हरि तुलहा हरि जपिओ तरै तराकी ॥१॥ पद्अर्थ: कलि = कष्ट, झगड़े। जुग = समय। कलिजुग = झगड़े कष्टों से भरपूर जगत। कलिजुग का धरमु = वह धर्म जो दुनिया के झमेलों से बचा सके। नोट: यहाँ युगों का जिक्र नहीं चल रहां साधारण तौर पर बताया है कि दुनिया में माया के मोह के कारण झगड़े कष्ट बढ़े रहते हैं। भाई = हे भाई! किव छूटह = हम कैसे बचें? छुटकाकी = बचने के चाहवान। तुलहा = नदी पार करने के लिए बाँसों आदि को बाँध के बनाया हुआ आसरा। तराकी = तैराक।1। अर्थ: हे भाई! मुझे वह धर्म बता जिससे जगत के विकारों के झमेलों से बचा जा सके। मैं इन झमेलों से बचना चाहता हूँ। बता: मैं कैसे बचूँ? (उक्तर-) परमात्मा के नाम का जाप बेड़ी है, नाम ही तुलहा है। जिस मनुष्य ने हरि का नाम जपा वह तैराक बन के (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है।1। हरि जी लाज रखहु हरि जन की ॥ हरि हरि जपनु जपावहु अपना हम मागी भगति इकाकी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लाज = इज्जत। हम मागी = हमने मांगी है। इकाकी = एक ही। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! (दुनिया के विकारों के झमेलों में से) अपने सेवक की इज्जत बचा ले। हे हरि! मुझे अपना नाम जपने की सामर्थ्य दे। मैं (तुझसे) सिर्फ तेरी भक्ति का दान माँग रहा हूँ। रहाउ। हरि के सेवक से हरि पिआरे जिन जपिओ हरि बचनाकी ॥ लेखा चित्र गुपति जो लिखिआ सभ छूटी जम की बाकी ॥२॥ पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। बचनाकी = वचन से, गुरु की वाणी से। चित्र गुपति = चित्र गुप्त ने (चित्र और गुप्त, ये दोनों धर्मराज के लिखारी माने गए हैं, जो हरेक जीव के किए कर्मों का लेखा लिखते रहते हैं)। छूटी = खत्म हो गई। बाकी = हिसाब।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु के वचन के द्वारा परमात्मा का नाम जपा, वे सेवक परमात्मा को प्यारे लगते हैं। चित्र-गुप्त ने जो भी उनके (कर्मों का) लेख लिख रखा था, धर्मराज का वह सारा हिसाब ही समाप्त हो जाता है।2। हरि के संत जपिओ मनि हरि हरि लगि संगति साध जना की ॥ दिनीअरु सूरु त्रिसना अगनि बुझानी सिव चरिओ चंदु चंदाकी ॥३॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। लगि = लग के। दिनीअरु = (दिनकर) सूरज। सूरु = सूर्य। अगनि = आग। सिव = कल्याण स्वरूप परमात्मा। चंदाकी = चांदनी वाला।3। अर्थ: हे भाई! जिस संत जनों ने साधु जनों की संगति में बैठ के अपने मन में परमात्मा के नाम का जाप किया, उनके अंदर कल्याण स्वरूप (परमात्मा प्रगट हो गया, मानो) ठंडक पहुँचाने वाला चाँद निकल आया हो, जिसने (उनके हृदय में से) तृष्णा की आग बुझा दी; (जिसने विकारों का) तपता सूरज (शांत कर दिया)।3। तुम वड पुरख वड अगम अगोचर तुम आपे आपि अपाकी ॥ जन नानक कउ प्रभ किरपा कीजै करि दासनि दास दसाकी ॥४॥६॥ पद्अर्थ: अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर; गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। अपाकी = आप ही। कउ = को, पर। करि = बना ले।4। अर्थ: हे प्रभु! तू सबसे बड़ा है, तू सर्व-व्यापक है; तू अगम्य (पहुँच से परे) है; ज्ञान-इंद्रिय के द्वारा तुझ तक नहीं पहुँचा जा सकता। तू (हर जगह) खुद ही खुद, स्वयं ही स्वयं है। हे प्रभु! अपने दास नानक पर मेहर कर, और, अपने दासों के दासों का दास बना ले।4।6। धनासरी महला ४ घरु ५ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ उर धारि बीचारि मुरारि रमो रमु मनमोहन नामु जपीने ॥ अद्रिसटु अगोचरु अपर्मपर सुआमी गुरि पूरै प्रगट करि दीने ॥१॥ पद्अर्थ: उर = हृदय। उर धारि = हृदय में बसा के। बीचारि = विचार के। मुरारि = (मुर+अरि) परमात्मा। रमो रमु = राम ही राम। जपीने = जपता है। अद्रिसटु = ना दिखाई देने वाला। अगोचरु = (अ+गो+चरु) ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे। अपरंपर = परे से परे, बेअंत। गुरि = गुरु ने।1। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य के हृदय में उस परमात्मा का नाम) प्रगट कर दिया है; जो इन आँखों से नहीं दिखाई देता, जो ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच से परे है, बेअंत है, जो सबका मालिक है, (वह मनुष्य उस) मुरारी को मन मोहन के नाम को अपने दिल में बसा के सोच-मण्डल में टिका के सदा जपता रहता है।1। राम पारस चंदन हम कासट लोसट ॥ हरि संगि हरी सतसंगु भए हरि कंचनु चंदनु कीने ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हम = हम जीव। कासट = काठ। लोसट = लोहा। संगि = से। कंचनु = सोना।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा पारस है, हम जीव लोहा हैं। परमात्मा चंदन है, हम जीव काठ हैं। जिस मनुष्य का परमात्मा के साथ सत्संग हो जाता है, परमात्मा उस को (लोहे से) सोना बना देता है, (काठ से) चंदन बना देता है।1। रहाउ। नव छिअ खटु बोलहि मुख आगर मेरा हरि प्रभु इव न पतीने ॥ जन नानक हरि हिरदै सद धिआवहु इउ हरि प्रभु मेरा भीने ॥२॥१॥७॥ पद्अर्थ: नव = नौ व्याकरण। छिअ खटु = छह शास्त्र। बोलहि = बोलते हैं। मुख आगर = मुँह जबानी। इव = इस तरह। पतीने = पतीजता, खुश होता। हिरदै = हृदय में। सद = सदा। भीने = भीगता, प्रसन्न होता।2। अर्थ: (हे भाई! कई पण्डित) नौ व्याकरणों और छह शास्त्रों को मुँह जबानी उचार लेते हैं, (पर) प्यारा हरि-प्रभु इस तरह खुश नहीं होता। हे दास नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा को अपने हृदय में सदा बसाए रखो, (सिर्फ) इस तरह परमात्मा सदा प्रसन्न होता है।2।1।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |