श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 711 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु रागु टोडी महला ४ घरु १ ॥ हरि बिनु रहि न सकै मनु मेरा ॥ मेरे प्रीतम प्रान हरि प्रभु गुरु मेले बहुरि न भवजलि फेरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेले = (जिसको) मिला देता है। बहुरि = दोबारा। भवजलि = संसार समुंदर में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरा मन परमात्मा की याद के बिना नहीं रह सकता। गुरु (जिस मनुष्य को) जिंद का प्यारा प्रभु मिला देता है, उसको संसार-समुंदर में दोबारा नहीं आना पड़ता।1। रहाउ। मेरै हीअरै लोच लगी प्रभ केरी हरि नैनहु हरि प्रभ हेरा ॥ सतिगुरि दइआलि हरि नामु द्रिड़ाइआ हरि पाधरु हरि प्रभ केरा ॥१॥ पद्अर्थ: हीअरै = हृदय में। लोच = चाहत, चाहत। केरी = की। नैनहु = आँखों से। हेरा = रेरूँ, देखूँ। सतिगुरि = गुरु ने। दइआलि = दयालु ने। द्रिढ़ाइआ = हृदय में दृढ़ कर लिया। पाधरु = सपाट रास्ता। केरा = का, मिलने का।1। अर्थ: हे भाई! मेरे हृदय में प्रभु (के मिलाप) की तमन्ना लगी हुई थी (मेरा जी करता था कि) मैं (अपनी) आँखों से हरि-प्रभु को देख लूँ। दयालु गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे दिल में दृढ़ कर दिया- यही है हरि-प्रभु (को मिलने) का सपाट रास्ता।1। हरि रंगी हरि नामु प्रभ पाइआ हरि गोविंद हरि प्रभ केरा ॥ हरि हिरदै मनि तनि मीठा लागा मुखि मसतकि भागु चंगेरा ॥२॥ पद्अर्थ: रंगी = अनेक रंगो करिश्मों का मालिक। मनि = मन में। तनि = तन में। मुखि = मुख पर। मसतकि = माथे पर।2। अर्थ: हे भाई! अनेक करिश्मों के मालिक हरि प्रभु गोबिंद का नाम जिस मनुष्य ने प्राप्त कर लिया, उसके हृदय में, उसके मन में शरीर में, परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है, उसके माथे पे मुँह पे अच्छे भाग्य जाग पड़ते हैं।2। लोभ विकार जिना मनु लागा हरि विसरिआ पुरखु चंगेरा ॥ ओइ मनमुख मूड़ अगिआनी कहीअहि तिन मसतकि भागु मंदेरा ॥३॥ पद्अर्थ: ओइ = वह। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। मूढ़ = मूर्ख। कहीअहि = कहलाते हैं। अगिआनी = आत्मिक जीवन से बेसमझ।3। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: पर, हे भाई! जिस मनुष्यों के मन लोभ आदि विकारों में मस्त रहते हैं, उनको अच्छा अकाल-पुरख भूला रहता है। अपने मन के पीछे चलने वाले वे मनुष्य मूर्ख कहे जाते हैं, आत्मिक जीवन की ओर से बे-समझ कहे जाते हैं। उनके माथे पर बुरी किस्मत (उघड़ी हुई समझ लो)।3। बिबेक बुधि सतिगुर ते पाई गुर गिआनु गुरू प्रभ केरा ॥ जन नानक नामु गुरू ते पाइआ धुरि मसतकि भागु लिखेरा ॥४॥१॥ पद्अर्थ: बिबेक बुधि = (अच्छे बुरे की) परख करने वाली अक्ल। ते = से। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धुरि = धुर दरगाह से। लिखेरा = लिखा हुआ।4। अर्थ: हे दास नानक! जिस मनुष्यों के माथे पर धुर से लिखे अच्छे भाग्य उघड़ आए, उन्होंने गुरु से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लिया, उन्होंने गुरु से अच्छे-बुरे काम की परख वाली बुद्धि हासिल कर ली, उन्होंने परमात्मा के मिलाप के लिए गुरु से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर ली।4।1। टोडी महला ५ घरु १ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संतन अवर न काहू जानी ॥ बेपरवाह सदा रंगि हरि कै जा को पाखु सुआमी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अवर काहू = किसी और की (अधीनता)। हरि कै रंगि = परमात्मा के प्यार में। जा को = जिस का। पाखु = पक्ष, मदद। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिनकी मदद परमात्मा करता है वे संत जन किसी और की (अधीनता करनी) नहीं जानते। वे परमात्मा के प्यार में (टिक के) सदा बेपरवाह रहते हैं। रहाउ। ऊच समाना ठाकुर तेरो अवर न काहू तानी ॥ ऐसो अमरु मिलिओ भगतन कउ राचि रहे रंगि गिआनी ॥१॥ पद्अर्थ: समाना = शामियाना, शाही ठाठ। ठाकुर = हे ठाकुर! न तानी = नही ताना हुआ। अमरु = अटल परमात्मा। कउ = को। राचि रहे = मस्त रहते हैं। रंगि = प्रेम में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाले।1। अर्थ: (हे भाई! वे संत जन यूँ कहते रहते हैं -) हे मालिक प्रभु! तेरा शामयाना (सब शाहों-बादशाहों के शामयानों से) ऊँचा है, किसी और ने (इतना ऊँचा शामयाना कभी) नहीं ताना। हे भाई! संत जनों को ऐसा सदा कायम रहने वाला हरि मिला रहता है, आत्मिक जीवन की सूझ वाले वे संत जन (सदा) परमात्मा के प्रेम में ही मस्त रहते हैं।1। रोग सोग दुख जरा मरा हरि जनहि नही निकटानी ॥ निरभउ होइ रहे लिव एकै नानक हरि मनु मानी ॥२॥१॥ पद्अर्थ: सोग = चिन्ता। जरा = बुढ़ापा, बुढ़ापे का डर। मरा = मौत, मौत का डर। निकटानी = नजदीक। लिव एकै = एक में ही तवज्जो/ध्यान जोड़ के। मानी = माना रहता है, पतीज जाता है।2। अर्थ: हे नानक! रोग, चिन्ता-फिक्र, बुढ़ापा, मौत (इनके सहम) परमात्मा के सेवकों कें नजदीक भी नहीं फटकते। वह एक परमात्मा में ही तवज्जो जोड़ के (दुनिया के डरों की ओर से) निडर रहते हैं उनका मन प्रभु की याद में पतीजा रहता है।2।1। टोडी महला ५ ॥ हरि बिसरत सदा खुआरी ॥ ता कउ धोखा कहा बिआपै जा कउ ओट तुहारी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: खुआरी = बेइज्जती। कउ = को। कहा बिआपै = नहीं व्याप सकता। ओट = आसरा। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा (के नाम) को भुलाने से सदा (माया के हाथों मनुष्य की) बेइज्जती ही होती है। हे प्रभु! जिस मनुष्य को तेरा आसरा हो, उसको (माया के किसी भी विकार से) धोखा नहीं लग सकता। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |