श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 714 जो मागहि सोई सोई पावहि सेवि हरि के चरण रसाइण ॥ जनम मरण दुहहू ते छूटहि भवजलु जगतु तराइण ॥१॥ पद्अर्थ: मागहि = (जीव) माँगते हैं। सेवि = सेवा करके। रसाइण = सारे रसों का घर। ते = से। छूटहि = बच जाते हैं। भवजलु = संसार समुंदर।1। अर्थ: हे भाई! प्रभु सारे रसों का घर है उसके चरणों की सेवा करके (मनुष्य) जो कुछ (उसके दर से) माँगते हैं, वही कुछ प्राप्त कर लेते हैं, (निरा यही नहीं, प्रभु की सेवा-भक्ति करने वाले मनुष्य) जन्म और मौत दोनों से बच जाते हैं, संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।1। खोजत खोजत ततु बीचारिओ दास गोविंद पराइण ॥ अबिनासी खेम चाहहि जे नानक सदा सिमरि नाराइण ॥२॥५॥१०॥ पद्अर्थ: ततु = अस्लियत। पराइण = आसरे। अबिनासी खेम = कभी नाश ना होने वाला सुख। चाहहि = तू चाहता है।2। अर्थ: हे भाई! खोज करते-करते प्रभु के दास असल तत्व को समझ लेते हैं, और प्रभु के ही आसरे रहते हैं। हे नानक! (कह: हे भाई!) अगर तू कभी ना खत्म होने वाला सुख चाहता है, तो सदा परमात्मा का स्मरण किया कर।2।5।10। टोडी महला ५ ॥ निंदकु गुर किरपा ते हाटिओ ॥ पारब्रहम प्रभ भए दइआला सिव कै बाणि सिरु काटिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ते = से। गुर किरपा ते = गुरु की कृपा से, जब गुरु की कृपा होती है। हाटिओ = हट जाता है, (निंदा करने की आदत से) हट जाता है। कै बाणि = के बाण से। सिव कै बाणि = कल्याण-रूप प्रभु के नाम-तीर से। सिरु = अहंकार। काटिओ = काट देता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जब गुरु कृपा करता है तो निंदा के स्वभाव वाला मनुष्य (निंदा करने से) हट जाता है। (जिस निंदक पर) प्रभु परमात्मा जी दयावान हो जाते हैं, कल्याण-रूवरूप हरि के नाम-तीर से (गुरु उसका) सिर काट देता है (उसका अहंकार नाश कर देता है)।1। रहाउ। कालु जालु जमु जोहि न साकै सच का पंथा थाटिओ ॥ खात खरचत किछु निखुटत नाही राम रतनु धनु खाटिओ ॥१॥ पद्अर्थ: काल = आत्मिक मौत। जालु = (माया का) जाल। जमु = मौत (का डर)। जोहि न साकै = देख भी नहीं सकता। सच का पंथा = सदा स्थिर हरि नाम स्मरण करने वाला रास्ता। पंथा = रास्ता। थाटिओ = कब्जा कर लेता है। खात = खाते हुए। खरचत = और लोगों को बाँटते हुए।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य पर गुरु प्रभु दयावान होते हैं) उस मनुष्य को आत्मिक मौत, माया का जाल, मौत का डर (कोई भी) देख नहीं सकता, (क्योंकि गुरु की कृपा से वह मनुष्य) सदा-स्थिर हरि-नाम-जपने वाले रास्ते पर कब्जा कर लेता है। वह मनुष्य परमात्मा का रत्न (जैसा कीमती) नाम-धन कमा लेता है। खुद बरत के, और लोगों को बाँट के ये धन रक्ती भर भी नहीं खत्म होता।1। भसमा भूत होआ खिन भीतरि अपना कीआ पाइआ ॥ आगम निगमु कहै जनु नानकु सभु देखै लोकु सबाइआ ॥२॥६॥११॥ पद्अर्थ: भसमा भूत = राख हो जाता है, नामो निशान मिट जाता है। अपना कीआ पाइआ = (जिस निंदा स्वभाव के कारण) अपना किया पाता था, दुखी होता रहता था। आगम निगमु = ईश्वरीय अगंमी खेल। सबाइआ = सारा।2। अर्थ: हे भाई! (जिस निंदा स्वभाव के कारण, जिस स्वै भाव के कारण, निंदक सदा) दुखी होता रहता था, (प्रभु के दयाल होने से, गुरु की कृपा से) एक छिन में ही उस स्वभाव का नामो-निशान मिट जाता है। (इस आश्चर्यजनक तब्दीली को) सारा जगत हैरान हो-हो के देखता है। दास नानक ये अगंमी-रूहानी खेल बयान करता है।2।6।11। टोडी मः ५ ॥ किरपन तन मन किलविख भरे ॥ साधसंगि भजनु करि सुआमी ढाकन कउ इकु हरे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किरपन = हे कंजूस! (वह मनुष्य जो अपनी स्वासों की पूंजी को कभी भी स्मरण में खर्च नहीं करता)। किलविख = पाप। हरे = हरि।1। रहाउ। अर्थ: हे कंजूस! (स्वासों की पूंजी स्मरण में ना खर्च करने के कारण तेरा) मन और शरीर पापों से भरे पड़े हैं। हे कंजूस! साधु-संगत में टिक के मालिक प्रभु का भजन किया कर। सिर्फ वह प्रभु ही इन पापों पर पर्दा डालने में समर्थ है।1। रहाउ। अनिक छिद्र बोहिथ के छुटकत थाम न जाही करे ॥ जिस का बोहिथु तिसु आराधे खोटे संगि खरे ॥१॥ पद्अर्थ: छिद्र = छेद। बोहिथ = जहाज। थाम न करे जाही = थामे नहीं जा सकते। आराधे = आराध। संगि = साथ।1। नोट: ‘जिस का’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे कंजूस! (स्मरण से सूना रहने के कारण तेरे शरीर-) जहाज में अनेक छेद हो गए हैं, (स्मरण के बिना किसी भी और तरीके से) ये छेद बंद नहीं किए जा सकते। जिस परमात्मा का दिया हुआ ये (शरीर) जहाज है, उसकी आराधना किया कर। उसकी संगति में खोटी (हो चुकी ज्ञान-इंद्रिय) खरी हो जाएंगी।1। गली सैल उठावत चाहै ओइ ऊहा ही है धरे ॥ जोरु सकति नानक किछु नाही प्रभ राखहु सरणि परे ॥२॥७॥१२॥ पद्अर्थ: गली = बातों से। सैल = पहाड़। ओइ = वह। प्रभ = हे प्रभु!।2। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: पर मनुष्य निरी बातों से ही पहाड़ उठाना चाहता है (सिर्फ बातों से) वह पहाड़ वहीं के वहीं धरे रह जाते हैं। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! (इन छेदों से बचने के लिए हम जीवों में) कोई जोर कोई ताकत नहीं। हम तेरी शरण आ पड़े हैं, हमें तू खुद ही बचा ले।2।7।12। टोडी महला ५ ॥ हरि के चरन कमल मनि धिआउ ॥ काढि कुठारु पित बात हंता अउखधु हरि को नाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: चरन कमल = कमल के फूल जैसे कोमल चरण। मनि = मन में। धिआउ = ध्याऊँ। काढि = निकाल के। कुठारु = कोहाड़ा। पित = पिक्त, गर्मी, (क्रोध)। बात = वायु, वाई (अहंकार)। अउखधु = दवा। को = का।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं तो अपने मन में परमात्मा के कोमल चरणों का ध्यान धरता हूँ। परमात्मा का नाम (एक ऐसी) दवाई है जो (मनुष्य के अंदर से) क्रोध और अहंकार (आदि रोगों को) पूरी तरह से निकाल देती है (जैसे, दवा शरीर में से गर्मी और वाई के रोग दूर करती है)।1। रहाउ। तीने ताप निवारणहारा दुख हंता सुख रासि ॥ ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जा की प्रभ आगै अरदासि ॥१॥ पद्अर्थ: तीने ताप = आधि व्याधि, उपाधि (मानसिक रोग, शारीरिक रोग व झगड़े आदि)। रासि = राशि, पूंजी। ता कउ = उस (मनुष्य) को। बिघनु = रुकावट।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा (का नाम मनुष्य के अंदर से आधि, व्याधि व उपाधि) तीनों ही ताप दूर करने वाला है, सारे दुखों का नाश करने वाला है, और सारे सुखों की राशि है। जिस मनुष्य की अरदास सदा प्रभु के दर पे जारी रहती है, उसके जीवन के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती।1। संत प्रसादि बैद नाराइण करण कारण प्रभ एक ॥ बाल बुधि पूरन सुखदाता नानक हरि हरि टेक ॥२॥८॥१३॥ पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। बैद = हकीम। करण कारण = जगत का मूल। बाल बुधि = बालकों वाली सरल बुद्धि वाले मनुष्य, जो चतुराई छोड़ देते हैं। टेक = आसरा।2। अर्थ: हे भाई! एक परमात्मा ही जगत का मूल है, (जीवों के रोग दूर करने वाला) हकीम है। ये प्रभु गुरु की कृपा से मिलता है। हे नानक! जो मनुष्य अपने अंदर से चतुराई दूर कर देते हैं, सारे सुख देने वाला परमात्मा उन्हें मिल जाता है, उन (की जिंदगी) का सहारा बन जाता है।2।8।13। टोडी महला ५ ॥ हरि हरि नामु सदा सद जापि ॥ धारि अनुग्रहु पारब्रहम सुआमी वसदी कीनी आपि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सद = सदा। जापि = जपा कर। अनुग्रहु = कृपा। धारि = धर के, कर के। वसदी कीनी = बसा दी।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा ही परमात्मा का नाम जपा कर। (जिस भी मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा है) मालिक प्रभु ने अपनी मेहर कर के (उसकी सूनी पड़ी हृदय-नगरी को सुंदर आत्मिक गुणों से) खुद बसा दिया।1। रहाउ। जिस के से फिरि तिन ही सम्हाले बिनसे सोग संताप ॥ हाथ देइ राखे जन अपने हरि होए माई बाप ॥१॥ पद्अर्थ: से = थे। तिन ही = तिनि ही, उसने ही। समाले = संभाल करता है। सोग = चिन्ता फिक्र। संताप = दुख-कष्ट। देइ = दे के।1। नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। नोट: ‘जिस के’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के हम पैदा किए हुए हैं, वह प्रभु (उन मनुष्यों की) खुद संभाल करता है (जो उसका नाम जपते हैं, उनके सारे) चिन्ता-फिक्र, दुख-कष्ट नाश हो जाते हैं। परमात्मा अपना हाथ दे के अपने सेवकों को (चिन्ता-फिक्र, दुख-कष्टों से) आप बचाता है, उनका माँ-बाप बना रहता है।1। जीअ जंत होए मिहरवाना दया धारी हरि नाथ ॥ नानक सरनि परे दुख भंजन जा का बड परताप ॥२॥९॥१४॥ पद्अर्थ: जीअ जंत = सारे ही जीव। जा का = जिस (परमात्मा) का।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारे ही जीवों पर मेहर करने वाला है, वह पति प्रभु सब पे दया करता है। हे नानक! (कह:) मैं उस प्रभु की शरण पड़ा हूँ, जो सारे दुखों का नाश करने वाला है, और, जिसका तेज-प्रताप बहुत है।2।9।14। टोडी महला ५ ॥ स्वामी सरनि परिओ दरबारे ॥ कोटि अपराध खंडन के दाते तुझ बिनु कउनु उधारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: स्वामी = हे नानक! परिओ = आ पड़ा हूँ। दरबारे = तेरे दर पर। कोटि = करोड़ों। अपराध = भूलें। खंडन के दाते = नाश करने के समर्थ, हे दातार! उधारे = (भूलों से) बचाए।1। रहाउ। अर्थ: हे मालिक प्रभु! मैं तेरी शरण आ पड़ा हूँ, मैं तेरे दर पर (आ गिरा हूँ)। हे करोड़ों भूलें नाश करने के समर्थ दातार! तेरे बिना और कौन मुझे भूलों से बचा सकता है?।1। रहाउ। खोजत खोजत बहु परकारे सरब अरथ बीचारे ॥ साधसंगि परम गति पाईऐ माइआ रचि बंधि हारे ॥१॥ पद्अर्थ: खोजत = तलाशते हुए। बहु परकारे = कई तरीकों से। सरब अरथ = सारी बातें। संगि = संगति में। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रचि = रच के, फस के। बंधि = बंधन में। माइआ रचि बंधि = माया के (मोह के) बंधन में फंस के। हारे = मानव जन्म की बाजी हार जाते हैं।1। अर्थ: हे भाई! कई ढंगों से खोज कर करके मैंने सारी बातें विचारी हैं (और इस नतीजे पर पहुँचा हूँ, कि) गुरु की संगति में टिकने से सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली जाती है, और माया के (मोह के) बंधनो में फंस के (मानव जन्म की बाजी) हार जाते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |