श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 718 टोडी महला ५ ॥ हरि हरि चरन रिदै उर धारे ॥ सिमरि सुआमी सतिगुरु अपुना कारज सफल हमारे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। उर धारे = उर धारि, हृदय में टिकाए रख। सिमरि = स्मरण करके। सुआमी = मालिक प्रभु। हमारे = हम जीवों के।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण सदा अपने हृदय में संभाल के रख। अपने गुरु को, मालिक प्रभु को स्मरण करके हम जीवों के सारे काम सिरे चढ़ सकते हैं।1। रहाउ। पुंन दान पूजा परमेसुर हरि कीरति ततु बीचारे ॥ गुन गावत अतुल सुखु पाइआ ठाकुर अगम अपारे ॥१॥ पद्अर्थ: कीरति = महिमा। ततु बीचारे = सारी विचारों का निचोड़। गावत = गाते हुए। अतुल = जो तोला ना जा सके, नाप से परे। गुन ठाकुर = ठाकुर के गुण। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)।1। अर्थ: हे भाई! सारी विचारों का निचोड़ ये है कि परमात्मा की महिमा ही परमात्मा की पूजा है, और दान-पुण्य है। अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत मालिक-प्रभु के गुण गा के बेअंत सुख प्राप्त कर लेने हैं।1। जो जन पारब्रहमि अपने कीने तिन का बाहुरि कछु न बीचारे ॥ नाम रतनु सुनि जपि जपि जीवा हरि नानक कंठ मझारे ॥२॥११॥३०॥ पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। बाहुरि = दोबारा, फिर। कछु न बीचारे = कोई लेखा नहीं करता। सुनि = सुन के। जपि = जप के। जीवा = जीऊँ, मैं आत्मिक जीवन हासिल कर रहा हूँ। कंठ = गला। मझारे = बीच में।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों को परमात्मा ने अपने (सेवक) बना लिया उनके कर्मों का फिर लेखा नहीं पूछता। हे नानक! (कह:) मैंने भी परमात्मा के रत्न (जैसे कीमती) नाम को अपने गले से परो लिया है, नाम सुन-सुन के जप-ज पके मैं आत्मिक जीवन प्राप्त कर रहा हूँ।2।11।30। टोडी महला ९ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कहउ कहा अपनी अधमाई ॥ उरझिओ कनक कामनी के रस नह कीरति प्रभ गाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कहउ = कहूँ, मैं कहूँ। कहा = कहाँ तक? अधमाई = नीचता। उरझिओ = उलझा हुआ है, फसा हुआ है। कनक = सोना। कामनी = स्त्री। रस = स्वादों में। कीरति = महिमा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं अपनी नीचता कितनी बयान करूँ? मैंने (कभी) परमात्मा की महिमा नहीं की। (मेरा मन) धन-पदार्थ और स्त्री के रसों में फसा रहता है।1। रहाउ। जग झूठे कउ साचु जानि कै ता सिउ रुच उपजाई ॥ दीन बंध सिमरिओ नही कबहू होत जु संगि सहाई ॥१॥ पद्अर्थ: कउ = को। साचु = सदा कायम रहने वाला। जानि कै = समझ के। ता सिउ = उस (जगत से)। रुचि = लगन। उपजाई = पैदा की हुई है। दीन बंधु = दीनों का रिश्तेदार। जु = जो। संगि = साथ। सहाई = मददगार।1। अर्थ: हे भाई! इस नाशवान संसार को सदा कायम रहने वाला समझ के मैंने इस संसार से ही प्रीति बनाई हुई है। मैंने उस परमात्मा का नाम कभी नहीं स्मरण किया जो दीन-बँधु है और जो (सदा हमारे) साथ मददगार है।1। मगन रहिओ माइआ मै निस दिनि छुटी न मन की काई ॥ कहि नानक अब नाहि अनत गति बिनु हरि की सरनाई ॥२॥१॥३१॥ पद्अर्थ: मगन = मस्त। महि = में। निसि = रात। काई = पानी का जाला। अब = अब (जब मैं गुरु की शरण पड़ा हूँ)। अनत = (अन्यत्र), किसी और जगह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।2। अर्थ: हे भाई! मैं रात-दिन माया (के मोह) में मस्त रहा हूँ, (इस तरह मेरे) मन की मैल दूर नहीं हो सकी। हे नानक! कह: अब (जब मैं गुरु की शरण पड़ा हूँ, तब मुझे समझ आई है कि) प्रभु की शरण पड़े बिना किसी भी और जगह उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती।2।1।31। जरूरी नोट:
टोडी बाणी भगतां की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कोई बोलै निरवा कोई बोलै दूरि ॥ जल की माछुली चरै खजूरि ॥१॥ पद्अर्थ: बोलै = कहता है। निरवा = नजदीक। चरै = चढ़ती है, चढ़ने का यत्न करती है। खजूरि = खजूर के पेड़ पर।1। अर्थ: कोई मनुष्य कहता है (परमात्मा हमारे) नजदीक (बसता है), कोई कहता है (प्रभु हमसे कहीं) दूर (जगह पर है); (पर निरी बहस से निर्णय करना यूँ ही असंभव है जैसे) पानी में रहने वाली मछली खजूर पर चढ़ने का प्रयत्न करे (जिस पर आदमी भी बड़ी ही मुश्किल से चढ़ता है)।1। कांइ रे बकबादु लाइओ ॥ जिनि हरि पाइओ तिनहि छपाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! कांइ = किस लिए? बक बादु = बहस, व्यर्थ झगड़ा। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। पाइओ = पाया है। तिनहि = तिन ही, उसने ही।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (ईश्वर नजदीक है कि दूर जिस बाबत अपनी विद्या का बखान करने के लिए) क्यों व्यर्थ की बहस करते हो? जिस मनुष्य ने रब को पा लिया उसने (अपने आप को) छुपाया है (भाव, वह इन बहसों से अपनी विद्या का ढंढोरा नहीं पीटता फिरता)।1। रहाउ। पंडितु होइ कै बेदु बखानै ॥ मूरखु नामदेउ रामहि जानै ॥२॥१॥ पद्अर्थ: पंडित = (संस्कृत: पंडा = wisdom, learning, learned, wise) विद्वान। होइ कै = बन के। बखानै = (संस्कृत: व्याख्या = to dwell at large) विस्तार से विचार को सुनाता है। रामहि = राम को ही।2। अर्थ: विद्या हासिल करके (ब्राहमण आदि तो) वेद (आदि धार्मिक पुस्तकों) की विस्तार से चर्चा करता फिरता है, पर मूर्ख नामदेव सिर्फ परमात्मा को ही पहचानता है (केवल परमात्मा के साथ ही उसके स्मरण के द्वारा सांझ डालता है)।2।1। शब्द का भाव: विद्या के बल से परमात्मा की हस्ती के बारे में बहस करना व्यर्थ का उद्यम है; उसकी भक्ति करना ही जिंदगी का सही रास्ता है।1। कउन को कलंकु रहिओ राम नामु लेत ही ॥ पतित पवित भए रामु कहत ही ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउन को = किस (मनुष्य) का? कलंकु = पाप। कउन...रहिओ = किस मनुष्य का पाप रह गया? किसी मनुष्य का कोई पाप नहीं रह जाता। पतित = (विकारों में) गिरे हुए लोग। भए = हो जाते हैं।1। रहाउ। अर्थ: परमात्मा का नाम स्मरण करने से किसी जीव का कोई (भी) पाप नहीं रह जाता; विकारों में खचित लोग भी प्रभु का भजन करके पवित्र हो जाते हैं।1। रहाउ। राम संगि नामदेव जन कउ प्रतगिआ आई ॥ एकादसी ब्रतु रहै काहे कउ तीरथ जाईं ॥१॥ पद्अर्थ: राम संगि = नाम की संगति में, परमात्मा के चरणों में जुड़ के। जन कउ = दास को। प्रतगिआ = निश्चय। रहै = रह गया है, कोई जरूरत नहीं। काहे कउ = किस लिए? जाईं = मैं जाऊँ।1। अर्थ: प्रभु के चरणों में जुड़ के दास नामदेव को ये निश्चय आ गया है कि किसी एकादसी (आदि) व्रत की जरूरत नहीं; और मैं तीर्थों पर भी क्यों जाऊँ?।1। भनति नामदेउ सुक्रित सुमति भए ॥ गुरमति रामु कहि को को न बैकुंठि गए ॥२॥२॥ पद्अर्थ: भनति = कहता है। सुक्रित = अच्छी करणी वाले। सुमति = सद् बुद्धि वाले। गुरमति = गुरु की मति ले के गुरु के बताए हुए राह पर चल के। रामु कहि = प्रभु का नाम स्मरण करके। को को न = कौन कौन नहीं? (भाव, हरेक जीव)। बैकुंठि = बैकुंठ में, प्रभु के देश में।2। अर्थ: नामदेव कहता है: गुरु के बताए हुए राह पर चल के, प्रभु का नाम स्मरण करके सब जीव प्रभु के देश में पहुँच जाते हैं, (क्योंकि नाम की इनायत से जीव) अच्छी करणी वाले और अच्छी अक्ल वाले हो जाते हैं।2।2। भाव: नाम-जपने की इनायत से विकारी भी भले बन जाते हैं। तीर्थ व्रत आदि किसी का कुछ नहीं सवारते। तीनि छंदे खेलु आछै ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: (परमात्मा का रचा हुआ ये जगत) त्रै-गुणी स्वाभाव का तमाशा है।1। रहाउ। कु्मभार के घर हांडी आछै राजा के घर सांडी गो ॥ बामन के घर रांडी आछै रांडी सांडी हांडी गो ॥१॥ अर्थ: (साधारण तौर पर) कुम्हार के घर हांडी (ही मिलती) है, राजा के घर सांढी (आदि ही) है; और ब्राहमण के घर (शगुन, महूरत आदि विचारने के लिए) पत्री (आदि पुस्तकें ही मिलती) हैं। (इन घरों में) पत्री, सांढनी, बर्तन (हांडी) ही (प्रधान हैं)।1। बाणीए के घर हींगु आछै भैसर माथै सींगु गो ॥ देवल मधे लीगु आछै लीगु सीगु हीगु गो ॥२॥ अर्थ: दुकानदार के घर (भाव, दुकान में) हींग (आदि ही मिलती) है, भैंसे के माथे पर (उसके स्वभाव के मुताबिक) सींग (ही) हैं, और देवालय (देवस्थान) में लिंग (ही गढ़ा हुआ) दिखता है। (इन जगहों पर) हींग, सींग, और लिंग ही (प्रधान) हैं।2। तेली कै घर तेलु आछै जंगल मधे बेल गो ॥ माली के घर केल आछै केल बेल तेल गो ॥३॥ अर्थ: (यदि) तेली के घर (जाऐ, तो वहाँ अंदर-बाहर) तेल (ही तेल पड़ा) है, जंगलों में बेल (ही बेल) हैं और माली के घर केला (ही लगा मिलता) है। इन स्थानों पर तेल, बेलें और केले ही (प्रधान हैं)।3। संतां मधे गोबिंदु आछै गोकल मधे सिआम गो ॥ नामे मधे रामु आछै राम सिआम गोबिंद गो ॥४॥३॥ अर्थ: (तो फिर, इस जगत-तमाशे का रचयता कहाँ हुआ?) (जैसे) गोकुल में कृष्ण जी (की ही बात चल रही) है, (वैसे ही इस खेल का मालिक) गोबिंद संतों के हृदय में बस रहा है। (वही) राम नामदेव के (भी) अंदर (प्रत्यक्ष बस रहा) है। (जिस जगहों पर, भाव, संतों के हृदय में, गोकुल में और नामदेव के अंदर) गोबिंद श्याम और राम ही (गरज रहे) हैं।4।3। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज की हुई सारी वाणी के संबंध में, सतिगुरु जी भक्त कबीर जी के द्वारा इस प्रकार फर्माते हैं; लोगु जानै इहु गीतु है इहु तउ ब्रहम बीचारु॥ जिउ कासी उपदेसु होइ मानस मरती बार॥३॥१॥४॥५५॥ (गउड़ी कबीर जी) इस हुक्म के अनुसार ये शब्द भी ‘ब्रहम विचार’ है। हरेक शब्द के ‘रहाउ’ वाले बंद में ‘मुख्य उपदेश’ होता है, ‘शब्द का सार’ होता है, बाकी के बंद ‘रहाउ’ के बंद का विकास हैं; शब्द रूपी खिले हुए फूल के अंदर ‘रहाउ’ कह पंक्ति जैसे मकरंद है। पर जब हम विद्वानों के मुँह से सुनते हैं, तो वे इस ‘रहाउ’ की तुक के अर्थ यूँ करते हैं: इस छंद में तीन-तीन हिस्सों के बढ़िया प्रसंगों के खेल इकट्ठे किए हुए हैं। अथवा ये छंद तीनों पदों पर खेल रूप है। सारा शब्द ‘ब्रहम विचार’ है, शब्द फूल का मकरंद ये पंक्ति ‘तीनि छंदे खेल आछै’ है, पर इस पंक्ति के ऊपर लिखे अर्थों में गुरमति उपदेश की सुगंधि तलाशनी बहुत कठिन प्रतीत हाती है। जैसे ‘सदु’ पर विचार करते हुए ‘सद-सटीक’ पुस्तक में विस्तार से बताया गया है, ऐसे मौकों पर अगर मुकाबले में गुरबाणी में से अन्य शब्दों की सहायता ली जाए, तो कई उलझनें आसान हो जाती हैं। शब्द ‘खेलु’ गुरु ग्रंथ साहिब में कई बार आया है; प्रमाण के तौर पर: सुपनंतरु संसार सभु सभु बाजी ‘खेलु’ खिलावैगो॥ लाहा नामु गुरमति लै चालहु हरि दरगह पैधा जावैगो॥५॥५॥ (कानड़ा महला ४ असटपदी) राम नामु वखरु है उतमु हरि नाइकु पुरखु हमारा॥ हरि ‘खेलु’ कीआ हरि आपे वरतै सभु जगतु कीआ वणजारा॥४॥ (कानड़े की वार) जैसे हरहट की माला टिंड लगत है॥ इक सखनी होर फेर भरीअत है॥ तैसो ही इह ‘खेलु’ खसम का जिउ उसकी वडिआई॥२॥८॥ (प्रभाती महला १) आपे भांत बणाए बहुरंगी स्रिसटि उपाई प्रभि ‘खेलु’ कीआ॥ करि करि वेखै करे कराए सरब जीआ नो रिजकु दीआ॥१॥६॥ (प्रभाती महला ३) पीत बसन कुंद-दसन प्रिअ सहित कंठ माल मुकटु सीसि मोर पंख चाहि जीउ॥ बेवजीर बडे धीर धरम अंग अलख अगम ‘खेलु’ कीआ आपणै उछाहि जीउ॥३॥८॥ (सवैए महले चौथे के, गयंद) कीआ ‘खेलु’ बडमेलु तमासा॥ वाहि गुरू तेरी सभ रचना॥ तू जलि थलि गगनि पयालि पूरि रहा अंम्रित ते मीठे जा के बचना॥३॥१३॥४२॥ (सवैए महले चौथे के, गयंद) सो, ‘खेलु’ का अर्थ है: ‘जगत रूपी तमाशा’। तीनि छंदे खेलु = त्रिछंदे का खेल, त्रिछंदे (संसार) का खेल। नोट: यहाँ ‘तीन छंदा’ समासी शब्द है, भाव, ‘वह जिसके तीन छंद हैं’। ‘छंद’ संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है ‘स्वभाव’। सो, ‘तीनि छंदे खेलु’ का अर्थ है ‘उस (संसार) का तमाशा, जिसमें तीन स्वभाव मिले हुए हैं, जिसमें तीन गुण मिले हुए है, भाव, ‘त्रैगुणी संसार का तमाशा’। ‘रहाउ’ की पंक्ति का अर्थ: (परमात्मा का रचा हुआ) ये त्रैगुणी संसार का तमाशा है। अगर इस अर्थ को शब्द के बाकी बंदों के साथ मिला के पढ़ें, तो ‘रहाउ’ की तुक का भाव ये बनता है: इस त्रै-गुणी संसार में अकाल पुरख का तमाशा हो रहा है, सब त्रैगुणी जीव अपने-अपने स्वभाव के अनुसार साधारण तौर पर प्रवृत हैं। इसी विचार का विस्तार बाकी के शब्द में है: राजाओं के घर सांढनी आदि राजस्वी सामान हैं; कुम्हार, तेली, बनिए आदि के घर (अपने) कामकाज के अनुसार बर्तन, तेल, हींग आदि चीजों के व्यवहार में प्रवृत हैं; पंडित लोग पत्री आदि पुस्तकों के व्यवहार में मस्त हैं। भक्त को तो इन त्रै-गुणी पदार्थों आदि में खचित होने की जरूरत नहीं, वह तो तलाशता है इस त्रै-गुणी खेल के कर्तार को। वह कहाँ है? – ‘संतां मधे’। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |