श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सूही महला १ ॥ भांडा हछा सोइ जो तिसु भावसी ॥ भांडा अति मलीणु धोता हछा न होइसी ॥ गुरू दुआरै होइ सोझी पाइसी ॥ एतु दुआरै धोइ हछा होइसी ॥ मैले हछे का वीचारु आपि वरताइसी ॥ मतु को जाणै जाइ अगै पाइसी ॥ जेहे करम कमाइ तेहा होइसी ॥ अम्रितु हरि का नाउ आपि वरताइसी ॥ चलिआ पति सिउ जनमु सवारि वाजा वाइसी ॥ माणसु किआ वेचारा तिहु लोक सुणाइसी ॥ नानक आपि निहाल सभि कुल तारसी ॥१॥४॥६॥

पद्अर्थ: भांडा = बर्तन, हृदय। हछा = पवित्र। तिसु = उस (परमात्मा) को। भावसी = अच्छा लगे। धोता = बाहर से साफ करने पर, तीर्थ आदि के स्नान से। दुआरै = दर से। होइ = हो के, भिखारी बन के। सोझी = (हृदय को पवित्र करने की) अक्ल। पाइसी = प्राप्त करता है। एतु दुआरै = इस दर से, गुरु के दर से। धोइ = धो के, शुद्ध करने से। वीचारु = समझ। आपि = प्रभु खुद। वरताइसी = देता है। मतु को जाणै = कोई मनुष्य ये ना समझे। जाइ = (यहाँ जगत से) जा के। अगै = परलोक में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। पति सिउ = इज्जत से। वाइसी = बजाएगा। तिहु लोक = तीनों ही लोकों में। निहाल = प्रसन्न चिक्त। सभि = सारे।1।

अर्थ: वही हृदय पवित्र है जो उस परमात्मा को अच्दा लगने लगता है। अगर मनुष्य का हृदय (अंदर से विकारों से) बहुत गंदा हुआ पड़ा है तो बाहर से शरीर को तीर्थ आदि पर स्नान कराने से हृदय शुद्ध नहीं हो सकता।

अगर गुरु के दर पर (स्वै भाव मिटा के सवाली) बनें, तो ही (हृदय को पवित्र करने की) बुद्धि मिलती है। गुरु के दर पर रह के ही (विकारों की मैल) धोने से हृदय पवित्र होता है। (अगर गुरु के दर पर टिकें तो) परमात्मा खुद ही ये (विचारने की) समझ देता है कि हम अच्छे हैं अथवा बुरे।

(अगर इस मनुष्य-जीवन के समय में गुरु का आसरा नहीं लिया तो) कोई जीव ये ना समझ ले कि (यहाँ से खाली हाथ) जा के परलोक में (जीवन पवित्र करने की सूझ) मिलेगी। (ये एक कुदरती नियम है कि यहाँ) मनुष्य जिस प्रकार के कर्म करता है वैसा वह बन जाता है।

(जो मनुष्य गुरु के दर से गिरता है उसको) आत्मिक जीवन देने वाला अपना नाम खुद बख्शता है। (जिस मनुष्य को यह दाति मिलती है) वह अपना मानव जनम सँवार के आदर कमा के यहाँ से जाता है, वह अपनी शोभा का बाजा (यहाँ) बजा जाता था। कोई एक मनुष्य तो क्या? तीनों ही लोकों में परमात्मा उसकी शोभा बिखेरता है। हे नानक! वह मनुष्य खुद सदा प्रसन्न-चिक्त रहता है, और अपनी सारी कुलों को ही तैरा लेता है (शोभा दिलवाता है)।1।4।6।

नोट: इस शब्द में अलग-अलग बंद नहीं हैं। सारा शब्द समूचे तौर पर एक बँद गिना गया है। ‘घरु ६’ का ये चौथा शब्द है।

सूही महला १ ॥ जोगी होवै जोगवै भोगी होवै खाइ ॥ तपीआ होवै तपु करे तीरथि मलि मलि नाइ ॥१॥

पद्अर्थ: जोगवै = जोग कमाता है। भोगी = मायावी पदार्थों को भोगने वाला, गृहस्थी। खाइ = खाता है, भोगों में मस्त है। तीरथि = तीर्थ पर। मलि = मल के। नाइ = स्नान करता है।1।

अर्थ: जो मनुष्य जोगी बन जाता है वह जोग ही कमाता है (योग कमाने को ही सही रास्ता समझता है), जो मनुष्य गृहस्थी बनता है वह भोगों में ही मस्त है। जो मनुष्य तपी बनता है वह (सदा) तप (ही) करता है, और तीर्थों पर (जा के) मल मल के (भाव, बड़ी श्रद्धा भाव से) स्नान करता है।1।

तेरा सदड़ा सुणीजै भाई जे को बहै अलाइ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सदड़ा = सुंदर निमंत्रण, सुंदर वचन सुंदर शब्द। सुणीजै = सुनना चाहता हूँ। भाई = हे प्यारे! को = कोई मनुष्य। बहै = (मेरे पास) बैठ जाए। अलाइ = अलाप करे, सुनाए।1। रहाउ।

अर्थ: (पर) हे प्यारे (प्रभु)! मैं तो तेरी महिमा के शब्द ही सुनना चाहता हूँ, यदि कोई (मेरे पास) बैठ जाए और मुझे सुनाए।1। रहाउ।

जैसा बीजै सो लुणे जो खटे सुो खाइ ॥ अगै पुछ न होवई जे सणु नीसाणै जाइ ॥२॥

पद्अर्थ: लुणे = काटता है। जो = जो कुछ। सुो = वही (कमाई)। खाइ = खाता है, फल भोगता है। न होवई = न हो, नहीं होती। सणु = समेत। नीसाणु = परवाना, राहदारी, नाम। सणु नीसाणै = महिमा के परवाने समेत।2।

नोट: शब्द ‘सुो’ के साथ दो मात्राएं हैं: ‘ो’ और ‘ु’। असल पाठ ‘सो’ है, यहाँ ‘सु’ पढ़ना है।

अर्थ: (मनुष्य) जिस तरह का बीज बीजता है उसी (तरह के फल) पाता है, जो कुछ कमाई करता है, वही बरतता है (जोग-भोग और तप में परमात्मा की महिमा की कमाई नहीं है पर प्रभु की हजूरी में महिमा ही स्वीकार है)। अगर मनुष्य परमात्मा की महिमा का परवाना ले के (यहाँ से) जाए तो आगे (प्रभु के दर पर) उसको रोक-टोक नहीं होती।2।

तैसो जैसा काढीऐ जैसी कार कमाइ ॥ जो दमु चिति न आवई सो दमु बिरथा जाइ ॥३॥

पद्अर्थ: काढीऐ = कहा जाता है। चिति = चिक्त में। न आवई = नहीं आता। बिरथा = व्यर्थ।3।

अर्थ: मनुष्य जिस प्रकार का काम करता है वैसा ही उसका नाम पैदा हो जाता है (आत्मिक जीवन की राह में भी यही नियम है। भक्त वही जो भक्ति करता है। जोग-भोग अथवा तप में से भक्ति-भाव पैदा नहीं हो सकता)। (मनुष्य का) जो श्वास (किसी ऐसे उद्यम में गुजरता है कि परमात्मा) उसके मन में नहीं बसता तो वह श्वास व्यर्थ ही जाता है।3।

इहु तनु वेची बै करी जे को लए विकाइ ॥ नानक कमि न आवई जितु तनि नाही सचा नाउ ॥४॥५॥७॥

पद्अर्थ: वेची = मैं बेचता हूँ, बेचने को तैयार हूँ। बै करी = कीमत ले कर देने को तैयार हूँ। विकाइ = कीमत दे के। जितु = जिस में। जितु तनि = जिस शरीर में।4।

अर्थ: हे नानक! जिस (मानव) शरीर में परमात्मा का सदा-स्थिर रहने वाला नाम नहीं बसता वह शरीर किसी काम नहीं आता (वह शरीर व्यर्थ ही गया समझो। इस वास्ते) अगर कोई मनुष्य मुझे प्रभु के नाम के बदले में दे के मेरा शरीर लेना चाहे तो मैं ये शरीर बेचने के लिए तैयार हूँ मूल्य देने को तैयार हूँ।4।5।7।

नोट: ‘घरु ६’ के यहाँ 5 शब्द समाप्त होते हैं।

सूही महला १ घरु ७    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

जोगु न खिंथा जोगु न डंडै जोगु न भसम चड़ाईऐ ॥ जोगु न मुंदी मूंडि मुडाइऐ जोगु न सिंङी वाईऐ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥१॥

पद्अर्थ: जोगु = योग साधना का अभ्यास, परमात्मा से मिलाप। खिंथा = गोदड़ी। डंडै = डंडें के द्वारा, डंडा हाथ में पकड़ने से। भसम = राख। चढ़ाईऐ = शरीर पर मल लें। मुंदी = मुद्राओं के द्वारा, कानों में मुंदाएं पहन लेने से। मूंडु = सिर। मूंडि = सिर से। मूंडि मुडाइऐ = अगर सिर मुनवा लें। सिंङी = सिंगी की बाजा, जोगियों की तुरी जो सींग की बनी होती है। वाईऐ = अगर बजाएं। अंजन = कालख़, सुरमा, माया के मोह की कालिख। निरंजनि = निरंजन में, उस परमात्मा में जो माया के प्रभाव से रहित है। जुगति = तरीका। इव = इस तरह।1।

अर्थ: गुदड़ी पहन लेना परमात्मा से मिलाप का साधन नहीं है, डंडा हाथ में पकड़ लेने से हरि-मेल नहीं हो जाता, अगर शरीर पर राख मल लें तो भी प्रभु से मिलाप नहीं होता। (कानों में) मुंद्राएं पहनने से रब का मेल नहीं, अगर सिर मुनवा लें तो भी प्रभु से मिलाप संभव नहीं। सिंगी बजाने से भी जोग सिद्ध नहीं हो जाता।

परमात्मा से मिलाप का ढंग सिर्फ इस तरह ही हासिल होता है कि माया के मोह की कालिख में रहते हुए ही माया से निर्लिप प्रभु में जुड़े रहें।1।

गली जोगु न होई ॥ एक द्रिसटि करि समसरि जाणै जोगी कहीऐ सोई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गली = बातों से। द्रिसटि = निगाह, नजर। करि = कर के। समसरि = बराबर, एक समान।1। रहाउ।

अर्थ: सिर्फ बातें करने से प्रभु-मिलाप नहीं होता। वही मनुष्य जोगी कहलवा सकता है जो एक जैसी निगाह से ही सब (जीवों) को बराबर (के इन्सान) समझे।1। रहाउ।

जोगु न बाहरि मड़ी मसाणी जोगु न ताड़ी लाईऐ ॥ जोगु न देसि दिसंतरि भविऐ जोगु न तीरथि नाईऐ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: मढ़ी = मढ़ियों में। मसाणी = मसाणों में। ताड़ी = समाधि। देसि = देश में। दिसंतरि = देस अंतरि, और-और देशों में। देस देसंतरि भविऐ = देस परदेस में भटकने से। तीरथि = तीर्थों पर।2।

अर्थ: (घर से) बाहर मढ़ीयों में मसाणों में रहने से प्रभु-मेल नहीं होता, समाधियां लगाने से भी प्रभु नहीं मिलता। अगर देस-परदेस में भटकते फिरें तो भी प्रभु का मिलाप नहीं होता। तीर्थों पर स्नान करने से भी प्रभु-प्राप्ति नहीं होती।

परमात्मा से मिलाप का ढंग सिर्फ इस तरह ही आता है कि माया के मोह की कालिख में रहते हुए ही माया से निर्लिप प्रभु में जुड़े रहें।2।

सतिगुरु भेटै ता सहसा तूटै धावतु वरजि रहाईऐ ॥ निझरु झरै सहज धुनि लागै घर ही परचा पाईऐ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥३॥

पद्अर्थ: भेटै = मिले। सहसा = सहम, डर। धावतु = भटकता हुआ (मन)। वरजि = वरज के, रोक के। राहाईऐ = रख लेते हैं। निझरु = (निर्झर) चश्मा, पहाड़ी नदी। झरै = चल पड़ता है, बहने लगता है। सहज = अडोल अवस्था। धुनि = तार, तुकांत। घरि ही = हृदय घर में ही। परचा = परिचय, जान पहचान, सांझ, मित्रता।3।

अर्थ: जब गुरु मिल जाए तो मन का सहम समाप्त हो जाता है, विकारों की ओर दौड़ते मन को रोक सकते हैं, (मन में प्रभु के अंमृत नाम का एक) चश्मा चल पड़ता है, अडोल अवस्था की ही लहर बन जाती है; हृदय के अंदर ही परमात्मा के नाम के साथ सांझ बन जाती है।

परमात्मा के साथ मिलाप की सलीका सिर्फ इसी तरह आता है कि माया के मोह की कालिख में रहते हुए ही माया से निर्लिप प्रभु में जुड़े रहें।3।

नानक जीवतिआ मरि रहीऐ ऐसा जोगु कमाईऐ ॥ वाजे बाझहु सिंङी वाजै तउ निरभउ पदु पाईऐ ॥ अंजन माहि निरंजनि रहीऐ जोग जुगति तउ पाईऐ ॥४॥१॥८॥

पद्अर्थ: म्रि = मर के, विकारों की ओर से मर के। जोगु = जोगाभ्यास। वाजै = बजती है। तउ = तब। पदु = आत्मिक दर्जा। निरभउ = जहाँ डर नहीं।4।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा से मिलाप का अभ्यास यूँ करना चाहिए कि दुनिया के कार्य-व्यवहार करते हुए ही विकारों से परे हट के रहना चाहिए। (जोगी तो सिंगी का बाजा बजाता है, पर स्मरण अभ्यास करने वाले के अंदर एक ऐसा सुरीला आनंद बनता है कि, मानो) बिना बाजा बजाए ही सिंगी बज रही हो। (जब मनुष्य इस आत्मिक आनंद को पाने लग जाता है) तब वह ऐसी आत्मिक अवस्था प्राप्त कर लेता है जिस में किसी तरह का कोई डर नहीं रह जाता।

जब माया के मोह की कालिख में रहते हुए ही माया से निर्लिप प्रभु में जुड़े रह सकें, तब प्रभु-मिलाप का सलीका आ जाता है।4।1।8।

नोट: अंक 1 बताता है कि ‘घरु 7’ का ये पहला शब्द है।

सूही महला १ ॥ कउण तराजी कवणु तुला तेरा कवणु सराफु बुलावा ॥ कउणु गुरू कै पहि दीखिआ लेवा कै पहि मुलु करावा ॥१॥

पद्अर्थ: कउणु = कौन सी? तराजी = ताराजू। कवणु = कौन सा? तुला = बाँट। सराफ = मूल्य डालने वाला, परख करने वाला। बुलावा = मैं बुलाऊँ। कै पहि = किस और से? दीखिआ = दीक्षा। लेवा = मैं लूँ। मुलु करावा = मैं कीमत डलवाऊँ।1।

अर्थ: हे प्रभु! कोई ऐसा तराजू नहीं, कोई ऐसा बाँट नहीं (कोई ऐसा पैमाना नहीं, जो तेरे गुणों का अंदाजा लगा सके), कोई ऐसा सर्राफ नहीं जिसे में (तेरे गुणों की पैमायश के लिए) बुला सकूँ (इस्तेमाल कर सकूँ)। मुझे कोई ऐसा उस्ताद नहीं दिखता जिससे मैं तेरा मूल्य डलवा सकूँ अथवा मूल्य डालने की विधि सीख सकूँ।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh