श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 754 हरि का नामु सति करि जाणै गुर कै भाइ पिआरे ॥ सची वडिआई गुर ते पाई सचै नाइ पिआरे ॥ एको सचा सभ महि वरतै विरला को वीचारे ॥ आपे मेलि लए ता बखसे सची भगति सवारे ॥७॥ पद्अर्थ: सति करि जाणै = सच करके जानता है, ये जान लेता है कि यही सच्चा साथी है। कै भाइ = के प्रेम में। गुर ते = गुरु से। सचै नाइ = सदा स्थिर हरि नाम में। पिआरे = प्यार बनाता है। सचा = सदा कायम रहने वाला प्रभु!। आपे = (प्रभु) आप ही। सची = सदा स्थिर रहने वाली।7। अर्थ: जो मनुष्य प्यारे गुरु के प्रेम में टिका रहता है, वह ये बात समझ लेता है कि परमात्मा का नाम ही सच्चा साथी है। वह मनुष्य परमात्मा की सदा-स्थिर रहने वाली महिमा गुरु से प्राप्त कर लेता है, वह सदा-स्थिर प्रभु के नाम में प्यार करने लग जाता है। कोई विरला मनुष्य (गुरु की शरण पड़ के) ये विचार करता है कि सारी सृष्टि में सदा-स्थिर रहने वाला परमात्मा ही बसता है। (ऐसे मनुष्य को) जब प्रभु स्वयं ही अपने चरणों में जोड़ता है, तो उस पर बख्शिश करता है, सदा-स्थिर रहने वाली अपनी भक्ति दे के उसका जीवन सोहाना बना देता है।7। सभो सचु सचु सचु वरतै गुरमुखि कोई जाणै ॥ जमण मरणा हुकमो वरतै गुरमुखि आपु पछाणै ॥ नामु धिआए ता सतिगुरु भाए जो इछै सो फलु पाए ॥ नानक तिस दा सभु किछु होवै जि विचहु आपु गवाए ॥८॥१॥ पद्अर्थ: सभो = हर जगह। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। हुकमो = हुक्म ही। आपु पछाणै = अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता है। सतिगुर भाए = गुरु को प्यारा लगता है। सभु किछु होवै = आत्मिक जीवन का सारी संपत्ति बनी रहता है। आपु = स्वै भाव।8। अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य गुरु की शरण पड़ के समझता है कि हर जगह सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही काम कर रहा है। जगत में पैदा होना मरना भी उसी के हुक्म में चल रहा है। गुरु की शरण पड़ने वाला वह मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है। जब वह मनुष्य परमात्मा के नाम का स्मरण शुरू करता है तो वह गुरु को प्यारा लगने लग जाता है, फिर वह जो भी मुराद माँगता है वही हासिल कर लेता है। हे नानक! (कह:) जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) अपने अंदर से स्वै भाव दूर कर लेता है, उसके आत्मिक जीवन का सारी संपत्ति बची रहती है।8।1। सूही महला ३ ॥ काइआ कामणि अति सुआल्हिउ पिरु वसै जिसु नाले ॥ पिर सचे ते सदा सुहागणि गुर का सबदु सम्हाले ॥ हरि की भगति सदा रंगि राता हउमै विचहु जाले ॥१॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कामणि = स्त्री। अति = बहुत। सुआलिओ = सोहणी। पिरु = प्रभु पति। ते = से, मिलाप से, मिलाप के कारण। सुहागणि = सोहाग भाग वाली। समाले = संभालती है, हृदय में बसाती है। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ। जाले = जला लेता है।1। अर्थ: हे भाई! (गुरु की वाणी की इनायत से) जिस काया में प्रभु-पति आ बसता है, वह काया-स्त्री बहुत सुंदर बन जाती है। जो जीव-स्त्री गुरु के शब्द को अपने हृदय में बसाती है, सदा-स्थिर प्रभु-पति के मिलाप के कारण वह सदा के लिए सोहाग भाग वाली बन जाती है। हे भाई! (वाणी की इनायत से जो मनुष्य) अपने अंदर से अहंकार को जला लेता है, वह सदा के लिए परमात्मा की भक्ति के रंग में रंगा जाता है।1। वाहु वाहु पूरे गुर की बाणी ॥ पूरे गुर ते उपजी साचि समाणी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: वाहु वाहु = धन्य धन्य। ते = से, हृदय में से। साचि = सदा सिथर प्रभु में। समाणी = लीन कर देती है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की वाणी धन्य धन्य है। ये वाणी पूरे गुरु के हृदय में से पैदा होती है, और (जो मनुष्य इसको अपने हृदय में बसाता है उसको) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन कर देती है।1। रहाउ। काइआ अंदरि सभु किछु वसै खंड मंडल पाताला ॥ काइआ अंदरि जगजीवन दाता वसै सभना करे प्रतिपाला ॥ काइआ कामणि सदा सुहेली गुरमुखि नामु सम्हाला ॥२॥ पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक सुख। खंड = देश। प्रतिपाला = पालना। सुहेली = आसान। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।2। अर्थ: हे भाई! खण्डों-मण्डलों-पातालों (सारे जगत) का हरेक सुख उस शरीर के अंदर आ बसता है, जिस शरीर में जगत का जीवन वह दातार-प्रभु प्रकट हो जाता है जो सारे जीवों की पालना करता है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ के परमात्मा का नाम अपने दिल में बसाता है उसकी काया-स्त्री सदा सुखी रहती है।2। काइआ अंदरि आपे वसै अलखु न लखिआ जाई ॥ मनमुखु मुगधु बूझै नाही बाहरि भालणि जाई ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए सतिगुरि अलखु दिता लखाई ॥३॥ पद्अर्थ: आपे = (प्रभु) आप ही। अलखु = अदृष्य। मनमुखु = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। मुगधु = मूर्ख। सतिगुरि = गुरु ने। दिता लखाई = समझा दिया।3। अर्थ: हे भाई! इस शरीर में प्रभु आप ही बसता है, पर वह अदृश्य है (साधारण तौर पर) देखा नहीं जा सकता। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य (ये भेद) नहीं समझता, (उस प्रभु को) बाहर (जंगल आदि में) तलाशने के लिए चल पड़ता है। जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ता है, वह सदा आत्मिक आनंद पाता है (क्योंकि जो भी मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ा) गुरु ने (उसको) अदृश्य परमात्मा (उसके अंदर बसता) दिखा दिया।3। काइआ अंदरि रतन पदारथ भगति भरे भंडारा ॥ इसु काइआ अंदरि नउ खंड प्रिथमी हाट पटण बाजारा ॥ इसु काइआ अंदरि नामु नउ निधि पाईऐ गुर कै सबदि वीचारा ॥४॥ पद्अर्थ: भंडारा = खजाने। नउ खंड प्रिथमी = नौ खण्डों वाली धरती, सारी धरती (के)। हाट = दुकान। पटण = शहर। नउनिधि = नौ खजाने, धरती के सारे ही नौ खजाने। कै सबदि = के शब्द में।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति (जैसे) रत्न-पदार्थ है (इन रत्न-पदार्थों के) खजाने इस मनुष्य शरीर में भरे पड़े हैं। इस शरीर के अंदर ही (जैसे) सारी धरती के हाट-बाजार और शहर (बस रहे हैं। गुरु की वाणी की इनायत से मनुष्य अंदर ही नाम-धन का व्यापार करता है)। गुरु के शब्द के माध्यम से विचार कर के इस शरीर में से ही परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है। जो (जैसे धरती के) नौ ही खजाने हैं।4। काइआ अंदरि तोलि तुलावै आपे तोलणहारा ॥ इहु मनु रतनु जवाहर माणकु तिस का मोलु अफारा ॥ मोलि कित ही नामु पाईऐ नाही नामु पाईऐ गुर बीचारा ॥५॥ पद्अर्थ: आपे = प्रभु आप ही। तोलणहार = नाम रत्न की परख करने वाला। तोलि = नाम रत्न को परख के। तुलावै = परखने की विधि सिखाता है। अफारा = बहुत। मोलि = मूल्य से। कित ही मोलि = किसी भी मूल्य से।5। नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। कित ही: ‘कित’ की ‘त’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! जिस मानव शरीर में नाम-रत्न की परख करने वाला प्रभु स्वयं ही बसता है, वह स्वयं परख करके नाम-रत्न की परख की विधि सिखाता है, (जिस मनुष्य को विधि देता है, उसका) ये मन (जैसे) रतन-जवाहर-मोती (जैसा कीमती बन जाता है कि) उसका मूल्य नहीं पड़ सकता। (उस मनुष्य को समझ पड़ जाती है कि परमात्मा का) नाम किसी (दुनियावी) कीमत से नहीं मिल सकता। सतिगुरु की वाणी की विचार की इनायत से परमात्मा का नाम मिलता है।5। गुरमुखि होवै सु काइआ खोजै होर सभ भरमि भुलाई ॥ जिस नो देइ सोई जनु पावै होर किआ को करे चतुराई ॥ काइआ अंदरि भउ भाउ वसै गुर परसादी पाई ॥६॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख। भरमि = भटकना में (पड़ कर)। भुलाई = गलत रास्ते पड़ी है। देइ = देता है। को = कोई मनुष्य। किआ चतुराई = कौन सी समझदारी? भउ = डर अदब। भाउ = प्यारे। परसादी = कृपा से।6। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह (परमात्मा के नाम की प्राप्ति के वास्ते) अपने शरीर को ही खोजता है। बाकी की दुनिया भटकना में पड़ कर गलत राह पर पड़ी रहती है। परमात्मा खुद जिस मनुष्य को (अपने नाम की दाति) देता है, वही मनुष्य प्राप्त करता है। कोई भी मनुष्य (गुरु की शरण के बिना) और कोई समझदारी नहीं कर सकता (जिससे नाम प्राप्त कर सके)। गुरु की कृपा से ही नाम प्राप्त होता है। जिसे प्राप्त होता है उसके शरीर में परमात्मा का डर-अदब और प्यार आ बसता है।6। काइआ अंदरि ब्रहमा बिसनु महेसा सभ ओपति जितु संसारा ॥ सचै आपणा खेलु रचाइआ आवा गउणु पासारा ॥ पूरै सतिगुरि आपि दिखाइआ सचि नामि निसतारा ॥७॥ पद्अर्थ: सभ ओपति = सारी उत्पक्ति। जितु = जिस (परमात्मा) से। सचै = सदा स्थिर प्रभु ने। आवागउणु = पैदा होना मरना। पासारा = खिलारा। सतिगुरि = सतिगुरु ने। सचि नामि = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम में।7। अर्थ: हे भाई! इस शरीर में वह परमात्मा बस रहा है, जिससे ब्रहमा-विष्णु-शिव और सारी सृष्टि की उत्पक्ति हुई है। सदा-स्थिर प्रभु ने (ये जगत) अपना एक तमाश रचा हुआ है ये पैदा होने व मरने का एक पसारा पसार दिया है। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (ये अस्लियत) दिखा दी, सदा-स्थिर प्रभु के नाम में जुड़ के उस मनुष्य का पार उतारा हो गया।7। सा काइआ जो सतिगुरु सेवै सचै आपि सवारी ॥ विणु नावै दरि ढोई नाही ता जमु करे खुआरी ॥ नानक सचु वडिआई पाए जिस नो हरि किरपा धारी ॥८॥२॥ पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। दरि = (प्रभु के) दर पर। ढोई = आसरा। सचु = सदा स्थिर हरि नाम।8। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! वही शरीर सफल है जो गुरु की शरण पड़ता है। उस शरीर को सदा-स्थिर रहने वाले कर्तार ने स्वयं सुंदर बना दिया। परमात्मा के नाम के बिना परमात्मा के दर पर खड़ा होना भी नसीब नहीं होता। तब (ऐसे मनुष्य को) जमराज दुखी करता है। हे नानक! जिस मनुष्य पर परमात्मा स्वयं कृपा करता है, उसको अपना सदा-स्थिर नाम बख्शता है (यही उसके वास्ते सबसे बड़ी) इज्जत है।8।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |