श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 758 जिउ प्राणी जल बिनु है मरता तिउ सिखु गुर बिनु मरि जाई ॥१५॥ पद्अर्थ: जिउ = जैसे। मरि जाई = आत्मिक मौत मर जाता है।15। अर्थ: जैसे प्राणी पानी के बिना मरने लगता है, वैसे ही सिख गुरु को मिले बिना अपनी आत्मिक मौत आ गई समझता है।15। जिउ धरती सोभ करे जलु बरसै तिउ सिखु गुर मिलि बिगसाई ॥१६॥ पद्अर्थ: सोभ करे = सुंदर दिखने लग पड़ती है। बरसै = बरसता है। बिगसाई = खिल पड़ता है, खुश होता है।16। अर्थ: जैसे प्राणी पानी के बिना मरने लग जाता है, वैसे ही सिख गुरु को मिले बिना अपनी आत्मिक मौत आ गई समझता है। जैसे जब बारिश होती है तब धरती सुंदर लगने लगती है, वैसे ही सिख को मिल के प्रसन्न होता है।16। सेवक का होइ सेवकु वरता करि करि बिनउ बुलाई ॥१७॥ पद्अर्थ: होइ = बन के। वरता = मैं बरतूँ, मैं कार करूँ। बिनउ = विनती। बुलाई = बुलाऊँ।17। अर्थ: हे भाई! मैं गुरु के सेवक का सेवक बन के उसके काम करने को तैयार हूँ मैं उसको विनतियाँ कर कर के (खुशी से) बुलाऊँगा।17। नानक की बेनंती हरि पहि गुर मिलि गुर सुखु पाई ॥१८॥ पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। गुर सुखु = बड़ा सुख, महा आनंद। पाई = प्राप्त करूँ।18। अर्थ: नानक की परमात्मा के पास विनती है (-हे प्रभु! मुझे गुरु मिला) गुरु को मिल के मुझे बड़ा आनंद प्राप्त होता है।18। तू आपे गुरु चेला है आपे गुर विचु दे तुझहि धिआई ॥१९॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। विचु दे = के द्वारा। गुर विचु दे = गुरु के द्वारा। धिआई = मैं ध्याता रहूँ।19। अर्थ: हे प्रभु! तू स्वयं ही गुरु है, तू खुद ही सिख है। मैं गुरु के द्वारा तुझे ही ध्याता हूँ।19। जो तुधु सेवहि सो तूहै होवहि तुधु सेवक पैज रखाई ॥२०॥ पद्अर्थ: तुधु = तुझे। तू है = तू ही, तेरा ही रूप। होवहि = हो जाते हैं। पैज = इज्जत।20। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी सेवा-भक्ति करते हैं, वे तेरा ही रूप बन जाते हैं। तू अपने सेवकों की इज्जत (सदा) रखता आया है।20। भंडार भरे भगती हरि तेरे जिसु भावै तिसु देवाई ॥२१॥ पद्अर्थ: भंडार = खजाने। हरि = हे हरि! भावै = तेरी रजा होती है।21। अर्थ: हे हरि! तेरे पास तेरी भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं। जिस पर तेरी रजा होती है उसको तू (गुरु के द्वारा ये खजाना) दिलवाता है।21। जिसु तूं देहि सोई जनु पाए होर निहफल सभ चतुराई ॥२२॥ पद्अर्थ: निहफल = व्यर्थ। चतुराई = समझदारी।22। अर्थ: हे प्रभु! (तेरी भक्ति का खजाना प्राप्त करने के लिए) हरेक समझदारी-चतुराई बेकार है। वही मनुष्य (इस खजाने को) हासिल करता है जिसको तू खुद देता है।22। सिमरि सिमरि सिमरि गुरु अपुना सोइआ मनु जागाई ॥२३॥ पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। सोइआ = (माया के मोह की नींद में) सोया हुआ। जागाई = मैं जगाता हूँ।23। अर्थ: हे प्रभु! (तेरी मेहर से) मैं अपने गुरु को बार-बार याद करके (माया के मोह की नींद में) सोए हुए अपने मन को जगाता रहता हूँ।23। इकु दानु मंगै नानकु वेचारा हरि दासनि दासु कराई ॥२४॥ पद्अर्थ: मंगै नानकु = नानक माँगता है। दासनि दासु = दासों का दास। कराई = कराय, बना दे।24। अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर से तेरा) गरीब (दास) नानक एक दान माँगता है: (मेहर कर) मुझे अपने दासों का दास बनाए रख।24। जे गुरु झिड़के त मीठा लागै जे बखसे त गुर वडिआई ॥२५॥ पद्अर्थ: वडिआई = उपकार। झिड़के = फटकार लगाए।25। अर्थ: अगर गुरु (मुझे मेरी किसी भूल के कारण) फटकार दे, तो उसकी वह झिड़क मुझे प्यारी लगती है। अगर गुरु मेरे पर मेहर की निगाह करता है, तो ये गुरु का उपकार है (मुझ में कोई कोई गुण नहीं)।25। गुरमुखि बोलहि सो थाइ पाए मनमुखि किछु थाइ न पाई ॥२६॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। थाइ पाए = स्वीकार करता है। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य।26। अर्थ: गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य जो वचन बोलते हैं, गुरु उन्हें स्वीकार करता है। अपने मन के पीछे चलने वालों का बोला हुआ स्वीकार नहीं होता।26। पाला ककरु वरफ वरसै गुरसिखु गुर देखण जाई ॥२७॥ पद्अर्थ: जाई = जाता है।27। अर्थ: पाला पड़े, कक्कर पड़े, बर्फ पड़े, फिर भी गुरु का सिख गुरु के दर्शन करने जाता है।27। सभु दिनसु रैणि देखउ गुरु अपुना विचि अखी गुर पैर धराई ॥२८॥ पद्अर्थ: रैणि = रात। देखउ = देखूँ। विचि अखी = आँखों में। धराई = बसाए रखूँ।28। अर्थ: मैं भी दिन-रात हर वक्त अपने गुरु के दर्शन करता रहता हूँ। गुरु के चरणों को अपनी आँखों में बसाए रखता हूँ।28। अनेक उपाव करी गुर कारणि गुर भावै सो थाइ पाई ॥२९॥ पद्अर्थ: उपाव = उद्यम, कोशिशें, प्रयत्न; उपाय। करी = करूँ। गुर भावै = गुरु को अच्छा लगे।29। अर्थ: अगर मैं गुरु (को प्रसन्न करने) के लिए अनेक ही यत्न करता रहूँ वही प्रयत्न स्वीकार होता है, जो गुरु को पसंद आता है।29। रैणि दिनसु गुर चरण अराधी दइआ करहु मेरे साई ॥३०॥ पद्अर्थ: आराधी = मैं आराधूँ। साई = हे सांई!।30। नोट: ‘उपाव’ है ‘उपाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे मेरे पति-प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मैं दिन-रात हर वक्त गुरु के चरणों का ध्यान धरता रहूँ।30। नानक का जीउ पिंडु गुरू है गुर मिलि त्रिपति अघाई ॥३१॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। गुर मिलि = गुरु को मिल के। त्रिपति = तृप्ति हो जाती है। अघाई = मैं अघा जाता हूँ।31। अर्थ: नानक की जिंद गुरु के हवाले है, नानक का शरीर गुरु के चरणों में है। गुरु को मिल के मैं तृप्त हो जाता हूँ, अघा जाता हूँ (माया की भूख नहीं रह जाती)।31। नानक का प्रभु पूरि रहिओ है जत कत तत गोसाई ॥३२॥१॥ पद्अर्थ: पूरि रहिओ है = व्यापक है। जत = जहाँ। कत = कहाँ। तत = वहाँ। जत कत तत = हर जगह।32। अर्थ: (गुरु की कृपा से ये समझ आती है कि) नानक का प्रभु सब सृष्टि का पति हर जगह व्यापक हो रहा है।32।1। रागु सूही महला ४ असटपदीआ घरु १० ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ अंदरि सचा नेहु लाइआ प्रीतम आपणै ॥ तनु मनु होइ निहालु जा गुरु देखा साम्हणे ॥१॥ पद्अर्थ: अंदरि = (मेरे) हृदय में। सचा नेहु = सदा कायम रहने वाला प्यार। प्रीतम आपणै = अपने प्रीतम प्रभु का। निहालु = प्रसन्न। जा = जब। देखा = देखूँ।1। अर्थ: हे भाई! (गुरु ने) अपने प्यारे प्रभु का सदा कामय रहने वाला प्यार मेरे दिल में पैदा कर दिया है, (तभी तो) जब मैं गुरु को अपने सामने देखता हूँ, तो मेरा तन मेरा मन खिल उठता है।1। मै हरि हरि नामु विसाहु ॥ गुर पूरे ते पाइआ अम्रितु अगम अथाहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: विसाहु = संपत्ति। ते = से। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अथाह = बहुत गहरा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु से मैंने उस परमात्मा की वह नाम संपत्ति प्राप्त कर ली है जो आत्मिक जीवन देने वाला है, जो (गुरु के बिना) अगम्य (पहुँच से परे) है, जो बड़े गहरे दिल वाला है।1। रहाउ। हउ सतिगुरु वेखि विगसीआ हरि नामे लगा पिआरु ॥ किरपा करि कै मेलिअनु पाइआ मोख दुआरु ॥२॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। वेखि = देख के। विगसिआ = खिल गई हूँ। नामे = नाम में। मेलिअनु = मिला लिए हैं। मोख दुआरु = मुक्ति का दरवाजा।2। अर्थ: हे भाई! गुरु को देख के मेरी जिंद खिल उठती है, (गुरु की कृपा) परमात्मा के नाम में मेरा प्यार बन गया है। (जिन्हें गुरु ने) मेहर करके (परमात्मा के चरणों से) जोड़ दिया है, उन्होंने (दुनिया के मोह से) खलासी का रास्ता पा लिया।2। सतिगुरु बिरही नाम का जे मिलै त तनु मनु देउ ॥ जे पूरबि होवै लिखिआ ता अम्रितु सहजि पीएउ ॥३॥ पद्अर्थ: बिरही = प्रेमी। त = तो। देउ = मैं दे दूँ। पूरबि = पहले जन्म में। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। सहजि = आत्मिक अडोलता में। पीएउ = पीऊँ।3। अर्थ: हे भाई! गुरु परमात्मा के नाम का प्रेमी है, अगर मुझे गुरु मिल जाए तो मैं अपना तन अपना मन उसके आगे भेटा रख दूँ। अगर पूर्बले समय में (गुरु के मिलाप के लेख मेरे माथे पर) लिखें हों, तब ही (गुरु से ले के) मैं आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आत्मिक अडोलता में पी सकता हूँ।3। सुतिआ गुरु सालाहीऐ उठदिआ भी गुरु आलाउ ॥ कोई ऐसा गुरमुखि जे मिलै हउ ता के धोवा पाउ ॥४॥ पद्अर्थ: आलाउ = मैं उच्चारूँ। ता के = उस के। पाउ = पैर।4। अर्थ: हे भाई! सोए हुए भी गुरु की महिमा करनी चाहिए, उठते समय पर भी मैं गुरु का नाम उचारूँ - अगर ऐसी मति देने वाले गुरु के सन्मुख रहने वाला कोई सज्जन मुझे मिल जाए, तो मैं उसके पैर धोऊँ।4। कोई ऐसा सजणु लोड़ि लहु मै प्रीतमु देइ मिलाइ ॥ सतिगुरि मिलिऐ हरि पाइआ मिलिआ सहजि सुभाइ ॥५॥ पद्अर्थ: लोड़ि लहु = ढूँढ लो। मै = मुझे। सतिगुरि मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। सुभाइ = प्यार रंग में।5। अर्थ: हे भाई! मुझे कोई ऐसा सज्जन ढूँढ दो, जो मुझे प्रीतम-गुरु से मिला दे। गुरु के मिलने से ही परमात्मा (का मिलाप) हासिल होता है। (जिसको गुरु मिल जाता है, उसको) परमात्मा आत्मिक अडोलता में प्यार-रंग में मिल जाता है।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |