श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 767 अंधा आगू जे थीऐ किउ पाधरु जाणै ॥ आपि मुसै मति होछीऐ किउ राहु पछाणै ॥ किउ राहि जावै महलु पावै अंध की मति अंधली ॥ विणु नाम हरि के कछु न सूझै अंधु बूडौ धंधली ॥ दिनु राति चानणु चाउ उपजै सबदु गुर का मनि वसै ॥ कर जोड़ि गुर पहि करि बिनंती राहु पाधरु गुरु दसै ॥६॥ पद्अर्थ: अंधा = माया के मोह में अंधा हुआ मनुष्य। थीऐ = बन गए। पाधरु = पध्धर, सीधा रास्ता। मूसै = ठगा जा रहा है, लूटा जा रहा है। मति होछिऐ = होछी मति के कारण। राहि = (सही) रास्ते पर। महल = परमात्मा का ठिकाना। अंधली = अंधी। अंध = अंधा मनुष्य। धंधली = माया की दौड़ भाग में। मनि = मन में। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। करि = कर, करता है। राहु पाधरु = सीधा रास्ता, पधरा राह।6। अर्थ: अगर किसी मनुष्य का नायक (नेता) वह मनुष्य बन जाए जो खुद ही माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा हो, तो वह जीवन-सफर का सीधा रास्ता नहीं समझ सकता, क्योंकि वह नायक स्वयं ही होछी अक्ल के कारण (कामादिक विकारों के हाथों) लुटा जा रहा है (उसकी रहनुमाई में चलने वाला भी) कैसे सही रास्ता पा सकता है? माया के मोह में अंधे हुए मनुष्य की अपनी ही बुद्धि भ्रष्ट (अंधी-बहरी) हुई होती है, वह खुद ही सही रास्ते पर नहीं चल सकता, और परमात्मा के दर को नहीं पा सकता; परमात्मा के नाम से वंचित होने के कारण उसको (सही जीवन के बारे में) कुछ नहीं सूझता, माया के मोह में अँधा हुआ मनुष्य माया की दौड़-भाग में डूबा रहता है। पर जिस मनुष्य के मन में गुरु का शब्द बसता है, उसके हृदय में दिन-रात नाम का प्रकाश हुआ रहता है, उसके अंदर (सेवा-स्मरण का) उत्साह पैदा हुआ रहता है। वह अपने दोनों हाथ जोड़ के गुरु के पास विनती करता रहता है क्योंकि गुरु उसको जीवन का सही रास्ता बताता है।6। मनु परदेसी जे थीऐ सभु देसु पराइआ ॥ किसु पहि खोल्हउ गंठड़ी दूखी भरि आइआ ॥ दूखी भरि आइआ जगतु सबाइआ कउणु जाणै बिधि मेरीआ ॥ आवणे जावणे खरे डरावणे तोटि न आवै फेरीआ ॥ नाम विहूणे ऊणे झूणे ना गुरि सबदु सुणाइआ ॥ मनु परदेसी जे थीऐ सभु देसु पराइआ ॥७॥ पद्अर्थ: परदेसी = अपने देश से विछुड़ा हुआ, प्रभु चरणों से विछुड़ा हुआ। पराइआ = बेगाना, पराया। खोलउ = मैं खोलूँ। पहि = के पास। गंठड़ी = दुखों की गठड़ी। दूखी = दुखों से। सबाइआ = सारा। बिधि = हालत, दशा। आवणे जावणे = जनम मरन के चक्र। खरे = बहुत। फेरिआ = जनम मरन की फेरियाँ। ऊणे = उदास। ऊणे झूणे = चिन्ता फिक्र में झुरते, दुखी। गुरि = गुरु ने। अर्थ: अगर मनुष्य का मन प्रभु-चरणों से विछुड़ा रहे तो उसको सारा जगत बेगाना लगता है (भाव, उसके अंदर भेद भाव बना रहता है)। (प्रभु-चरणों से विछुड़ के) सारा जगत ही (भाव, हरेक जीव) दुखों से (नाको-नाक) भरा रहता है (उनमें मुझे कोई ऐसा नहीं दिखाई देता जो नाम से वंचित रह के सुखी दिखता हो, और) जिसके आगे मैं अपने दुखों की गठड़ी खोल सकूँ (हरेक को आपो धापी पड़ी रहती है)। (प्रभु-चरणों से विछुड़ा हुआ) सारा ही जगत (हरेक जीव) दुखों से भरा रहता है (हरेक के अंदर इतना स्वार्थ होता है कि कोई किसी का दर्दी नहीं बनता), मेरी दुखद दशा को जानने (समझने) की भी कोई परवाह नहीं करता। (नाम से टूटे हुए जीवों के सिर पर) बहुत भयानक जनम-मरन (के चक्कर) बने रहते हैं, उनके जनम-मरण की जगत-फेरियाँ खत्म होने को नहीं आती। जिस (भाग्यहीन लोगों) को गुरु ने परमात्मा की महिमा का शब्द नहीं सुनाया, जो नाम से वंचित रहे हैं वे दुखी जीवन ही बिताते गए (क्योंकि) यदि मनुष्य का मन प्रभु-चरणों से विछुड़ा रहे तो उसे सारा जगत बेगाना प्रतीत होता है (असके अंदर भेद भाव मेर तेर बनी रहती है)।7। गुर महली घरि आपणै सो भरपुरि लीणा ॥ सेवकु सेवा तां करे सच सबदि पतीणा ॥ सबदे पतीजै अंकु भीजै सु महलु महला अंतरे ॥ आपि करता करे सोई प्रभु आपि अंति निरंतरे ॥ गुर सबदि मेला तां सुहेला बाजंत अनहद बीणा ॥ गुर महली घरि आपणै सो भरिपुरि लीणा ॥८॥ पद्अर्थ: महलु = ठिकाना। महली = ठिकाने वाला। गुर महली = ऊँचे ठिकाने के मालिक प्रभु। घरि आपणै = (जिस मनुष्य की) अपने हृदय घर में। सो = वह मनुष्य। भरपुरि = भरपूर में, सर्व व्यापक प्रभु में। तां = तब। सच सबदि = सदा स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में। पतीणा = पतीजना, मगन रहना। अंकु = हृदय। सु महलु = (प्रभु का) वह ठिकाना। महला अंतरे = हरेक शरीर में। अंति = अंतरि, अंदर, हरेक के अंदर। निरंतरे = निरंतरि (निर+अंतर; अंतर = दूरी) बिना दूरी के, एक रस। सुहेला = सुखी। बीणा = बंसरी। अनहद = (अन+हत्) बिना बजाए, एक रस, सदा ही।8। अर्थ: ऊँचे ठिकाने के मालिक प्रभु जिस मनुष्य के अपने हृदय-घर में आ बसता है वह मनुष्य उस सर्व-व्यापक प्रभु (की याद) में मस्त रहता है, वह मनुष्य प्रभु का सेवक बन जाता है, प्रभु की सेवा-भक्ति करता है सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में (उसका मन) मगन रहता है। वह मनुष्य सतिगुरु के शब्द में पतीज जाता है, उसका हृदय नाम-रस से भीगा रहता है, उसको हरेक शरीर के अंदर प्रभु का निवास दिखता है, (उसे विश्वास बना रहता है कि) प्रभु स्वयं ही सब कुछ कर रहा है, खुद ही हरेक के अंदर एक-रस व्यापक है। गुरु के शब्द की इनायत से जब उस मनुष्य का परमात्मा से मिलाप हो जाता है तो उसका जीवन आसान हो जाता है (उसके अंदर मानो) एक-रस बाँसुरी सी बजती रहती है। ऊँचे ठिकाने का मालिक प्रभु जिस मनुष्य के अपने हृदय-घर में प्रकट हो जाता है वह मनुष्य उस सर्व-व्यापक प्रभु (की याद) में जुड़ा रहता है।8। कीता किआ सालाहीऐ करि वेखै सोई ॥ ता की कीमति ना पवै जे लोचै कोई ॥ कीमति सो पावै आपि जाणावै आपि अभुलु न भुलए ॥ जै जै कारु करहि तुधु भावहि गुर कै सबदि अमुलए ॥ हीणउ नीचु करउ बेनंती साचु न छोडउ भाई ॥ नानक जिनि करि देखिआ देवै मति साई ॥९॥२॥५॥ पद्अर्थ: कीता = परमात्मा का पैदा किया हुआ जीव। किआ सालाहीऐ = क्या सराहें, सराहने का क्या लाभ? करि = पैदा कर के। वेखै = संभाल करता है। सोई = वह प्रभु ही। ता की = उस (परमात्मा) की। न भुलदे = ना भूले, भूल नहीं करता। करहि = (जीव) करते हैं। तुधु = तुझे। सबदि अमुलए = अमूल्य शब्द, अमोलक शबदों के द्वारा। हीणउ = हीन, तुच्छ। करउ = मैं करता हूँ। साचु = सदा स्थिर प्रभु। भाई = हे भाई! जिनि = जिस परमात्मा ने। साई = वही।9। अर्थ: परमात्मा के पैदा किए हुए जीवों की प्रशंसा (तारीफ) करने का क्या लाभ? (महिमा तो उस परमात्मा की करनी चाहिए) जो जगत पैदा करके खुद ही संभाल भी करता है। (पर उस प्रभु का मूल्य नहीं आँका जा सकता, उस जैसा कोई और कहा भी नहीं जा सकता)। अगर कोई मनुष्य ये चाहे (कि परमात्मा के गुण बयान करके उसका मूल्य पा सकेगा तो ये नहीं हो सकता) उस प्रभु का मूल्य नहीं पड़ सकता। जिस मनुष्य को प्रभु स्वयं सूझ बख्शता है, वह प्रभु की कद्र समझ लेता है (और बताता है कि) प्रभु अमोध है कभी भूल नहीं करता। (वह सख्श इस प्रकार विनती करता है:) हे प्रभु! जो लोग तुझे प्यारे लगते हैं वे गुरु के अमोलक शब्द में जुड़ के तेरी महिमा करते हैं। हे नानक! (कह:) हे भाई! मैं तुच्छ हूँ, मैं नीच हूँ, पर मैं (प्रभु के दर पर ही) विनती करता हूँ, मैं उस सदा-स्थिर प्रभु (के पल्ले) को नहीं छोड़ता। (मेरी कोई बिसात नहीं कि मैं महिमा करने का दम भर सकूँ), जो प्रभु पैदा करके प्रतिपालना करता है वही (महिमा करने की) बुद्धि भी बख्शता है।9।2।5। रागु सूही छंत महला ३ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सुख सोहिलड़ा हरि धिआवहु ॥ गुरमुखि हरि फलु पावहु ॥ गुरमुखि फलु पावहु हरि नामु धिआवहु जनम जनम के दूख निवारे ॥ बलिहारी गुर अपणे विटहु जिनि कारज सभि सवारे ॥ हरि प्रभु क्रिपा करे हरि जापहु सुख फल हरि जन पावहु ॥ नानकु कहै सुणहु जन भाई सुख सोहिलड़ा हरि धिआवहु ॥१॥ पद्अर्थ: सुख = आत्मिक आनंद। सोहिलड़ा = (सुख केल: सोहिला) खुशी पैदा करने वाला गीत। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। निवारे = दूर करता है। विटहु = से। बलिहारी = सदके। जिनि = जिस (गुरु) ने। सभि = सारे। जापहु = जपा करो। नानकु कहै = नानक कहता है। जन भाई = हे भाई जनो!।1। अर्थ: हे भाई जनो! आत्मिक आनंद देने वाले प्रभु की महिमा के गीत गाया करो। गुरु की शरण पड़ कर (महिमा के गीत गाने से) परमात्मा के दर से (इसका) फल प्राप्त करोगे। हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम स्मरण किया करो, (इसका) फल हासिल करोगे, परमात्मा का नाम अनेक जन्मों के दुख दूर कर देता है। जिस गुरु ने तुम्हारे (लोक-परलोक के) सारे काम सवार दिए हैं, उस अपने गुरु से सदके जाओ। हे भाई! परमात्मा का नाम जपा करो। हरि प्रभु कृपा करेगा, (उसके दर से) आत्मिक आनंद का फल प्राप्त कर लोगे। नानक कहता है: हे भाई जनो! आत्मिक आनंद देने वाले प्रभु की महिमा के गीत गाते रहा करो।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |