श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 786 पउड़ी ॥ हुकमी स्रिसटि साजीअनु बहु भिति संसारा ॥ तेरा हुकमु न जापी केतड़ा सचे अलख अपारा ॥ इकना नो तू मेलि लैहि गुर सबदि बीचारा ॥ सचि रते से निरमले हउमै तजि विकारा ॥ जिसु तू मेलहि सो तुधु मिलै सोई सचिआरा ॥२॥ पद्अर्थ: स्रिसटि = जगत। बहु भिति = बहु भांति की। सचि = सच में, सदा-स्थिर प्रभु में। तजि = त्याग के। सचिआरा = सच का व्यापारी। अर्थ: उस प्रभु ने ये सृष्टि ये संसार अपने हुक्म के अनुसार कई किस्मों का बनाया है। हे सच्चे! हे अलख! और हे बेअंत प्रभु! ये समझ नहीं आती कि तेरा हुक्म कितना (बलवान) है। कई जीवों को तू गुरु-शब्द में जोड़ के अपने साथ मिला लेता है, वह अहंकार रूपी विकार त्याग के तेरे नाम में रंगे जाते हैं और पवित्र हो जाते हैं। हे प्रभु! जिसको तू मिलाता है वह तुझे मिलता है और वही सत्य का व्यापारी है।2। सलोकु मः ३ ॥ सूहवीए सूहा सभु संसारु है जिन दुरमति दूजा भाउ ॥ खिन महि झूठु सभु बिनसि जाइ जिउ टिकै न बिरख की छाउ ॥ गुरमुखि लालो लालु है जिउ रंगि मजीठ सचड़ाउ ॥ उलटी सकति सिवै घरि आई मनि वसिआ हरि अम्रित नाउ ॥ नानक बलिहारी गुर आपणे जितु मिलिऐ हरि गुण गाउ ॥१॥ पद्अर्थ: सूहवी = हे सूहे वेश वालिए! हे कुसंभ के रंग से प्यार करने वाली! सूहा = कुसंभ के रंग वाला, चुहचुहा, आकर्षित करने वाला रंग। बिरख = वृक्ष। रंगि = रंग में। सचड़ाउ = सच्चा, पक्का। सकति = माया। सिवै घरि = परमात्मा के घर। मनि = मन में। जितु मिलिऐ = जिस को मिल के। अर्थ: हे कुसंभी रंग से प्यार करने वालिए! जिनके अंदर माया का मोह है और दुर्मति है, उन्हें संसार बहुत ही आकर्षक रंगों से भरा हुआ प्रतीत होता है (भाव, उन्हें दुनिया का मोह आकर्षित करता है); पर ये कुसंभ का रंग झूठा है पल में नाश हो जाता है जैसे वृक्ष की छाया नहीं टिकती। जो जीव-स्त्री गुरु के सन्मुख होती है उसे पूरी तरह का पक्का लाल (नाम का) रंग चढ़ता है जैसे वह मजीठ के रंग में (रंगी हुई) है। वह माया से मुँह फेर के परमात्मा के स्वरूप में टिकती है। उसके मन में परमात्मा का अमृत नाम बसता है। हे नानक! अपने गुरु से सदके होएं, जिसको मिलने से परमात्मा के गुण गाते रहें।1। मः ३ ॥ सूहा रंगु विकारु है कंतु न पाइआ जाइ ॥ इसु लहदे बिलम न होवई रंड बैठी दूजै भाइ ॥ मुंध इआणी दुमणी सूहै वेसि लुोभाइ ॥ सबदि सचै रंगु लालु करि भै भाइ सीगारु बणाइ ॥ नानक सदा सोहागणी जि चलनि सतिगुर भाइ ॥२॥ पद्अर्थ: विकारु = पाप, दुष्कर्म। बिलम = देरी, ढील। मुंध = स्त्री। दुंमणी = दुचिक्ती। वेसि = वेश में। लुोभाइ = (असल शब्द है ‘लोभाय’ यहाँ पढ़ना है ‘लुभाय’)। भाइ = भाय, प्रेम से। सीगारु = सजावट, सोहज। जि = जो (जीव स्त्रीयां)। अर्थ: (जैसे) भड़कीला रंग (स्त्री के मन को आकर्षित करता है, वैसे ही) विकार (जीव-स्त्री को) आकर्षित करते हैं। (इस आकर्षण में फसने से) पति-प्रभु नहीं मिल सकता, (विकार के) इस (आकर्षित करने वाले रंग) के उतरते ही देरी भी नहीं लगती, (सो) माया के मोह में (फसी जीव-स्त्री को) रंडी हुई समझो। जो (माया के) आकर्षण वाले वेश में लोभित हुई हुई है वह (जीव) स्त्री अंजानी है उसका मन सदा डोलता है। (जो जो जीव-स्त्री) सच्चे शब्द के द्वारा (प्रभु के नाम का पक्का) लाल रंग बना के, प्रभु के डर और प्रेम के द्वारा (अपने मन का) श्रृंगार करती हैं, जो सतिगुरु के प्यार में (इस जीवन-मार्ग पर) चलती हैं, हे नानक! वे सदा सोहाग-भाग वालियाँ हैं।2। पउड़ी ॥ आपे आपि उपाइअनु आपि कीमति पाई ॥ तिस दा अंतु न जापई गुर सबदि बुझाई ॥ माइआ मोहु गुबारु है दूजै भरमाई ॥ मनमुख ठउर न पाइन्ही फिरि आवै जाई ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ सभ चलै रजाई ॥३॥ पद्अर्थ: उपाइअनु = उपाए उसने। कीमति = मूल्य, कद्र। बुझाई = समझ देता है। गुबारु = घुप अंधेरा। दूजै = और तरफ। ठउर = ठिकाना। रजाई = हुक्म में, रजा में। अर्थ: प्रभु ने खुद ही (सारे जीव) पैदा किए हैं वह स्वयं ही (इनकी) कद्र जानता है। उस प्रभु का अंत नहीं पाया जा सकता (भाव, उसकी ये खेल समझी नहीं जा सकती), गुरु की समझ के द्वारा समझ (प्रभु स्वयं ही) बख्शता है। माया का मोह (जैसे) घोर अंधेरा है (इस अंधेरे में चल के जीव जिंदगी का असल राह भूल के) और तरफ भटकने लग जाता है। मन के पीछे चलने वाले बँदों को (जिंदगी के सफर की) असल मंजिल नहीं मिलती, मनमुख मनुष्य बार-बार पैदा होता, मरता रहता है। (पर कुछ कहा नहीं जा सकता) जो उस प्रभु को भाता है वही होता है, सारी सृष्टि उसकी रजा में चल रही है।2। सलोकु मः ३ ॥ सूहै वेसि कामणि कुलखणी जो प्रभ छोडि पर पुरख धरे पिआरु ॥ ओसु सीलु न संजमु सदा झूठु बोलै मनमुखि करम खुआरु ॥ जिसु पूरबि होवै लिखिआ तिसु सतिगुरु मिलै भतारु ॥ सूहा वेसु सभु उतारि धरे गलि पहिरै खिमा सीगारु ॥ पेईऐ साहुरै बहु सोभा पाए तिसु पूज करे सभु सैसारु ॥ ओह रलाई किसै दी ना रलै जिसु रावे सिरजनहारु ॥ नानक गुरमुखि सदा सुहागणी जिसु अविनासी पुरखु भरतारु ॥१॥ पद्अर्थ: कामणि = स्त्री। कुलखणी = बुरे लक्षणों वाली। सीलु = शील, सद् आचरण। संजमु = संयम में चलना, युक्ति वाला जीवन। पूरबि = पहले से। भतारु = रक्षक। गलि = गले में। खिमा = किसी की गलती को सहने की आदत। पेईऐ = पेके घर में, इस लोक में। साहुरै = सहुरे घर में, परलोक में। ओह = वह जीव-स्त्री। अर्थ: (माया के) आकर्षित रंगों भरे वेश में (मस्त जीव-स्त्री, मानो) बदकार स्त्री है जो प्रभु (पति) को बिसार के पराए मनुष्य के साथ प्यार करती है; उसका ना अच्छा आचरण है, ना जुगति वाला जीवन है, सदा झूठ बोलती है, मनमर्जी के कामों के कारण दुखी होती है। जिसके माथे पर धुर-दरगाह से सौभाग्य हों, उसको गुरु रखवाला मिल जाता है, फिर वह भड़कीला वेश सारा उतार देती है औरसहन-शीलता का गहना गले में पहनती है। इस लोक और परलोक में उसकी बड़ी इज्जत होती है, सारा जगत उसका आदर करता है। जिसको सारे जग का पैदा करने वाला पति मिल जाए, उसका जीवन निराला ही हो जाता है; हे नानक! जिसके सिर पर कभी ना मरने वाला पति हो, जो सदा गुरु के हुक्म में चले वह जीव-स्त्री सदा सोहाग भाग वाली होती है।1। मः १ ॥ सूहा रंगु सुपनै निसी बिनु तागे गलि हारु ॥ सचा रंगु मजीठ का गुरमुखि ब्रहम बीचारु ॥ नानक प्रेम महा रसी सभि बुरिआईआ छारु ॥२॥ पद्अर्थ: निसी = रात। ब्रहम बीचारु = प्रभु की विचार, ईश्वर की बातें। रसी = रसी हुई, भीगी हुई। छारु = राख। अर्थ: (माया का) भड़कीला रंग (जैसे) रात का सपना है, (जैसे) धागे के बिना हार गले में डाला हुआ है; गुरु के सन्मुख हो के ईश्वर की महिमा की बातें (जैसे) मजीठ का पक्का रंग है। हे नानक! जो जीव-स्त्री (प्रभु के) प्यार महा रस में भीगी हुई है उसकी सारी बुराईयाँ (जल के) राख हो जाती हैं।2। पउड़ी ॥ इहु जगु आपि उपाइओनु करि चोज विडानु ॥ पंच धातु विचि पाईअनु मोहु झूठु गुमानु ॥ आवै जाइ भवाईऐ मनमुखु अगिआनु ॥ इकना आपि बुझाइओनु गुरमुखि हरि गिआनु ॥ भगति खजाना बखसिओनु हरि नामु निधानु ॥४॥ पद्अर्थ: उपाइओनु = उपाया उसने। चोज = करिश्मे, खेल। विडानु = हैरानगी, आश्चर्य चकित करने वाले। पंच धातु = पंच तत्व। पाईअनु = डाली है उसने। अगिआनु = ज्ञान हीन। बुझाइओनु = बुझाया है उसने। बखसिओनु = बख्शा है उसने। निधानु = खजाना। नोट: ‘पाइअनु’ का भाव यहां ‘पाइअनु’ है जिसका अर्थ है ‘पाए है उसने’। अर्थ: हैरान करने वाले करिश्में करके प्रभु ने खुद ही ये जगत पैदा किया, इसमें पाँच तत्व डाल दिए, जो मोह झूठ और घमण्ड (आदि के मूल) हैं। ज्ञानहीन मनमर्जी करने वाला मनुष्य (इनमें फंस के) भटकता है और पैदा होता मरता है। कई जीवों को प्रभु ने गुरु के सन्मुख करके अपना ज्ञान खुद समझाया है और भक्ति व नाम-रूप खजाना बख्शा है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |