श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 789 पउड़ी ॥ हरि सालाही सदा सदा तनु मनु सउपि सरीरु ॥ गुर सबदी सचु पाइआ सचा गहिर ग्मभीरु ॥ मनि तनि हिरदै रवि रहिआ हरि हीरा हीरु ॥ जनम मरण का दुखु गइआ फिरि पवै न फीरु ॥ नानक नामु सलाहि तू हरि गुणी गहीरु ॥१०॥ पद्अर्थ: सउपि = सौंप के, हवाले करके। गहिर = गहरे। गंभीरु = जिगरे वाला। हीरा हीरु = हीरों में से हीरा, श्रेष्ठ हीरा (रूप)। फीरु = फेरा। गुणी = गुणों का मालिक। गहीरु = गहरा, जिगरे वाला, बड़े दिल वाला। अर्थ: (हे जीव!) तन मन शरीर (अपना आप) प्रभु के हवाले करके (भाव, प्रभु की पूर्ण रजा में रह के) सदा उसकी महिमा कर; (जिस मनुष्य ने) गुरु के शब्द के द्वारा (उसे स्मरण किया है, उसको) सदा-स्थिर रहने वाला, गहरे बड़े दिल वाला प्रभु मिल जाता है, उसके मन में तन में हीरों का हीरा (अमूल्य हीरा) प्रभु आ बसता है, उसके जनम-मरण का दुख मिट जाता है, उसको फिर (इस चक्कर में) चक्कर नहीं लगाने पड़ते। (सो) हे नानक! तू भी उस प्रभु का नाम स्मरण कर जो गुणों का मालिक है और बड़े दिल वाला है।10। सलोक मः १ ॥ नानक इहु तनु जालि जिनि जलिऐ नामु विसारिआ ॥ पउदी जाइ परालि पिछै हथु न अ्मबड़ै तितु निवंधै तालि ॥१॥ पद्अर्थ: तनु = शरीर, शरीर का मोह, देह अध्यास। जिनि = जिस (शरीर) ने। जलिऐ = (तृष्णा की आग में) जले हुए ने। परालि = पराली, पापों की पराली। निवंधै तालि = नीचे तालाब में, गिरावट में आए हुए हृदय में। अंबड़ै = पहुँचता है। पउदी जाइ = पड़ती जाती है। तितु = इस में। अर्थ: हे नानक! (तृष्णा की आग में) जले हुए इस शरीर ने प्रभु का ‘नाम’ विसार दिया है, इसलिए, शरीर के मोह को खत्म कर दे। (तृष्णा के कारण) गिरे हुए इस हृदय-तालाब में (पापों की) पराली एकत्र हो रही है (इसको निकालने के लिए) फिर पेश नहीं जाएगी (फिर तुझसे नहीं निकलेगी)।1। मः १ ॥ नानक मन के कम फिटिआ गणत न आवही ॥ किती लहा सहम जा बखसे ता धका नही ॥२॥ पद्अर्थ: फिटिआ = धिक्कारयोग्य, बुरे। सहंम = सहम, फिक्र। किती = कितने। लहा = मैं सहूँगा। अर्थ: हे नानक! मेरे मन के इतने बुरे काम हैं कि गिने नहीं जा सकते, (इनके कारण) मुझे सहम भी बड़े सहने पड़ रहे हैं, जब प्रभु खुद बख्शता है तो (उसकी हजूरी में से) धक्का नहीं मिलता (भेद-भाव नहीं होता)।2। पउड़ी ॥ सचा अमरु चलाइओनु करि सचु फुरमाणु ॥ सदा निहचलु रवि रहिआ सो पुरखु सुजाणु ॥ गुर परसादी सेवीऐ सचु सबदि नीसाणु ॥ पूरा थाटु बणाइआ रंगु गुरमति माणु ॥ अगम अगोचरु अलखु है गुरमुखि हरि जाणु ॥११॥ पद्अर्थ: सचु फुरमाणु = नाम स्मरण रूपी हुक्म। सचा = अटल। सुजाणु = सियाना। नीसाणु = निशाना, जीवन का आर्दश। थाटु = संरचना, स्मरण रूप रचना। अर्थ: नाम स्मरण का नेम बना के प्रभु ने ये अटल हुक्म बना दिया है। वह प्रभु सब जीवों में व्यापक है (हरेक की भलाई को) अच्छी तरह जानने वाला है, सदा कायम रहने वाला है और हर जगह मौजूद है। गुरु के शब्द के द्वारा प्रभु-स्मरण-रूप जीवन आदर्श मिलता है, सो, गुरु की मेहर प्राप्त कर के स्मरण करें। प्रभु के नाम-जपने की बनतर ऐसी है जो सम्पूर्ण है (जिसमें कोई कमी नहीं); (हे जीव!) गुरु की शिक्षा पर चल कर स्मरण के रंग का मजा ले। प्रभु है तो अगम्य (पहुँच से परे), इन्द्रियों की पहुँच से परे और अदृश्य; पर गुरु के सन्मुख होने से उसकी समझ पड़ जाती है।11। सलोक मः १ ॥ नानक बदरा माल का भीतरि धरिआ आणि ॥ खोटे खरे परखीअनि साहिब कै दीबाणि ॥१॥ पद्अर्थ: बदरा = थैली। माल का बदरा = रुपयों की थैली, किए कर्मों का इकट्ठ। आणि = ला के। परखीअनि = परखे जाते हैं। दीबाणि = हजूरी में। अर्थ: हे नानक! (किसी मालिक का नौकर) रुपयों की थैली (कमा के) अंदर ला के रखता है, मालिक के सामने खोटे और खरे रुपए परखे जाते हैं (इसी तरह ये जीव-बंजारा शाह-प्रभु का भेजा हुआ यहाँ वणज करके अच्छे-बुरे कर्मों के संस्कार इकट्ठे करता रहता है, मालिक प्रभु की हजूरी में नितारा हो जाता है कि यहाँ खोट ही कमा रहा है कि भलाई भी)।1। मः १ ॥ नावण चले तीरथी मनि खोटै तनि चोर ॥ इकु भाउ लथी नातिआ दुइ भा चड़ीअसु होर ॥ बाहरि धोती तूमड़ी अंदरि विसु निकोर ॥ साध भले अणनातिआ चोर सि चोरा चोर ॥२॥ पद्अर्थ: मनि खोटै = खोटे मन से। तनि = शरीर में। चोर = कामादिक चोर। इकु भाउ = एक हिस्सा। लथी = (मैल) उतर गई। दुइ भा = दो हिस्से। होर = और मैल। तुंमड़ी = तुंमी। विसु = जहर। निकोर = असली। अर्थ: अगर खोटे मन से तीर्थों पर नहाने चल पड़ें और शरीर में कामादिक चोर भी टिके रहे, तो नहाने से एक हिस्सा (भाव, शरीर की बाहरी) मैल तो उतर गई पर (मन में अहंकार आदि की) दुगनी मैल और चढ़ गई, (तुंमी वाला हाल ही हुआ) तुंमी बाहर से तो धोई गई, पर उसके अंदर खालिस विष (भाव, कड़वाहट) टिकी रही। भले मनुष्य (तीर्थों पर) नहाए बिना ही भले हैं, और चोर (तीर्थों पर नहा के भी) चोर हैं।2। पउड़ी ॥ आपे हुकमु चलाइदा जगु धंधै लाइआ ॥ इकि आपे ही आपि लाइअनु गुर ते सुखु पाइआ ॥ दह दिस इहु मनु धावदा गुरि ठाकि रहाइआ ॥ नावै नो सभ लोचदी गुरमती पाइआ ॥ धुरि लिखिआ मेटि न सकीऐ जो हरि लिखि पाइआ ॥१२॥ पद्अर्थ: दहदिस = दसों दिशाओं में। गुरि = गुरु ने। सभ = सारी दुनिया। अर्थ: प्रभु खुद ही अपना हुक्म बरता रहा है और जगत को उसने खुद ही मायावी धंधे में लगा रखा है, जिन्हें उसने खुद ही (नाम में) जोड़ रखा है उन्होंने गुरु की शरण पड़ कर सुख हासिल किए हैं। मनुष्य का ये मन दसों-दिशाओं में दौड़ता है, (शरण आए मनुष्य का मन) गुरु ने (ही) रोक के रखा है; सारी लोकाई प्रभु के नाम की तमन्ना करती है, पर मिलता गुरु की मति लेने से ही है। (गुरु का मिलना भी सौभाग्य वाली बात है, और) जो लेख प्रभु ने आदि से माथे पर लिख दिए हैं वह मिटाए नहीं जा सकते।12। सलोक मः १ ॥ दुइ दीवे चउदह हटनाले ॥ जेते जीअ तेते वणजारे ॥ खुल्हे हट होआ वापारु ॥ जो पहुचै सो चलणहारु ॥ धरमु दलालु पाए नीसाणु ॥ नानक नामु लाहा परवाणु ॥ घरि आए वजी वाधाई ॥ सच नाम की मिली वडिआई ॥१॥ पद्अर्थ: दुइ = दोनों, चाँद और सूर्य। चउदह = चौदों लोक। हटनाले = बाजार। लाहा = नफा। घरि = घर में, भटकना से हट के प्रभु के दर पर। वाधाई वजी = बाधाई बजती है, चढ़दी कला बनती है। अर्थ: जगत-रूपी शहर में चाँद और सूरज, जैसे दो दीप जग रहे हैं, और चौदह लोक (इस जगत-शहर के, जैसे) बाजार हैं, सारे जीव (इस शहर के) व्यापारी हैं। जब दुकान खुल गई (जगत-रचना हुई), व्यापार होने लगा। जो जो व्यापारी यहाँ आता है वह मुसाफिर ही होता है। (हरेक जीव-व्यापारी के करणी-रूपी सौदे पर) धर्म-रूपी दलाल निशान लगाए जाता है (कि इसका सौदा खरा है अथवा खोटा), हे नानक! (शाह-प्रभु की हाट पर) ‘नाम’ नफा ही स्वीकार होता है। जो (ये नफा कमा के) हजूरी में पहुँचता है उसको लाली चढ़ती है और सच्चे नाम की (प्राप्ति का) उसको महातम (बड़ाई) मिलता है।1। मः १ ॥ राती होवनि कालीआ सुपेदा से वंन ॥ दिहु बगा तपै घणा कालिआ काले वंन ॥ अंधे अकली बाहरे मूरख अंध गिआनु ॥ नानक नदरी बाहरे कबहि न पावहि मानु ॥२॥ पद्अर्थ: से वंन = वही रंग। सुपेदा = सफेद चीजों का। दिहु = दिन। बगा = सफेद। घणा = बहुत। वंन = रंग। अंध गिआनु = अंनी मति। अर्थ: रातें काली होती हैं (पर) सफेद चीजों के वही सफेद रंग ही रहते हैं (रात की कालिख का असर उन पर नहीं पड़ता), दिन सफेद होता है, अच्छा खासा चमकता है, पर काले पदार्थों के रंग काले ही रहते हैं (दिन की रौशनी का असर इन काली चीजों पर नहीं पड़ता)। (इसी तरह) जो मनुष्य अंधे मूर्ख बुद्धि-हीन हैं उनकी अंधी ही मति रहती है। हे नानक! जिस पर प्रभु की मेहर की नजर नहीं हुई उनको कभी (‘नाम’ की प्राप्ति का) सम्मान नहीं मिलता।2। पउड़ी ॥ काइआ कोटु रचाइआ हरि सचै आपे ॥ इकि दूजै भाइ खुआइअनु हउमै विचि विआपे ॥ इहु मानस जनमु दुल्मभु सा मनमुख संतापे ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी जिसु सतिगुरु थापे ॥ सभु जगु खेलु रचाइओनु सभ वरतै आपे ॥१३॥ पद्अर्थ: कोटु = किला। आपे = खुद ही। इकि = कई जीव। खुआइअनु = (खुंझाए, पथ भ्रष्ट किए, पथ से विचलित) रास्ते से हटाए हैं उसने। विआपे = फसे हुए। सा = था। मनमुख = मन के पीछे चलने वाले। थापे = पीठ थप थपाए, हौसला दे। अर्थ: ये मानव-देही (मानो) किला है जो सच्चे प्रभु ने खुद बनाया है, (पर इस किले में रहते हुए भी) कई जीवों को माया के मोह में डाल के उसने स्वयं कुमार्ग पर डाल दिए हैं, वे (बिचारे) अहंकार में फंसे पड़े हैं। ये मानव-शरीर बड़ी मुश्किल से मिला था, पर मन के पीछे चल के जीव दुखी हो रहे हैं, (ये शरीर प्राप्त करके क्या करना था) ये समझ उसी को आती है जिसको प्रभु स्वयं समझ बख्शे और सतिगुरु हौसला (पीठ थप-थपाए) दे। (पर इस अधोगति के लिए किसी को निंदा भी नहीं जा सकता क्योंकि) ये सारा जगत-खेल तो उस प्रभु ने ही बनाया है और इसमें हर जगह स्वयं ही मौजूद है।13। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |