श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जरूरी नोट: सूही राग में लिखे हुए गुरु नानक साहिब और फरीद जी दोनों के शबदों को (जो ऊपर दिए गए हैं) जरा ध्यान से पढ़ कर देखें। फरीद जी ने उस मनुष्य की हालत बताई है जो सारी उम्र अपना मन माया में जोड़ी रखे, गुरु नानक साहिब ने उसका नक्शा खींचा है जो सदा नाम-रंग में रंगा रहे:

माया-ग्रसित जीव के लिए संसार-सरोवर विकारों की लहरों से लबा-लब भर जाता है, इसमें से वह अपनी जिंदगी की बेड़ी को सही-सलामत पार नहीं लंघा सकता। नाम-जपने वाले के राह में विकारों का ये सरोवर आता ही नहीं, इस वास्ते वह आसानी से पार हो जाता है।

जो जीव माया के अहंकार में रहे उनको प्रभु-दर से ‘रे रे’ के बोल मिले, उनका यहाँ प्रभु से मिलाप ना हो सका, और उनका ये वक्त हाथ से निकल गया। पर, जिन्होंने सतिगुरु के वचन पर चल कर अहंकार को दूर कर लिया, उनको प्रभु के दर से ‘अमृत बोल’ मीठे वचन मिले।

माया-ग्रसित जीव यहाँ चलने के वक्त दुबिधा में फसा रहता है, उसका जाने को जी नहीं करता। पर जिन्होंने नाम स्मरण किया, उनको पति प्यारा लगता है (इसलिए यहाँ से चलने के वक्त उन्हें कोई घबराहट नहीं होती)।

ज्यों-ज्यों इन दोनों शबदों को मिला के पढ़ेंगे, इनकी गहरी एकता ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट व रसदार होती जाती है। फिर देखें कितने ही शब्द सांझे बरते हैं:

बेड़ा, सरवरु, ऊछलै (दुहेला, सुहेला), (कसुंभा, मजीठ), ढोला, सह के बोला (रे, अंम्रित), सहेलीहो, सहु।

इस बात को मानने में कोई शक की गुंजायश नहीं रह जाती कि गुरु नानक साहिब जी ने अपना शब्द बाबा फरीद जी शब्द सामने रख के उचारा है, और, इन दोनों से मिल के जिंदगी के दोनों पक्ष इन्सान के सामने रख दिए हैं। वह शब्द गुरु नानक देव जी को इतना प्यारा लगा प्रतीत होता है कि इसमें आया शब्द ‘दुधाथणी’ फिर और जगह अपनी वाणी में भी बर्तते हैं।

जैसे ये ख्याल अब तक बनाया गया है कि भक्तों के शब्द गुरु अरजन साहिब जी ने पंजाब के लोगों से सुन सुना के एकत्र किए थे, अगर यही ख्याल फरीद जी के इस शब्द के बारे में भी बर्ता जाए, तो गुरु नानक साहिब जी का सूही राग का शब्द फरीद जी के शब्द से हू-ब-हू मिलने वाला हो नहीं सकता था। सो, फरीद जी का ये शब्द गुरु नानक साहिब जी ने खुद पाकपटन से लिया, इसको प्यार किया, और जिंदगी का जो पक्ष फरीद जी ने छोड़ दिया था उसको बयान करके दोनों शबदों के माध्यम से इन्सानी जिंदगी की खूबसूरत मुकम्मल तस्वीर खींच दी।

इस बात के मानने पर कोई शक नहीं रह जाता कि फरीद जी की वाणी गुरु नानक साहिब खुद संभाल के ले आए थे। क्यों? अपनी वाणी के साथ जोड़ के रखने के लिए। ये बात और साफ हो गई कि गुरु नानक देव जी का ही अपना संकल्प था, जो उनकी वाणी अपनी असल रूप में सिख कौम के लिए संभाल के रखी जाए, और, उस में उस वक्त के भक्तों के वह शब्द भी लिखे जाएं जो आप लिख के लाए थे।

भक्त नामदेव जी से जान-पहचान:

मैकालिफ अनुसार:

बम्बई प्रांत के जिला सतारा में नरसी नाम का एक गाँव है। मैकालिफ के अनुसार नामदेव जी का जन्म इसी गाँव में हुआ था कार्तिक सुदी एकादसी शाका संवत् 1192 (तदानुसार नवंबर संन् 1270)। जाति के धोबी (छींबे) थे।

गाँव नरसी नगर कराद के नजदीक है। कराद रेल का स्टेशन है, पूने से मिराज जाने वाली रेलवे लाइन पर।

गाँव नरसी के बाहर केशी रान (शिव) का मंन्दिर था। नामदेव जी के पिता उसके श्रद्धावान भक्त थे।

नामदेव जी ने अपनी उम्र का बहुत सारा समय पंडरपुर में गुजारा। पंडरपुर के नजदीक गाँव वदवल के वाशिंदे महात्मा विशोभा जी की संगति का नामदेव जी को अवसर मिलता रहा।

नामदेव जी का देहांत अस्सी साल की उम्र में (असू वदी 13) संन् 1350 में गाँव पंडरपुर में हुआ था।

पूरनदास की जनमसाखी के अनुसार:

पूरनदास की लिखी जनमसाखी में लिखा है कि पंडरपुर के नजदीक गाँव गोपालपुर में नामदेव जी का जन्म हुआ था। 55 साल की उम्र में नामदेव पंजाब के जिला गुरदासपुर के एक गाँव भटेवाल में आ टिके। लोगों की बहुत ज्यादा आवा-जाही हो जाने के कारण नामदेव ने यहाँ से कुछ दूरी पे एक जंगल जैसे स्थान पर जा डेरा लगाया। वहीं उनका देहांत हुआ। अब उस गाँव का नाम घुमाण है। हर साल माघ की दूसरी तारीख को वहाँ मेला लगता है। पूरनदास के अनुसार नामदेव जी का जन्म संन् 1313 में हुआ था और देहांत 21 माघ संवत् 1521 (संन् 1464 ईसवी)।

‘भक्त माल’ के अनुसार:

पुस्तक ‘भक्त माल’ में भी भक्त नामदेव के बारे में कुछ यूँ ही लिखा हुआ है, पर उसमें उनके पंजाब आने का जिक्र नहीं है।

मरी हुई गाय वाली घटना:

मैकालिफ़ लिखता है कि नामदेव जी अपने एक मित्र ज्ञानदेव के साथ हिन्दू तीर्थों पर आए थे, दिल्ली भी आए। तब हिन्द का बादशाह मुहम्मद तुग़लक था। इसी बादशाह ने मरी हुई गाय जिंदा करने के लिए नामदेव को वंगारा था। पर पुस्तक ‘जनम साखी’ में ये घटना संन् 1380 की बताई गई है। जिस बादशाह ने नामदेव जी को कैद किया था उसका नाम ‘पैरो’ दिया गया है। दिल्ली के तख़्त पर उस वक्त फिरोजशाह तुग़लक था, संन 1351 से 1388 तक। मुहम्मद तुग़लक ने संन 1325 से 1351 तक राज किया था।

धुर दक्षिण की तरफ भी:

मैकालिफ के अनुसार नामदेव जी ज्ञानदेव के साथ धुर दक्षिण में भी गए। रामेश्वर, कल्पधारा से होते हुए धारा पहुँचे। वहाँ अवधीय नाग नाथ के मंदिर में से नामदेव को धक्के मार के निकाला गया था॥

साधु संगति

गज म्रिग मीन पतंग अलि, इकतु इकतु रोगि पचंदे।

माणस देही पंजि रोग, पंजे दूत कुसूतु करंदे।

आसा मनसा डाइणी, हरखु सोगु बहु रोग वधंदे।

मनमुख दूजै भाइ लगि, भंभलभूसे खाइ भवंदे।

सतिगुरु सचा पातिशाह, गुरमुख गाडी राहु चलंदे।

साध संगति मिलि चलणा, भजि गऐ ठग चोर डरंदे।

लै लाहा निजि घरि निबहंदे॥२०॥५॥ (भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: गज = हाथी। म्रिग = मृग, हिरन। मीन = मछली। अलि = भंवरा। इकतु = एक बार। इकतु इकतु रोगि = एक-एक रोग में। पचंदे = दुखी होते हैं।

देही = शरीर। पंजे दूत = पाँचों (कामादिक) वैरी। कसूत = विगाड़।

हरखु = खुशी। सोगु = ग़म, चिन्ता।

मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। दूजै भाइ = (परमात्मा को छोड़ के) और के प्यार में। लगि = लग के। भंभलभूसे = (जीवन सफर में) ठोकरें, उलझनें। खाइ = खा के। गाडी राहि = गड्डे की लीह पे।

लाहा = लाभ। निजि घरि = अपने असल घर में, प्रभु चरणों में।

क्या भक्त नामदेव दो हुए हैं?

भुलेखा कि नामदेव दो हुए हैं:

मैकालिफ ने भक्त जी का जनम संन् 1270 और देहांत 1350 में बताया है। पूरनदास ने ‘जनमसाखी’ में जनम 1363 और देहांत 1464 में लिखा है। मैकालिफ़ लिखता है कि उनका देहांत पंडरपुर में हुआ। ‘जनमसाखी’ वाला कहता है कि नामदेव जी का देहांत पंजाब के जिला गुरदासपुर के गाँव घुमान में हुआ। दोनों जगह भक्त जी की याद में ‘देहुरे’ बने हुए हैं। इससे कई सज्जन ये कहने लग पड़े हैं कि शायद भक्त नामदेव दो हुए हों और दोनों ही जाति के छींबे ही हों। ये शक पैदा करने वाले सज्जन जनम दोनों का ही बँबई प्रांत में मान रहे हैं।

भुलेखा डालने वाली उलझन:

इन लोगों की राह में एक नई उलझन ये भी पड़ रही है जो इनके शक को और पक्का कर रही है। भक्त जी के सारे शबदों (अभंगा) का संग्रह जो महाराष्ट्र में मिलता है, और जिसका नाम ‘गाथा’ है उसकी बोली मराठी है। पर, श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में नाम देव जी के जो शब्द दर्ज हैं उनमें से थोड़े ही हैं जिनमें मराठी के आम शब्दों का प्रयोग हुआ है, बाकी के शब्द भारत की सांझी बोली के ही हैं। इन सज्जनों को ये मुश्किल बनी हुई है कि महाराष्ट्र में जम-पल नामदेव ने ‘मराठी’ के अलावा यह दूसरी बोली कहाँ से सीख ली थी।

यहाँ हमने अब ये विचार करनी है कि क्या नामदेव नाम के दो व्यक्ति हुए हैं।....एक वो जो महाराष्ट्र में ही रहा और दूसरा नामदेव पहले नामदेव जी का ही सिख, जो पंजाब आ के बसा।

रमते संतों-साधों से मेल:

ये ऐतराज कोई खास वजनदार नहीं कि चूँकि महाराष्ट्र में ‘मराठी’ बोली के अलावा किसी और बोली के पढ़ाने का प्रबंध नहीं था इस वास्ते नामदेव सारे भारत में समझे जा सकने वाली बोली कहीं से सीख नहीं था सकता। सतिगुरु नानक देव जी अपने गाँव के पांधे के पास बहुत थोड़ा समय ही पढ़े और मौलवी के पास भी बहुत कम। पर उन्होंने जब 1507 में पहली ‘उदासी’ आरम्भ की तो पूरे आठ साल में भारत का चक्कर लगाया, बंगाल, आसाम और मद्रास भी गए, सिंगलाद्वीप भी पहुँचे, वापसी में बम्बई प्रांत में से गुजरे। यहीं तो उन्होंने भक्त नामदेव जी की सारी वाणी ली थी। अगर इन सारे प्रांतों के बाशिंदों के साथ सतिगुरु जी ने बातचीत नहीं करनी थी, उन्हे अपने विचार से अवगत नहीं कराना था, तो इतने लंबे और मुश्किल यात्राएं करनी, इतनी तकलीफें बर्दाश्त करनी; ये सब कुछ व्यर्थ ही था। दरअसल बात ये है कि तलवंडी के साथ के जंगल में भारत से दूर-दूर के इलाकों में से जो साधु आए रहते थे, उनके साथ सतिगुरु जी के बात-चीत विचार करने का मौका हमेशा मिला रहता था। इस तरह सहज-सुभाय ही भारत के बाकी प्रांतों की बोलियों से उनकी जान-पहचान होती गई। साधु लोग किसी एक जगह पर नहीं बैठे रहते। उनका धार्मिक निश्चय ही यही है कि जहाँ तक हो सके धरती का रटन किया जाए। जैसे कि वे पंजाब में चक्कर लगाते हैं वैसे ही भारत के अन्य इलाकों में भी जाते हैं। ये कुदरती बात है कि बंदगी वाले बंदे इन साधु लोगों को भी मिलते रहते हैं। सो, इसी तरह महाराष्ट्र में रहते हुए भी नामदेव जी की भारत की अन्य बोलियों के साथ जान-पहचान होती गई होगी। ये बात उस वक्त के अन्य साधुओं पर लागे होती है।

जीवन-आदर्श सारे देश के लिए सांझा:

जो जीवन-आदर्श ये भक्तजन लोगों के सामने रखना चाहते थे और जिस कुर्माग के विरुद्ध आवाज उठा रहे थे, उसका संबंध सारे ही भारत के साथ पड़ रहा था। कुदरती तौर पर हरेक भक्त ने यही कोशिश करनी थी कि जहाँ तक हो सके ‘बोली’ वही बरती जाए जो तकरीबन सारे ही भारत में समझी जा सके। सो जहाँ तक श्री गुरु ग्रंथ साहिब और भक्त नामदेव जी का संबंध है कोई ऐसा भ्रम करने की आवश्यक्ता नहीं है कि नामदेव जी के ये शब्द ‘मराठी’ के इलावा किसी और बोली में कैसे हो गए। इस बात में तो कोई शक नहीं कि नामदेव जी के शबदों में ‘मराठी’ के शब्द मौजूद हैं। फिर ये भी बताया जाता है कि भक्त जी की ‘गाथा’ में कई शब्द ऐसे हैं अगर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुए शबदों के साथ उनका मुकाबला करें तो ऐसा प्रतीत होता हैकि ये महाराष्ट्र की मराठी में से अनुवाद किए हुए हैं। पर ये जरूरीनहीं कि कोई दूसरा मनुष्य भक्त जी के शबदों का अनुवाद करता।

उस समय के हालात के अनुसार:

उस समय के हालात के अनुसार इन बातों का सभी भक्त प्रचार कर रहे थे और नामदेव जी भी करते रहे, वह तीन चार ही थे: 1. वही नीच जाति के भेदभाव के विरुद्ध, 2. कर्मकांड का पाज खोलना, 3. मूर्ति पूजा से हटा के लोगों को एक परमात्मा की भक्ति की तरफ प्रेरित करना। नामदेव जी महाराष्ट्र में ये प्रचार करते रहे। जब बाहर अन्य प्रांतों में दौरा किया, तो भी यही बातें व यही प्रचार था। स्वत: ही मराठी बोली वाले व दूसरी बोली वाले शबदों का भाव आपस में मिलता गया।

गुरु ग्रंथ साहिब में से गवाही:

जब हम भक्त नामदेव जी के बारे में श्री गुरु ग्रंथ साहिब में से मिल रही गवाही को ध्यान से विचारते हैं, तो यहाँ से दो नामदेव साबित नहीं हो सकते। भक्त कबीर जी और रविदास जी अपने वक्त को अन्य प्रसिद्ध भक्तों का भी वर्णन करते हैं। प्रतीत होता है कि चौदहवीं व पंद्रहवीं सदी में सारे भारत के अंदर नीच जाति के लोगों पर सदियों से ब्राहमणों के द्वारा हो रही अति की ज्यादती के विरुद्ध एक बगावत सी हो गई थी। चारों तरफ से निर्भय व निडर लोग इस अत्याचार के खिलाफ बोल उठे और लगे हाथ उन्होंने इस सारे ही भ्रम-जाल का पोल खोलना भी आरम्भ कर दिया। ये कुदरती था कि ये हम-ख्याल, शेर-मर्द आपस में एक-दूसरे की हामी भी भरते। भक्त कबीर और रविदास जी नामदेव जी के बाद के वर्षों में हुए। सो, उन्होंने बेणी और त्रिलोच आदि भगतों का वर्णन करते हुए नामदेव जी का हवाला दिया है। पर उन्होंने सिर्फ एक ही नामदेव जी का जिक्र किया है, शब्द ‘नामा’ अथवा ‘नामदेव’ ‘एकवचन’ में ही बरता है।

यहाँ ये भी कहा जा सकता है कि पंजाब वाले नामदेव का भक्त कबीर और रविदास जी को शायद पता ही ना लग सका हो। महाराष्ट्र वाले भक्त नामदेव जी के बारे में ये बात पक्की है कि उसके शब्द गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं, क्योंकि मराठी बोली प्रत्यक्ष मिलती है, खास तौर पर धनासरी राग के शब्द ‘पहिल पुरीऐ’ में। अगर कोई दूसरा नामदेव हुआ भी है, और उसके शब्द सतिगुरु जी ने दर्ज किए हैं, तो सतिगुरु जी को पक्की खबर होनी चाहिए कि नामदेव दो हैं। पर वे भी जहाँ-जहाँ वर्णन करते हैं, एक ही नामदेव का करते हैं। शब्द ‘नामदेव’ एक वचन में ही बरतते हैं। गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अरजन साहिब और भाट कलसहार; इन सबने नामदेव का वर्णन किया है, पर एक ही नामदेव का। सो, गुरु ग्रंथ साहिब में एक ही नामदेव की वाणी दर्ज है। वह कौन सा नामदेव? जो जाति का छींबा था, जिसे एक बार किसी मन्दिर में से निकाल दिया गया था, जिसको किसी सुल्तान ने गाय जीवित करने के लिए वंगारा था, और जिसने रोगी गाय का दूध निकाल के अपने गुरु-गोबिंद को पिलाया था।

साधु-संगति

जैसे सूआ उडत फिरत बन बन प्रति, जैसे ही बिरखि बैठे, तैसो फलु चाखई॥
पर बसि होइ, जैसी जैसीऐ संगति मिलै, सुणि उपदेसु, तैसी भाखा लै सुभाखई॥
तैसे चितु चंचल चपल, जल को सुभाउ, जैसे रंग संगि मिलै, तैसो रंगु राखई॥
अधम असाध, जैसे बारनी बिनास काल, साध संगि गंग मिले, सुजन भिलाखई॥१५५॥ (कबित भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: सूआ = (शुक) तोता। बन बन प्रति = हरेक जंगल में। बिरखि = वृक्ष पर। चाखई = चखता है।

पर बसि होइ = पराए वश हो के। सुणि = सुन के। भाखा = बोली। लै = सीख के।

चपल = चंचल। को = का। जल को = पानी का। संगि = साथ। राखई = धारण कर लेता है।

अधम = नीच। असाध = (अ+साध) बुरा। बारनी = शराब। बिनास = मौत, आत्मिक मौत, आचरण की गिरावट। काल = समय। मिलि = मिल के। सुजन = भला मनुष्य। भिलाखई = माना जाता है।

भक्त नामदेव जी और गुरु नानक देव जी

फरीद जी के शलोक गुरु अमरदास जी के पास–

सतिगुरु नानक देव जी और गुरु अमरदास जी की वाणी का परस्पर मिलान करके हम साबित कर चुके हैं कि गुरु नानक देव जी ने अपनी सारी वाणी, जो उन्होंने खुद ही इकट्ठी की थी, गुरु अंगद साहिब जी को दी थी और उनसे गुरु अमरदास जी को मिली थी। इसका भाव ये भी है कि सतिगुरु जी की अपनी वाणी के साथ भक्तों की भी सारी वाणी सिलसिलेवार हरेक गुरु-व्यक्ति को मिलती गई। यही कारण है कि हम फरीद जी के शलोकों में गुरु अमरदास जी के भी ऐसे शलोक देखते हैं जो तभी उचारे जा सकते हैं अगर उनके पास फरीद जी के शलोक मौजूद थे।

नामदेव जी की वाणी गुरु नानक देव जी के पास:

अब हम ये देखेंगे कि गुरु नानक देव जी और गुरु अमरदास जी के पास नामदेव जी की वाणी मौजूद थी।

सोरठि राग में नामदेव जी:

जब देखा तब गावा॥ तउ जन धीरजु पावा॥१॥ नादि समाइलो रे सतिगुरु भेटिले देवा॥१॥ रहाउ॥ जह झिलिमिलिकारु दिसंता॥ तह अनहद सबद बजंता॥ जोती जोति समानी॥ मै गुर परसादी जानी॥२॥ रतन कमल कोठरी॥ चमकार बीजुल तही॥ नेरै नाही दूरि॥ निज आतमै रहिआ भरपूरि॥३॥ जह अनहत सूर उज्यारा॥ तह दीपक जलै छंछारा॥ गुर परसादी जानिआ॥ जनु नामा सहज समानिआ॥४॥१॥ (पन्ना ६५६–६५७)

भक्त नामदेव जी के इस शब्द के साथ सतिगुरु नानक देव जी का नीचे दिया हुआ शब्द मिला के पढ़ें, ये भी सोरठि राग में ही है।

सोरठि महला १ घरु ३    जा तिसु भावा तद ही गावा॥ ता गावे का फलु पावा॥ गावे का फलु होई॥ जा आपे देवै सोई॥१॥ मन मेरे गुर बचनी निधि पाई॥ ता ते सच महि रहिआ समाई॥ रहाउ॥ गुर साखी अंतरि जागी॥ ता चंचल मति तिआगी॥ गुर साखी का उजीआरा॥ ता मिटिआ सगल अंध्यारा॥२॥ गुर चरनी मनु लागा॥ ता जम का मारगु भागा॥ भै विचि निरभउ पाइआ॥ ता सहजै कै घरि आइआ॥३॥ भणति नानकु बूझै को बीचारी॥ इसु जग महि करणी सारी॥ करणी कीरति होई॥ जा आपे मिलिआ सोई॥४॥१॥१२॥ (पन्ना ५९९)

दोनों शबदों का समानांतर अध्ययन:

दोनों शबदों को मिला के ध्यान से पढ़ें। इनमें कई मजेदार सामनताऐं मिलती हैं। दोनों शबदों की चाल एक जैसी है, बहुत सारे शब्द समान हैं, विचार भी दोनों शबदों में एक ही है। हाँ, जिस विचारों को भक्त नामदेव जी ने गहरे छुपे हुए ढंग में बयान किया था, उनको सतिगुरु नानक देव जी ने सादा और सहज शब्दों में प्रकट कर दिया है; जैसे ‘झिलमिलिकारु’ – ‘चंचल मति’, ‘अनहत सबद’– ‘गुर साखी का उजीआरा’ आदि।

एक फर्क भी:

इन शबदों में एक फर्क भी दिखता है। नामदेव जी ने अपने शब्द में ये बताया है कि सतिगुरु के मिलने से मेरे मन में एक सुंदर तब्दीली पैदा हो गई है। ज्यादा जोर गुरु की मेहर के ऊपर है और मन की नई तब्दीली पर। गुरु कैसे मिला? ये बात उन्होंने इशारे मात्र ही ‘रहाउ’ की तुक में बताई है ‘सतिगुरु भेटिले देवा’ – मुझे प्रभु देव ने सतिगुरु मिला दिया है। सतिगुरु नानक देव जी ने इशारे-मात्र कहे ख्याल को अच्छी तरह खुले शब्दों में बयान कर दिया है कि ये सारी मेहर परमात्मा की ही होती है, तब ही गुरु मिलता है।

‘जा तिसु भावा’।

‘जा आपे देवै सोई’।

‘जा आपे मिलिआ सोई’।

यहाँ से यकीनी निर्णय:

दोनों शबदों को मिला के पढ़ने पर ये बात स्पट हो जाती है कि सतिगुरु नानक देव जी ने ये शब्द भक्त नामदेव जी के शब्द को अच्छी तरह से स्पष्ट करने के लिए लिखा है। सतिगुरु जी ने सारे भारत में चक्कर लगाया था, जिसको हम उनकी पहली ‘उदासी’ कहते हैं। दक्षिण में भी गए। नामदेव जी सूबा बंबई के जिला सतारा के नगर पंडरपुर में ही बहुत समय रहे, वहीं उनका देहांत हुआ। सारा हिन्दू-भारत मूर्ति-पूजा में मस्त था, कहीं विरले ही ईश्वर के प्यारे थे जो एक अकाल की बँदगी का मध्यम दीपक जला रहे थे। ये बात स्वभाविक थी कि दक्षिण में जा के अपने हम-ख्याल ईश्वरीय आशिक का वतन देखने की तमन्ना गुरु नानक साहिब के मन में पैदा हो। और ये बात भी कुदरती थी कि उस नगर में जा के सतिगुरु जी वहाँ भक्त नामदेव जी की वाणी इकट्ठी करते। इस बात का प्रत्यक्ष सबूत ये दोनों शब्द हैं जो ऊपर दिए गए हैं। ये दोनों सबब से राग सोरठि में दर्ज नहीं हो गए, सबबसे दोनों की शब्दावली और ख्याल आपस में नहीं मिल गए। ये सब कुछ सतिगुरु नानक देव जी ने खुद ही किया। भक्त जी की सारी वाणी सतिगुरु जी खुद ही ले के आए, और अपनी वाणी के साथ संभाल के रखी। भारत सारा मूर्ति-पूजकों से भरा पड़ा था। अगर नामदेव जी भी मूर्ति-पूज होते तो इनके लिए सतिगुरु जी को कोई खास आकर्षण नहीं होना था।

2. अब लें भैरउ नामदेव जी:

भैरउ राग में नामदेव जी लिखते हैं:

मै बउरी मेरा रामु भतारु॥ रचि रचि ता कउ करउ सिंगारु॥१॥ भले निंदउ भले निंदउ भले निंदउ लोगु॥ तनु मनु राम पिआरे जोगु॥१॥ रहाउ॥ बादु बिबादु काहू सिउ न कीजै॥ रसना राम रसाइनु पीजै॥२॥ अब जीअ जानि ऐसी बनि आई॥ मिलउ गुपाल नीसानु बजाई॥३॥ उसतति निंदा करै नरु कोई॥ नामे स्रीरंगु भेटल सोई॥४॥४॥

नामदेव जी के इस शब्द से इसी ही राग में गुरु अमरदास जी का निम्न-लिखित शब्द मिला के पढ़ें। दोनों के समानांतर अध्ययन से ये स्पष्ट हो जाता है कि सतिगुरु अमरदास जी के पास नामदेव जी का शब्द मौजूद था।

भैरउ महला ३॥ मै कामणि मेरा कंतु करतारु॥ जेहा कराए तेरा करी सीगारु॥१॥ जां तिसु भावै तां करे भोगु॥ तनु मनु साचे साहिब जोगु॥१॥ रहाउ॥ उसतति निंदा करे किआ कोई॥ जां आपे वरतै एको सोई॥२॥ गुर परसादी पिरम कसाई॥ मिलउगी दइआल पंच सबद वजाई॥३॥ भनति नानकु करे किआ कोई॥ जिस नो आपि मिलावै सोई॥४॥४॥

प्रत्यक्ष समानता:

इन दोनों शबदों में तो इतनी प्रत्यक्ष समानता है कि तलाशने के लिए ज्यादा मेहनत करने की आवश्यक्ता नहीं। दोनों में स्मरण से बने जीवन के दो पहलू दिए हुए हैं, तस्वीर के दो तरफ दिखाए गए हैं। नामदेव जी कहते हैं कि अब मुझे लोगों की निंदा-स्तुति की परवाह नहीं रही। सतिगुरु अमरदास जी फरमाते हैं कि लोगों की निंदा-स्तुति की इसलिए परवाह नहीं रही क्योंकि निंदा-स्तुति करने वालों में भी प्रभु स्वयं ही दिखाई दे गया है, अब कहीं भी परायापन नहीं लगता।

इन शबदों की शब्दावली की और विचारों की गहरी सांझ कोई सबब से नहीं बन गई। गुरु अमरदास जी के पास नामदेव जी का ये शब्द मौजूद था।

3. इसी ही राग में से एक और शब्द:

भेरउ नामदेव॥ संडा मरका जाइ पुकारे॥ पढ़ै नही हम ही पचि हारे॥ राम कहै कर ताल बजावै चटीआ सभै बिगारे॥१॥ राम नामा जपिबो करै॥ हिरदै हरि जी को सिमरनु धरै॥१॥ रहाउ॥ बसुधा बसि कीनी सभ राजे बिनति करै पटरानी॥ पूतु प्रहिलादु कहिआ नही मानै, तिनि तउ अउरै ठानी॥२॥ दुसट सभा मिलि मंतर उपाइआ, करसह अउध घनेरी॥ गिरि तर जन जुआला भै राखिओ, राजा रामि माइआ फेरी॥३॥ काढि खड़गु कालु भै कोपिओ, मोहि बताउ जु तुहि राखै॥ पीत पीतांबर त्रिभवण धणी, थंभ माहि हरि भाखै॥४॥ हरणाखसु जिनि नखह बिदारिओ, सुर नर कीए सनाथा॥ कहि नामदेउ हम नरहरि धिआवहि, रामु अभैपद दाता॥५॥३॥९॥

जिस मनुष्य ने भक्त प्रहलादि की साखी कभी सुनी ना हो, उसको नामदेव जी का शब्द पढ़ के असल साखी समझने के लिए कई बातों के पूछने की आवश्यक्ता रह जाती है। वह सारे प्रश्नों के उक्तर गुरु अमरदास जी ने अपने एक शब्द में दे दिए हैं। वह भी इसी ही राग में है।

भैरउ महला ३॥ मेरी पटीआ लिखहु हरि गोविंद गोपाला॥ दूजै भाइ फाथे जम जाला॥ सतिगुरु करे मेरी प्रतिपाला॥ हरि सुख दाता मेरै नाला॥१॥ गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै॥ सासना ते बालकु गमु न करै॥१॥ रहाउ॥ माता उपदेसै प्रहिलादु पिआरे॥ पुत्र राम नामु छाडहु जीउ लेहु उबारे॥ प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ॥२॥ संडा मरका सभि जाइ पुकारे॥ प्रहिलाद आपि विगड़िआ सभि चाटड़े विगाड़े॥ दुसट सभा महि मंत्र पकाइआ॥ प्रहलाद का राखा होइ रघुराइआ॥३॥ हथि खड़गु करि धाइआ अति अहंकारि॥ हरि तेरा कहा तुझु लए उबारि॥ खिन महि भैआन रूपु निकसिआ थंम्ह उपाड़ि॥ हरनाखसु नखी बिदारिआ प्रहिलादु लीआ उबारि॥४॥ संत जना कै हरि जीउ कारज सवारे॥ प्रहलाद जन के इकीह कुल उधारे॥ गुर कै सबदि हउमै बिखु मारे॥ नानक राम नामि संत निसतारे॥५॥१०॥२०॥

दोनों शबदों में समानता:

ये साफ है कि इन दोनों में कई तुके और कई शब्द समान हैं। अब दोनों की ‘रहाउ’ की तुक पढ़ कर देखें;

‘राम नामा जपिबो करै॥ हिरदै हरि जी को सिमरनु करै॥’ (नामदेव)

‘गुर उपदेसि प्रहिलादु हरि उचरै॥ सासना ते बालकु गमु न करै॥’ (महला ३)

नामदेव जी ने जो बात खोल के नहीं बताई, गुरु अमरदास जी ने कैसे सुंदर शब्दों में बयान की है कि गुरु के उपदेश की इनायत से प्रहलाद स्मरण नहीं छोड़ता और हरणाकश के डरावे से नहीं डरता।

नामदेव जी के शब्द का दूसरा ‘बंद’ पढ़ के गुरु अमरदास जी के शब्द का भी दूसरा ‘बंद’ पढ़ें;

‘बसुधा बसि कीनी सभ राजे, बिनती करै पटरानी॥
पूतु प्रहिलादु कहिआ नही मानै, तिनि कउ अउरै ठानी॥२॥’ (नामदेव जी)

‘माता उपदेसै प्रहिलाद पिआरे॥ पुत्र राम नामु छोडहु जीउ लेहु उबारे॥
प्रहिलादु कहै सुनहु मेरी माइ॥ राम नामु न छोडा गुरि दीआ बुझाइ॥२॥ (महला ३)

देखिए, कैसे हिलौरे से मन में आ जाते हैं। नामदेव जी के बरते हुए शब्द बिनती को किस तरह गुरु अमरदास जी ने प्यार भरे शब्दों में समझाया है।

यकीनी बात:

ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि नामदेव जी का यह शब्द गुरु अमरदास जी के सामने मौजूद है। ये विचार बिल्कुल ही गलत है कि भक्तों के शब्द गुरु अरजन साहिब ने इकट्ठे किए थे। सतिगुरु नानक देव जी ने सारे भारत में चक्कर लगा के भक्तों की वाणी एकत्र की थी, नामदेव जी की वाणी भी साहिब गुरु नानक देव जी ही ले के आए थे, तभी तो गुरु अमरदास जी को इनके ऊपर लिखे दो शबदों के साथ अपना शब्द उचारने का मौका मिला।

नामदेव जी का राजा राम:

नोट: जो सज्जन ये ख्याल बनाए बैठे हैं कि नामदेव जी किसी समय किसी अवतार के पुजारी थे, वे भक्त जी के इसी आखिरी शब्द को ध्यान से पढ़ें। भक्त प्रहिलाद की साखी हिन्दू विचार के अनुसार सतियुग में हुई है, पर नामदेव जी लिखते हैं “राजा रामि माइआ फेरी’। यहाँ नामदेव जी अवतार श्री राम चंद्र जी का वर्णन नहीं करते, क्योंकि वह तो त्रेते युग में प्रहलाद भक्त के काफी बाद में हुए थे। नामदेव जी का ‘राम’ वह है जो हर समय हर जगह मौजूद है।

भक्त नामदेव जी का बीठुल

शब्द ‘बीठुल’ से भुलेखा:

भक्त नामदेव जी के शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब में तब ही दर्ज हो सकते थे, जो इनका आशय सतिगुरु जी के आशय से पूरा-पूरा मिलता था। गुरु-आशय के साथ मेल ना खाने वाली वाणी गुरमति की दृष्टि से ‘कच्ची वाणी’ कही जाएगी। ‘कच्ची वाणी’ की गुरु ग्रंथ साहिब में कहीं भी जगह नहीं हो सकती। नहीं तो समूचे तौर पर इसके लिए ‘गुरु’ पद बरता नहीं जा सकेगा, क्योंकि ‘गुरु’ तो सिर्फ वही है जिसमें कमी की कोई गुंजायश नहीं, जो हर तरफ से संपूर्ण, सुंदर और त्रुटि हीन है। सो, भक्त नामदेव की किसी कच्ची अवस्था की कोई कविता श्री गुरु ग्रंथ साहिब में नहीं मिल सकती।

यह मुमकिन हो सकता है कि नामदेव जी ने कभी किसी समय किसी मूर्ति की पूजा की हो, जिसका नाम भी चाहे ‘बीठल’ ही हो। पर हमारा सिदक सिर्फ इस बात पर है कि नामदेव जी की मूर्ति-पूज अवस्था की किसी कच्ची वाणी को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में जगह नहीं मिल सकती थी, नामदेव जी ने चाहे वह किसी भी कारण करके लिखी हो। हमारा दूसरा विश्वास यह है कि नामदेव को किसी मूर्ति-पूजा में से परमात्मा नहीं मिला, किसी ठाकुर को दूध पिलाने से परमात्मा के दर्शन नहीं हुए। नामदेव जी के शब्द ‘बीठुल’ के इस्तेमाल से ये अंदाजा लगाना कि नामदेव ‘बीठल’ मूर्ति का पुजारी था, भारी भूल है, क्योंकि ये शब्द तो सतिगुरु जी ने भी बरता है। क्या इसी तरह सतिगुरु जी भी किसी समय बीठुल-मूर्ति के पुजारी कहे जाएंगे? देखें;

नामु नरहर निधानु जा कै, रस भोग एक नराइणा॥
रस रूप रंग अनंत बीठल सासि सासि धिआइणा॥ (रामकली महला ५ छंत)

सभ दिन के समरथ पंथ बिठुले हउ बलि बलि जाउ॥
गावन भावन संतन तोरै चरन उवा कै पाउ॥१॥ रहाउ॥१॥३८॥६॥४४॥

(देवगंधारी महला ५ घरु ७)

भइओ किरपालु सरब को ठाकुरु, सगरो दूखु मिटाइओ॥
क्हु नानक हउमै भीति गुरि खोई, तउ दइआरु बीठलो पाइओ॥४॥११॥६१॥

(सोरठि महला ५)

ऐसो परचउ पाइओ॥
करी क्रिपा दइआल बीठुलै, सतिगुरु मुझहि बताइओ॥१॥ रहाउ॥१२३॥ (गउड़ी महला ५)

भगतन की टहल कमावत गावत, दुख काटे ता के जनम मरन॥
जा कउ भइओ क्रिपालु बीठुला, तिनि हरि हरि अजर जरन॥३॥१३॥ (सारंग महला ५)

जीवतु राम के गुण गाइ॥
करहु क्रिपा गोपाल बीठुले, बिसरि न कब ही जाइ॥१॥ रहाउ॥९८॥ (सारंग महला ५)

बीठुल का स्वरूप:

हम लोगों की कहानियाँ सुन-सुन के नामदेव जी को बीठुल-मूर्ति का पुजारी बनाए जा रहे हैं। पहले तो ये देखें कि जिस ‘बीठुल’ का नामदेव जी जिक्र करते हैं, उसका वे स्वरूप वे क्या बताते हैं।

1. ईभै बीठलु, ऊभै बीठलु, बीठल बिनु संसारु नही॥
...थान थनंतरि नामा प्रणवै, पूरि रहिउ तू सरब मही॥४॥२॥ (आसा)

2. कउणु कहै किणि बूझीऐ रमईआ आकुलु री बाई॥१॥ रहाउ॥
...जिउ आकासै घड़ूआलो म्रिग त्रिसना भरिआ॥
नामे चे सुआमी बीठलो, जिनि तीनै जरिआ॥३॥२॥ (गूजरी)

3. तेरा नामु रूढ़ो, रूपु रूढ़ो, अति रंग रूढ़ो, मेरो रामईआ॥१॥ रहाउ॥ (प: ६९३)
साधिक सिध सगल मुनि चाहहि, बिरले काहू डीठुला॥
स्गल भवण तेरो नामु बालहा, तिउ नामे मनि बीठुला॥५॥३॥ (धनासरी)

नोट: यहाँ ‘बीठुल’ से कृष्ण-मूर्ति का भाव नहीं, क्योंकि ‘रहाउ’ की तुक में उसको ‘रमईआ’ कह के संबोधन करते हैं। जिसको ‘रमईआ’ कहते हैं, उसको आखिरी ‘बंद’ में ‘बीठुला’ कहा गया है। नामदेव जी का ‘रमईआ’ और ‘बीठुल’ एक ही है। अगर आप कृष्ण उपासक होते तो उसको ‘रमईआ’ ना कहते।

4. मो कउ तारि ले रामा तारि ले॥
मै अजानु जनु तरिबो न जानउ, बाप बीठुला बाह दे॥१॥ रहाउ॥३॥ (गौंड महला ६७३)

नोट: नामदेव का ‘बीठल’ सर्व व्यापी ‘राम’ है, जो ध्रुव और नारद आदि भक्तों को उच्च पदवी देने वाला है।

देखिए गौंड राग में सारा शब्द:

5. आजु नामे बीठलु देखिआ मूरख को समझाऊरे॥
...नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति॥४॥३॥७॥ (बिलावलु गौंड, पंना 874)

नोट: नामदेव का बीठल ना किसी खास मन्दिर में है ना मसजिद में।

6. लोभ लहरि अति नीझर बाजै॥ काइआ डूबै केसवा॥१॥ संसारु समुंदे तारि गुोबिंदे॥ तारि लै बाप बीठुला॥१॥ रहाउ॥ अनिल बेड़ा हउ खेवि न साकउ॥ तेरा पारु न पाइआ बीठुला॥२॥ होहु दइआलु सतिगुरु मेलि तू, मो कउ पारि उतारे केसवा॥३॥ नामा कहै हउ तरि भी न जानउ॥ मो कउ बाह देहि बाह देहि बीठुला॥४॥१॥२॥ (बसंत, पंना ११९५)

नोट: नामदेव का ‘केसव’, गोबिंद और बीठल एक ही है, जिसके आगे अरदास करता है कि मुझे गुरु मिला।

7. मो कउ तूं बिसारि तू न बिसारि॥ तू न बिसारे रामईआ॥१॥ रहाउ॥
...सूदु सूदु करि मारि उठाइओ कहा करउ बाप बीठुला॥१॥ (मलार)

नोट: अगर नामदेव जी किसी बीठल मूर्ति के पुजारी होते, तो वह पूजा आखिर तो बीठुल के मन्दिर में जा के ही हो सकती थी और बीठुल के मन्दिर में रोज जाने वाले नामदेव को ये पांडे धक्के क्यों मारते? इस मन्दिर में से धक्के खा के नामदेव ‘बीठुल’ के आगे पुकार कर रहा है, ये मंदिर ‘बीठुल’ का ही होगा। पर भक्त नामदेव जी अपने उस ‘बीठल’ के आगे प्रार्थना करता है जिसको वह ‘रमईआ’ भी कहता है। ‘बीठुल’ मूर्ती कृष्ण जी की है। किसी एक अवतार की मूर्ति का पुजारी अपने ईष्ट को दूसरे अवतार के नाम के साथ याद नहीं कर सकता। यहाँ से धक्के पड़ने से ये बात तो साफ है कि इससे पहले नामदेव किसी मन्दिर में नहीं था गया, ना ही किसी मन्दिर में रखी किसी बीठल-मूर्ति का वह पुजारी था।

8. ऐसो राम राइ अंतरजामी॥ जैसे दरपन माहि बदन परवानी॥१॥ रहाउ॥ बसै घटा घट लीप न छीपै॥ बंधन मुकता जातु न दीसै॥१॥ पानी माहि देखु मुखु जैसा॥ नामे को सुआमी बीठलु ऐसा॥२॥१॥ (कानड़ा, पंना १३१८)

नोट: नामदेव जी का ‘बीठुल’ हरेक जीव के अंदर बसता हुआ भी माया के बँधनो में कभी नहीं फसा।

दक्षिण में लोग किसी मन्दिर में स्थापित ‘बीठुल’ को पूजते होंगे, जिसको वे ईट पर बैठा विष्णू व कृष्ण समझते हैं। पर हरेक कवि को अधिकार है कि किसी पुराने शब्द को नए अर्थों में भी बरत ले। जैसे गुरु गोबिंद सिंह जी ने शब्द ‘भगौती’ को अकाल-पुरख के अर्थ में बरता है। नामदेव जी इस शब्द में शब्द ‘बीठुल’ का अर्थ ‘ईट पर बैठा कृष्ण नहीं करते, उनका भाव है ‘वह प्रभु जो माया के प्रभाव से परे है’। शब्द ‘राम’ और ‘बीठुल’ को एक ही भाव में बरत रहे हैं। (विष्ठल, विस्थल)। वि-परे, मासया के प्रभाव से परे। सथल-स्थल = टिका हुआ।

9. जिउ प्रगासिआ माटी कुंभेउ॥ आप ही करता बीठुलु देउ॥२॥४॥ (प्रभाती, पंना: १३५१)

नामदेव का ‘बीठुल’ प्रभु खुद ही सबको पैदा करने वाला है।

बस! ये नौ शब्द हैं नामदेव जी के, जिनमें उन्होंने शब्द ‘बीठुल’ प्रयोग किया है, कहीं भी ये शक करने की गुंजायश नहीं हो सकी कि नामदेव जी किसी मूर्ति का वर्णन कर रहे हैं।

पाठक सज्जन ये बात भी याद रखें कि अगर 9 बार शब्द ‘बीठुल’ बरतने से नामदेव पर मूर्ति-पूजक होने का आरोप लगता है तो श्री गुरु अरजन देव जी ने भी यही शब्द 6 बार प्रयोग किया है।

नामदेव और मूर्ति पूजा:

पर हमने अभी ये भी देखना है कि मूर्ति-पूजा के बारे में नामदेव जी के अपने क्या ख्याल हैं।

1. सतिगुरु मिलै त सहसा जाई॥ किसु हउ पूजउ दूजा नदरि न आई॥३॥ एको पाथर कीजै भाउ॥ दूजै पाथर धरीऐ पाउ॥४॥ जे ओहु देउ त ओहु भी देवा॥ कहि नामदेउ हम हरि की सेवा॥५॥१॥ (गूजरी)

2. भेरउ भूत सीतला धावै॥ खर बाहन उहु छार उडावै॥१॥ हउ तउ एक रमईआ लै हउ॥ आन देव बदलावनि दै हउ॥१॥ रहाउ॥६॥ (गौंड)

3. हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीति॥ नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति॥४॥३॥७॥ (गौंड)

नामदेव जी का ईष्ट:

नामदेव जी किस ईष्ट के उपासक थे? ये निर्णय भी हमनें उन्हीं की वाणी से करना है।

1. कहा करउ जाती कहा करउ पाती॥
....राम को नामु जपउ दिन राती॥१॥ रहाउ॥
...भगति करउ हरि के गुन गावउ॥
...आठ पहर अपना खसमु धिआवउ॥३॥३॥ (आसा नामदेव)

2. हमरो करता रामु सनेही॥ ......
...क्रिपा करी जन अपुने ऊपरि, नामदेव हरि गुन गाए॥४॥१॥ (धनासरी)

3. दीन का दइआलु माधो गरब परहारी॥
...चरन सरन नामा बलि तिहारी॥२॥५॥ (धनासरी)

4. मूरख नामदेउ रामहि जानै॥२॥१॥ (टोडी)

5. पतित पवित भए रामु करत ही॥ रहाउ॥२॥ (टोडी)

6. नामे चे सुआमी बखसंद तूं हरी॥३॥१॥ (तिलंग)

जिस माधो, राम, हरि और अल्लाह को नामदेव जी अपना ईष्ट जान के स्मरण करते हैं, उसके स्वरूप के बारे में कहते हैं: वह हर जगह मौजूद है; सारा जगत उससे बना है और उसका आसरा लेकर ही जगत की माया का प्रभाव दूर हो सकता है। वह सारे जहान का मालिक है;

1. एक अनेक बिआपक पूरक जत देखउ तत सोई॥ ...
...घट घट अंतरि सरब निरंतरि केवल एक मुरारी॥४॥१॥ (आसा)

2. पहिल पुरसाबिरा॥ अथोन पुरसादमरा॥ अस गा अस उस गा॥
... हरि का बागरा नाचै पिंधी महि सागरा॥१॥ रहाउ॥
... भ्रमि भ्रमि आए तुम चे दुआरा॥ .. ... ...
हो जी आला ते निवारणा जम कारणा॥३॥४॥ (धनासरी)

3. नीकी तेरी बिगारी आले तेरा नाउ॥ रहाउ॥
... ... ... ...
चंदी हजार आलम एकल खानां॥३॥७॥ (तिलंग)

इस ईष्ट की प्राप्ति का साधन:

इस परमात्मा के नाम-जपने की दाति, नामदेव जी लिखते हैं कि सतिगुरु और साधु संगति से ही हमें प्राप्त हुई है;

1. छीपे के घरि जनमु दैला, गुर उपदेसु भैला॥
... संता कै परसादि नामा हरि भेटुला॥२॥५॥ (आसा)

2. नादि समाइले रे, सतिगुरु भेटिले देवा॥ रहाउ॥ ...
... गुर परसादी जानिआ॥ जनु नामां सहज समानिआ॥४॥१॥ (सोरठि)

3. निज भाउ भइआ भ्रमु भागा॥ गुर पूछे मनु पतीआगा॥२॥ ...
...गुर चेले है मनु मानिआ॥ जन नामै ततु पछानिआ॥३॥३॥ (सोरठि)

4. संता मधे गोबिंदु आछै॥४॥३॥ (टोडी)

5. सफल जनमु मो कउ गुरि कीना॥१॥
...गिआन अंजनु मो कउ गुरि दीना॥ (बिलावल)

6. नामदेउ नराइनु पाइआ॥
... गुरु भेटत अलखु लखाइआ॥३॥४॥ (गौंड)

भक्त कबीर जी, रविदास जी और सतिगुरु जी की गवाही:

भक्त कबीर जी, रविदास जी और सतिगुरु जी भी यही गवाही देते हैं कि नामदेव जी पर प्रभु की ही कृपा हुई थी, गुरु दर से ही प्राप्ति हुई थी;

1. मागउ काहि रंक सभ देखउ, तुम ही ते मेरो निसतार॥१॥
...जैदेउ नामा बिप सुदामा, तिन कउ क्रिपा भई है अपार॥२॥७॥ (बिलावल कबीर जी)

2. ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै॥ ... नामदेव कबीर तिरलोचन सधना सैन तरै॥ (मारू रविदास जी)

3. गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि, नामदेउ मनु लीणा॥ ....आढ दाम को छीपरो होइओ लाखीणा॥१॥२॥ (आसा महला ५)

4. नामा छीबा कबीर जुोलाहा पूरे गुर ते गति पाइ॥ ...ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि, हउमै जाति गवाई॥ .... सुरि नर तिन की बाणी गावहि, कोइ न मेटै भाई॥३॥५॥२२॥ (सिरी राग महला ३)

5. नामा जैदेउ कंबीरु त्रिलोचन, अउजाति रविदासु चमिआरु चमईआ॥ ... जो जो मिलै साधू जन संगति, धनु धंना जटु सैणु मिलिआ हरि दईआ॥७॥४॥ (बिलावल महला ४)

6. कलिजुग नामु प्रधानु पदारथु भगत जना उधरे॥ ...नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु, सभि दोखि गए चमरे॥ ...गुरमुखि नामि लगे से उधरे, सभि किलबिख पाप टरे॥२॥१॥ (मारू महला ४)

7. साध संगि नानक बुधि पाई, हरि कीरतनु आधारो॥ ...नामदेउ त्रिलोचनु कबीर दासरो, मुकति भइओ चमिआरो॥२॥१॥१०॥ (गूजरी महला ५)

8. नामदेअ प्रीति लई हरि सेती, लोकु छीपा कहै बुलाइ॥ ...खत्री ब्राहमण पिठि दे छोडे, हरि नामदेउ लीआ मुखि लाइ॥३॥१॥८॥ (सूही महला ४)

9. कबीर धिआइओ एक रंग॥ नामदेव हरि जीउ बसहि संगि॥ ....रविदास धिआए प्रभ अनूप॥ गुरू नानक देव गोविंद रूप॥८॥१॥ (बसंत महला ५ घरु१)

10. गुण गावै रविदासु भगत जैदेव त्रिलोचन॥ ... नामा भगतु कबीरु सदा गावहि समलोचन॥ (कल्यसहार, सवईए महले पहले के)

इन उपरोक्त लिखे प्रमाणों में एक मजेदार बात ये है कि किसी भक्त अथवा सतिगुरु जी ने कहीं भी ये नहीं कहा कि जितना समय नामदेव बीठल-मूर्ति की पूजा करता रहा उसका कुछ ना बना। सिर्फ यही वर्णन है कि गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण करके नामदेव जी का भी उद्धार हो गया, भले ही लोग उसे नीच जाति का ही कहते थे।

नामदेव जी की पहली अवस्था:

नामदेव जी की सारी वाणी में 10 शब्द ऐसे हैं जिनको पढ़ के कई सज्जनों ने टीके लिखते हुए जल्दबाजी में ये कह दिया कि नामदेव जी इन शबदों में अपनी पहले की मूर्ति-पूजा वाली अवस्था का वर्णन करते हैं। हम आरम्भ में ही कह चुके हैं कि नामदेव पहले मूर्ति-पूजक रहा हो या ना रहा हो, इस बात पर हमारा कोई झगड़ा नहीं। हम सिर्फ इस बात पर जोर देते हैं कि हमारे दीन-दुनिया के रहबर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का कोई छोटा सा भी अंश ऐसा नहीं हो सकता, जिसमें कहीं भी कोई रक्ती भर भी कच्ची वाणी का अंश हो। सतिगुरु नानक पातशाह के ज्ञान-सूर्य के चमकने के लिए किसी और गवाही व रौशनी की आवश्यक्ता नहीं थी कि किसी नामदेव की मूर्ति-पूज अवस्था की कविता दर्ज की हो। फिर भी, अपने पाठकों की तसल्ली के लिए अब हम सिलसिलेवचार उन 10 शबदों पर विचार करेंगे जिस से नामदेव जी के मूर्ति-पूजक अवतार-पूजक होने का भुलेखा पड़ सकता है।

कृष्ण भक्ति का भुलेखा:

1. गउड़ी–देवा पाहन तारीअले॥ राम कहत जन कस न तरे॥१॥ रहाउ॥ तारीले गनिका बिनु रूप कुबिजा बिआधि अजामलु तारीअले॥ चरन बधिक जन तेऊ मुकति भए, हउ बलि बलि जिन राम कहे॥१॥ दासी सुत जुन बिदरु सुदामा, उग्रसैन कउ राजु दीए॥ जप हीन तप हीन कुल हीन क्रम हीन, नामे के सुआमी तेऊ॥ तरे॥२॥१॥ (गउड़ी, पंना ३४५)

नामदेव हिन्दू थे, लोगों के लिए चाहे नीच जाति के थे। हिन्दू भाईचारे ने ही उन्हें शूद्र कहना था। हिन्दुओं में पल के धर्म संबंधी साखियाँ भी उन्होंने स्वभाविक तौर पर हिन्दू अवतारों व महापुरुषों से ही लेनी थी। जिस साखियों की ओर यहाँ इशारा किया गया है वह ज्यादातर कृष्ण जी के साथ संबंध रखती हैं; पर, ‘पाहन तारीअले’ वाली साखी श्री रामचंद्र जी की है। फिर, ये भी कहते हैं कि ‘हउ बलि बलि जिस राम कहे’। सो नामदेव जी इनमें से किसी खास एक के ‘अवतार-रूप’ के पुजारी नहीं थे। इनके द्वारा उद्धार हुए भक्तों को परमात्मा की मेहर का पात्र समझते हैं, तभी कहते हैं, ‘राम कहत जन कस न तरे’।

2. माली गउड़ा– मेरो बापु माधउ तू धनु केसौ सांवलीओ बीठुलाइ॥१॥ रहाउ॥ कर धरे चक्र बैकुंठ ते आए, गज हसती के प्रान उधारीअले॥ दुहसासन की सभा द्रोपती, अंबर लेत उबारीअले॥१॥ गोतम नारि अहलिआ तारी, पावन केतक तारीअले॥ ऐसा अधमु अजाति नामदेउ, तउ सरनागति आईअले॥२॥२॥ (पंना ९८८)

इस शब्द का हवाला दे के गत-वाणी के विरोधी सज्जन जी लिखते हैं कि इस में ‘कृष्ण जी की साफ तौर पर स्तुति की गई है और ये माना है जो ईश्वर के हाथ में गदा, संख आदि शस्त्र हैं और उसकी मूर्ति है।

आगे शीर्षक ‘विष्णु-भक्ति’ तहत हमने नामदेव जी का मारू राग का शब्द दे के काफी खुले तौर पर विचार रखे हैं कि नामदेव जी ने ये शब्द ‘संख चक्र’ आदि क्यों बरते हैं। इस शब्द के संबंध में एक और बात भी सोचने वाली है। भक्त जी घर बैठे खाली दिल बहलाने की खातिर नहीं लिख रहे। शब्द की अंदरूनी गहराई में जाकर देखें। उच्च जाति वालों से परेशानियां आ रही हैं, इस ज्यादती को बर्दाश्त करने के लिए पिता प्रभु को कहते हैं: सदके! पिता, तो क्या हुआ जो मैं नीच हूँ नीच जाति वाला हूँ? क्या गौतम की स्त्री को तूने पवित्र नहीं किया? क्या हाथी के प्राण तूने नहीं थे बचाए? क्या द्रोपदी की इज्जत तूने नहीं थी रखी? मुझे भी एक ऐसा ही समझ ले, मैं तेरी शरण आया हूँ।

यहाँ उच्च जाति वालों को एक तरह से ललकारा भी जा रहा है कि वह परमात्मा सिर्फ तुम्हारा ही नहीं है, हम गरीबों व शूद्रों का भी वही मालिक और पालक है।

फिर, जिसको अपना पैदा करने वाला कह रहे हैं जिसकी शरण पड़ते हैं उसे कई नामों सें संबोधित करते हैं; जैसे, माधो, केशव, सांवला, बीठल। माधो, साँवला, बीठुल तो कृष्ण जी के नाम कहे जा सकते हैं, पर ‘कैशव’ विष्णु जी का नाम है। जिस जिस की रक्षा का वर्णन आया है उन सबका सामना कृष्ण जी से नहीं हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार द्रोपदी की इज्जत कृष्ण जी ने ही रखी थी, पर अहिल्या का उद्धार करने वाले श्री रामचंद्र जी थे। एक अवतार का भक्त दूसरे अवतार का पुजारी नहीं हो सकता। द्रोपदी और अहिल्या दोनों का अलग-अलग युगों में उद्धार करने वाले नामदेव जी को कोई वह दिख रहा है, जो सिर्फ एक युग तक सीमित नहीं बल्कि सदा ही कायम रहने वाला है। वह है नामदेव जी वह प्रभु जो उनको नारायण, कृष्ण जी, श्री रामचंद्र जी और नरसिंह इन सभी में दिखता है। दूसरे शब्दों में यह कह लें कि नामदेव जी इस शब्द में समूचे तौर पर परमात्मा के आगे विनती कर रहे हैं।

भक्त नामदेव जी की वाणी सतही तौर पर पढ़ने वाले सज्जन ये भुलेखा खा रहे हैं कि नामदेव जी कृष्ण जी के उपासक थे और कृष्ण-उपासना के शब्द गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हैं। पर, देखिए राग सोरठि में नामदेव जी का दूसरा शब्द:

बेढी के गुण सुनि री बाई, जलधि, बांध ध्रू थापिओ हो॥ नाम के सुआमी सीअ बहोरी, लंक भभीखण आपिओ हो॥४॥२॥

नामदेव जी की जिंद का आसरा वह निर्गुण-स्वरूप परमात्मा था, जो राम-रूप में भी आ के सीता जी को लंका से वापस ले आया और जिसने विभीषण को लंका का राज दिया। ध्रुव भक्त तो श्री रामचंद्र जी से पहले सतियुग में हुए बताया जाता है और कृष्ण जी काफी समय बाद द्वापर में हुए। इस तरह, नामदेव जी किसी अवतार के पुजारी नहीं थे।

3. माली गउड़ा– धनि धंनि ओ राम बेनु बाजै॥ मधुर मधुर धुनि अनहत गाजै॥१॥ रहाउ॥ धनि धनि मेघा रोमावली॥ धनि धनि क्रिसन ओढै कांबली॥१॥ धनि धनि तू माता देवकी॥ जिह ग्रिह रमईआ कवलापती॥२॥ धनि धनि बनखंड बिंद्राबना॥ जह खेलै स्री नाराइना॥३॥ बेनु बजावै गोधनु चरै॥ नामे का सुआमी आनद करै॥४॥१॥

इस शब्द का हवाला दे के विरोधी सज्जन लिखते हैं कि इसमें कृष्ण जी की स्पष्ट तौर पर स्तुति की गई है।

समझने वाली बात:

पर, थोड़ा सा ध्यान से पढ़ कर देखें और हरेक पद को विचारें। किस पद में आपको कृष्ण जी की स्तुति की हुई प्रतीत होती है? हरेक तुक को बारी बारी से देख लें। सबसे पहले ‘रहाउ’ की तुक है, इसमें कृष्ण जी के कौन से गुण बताए गए हैं? कोई भी नहीं। ‘धनि धनि’ किसे कह रहे हैं? जरा ध्यान से देखें। ‘बेनु’ को ‘धनि धनि’ कह रहे हैं, कृष्ण जी को नहीं। इसी तरह अगली तुकों में भी मेधा (भेड़) की ऊन और उससे बनी कंबली से सदके हो रहे हैं, कृष्ण जी की माँ देवकी को ‘धनि धनि’ कहते हैं, बिंद्राबन से कुर्बान होते हैं। सारे शब्द में कृष्ण जी का सीधा कोई वर्णन नहीं, ना ही उनके किसी गुण का कोई बयान है।

दुस्साशन की सभा में द्रोपदी की इज्जत रख लेनी, कंस को मार के उग्रसेन को राज देना- ऐसी बातें तो कृष्ण के गुण कहे जा सकते हैं; पर किसी माँ के घर पैदा हो जाना, किसी भेड़ के ऊन की बनी कंबली पहन लेनी, बाल उम्र में कहीं खेलना, बंसरी बजानी; ये बातें सारे ही बालकों में समान हो सकती हैं। इन बातों के सुनाने में कृष्ण जी की कोई भी खास महिमा नहीं है।

यही थी भेद की बात:

इस शब्द में यही था राज़ जो समझने वाला था और जिससे छूट के हमने नामदेव जी को अवतारी कृष्ण जी का पुजारी समझ लिया।

इन्सानी स्वभाव मेंये एक कुदरती करिश्मा है कि मनुष्य को किसी अपने अति प्यारे के साथ संबंध रखने वाली चीजें प्यारी लगती हैं। भाई गुरदास जी लिखते हैं:

लैला दी दरगाह दा कुत्ता मजनूं देखि लोभाणा॥
कुत्ते दी पैरीं पवै, हड़ि हड़ि हसै लोक विडाणा॥31॥37॥

गुरु के प्यार में बिके हुए गुरु अमरदास जी भी लिखते हैं:

धनु जननी जिनि जाइआ, धंनु पिता परधानु॥
सतिगुरु सेवि सुखु पाइआ, विचहु गइआ गुमानु॥
दरि सेवनि संत जन खड़े, पाइनि गुणी निधान॥१॥१६॥४९॥ (सिरी रागु म: ३ पंना३२)

इसी तरह:

‘जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरू, सो थान सुहावा॥’ (आसा महला ४ छंत)

गुरु से सदके हो रहे गुरु रामदास जी गुरु के शरीर व गुरु की जीभ से भी कुर्बान होते हैं:

से धंनु गुरू साबासि है, हरि देइ सनेहा॥ हउ वेखि वेखि गुरू विगसिआ, गुर सतिगुर देहा॥१७॥ गुर रसना अंम्रितु बोलदी, हरि नामि सुहावी॥ जिन सुणि सिखा गुरु मंनिआ, तिना भुख सभ जावी॥१८॥२॥ (तिलंग महला ४ पंना ७२६)

प्यारे से संबंध रखने वालों से भी प्यार:

जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति से लावें (फेरे) ली हुई हैं, उसके लिए चार लावों में से ये दूसरी लांव है कि वह अपने प्यारे के साथ संबन्ध रखने वालों से भी प्यार करे।

हिन्दू मत में वैसे तो 24 अवतारों का जिक्र आता है, पर असल में 2 ही मुख्य अवतार हैं जिनको सुन के मुँह से वाह-वाह निकल सकती है और उनके कादर-कर्तार की याद प्यार से आ जाती है। ये हैं श्री रामचंद्र जी और श्री कृष्ण जी। ये मनुष्यों में आकर मनुष्यों की तरह दुख-सुख सहते रहे और इन्सानी दिल के ताऊस की प्यार-तरंगें हिलाते रहे। इन दोनों में से भी श्री कृष्ण जी के जीवन में प्यार के करिश्मे ज्यादा मिलते हैं। श्री रामचंद्र जी तो राज महलों में जन्मे-पले और बाद में भी आपने राज ही किया। पर कृष्ण जी का जन्म ही दुखों से शुरू हुआ, गरीब ग्वालों में पले, ग्वालों के साथ मिल के इन्होंने गऊएं चराई, और बँसरी बजाई। गरीबों से मिल के रच-मिच के रहने वाला ही गरीबों को प्यारा लग सकता है। फिर, ये कृष्ण जी ही थे, जिन्होंने दलेरी से कहा:

विद्या विनय सपन्ने ब्राहमणे गवि हस्तिनि॥
शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिता: सम दर्शिन: ॥

कि विद्वान ब्राहमण, गाय, हाथी, कुत्ते आदि सभी में एक ही ज्योति है। गरीबों में पला, गरीबों से प्यार करने वाला कुदरती तौर पर गरीबों को प्यारा लगता था, उसकी बाँसरी, उसकी कंबली, उसका बिंद्रावन, गरीब शूद्रों के लिए ‘प्यार’ भरे चिन्ह बन गए; जैसे हज़रत मुहम्मद साहिब की कंबली, जैसे नीचों को ऊँचा करने वाले बली मर्द पातशाह गुरु गोबिंद सिंह जी की कलगी और बाज।

ग्वालों के दिल के जज़बात:

ब्राहमणों ने नीच जाति वालों को बड़ी निर्दयता से पैरों तले दबाया हुआ था; ये बात कौन सा भारतवासी नहीं जानता? अगर गरीब ग्वाले व और शूद्र कभी ईश्वरीय प्यार के हिलौरों में आएं, तो उस प्यारे के आँखों से दिखाई देते किस स्वरूप को बयान करें? जहाँ तक हिन्दू बिरादरी का सम्बंध है, भारत में गुरु नानक पातशाह से पहले अपने युग में एक मात्र प्रसिद्ध प्यारा आया था जो गरीबों और शूद्रों के साथ मिल के बैठा था। ये थे कृष्ण जी; भले ही इसको भी गुजरते समय के साथ ब्राहमणों ने मन्दिरों में बँद कर लिया और गरीबों व शूद्रों से छीन लिया। ज्यों-ज्यों ध्यान से इस शब्द को पढ़ेंगे, ऐसा प्रतीत होगा जैसे उन गरीब-ग्वालों के दिल के वलवले नामदेव जी जाहिर कर रहे हैं; ग्वालों की तरफ हो के ग्वालों का दिल खेल रहे हैं, वैसे ही जैसे एक बार ईश्वर की ओर से हो के ये कहने लग पड़े थे:

दासु अनिंन मेरो निज रूप॥ ...मेरी बांधी भगतु छडावै, बांधै भगतु न छूटै मोहि॥ ...

सो, ‘प्यार’ को साकार स्वरूप में बयान करने के लिए कृष्ण जी की बाँसरी और कंबली का वर्णन इन्सानी स्वभाव के लिए एक साधारण कुदरती बात है। भाई गुरदास जी तो लैला-मजनूँ, हीर-रांझे, सस्सी-पुंनू को भी इस रंग-भूमि में ले आते हैं।

भुलेखा ना खाना:

बस! इस शब्द में इसी उच्च कुदरती वलवले का प्रकाश है। पर कहीं कोई सज्जन इस भुलेखे में ना पड़ जाए कि नामदेव जी किसी कृष्ण-अवतार अथवा बीठुल-मूर्ति के पुजारी थे, इस भ्रम को दूर करने के लिए भक्त जी खुद ही इसी शब्द में शब्द ‘राम’, ‘रमईआ’ और ‘नारायण’ भी बरतते हैं और बताते हैं कि हमारा प्रीतम स्वामी (उसे ‘राम’ कह लो, ‘कृष्ण’ कह लो, चाहे ‘नारायण’ कह लो) कृष्ण-रूप में आया, गरीब ग्वालों के साथ खेलता रहा, उनके साथ मिल के बँसरी बजाता रहा और गाईयाँ चराता रहा। उच्च जाति के लोग नामदेव जी के इस वलवले की सार क्या जानें? अपने ईष्ट प्रभु परमात्मा को शब्द ‘राम’ रमईया’, ‘गोविंद’, ‘हरि’, ‘नारायण’ से याद करने वाला नामदेव जब उच्च जाति वालों द्वारा हुई निरादरी का गिला करता है तो अपने ‘स्वामी’ को ‘जादम राइआ’ कहता है क्यों? इस वास्ते कि यादवों के कुल में पैदा हो के यादवों का नाथ बन के ‘जादम राइआ’ बन के उसने नीचों से प्यार किया था, कहता है:

हीनड़ी जाति मेरी, जादम राइआ॥
छीपे के जनमि काहे कउ आइआ॥ (भैरउ नामदेव, पंना ११६४)

राम अवतार भक्ति का भुलेखा:

4. बानारसी तपु करै उलटि, तीरथ मरै, अगनि दहै, काइआ कलपु कीजै॥ असुमेध जगु कीजै, सोना गरभदानु दीजै, राम नाम सरि तऊ न पूजै॥१॥ छोडि छोडि रे पाखंडी मन कपटु न कीजै॥ हरि का नामु नित नितहि लीजै॥१॥ रहाउ॥ ...मनहि न कीजै रोसु, जमहि न दीजै दोसु, निरमल निरबाणु पदु चीनि् लीजै॥ जसरथ राइ नंदु राजा मेरा रामचंदु, प्रणवै नामा, ततु रसु अंम्रितु पीजै॥४॥४॥ (रामकली घरु २ पंना: ९७३)

यहाँ अवतार पूजा नहीं:

कई सज्जनों को उपरोक्त शब्द की आखिरी तुक अवतार पूजा का भुलेखा डाल देती है। पर, आईए, ध्यान से विचार करें।

‘रहाउ’ की तुक में वर्णन है कि प्रभु के नाम स्मरण के बिना बाकी के और धार्मिक कर्म पाखण्ड ही हैं। ये है शब्द की बीज-रूप भाव। इसका विस्तार चार बँदों में है। पहले तीन बँदों में तो स्पष्ट तौर पर उन कर्मों का जिक्र हैजिनको लोग धार्मिक समझते हैं; पर, जो भक्त जी के ख्याल में स्मरण के मुकाबले पर निरा पाखण्ड ही है। आखिर में कहते हैं कि अगर तुम ऐसे काम ही करते रहे तो जमों से खलासी नहीं होनी, फिर ये गिला ना करना कि जम सिर के ऊपर ही रहा।

जसरथ राय नंद:

पर, चौथे पद में अचानक राजा दशरथ के पुत्र श्री रामचंद्र जी का नाम आ जाना हैरानी में डाल देता है। कई सज्जन अर्थ करते हैं: ‘राजा दशरथ के पुत्र का राजा’। ये अर्थ गलत है। शब्द ‘नंदु राजा’ का अर्थ ‘नंद का राजा’ नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द नंद’ के आखिर में ‘ु’ की मात्रा है (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। कई सज्जन समझते हैं कि श्री रामचंद्र जी ने बड़े-बड़े काम किए हैं, इस वास्ते इन कामों को परमात्मा के काम बता के शब्द ‘रामचंदु’ को परमात्मा के लिए बरता है। ये ख्याल भी कच्चा है। साहिब जी कहते हैं ‘रावणु मारि किआ वडा भइआ’; वाणी में परस्पर विरोध नहीं हो सकता। अगर भक्त जी श्री रामचंद्र जी के बड़े-बड़े कामों का ख्याल करके उनको परमात्मा की तुलना ही दे रहे थे, तो इस बात की क्या जरूरत थी कि उनके पिता का नाम भी बताया जाता? अगर श्री रामचंद्र बहुत सारे होते तो भुलेखा पड़ने की गुंजायश भी हो सकती थी। कृष्ण, दामोदर, माधो, मुरारि, रामचंद आदिक शब्द भगतों ने और सतिगुरु जी ने भी सैकड़ों बार परमात्मा के वास्ते बरते हैं। पर जब किसी के पिता का नाम भी साथ में दिया जाए तो उस वक्त उस नाम को परमात्मा के वास्ते नहीं बरता जा सकता। फिर तो किसी खास व्यक्ति का ही वर्णन हो सकता है।

असल बात:

दरअसल बात ये है कि जैसे तीन बँदों में तप, यज्ञ, तीर्थ-स्नान और दान को ‘नाम’ के मुकाबले में बहुत ही हल्का सा काम बताया है, वैसे ही किसी अवतार की मूर्ति को पूजना भी परमात्मा के नाम-जपने के सामने एक बहुत ही हल्का काम बताया है।

अर्थ: (हे जिंदे! अगर सदा ऐसे काम ही करते रहना है और नाम नहीं स्मरणा तो फिर) मन में गिला ना करना, जम को दोष ना देना (कि वह क्यों आ गया है, इन कामों ने जम से निजात नहीं दिलवानी); हे जिंदे! पवित्र वासना-रहित अवस्था से जान-पहचान डाल। नामदेव विनती करता है (सब रसों का) मूल रस नाम-अमृत ही पीना चाहिए, ये नाम-अमृत ही मेरा (नामदेव का) राजा राम चंद्र है, जो राजा दशरथ का पुत्र है।

विरोधी सज्जन का ऐतराज:

नोट: इस शब्द का हवाला दे के भक्त वाणी का विरोधी सज्जन लिखता है कि भक्त नामदेव जी किसी समय श्री रामचंद्र जी के उपासक रहे हैं, फिर कृष्ण उपासना में लग गए। विरोधी सज्जन लिखता है:

“प्राचीन काल से ये रिवाज चला आ रहा है कि जो रामचंद्र जी का उपासक है वह कृष्ण जी का भक्त नहीं हो सकता। जो कृष्ण जी का हो गया वह रामचंद्र जी का नहीं बन सकता। इसी कारण ‘राधे-कृष्ण’ और ‘सीता-राम’ वाले आपस में ईष्या-विरोध रखते हैं। भक्त नामदेव जी ने ‘सीताराम’ छोड़ने के समय श्री रामचंद्र जी की निरादरी में बहुत सारे शब्द इस्तेमाल किए हैं ‘पांडे तुमरा रामचंद, सो भी आवत देखिआ था। रावन सेती सरबर होई घर की जोइ गवाई थी।’ देखिए, कैसा कड़वा ताना है! पर, कृष्ण जी के जीवन पर रंच मात्र भी टिप्पणी नहीं की। ये एक-पक्षी बात है।”

जहाँ तक तो भक्त नामदेव जी के श्री रामचंद्र के उपासक होने का भुलेखा है, उस बारे में हमने खुली विचार ऊपर इसी अंक में कर दी है। भक्त जी की वाणी से कहीं भी ये साबित नहीं होता कि वे किसी समय रामचंद्र जी के पुजारी थे।

देखें गौंड राग का सातवाँ शब्द:

विरोधी सज्जन ने जो ‘कड़वे ताने’ वाली बात लिखी है, वह भी निर्मूल है। ये तुकें भक्त नामदेव जी के गौंड राग में दिए आखिरी सातवें शब्द में से हैं। उस शब्द की पहली तुक है: ‘आजु नामे बीठलु देखिआ, मूरख कउ समझाऊ रे’। पाठक सज्जन उस शब्द के बारे में की गई विचार उस शब्द में ही पढ़ने का कष्ट करें। यहाँ उस विचार को दोहराने से लेख बहुत लंबा हो जाएगा।

टीका-टिप्पणी वाली बात:

विरोधी सज्जन ने लिखा है कि ‘भक्त नामदेव जी ने कृष्ण जी के जीवन पर रंच-मात्र भी टीका-टिप्पणी नहीं की’। इस संबंध में विनती है कि भक्त जी ने किसी भी अवतार के जीवन के बारे में अपनी ओर से कोई टीका-टिप्पणी नहीं की। उनकी गायत्री, महादेव और श्री रामचंद्र जी के अपने ही उपासकों द्वारा लिखे हुए अश्रद्धा पैदा करने वाले विचारों का हवाला दे के कहा है कि पूजा भी करते हो शक भी करते हो; इसका नाम भक्ति नहीं है। अगर श्री कृष्ण जी के उपासकों ने श्री कृष्ण पर कोई भी ऐसे दूषण लगाए होते, तो भक्त नामदेव जी उनका भी जिक्र कर देते।

पाठक सज्जन गौंड राग के आखिरी शब्द के बारे में मेरी लिखीविचार को इस मजमून के साथ ही पढ़ने की कृपा करें।

विष्णु-भक्ति का भुलेखा:

5. मारू नामदेव जी॥

चारि मुकति चारै सिधि मिलि कै, दूलह प्रभ की सरनि परिओ॥ मुकति भइओ चउहूं जुग जानिओ, जसु कीरति माथै छत्रु धरिओ॥१॥ राजा राम जपत को को न तरिओ॥ गुर उपदेसि साध की संगति, भगतु भगतु ता को नामु परिओ॥१॥ रहाउ॥ संख चक्रमाला तिलक बिराजति, देखि प्रतापु जमु डरिओ॥ निरभउ भए राम बल गरजित, जनम मरन संताप हिरिओ॥२॥ अंबरीक कउ दीओ अभैपदु राजु भभीखन अधिक करिओ...॥३॥ भगत हेति मारिओ हरनाखसु, नरसिंघ रूप होइ देह धरिओ॥ नामा कहै भगति बसि केसव, अजहूँ बलि के दुआर खरो॥४॥१॥

यहाँ शब्द ‘शंख चक्र माला तिलकु’ से ये भुलेखा पड़ सकता है कि नामदेव जी विष्णु-मूर्ति के पुजारी थे। जरा ध्यान से विचार करें।

मानवता की प्रेरणा के लिए:

शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। शब्द में नामदेव जी बँदगी करने वाले की महिमा बयान करते हैं, ‘रहाउ’ की तुक में यही केंद्रिय विचार है। नामदेव जी हिन्दू जाति के जम-पल थे। हिन्दुओं में एक-प्रभु की भक्ति का प्रसार करते समय, प्रचार का प्रभाव डालने के लिए नामदेव जी उन हिन्दू भगतों का ही वर्णन कर सकते थे, जिनकी साखियां पुराणों में आई और जो आम लोगों में प्रसिद्ध थे। अंबरीक, सुदामा, प्रहलाद, द्रोपदी, अहिल्या, विभीषण, बलि, ध्रुव, गज; आम तौर पर इनके बारे में ही साखियां प्रसिद्ध थीं और हैं।

गुरु तेग बहादर साहिब ने पूर्व देश में जा कर हिन्दू जनता में प्रचार करने के वक्त भी इन ही साखियों का हवाला देते रहे। वेरवे में जाने पर ये साखियां सिख सिद्धांतों के अनुसार हैं कि नहीं; इस बात को छेड़ने की उन्हें आवश्यक्ता नहीं पड़ी थी। गलत रास्ते पर पड़े, विकारों में गिरे हुए लोगों को और जाबर मुग़ल-हकूमत से सहमे हुए लोगों को उनके अपने घर में से ही प्रसिद्ध भक्तों के नाम सुना के मानवता की प्रेरणा की जा सकती थी।

अगर सतिगुरु जी ने किसी जोगी को ये कहा कि:

“चारि पुकारहि ना तू मानहि॥ खटु भी एका बात बखानहि॥ दस असटी मिलि एको कहिआ॥ ता भी जोगी भेदु न लहिआ॥ ”

इसका ये भाव नहीं है कि सतिगुरु जी खुद भी वेदों-शास्त्रों और पुराणों के श्रद्धालु थे। अगर वे एक मुसलमान को कह रहे हैं कि:

‘दोजकि पउदा किउ रहै, जा चिति न होइ रसूलि॥’

भक्त नामदेव जी ने शब्द ‘संख चक्र गदा’ आदिक भी इसी लिए बरते हैं कि हिन्दू लोग विष्णु का यही स्वरूप मानते हैं ये शब्द उनको प्यारे लगते हैं और आकर्षित करते हैं। आज जो उत्साह किसी सिख को ‘कलगी’ और ‘बाज’ शब्द बरत के दिया जा सकता है, वह किसी और उपदेश से नहीं।

गुरु नानक देव जी ने भी तो एक बार परमात्मा का इसी तरह का स्वरूप दिखाया था। देखें वडहंस महला १ छंत:

‘तेरे बंके लोइण दंत रीसाला॥ सोहणे नक जिन लंमड़े वाला॥ कंचन काइआ सुइने की ढाला॥ सोवंन ढाला क्रिसन माला जपहु तुसी सहेलीहो॥ जम दुआरि न होहु खड़ीआ, सिख सुणहु महेलीहो’॥७॥२॥ (पंना ५६७)

6. भैरउ १०॥

बादिसाह चढ़िओ अहंकारि॥ गज हसती दीनो चमकारि॥५॥ रुदनु करै नामै की माइ॥ छोडि रामु की न भजहि खुदाइ॥६॥ न हउ तेरा पूंगड़ा न तू मेरी माइ॥ पिंडु पढ़ै तउ हरि गुन गाइ॥७॥ ...सात घड़ी जब बीती सुणी॥ अजहु न आइओ त्रिभवण धणी॥१४॥ पाखंतण बाज बजाइला॥ गरुड़ चढ़े गोबिंद आइला॥१५॥ अपने भगत परि की प्रतिपाल॥ गरुड़ चढ़े आए गोपाल॥१६॥ ...

मिलि हिंदू सभ नामे पहि जाहि॥२५॥
जउ अब की बार न जीवै गाइ॥ त नामदेव का पतीआ जाइ॥२६॥ (पंना ११६६)

इस शब्द का हवाला दे के विरोधी सज्जन लिखते हैं कि नामदेव ने यह माना है जो ‘मरी हुई गाय को जीवित करने के लिए विष्णु महाराज गरुड़ पर चढ़ कर आए’।

किसी खास स्वरूप के पुजारी नहीं:

ये ठीक है कि बंद नं: 14, 15, 16 में नामदेव जी परमात्मा का यह स्वरूप बिलकुल पुराणों के अनुसार हिन्दुओं वाला बताते हैं। पर क्यों? इसलिए कि एक मुसलमान बादशाह जान से मारने के डरावे देता है और चाहता है कि नामदेव मुसलमान बन जाए; बिसमिलि गऊ देहु जीवाइ॥ नातरु गरदनि मारउ ठांइ॥२॥

नामदेव को बाँध के ललकारता है:

‘देखउ तेरा हरि बीठुला’॥ रहाउ॥

नामदेव जी की माँ समझाती भी है कि मुसलमान बन जाओ, पर वे निडर हैं। मुसलमान बादशाह की धार्मिक भेदभाव का निर्भयता सक मुकाबला करने के लिए अपने ‘बीठुल हरि गोबिंद गोपाल त्रिभवण धणी’ का स्वरूप पुराणों वाला बता रहे हैं। पर, क्या नामदेव जी परमात्मा के किसी स्वरूप के पुजारी थे? नहीं, कम से कम श्री गुरु ग्रंथ साहिब में कोई ऐसा शब्द दर्ज नहीं है, जिसके मुताबिक ये बात साबित की जा सके। मुसलमान बादशाह को तो अपना भगवान गरुड़ पर चढ़ा हुआ दिखाते हैं, पर जब हिन्दू अपनी उच्च जाति पर गुमान के कारण नामदेव को मन्दिर से धक्के देते हैं, तो वह अपने परमात्मा को ‘अब्दाली’ और ‘कलंदर’ कह के कहते हैं कि मुझे धक्के तूने ही दिलवाए थे, उस वक्त अपने ‘केसव’ को इस्लामी पहरावे और इस्लामी शब्दों में ही याद करते हैं। देखें भैरउ नामदेव:

7. आउ कलंदर केसवा॥ करि अबदाली भेसवा॥ रहाउ॥
...जिनि आकास कुलह सिरि कीनी... ...चमर पोस का मंदरु तेरा... ...॥१॥
... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... .. सहनक सभ संसारा॥२॥
बीबी कउला सउ काइनु तेरा.. .. .. ... ... ... ... ... ... ... .... ... ...॥३॥
भगति करत मेरे ताल छिनाए, किह पहि करउ पुकारा॥
नामे का सुआमी अंतरजामी, फिरे सगल बे देसवा॥४॥१॥ (पंना ११६७)

नोट: यहाँ एक ऐतिहासिक घटना विचारने योग्य है। मैकालिफ़ लिखता है कि नामदेव अपने एक गुर-भाई के साथ तीर्थों पर आया था; एक सफर में वह दिल्ली भी आए थे, और यहाँ मुहम्मद तुग़लक ने मरी गाय जीवित करने के लिए ललकारा था। पर नामदेव जी कहते हैं: जब बादशाह ने जान से मारने का डरावा दिया तो मेरी माँ ने मुझे मुसलमान बन जाने की सलाह दी, पर मैंने इनकार कर दिया।

क्या इस लंबे सफर में नामदेव जी की बुढ़ी माँ भी साथ ही थी? इस बात का किसी ने वर्णन नहीं किया और ना ही यह मानी जाने लायक है। पैदल रास्ते, और रास्ता भी एक तरफ दिल्ली और दूसरी और रामेश्वर रास-कुमारी तक। फिर देखें बंद 25 और 26। इनमें से तो ऐसा प्रतीत होता है कि ये हिन्दू नामदेव को अच्छी तरह जानते हैं, उसकी अब तक की बनी साख से वाकिफ़ थे। दिल्ली में आए परदेसी के लिए ये बात फिट नहीं बैठती। सो, ये घटना नामदेव के अपने जदी घर पंडरपुर की ही हो सकती है। चाहे दिल्ली का बादशाह उधर गया हो, चाहे उस सूबे का कोई और मुसलमान शाह हो।

बीठुल पूजा का भुलेखा

8. हसत खेलत तेरे देहुरे आइआ॥ भगति करत नामा पकरि उठाइआ॥१॥ हीनड़ी जाति मेरी जादम राइआ॥ छीपे के जनमि काहे कउ आइआ॥१॥ रहाउ॥ लै कमली चलिओ पलटाइ॥ देहुरै पाछै बैठा जाइ॥२॥ जिउ जिउ नामा हरि गुण उचरै॥ भगत जनां कउ देहुरा फिरै॥३॥६॥ (पंना ११६४)

9. मलार– मो कउ तूं न बिसारि तू न बिसारि॥ तू न बिसारे रामईआ॥१॥ रहाउ॥ आलावंती इहु भ्रमु जो है मुझ ऊपरि सभ कोपिला॥ सूदु सूदु करि मारि उठाइओ, कहा करउ बाप बीठुला॥१॥ मूए हूए जउ मुकति देहुगे, मुकति न जानै कोइला॥ ए पंडीआ मो कउ ढेढ कहत, तेरी पैज पिछंउडी होइला॥२॥ तू जू दइआलु क्रिपालु कहीअत है, अतिभुज भइउ अपारला॥ फेरि दीआ देहुरा नामे कउ, पंडीअन कउ पिछवारला॥३॥२॥ (पंना १२९२)

इन शबदों का हवाला दे के लोग एतराज करते हैं कि नामदेव जी बीठुल की मूर्ति पूजते थे, जैसा कि उनको देहुरे में से निकाले जाने से साबित होता है।

धक्के क्यों पड़ते?

भक्त नामदेव जी ने अपनी उम्र की ज्यादा हिस्सा पंडरपुर में गुजारा। वहाँ के बाशिंदे जानते ही थे कि नामदेव छींबा (धोबी) है शूद्र है। शूद्र को मन्दिर जाने की मनाही थी। किसी दिन किसी मौज में नामदेव जी बीठुल-मूर्ति के मंदिर में चले गए। आगे से उच्च जाति वालों ने बाँह से पकड़ कर बाहर निकाल दिया। अगर नामदेव जी किसी बीठुल की किसी ठाकुर की मूर्ति के पुजारी होते तो हर रोज मन्दिर में पूजा कर रहे होते। तो, हर रोज मन्दिर आने वाले नामदेव को उन लोगों ने किसी एक दिन ‘हीन जाति’ का जान के क्यों बाहर निकालना था? यह एक दिन की घटना ही बताती है कि नामदेव ना मन्दिर जाया करते थे, ना ही शूद्र होने की वजह से उच्च जाति वालों की ओर से उनको वहाँ जाने की आज्ञा थी। ये तो किसी एक दिन मौज में आए हुए चले गए और आगे से धक्के मिले। पंडरपुर में ‘बीठुल’ की मूर्ति का मन्दिर है। अगर नामदेव जी उस मूर्ति के पुजारी होते तो आखिर ये पूजा उन्होंने मन्दिर में ही जा के करनी थी। धक्के पड़ने पर नामदेव ‘बीठुल’ के आगे पुकार करता है और कहता है “कहा करउ बाप बीठुला”। सो, वह मन्दिर जहाँ धक्के पड़े थे, जरूर ‘बीठुला’ का ही होगा। यहाँ धक्के पड़ने से ही ये साफ़ जाहिर है कि नामदेव इससे पहले कभी किसी मन्दिर में नहीं थे गए। ना ही किसी मन्दिर में पड़ी किसी बीठुल-मूर्ति का वह पुजारी था। बीठुल-मूर्ति कृष्ण जी की है, पर ‘रहाउ’ की तुक में नामदेव अपने ‘बीठुल’ को ‘रामईआ’ कह के भी बुलाता है। किसी एक अवतार की मूर्ति का पुजारी अपने इष्ट को किसी और अवतार के नाम से याद नहीं कर सकता। सो, यहाँ नामदेव उसी महान ‘पिता’ को बुला रहे हैं, जिसको ‘राम, बीठुल, मुकंद’ आदि सारे प्यारे नामों वाला बुलाया जा सकता है।

कोई वज़न नहीं रखता ये ऐतराज़:

ऐताराज करने वाले सज्जन शायद यह ऐतराज भी कर दें कि अगर नामदेव उस मूर्ति का पुजारी नहीं था, तो वह एक दिन भी वहाँ क्यों गया था? पर ये ऐतराज कोई वजन नहीं रखता। मुसलमान, इसाई व अन्य कई मतों के लोग श्री हरिमंदिर साहिब अमृतसर आते रहते हैं, पर इसका ये मतलब नहीं कि वे गुरु नानक के सिख की हैसीयत में आते हैं। ‘गुरद्वारा लहर’ से पहले जब श्री हरिमंदिर साहिब का प्रबंध ‘सनातनी’ सिखों के हाथ में था तो उच्च जाति वाले हिन्दुओं और सिखों के बिना किसी और को हर वक्त अंदर जाने की आज्ञा नहीं थी, इनके लिए खास समय निश्चित था और एक खास तरफ ही नीयत थी। उन दिनों जो कोई ‘वर्जित’ व्यक्ति उस ‘स्वच्छता’ के नियमों का उलंघन करता होगा, उसे अवश्य धक्के पड़ते होंगे। यहाँ तक कि तथाकथित ‘मज़हबी’ सिंघों को धक्के मारे गए। इन ज्यादतियों के कारण ही तो इन लोगों से प्रबंध छीनने के लिए ‘गुरद्वारा लहर’ चली थी।

हिन्दू-मन्दिरों में कई सिख भी सिर्फ ‘देखने’ के लिए चले जाते हैं, उनके बारे में भी ये नहीं कहा जा सकता कि वे वहाँ श्रद्धा से पूजा करने के लिए जाते हैं। इसी तरह भक्त नामदेव भी कभी एक बार बीठुल-मूर्ति के मन्दिर में चला गया होगा।

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साधु संगति

जैसे तउ गोबंस त्रिण पाइ, दुहै, गोरसु दै,
गोरसु औटाइ, दधि माखनु प्रगास है॥
ऊख महि पयूख, तनु खंड खंड कै पिराइ,
रस कै औटाइ, खंडु मिसरी मिठास है।
चंदनि सुगंधि सनबंध कै बनासपती,
ढाक औ पलास जैसे चंउन सुबासु है॥
साधु संगि मिलत, संसारी निरंकारी होत,
गुरमति परउपकार कै निवासु है॥१२९॥ (कबित भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: गोबंस = गायों की कुल, गायों का झुंड। त्रिण = घास। दुहै = (जब) दुहते हैं। गोरसु = दूध। दे = देता है। औटाइ = काढ़ के। दधि = दही। प्रगास है = निकलता है।

ऊख = गन्ना। पयूखु = रस, रहु। तनु = (गन्ने का) शरीर। खंड खंड के = टुकड़े टुकड़े कर के (कै-करि, कर के)। पिराइ = पिराय, पीढ़ के। रस के औटाइ = (गन्ने के) रस को काढ़ने से।

सनबंध कै = मेल से। चंदन सु बासु = चंदन सी खुशबू।

संसारी = संसार में खचित मनुष्य। निरंकारी = परमात्मा से प्यार करने वाला। गुरमति = गुरु की शिक्षा ले के। परउपकार कै = दूसरों की भलाई करने में। निवासु = (उसके मन का) ठिकाना।

ठाकुर को दूध पिलाना

भैरउ नामदेउ जी॥ दूधु कटोरै गडवै पानी॥ कपल गाइ नामै दुहि आनी॥१॥ दूधु पीउ गोबिंदे राए॥ दूधु पीउ मेरो मनु पतीआइ॥ नाही त घर को बापु रिसाइ॥१॥ रहाउ॥ सुोइन कटोरी अंम्रित भरी॥ लै नामै हरि आगै धरी॥२॥ एकु भगतु मेरे हिरदै बसै॥ नामे देखि नराइनु हसै॥३॥ दूधु पीआइ भगतु घरि गइआ॥ नामे हरि का दरसनु भइआ॥४॥३॥ (पंना ११६३)

नामदेव जी ने दूध किस को पिलाया? इस शब्द में से ध्यान से देखें। ‘गोबिंद राए, हरि, नराइन’; सिर्फ यही शब्द बरते हैं उसके लिए, जिसको नामदेव जी ने दूध पिलाया था। पर मंदिरों में जिसको लोग दूध पिलाते हैं उसको ‘ठाकुर’ कहा जाता है। दूध पिलाने के बारे में भाई गुरदास जी ने दसवीं वार में जो लोगों के मुँह-चढ़ी गवाही दी है, वहाँ भी शब्द ‘ठाकुर’ ही है:

कंमि कितै पिउ चलिआ, नामदेव नों आखि सिधाइआ॥ ठाकुर दी सेवा करीं, दूध पीआवणि कहि समझाइआ॥ नामदेउ इशनानु करि, कपल गाय दुहि कै लै आइआ॥ ठाकुर नों नावालि कै, चरणोदकु लै तिलकु चढ़ाइआ॥ हथ जोड़ि बिनती करै, दुधु पीअहु जी गोबिंद राइआ॥ निहचउ करि आराधिआ, होइ दइआलु दरसु दिखलाइआ॥ भरी कटोरी नामदेव, लै ठाकुर नों दुधु पीआइआ॥ ...भगत जना दा करे कराइआ॥

बोली के पक्ष से बेपरवाही नहीं:

पर यह नहीं हो सकता कि नामदेव जी ने कविता की बोली को बेपरवाही से बरत के शब्द ‘ठाकुर’ और ‘हरि, नारायण’ को एक ही भाव में बरत दिया हो। आसा राग में नामदेव जी का एक शब्द है जहाँ वे ठाकुर-पूजा की निंदा करते हैं। उस शब्द में जिस खूबी से ‘ठाकुर’ और ‘बीठल के भेद को प्रकट किया गया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि नामदेव जी ने अपनी वाणी में कोई भी शब्द बेपरवाही से नहीं बरता। देखें:

आनीले कुंभ भराईले ऊदक, ठाकुर कउ इसनानु करउ॥ बइआलीस लख जी जल महि होते, बीठलु भैला काइ करउ॥१॥ जत्र जाउ ततु बीठलु भैला॥ महा अनंद करे सद केला॥१॥ रहाउ॥ आनीले फूल परोईले माला, ठाकुर की हउ पूज करउ॥ पहिले बासु लई है भवरह, बीठुल भैला काइ करउ॥२॥ आनीले दूधु रीधाईले खीरं, ठाकुर कउ नैवेदु करउ॥ पहिले दूधु बिटारिओ बछुरै, बीठलु भैला काइ करउ॥३॥ ईभै बीठलु ऊभै बीठलु, बीठल बिनु संसार नही॥ थान थनंतरि नामा प्रणवै, पूरि रहिओ तूं सरब मही॥४॥२॥

इस शब्द में मूर्ति-पूजक का पक्ष बताने के वक्त शब्द ‘ठाकुर’ बरतते हैं, पर अपना पक्ष बयान करने के वक्त शब्द ‘बीठलु’। कौन सा ‘बीठल’? जो बयालिस लाख जीवों में ‘भौरों में, बछड़ों में थान-थनंतर’ व्यापक है।

सो, अगर किसी ठाकुर को नामदेव ने दूध पिलाया होता, अथवा किसी ठाकुर के बहाने भी पिलाया होता, तो वे साफ तौर पर शब्द ‘ठाकुर’ बरतते।

यह कहानी लिखते हैं कि नामदेव जी ने अपने पिता के कहने पर ‘ठाकुर’ को दूध पिलाया था। पर हम आरम्भ में ही देख आए हैं कि नामदेव का पिता तो केशी राज (शिव) का पुजारी था। हम इन शब्दों को ऐसे ना तोड़े-मरोड़ें। पूछो जा के इन देवताओं के पुजारियों को, ‘शिव’ और है और ‘ठाकुर’ और।

दूध कब पिलाया?

उस वक्त नामदेव जी की क्या उम्र थी? कैसी आत्मिक अवस्था थी?

कई सज्जनों का विचार है कि नामदेव जी ने बाल उम्र में दूध पिलाया था, उसके बाद जब भक्ति मार्ग में दृढ़ हो गए तो बाल-उम्र वाली उस घटना को इस शब्द में बयान किया। उन सज्जनों का ये भी विचार है कि भोले स्वभाव में ‘ठाकुर’ को दूध पिलाने में कामयाब हो के नामदेव जी प्रभु की भक्ति में लग गए। दूसरे शब्दों में ये कह लें कि नामदेव जी को ठाकुर-पूजा से ईश्वर मिला था।

पर ये एक उल्टी सी खेल लगती है। जिस ‘ठाकुर-पूजा’ की इनायत से उन्हें ईश्वर की प्राप्ति हुई, उसे उन्होंने उपरोक्त लिखें शब्द के माध्यम से रद्द क्यों किया? ‘ठाकुर-पूजा’ ने तो बल्कि विचौलिए का काम किया था, इस बिचौलिए का तो बल्कि उन्हें सदा शुक्र-गुजार रहना चाहिए था। सिख का तो आदर्श ही ये बताया जा रहा है कि जिस बिचौलिए (गुरु) के जरीए वह प्रभु-चरणों में जुड़ता है उस गुरु का उसने सदा के लिए हो के रहना है।

भोला स्वभाव:

इस ‘भोले स्वभाव’ का अर्थ भी खासा अजीब किया जा रहा है। कहते हैं कि ‘नामदेव जी बहुत समझदार थे, उनको तो ये भी पता नहीं था कि ठाकुर दूध नहीं पीते, वैसे ही मान लिया जाता है कि वे पी चुके हैं’। भला नामदेव जी तब कितनी उम्र के होंगे? ढाई तीन साल की बच्चियाँ गुड़ियों से खेलती हैं, उन्हें कपड़े पहनाती हैं, गहने पहनाती है, गुड्डे-गुड़िया का विवाह करवाती हैं, छोटी-छोटी आटे की टिकियां बना के, फर्जी ही आग पर पका के उनके आगे रखती हैं। पर अगर आप ये टिकी थोड़ी सी ले कर उनकी गुड्डी के मुंह में डालें तो वे बहुत हसेंगी। पूछें क्यों हस रही हो? तो वे बच्चियां तुरंत उक्तर देंगी; ये कोई खाती थोड़े हैं। ये बात तो है छोटे बच्चों की। क्या नामदेव जी इससे भी छोटे थे?

इसमें कोई शक नहीं कि वाणी में हुकमि है;

‘भोलै भाइ मिलै रघुराइआ’॥

पर ‘भोला स्वभाव’ और चीज है और ‘अज्ञानता’ और है। it is not ignorance but innocence. सिख ने परमात्मा के चरणों में जुड़ने के लिए ‘बाल-बुधि’ बनना है, क्योंकि ‘चतुराई नही चीनिआ जाइ’, ‘अज्ञानी’ नहीं बनना। वह ‘बाल-बुद्धि’ क्या है? इसका उक्तर भाई गुरदास जी देते हैं:

जैसे एक जननी को होत हैं अनेक सुत, सभ ही महि अधिक पिआरो सुतु गोद को॥ सिआने सुत बनज बिउहार के बीचार बिखै, गोद महि अचेत हेतु संपै न सहोद को॥ पलना सुआइ माइ ग्रिह काज लागै जाए, सुनि सुत–रुदनु पै पिआवै मन मोद को॥ आपा खोइ जोइ गुर–चरन सरन गहै, रहै निरदोख मोख अनद बिनोद को॥

सो, सिख धर्म का ‘भोला स्वभाव’ क्या है? ‘स्वै का गवाना’।

पर दूध पिलाने के बारे में जिस गवाही का हवाला हम ऊपर दे आए हैं वहाँ तो यूँ लिखा है:

‘निहचउ करि आराधिआ, होइ दइआलु दरसु दिखलाइआ’।

वह तो यही कहते हैं कि पिता के कहने पर ‘ठाकुर’ को दूध पिलाने गए, ठाकुर को स्नान कराया और बड़ी श्रद्धा से आराधना की, जिसका नतीजा ये निकला कि ठाकुर ने साक्षात दर्शन दे दिए।

रविदास जी की गवाही:

वैसे नामदेव जी ने कहीं भी ये नहीं कहा कि उन्हें ‘ठाकुर-पूजा’ से ईश्वर मिला था, अथवा उन्होंने कोई ठाकुर-पूजा कभी बालावस्था में की थी और अब वे आप-बीती किसी शब्द में बयान कर रहे हैं। दूध पिलाने के बारे में भक्त रविदास जी ने गवाही दी है। देखें, राग आसा में उनका शब्द:

हरि हरि, हरि हरि, हरि हरि, हरे॥ हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे॥१॥ रहाउ॥ हरि के नाम कबीर उजागर॥ जनम जनम के काटे कागर॥१॥ निमत नामदेउ दूधु पीआइआ॥ तउ जग जनम संकट नही आइआ॥२॥ जन रविदास राम रंगि राता॥ इउ गुर परसादि नरक नही जाता॥३॥५॥

हरेक शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। यहाँ रविदास जी ने हरि-नाम-जपने की महिमा बयान की है कि जिन्होंने स्वास-स्वास प्रभु को याद रखा, उन्हें जगत की माया नहीं व्याप सकी। ये असूल बता के दो भक्तों की उदाहरण देते हैं। कबीर ने भक्ति की, वह जगत में प्रसिद्ध हुआ; नामदेव ने भक्ति की और प्रभु को वश में कर लिया, नाम-जपने की ही इनायत थी कि भक्त-अधीन हो के हरि ने उसके हाथों से दूध पीया। इस शब्द में दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक ये कि नामदेव ने किसी ठाकुर-मूर्ति को दूध नहीं पिलाया; दूसरी दूध पिलाने के बाद भक्ति की लाग नहीं लगी, वे तो पहले से ही स्वीकार हुए भक्त थे। और जो नामदेव जी किसी ‘ठाकुर’ को दूध पिलाने के बारे में (आसा राग के शब्द द्वारा) अपने खुले विचार बता रहे हैं, उसके संबंध में ये नहीं माना जा सकता कि प्रभु का अनन्य भक्त होते हुए वह किसी ‘ठाकुर-मूर्ति’ किसी के भी कहने पर दूध पिलाने गए हों।

किस मन्दिर में?

नामदेव जी किस मन्दिर में ‘ठाकुर’ को दूध पिलाने गए? अगर, नामदेव जी (या, जैसे कहानी सुनाने वाले बताते हैं, उनके पिता) किसी मन्दिर में हर रोज जा के ठाकुर-पूजा करते होते, तो नामदेव जी को इस कारण उस मन्दिर में धक्के ना पड़ते कि वह शूद्र था। हमारे सामने नामदेव जी के बारे में दो घटनाएं हैं: 1. मन्दिर में से धक्के मार के निकाला जाना, 2. ठाकुर को दूध पिलाना। इनमें से पहली कौन सी हो सकती है? अगर पहले धक्के पड़े, उस शूद्र को दूसरी बार दूध पिलाने की आज्ञा किस ने दी? अगर नामदेव को धक्के पड़ सकते हैं, तो उसके पिता को मन्दिर जाने की आज्ञा कैसे हो सकती थी? और अगर भक्त जी के दूध पिलाने वाली घटना पहले घटित हो चुकी थी, उसके पिता भी रोज उसी मन्दिर में ठाकुर-पूजा करने जाते थे, फिर नामदेव को धक्के क्यों पड़ने थे? वह और उनके पिता तो पहले भी मन्दिर जाया करते थे। सो ये बात गलत है कि नामदेव जी किसी मन्दिर में किसी के कहे दूध पिलाने गए थे।

घर में ही ठाकुर-मूर्ति:

क्या नामदेव जी के पिता ने अपने घर में ‘ठाकुर’ रखे हुए थे?

ये बात भी बड़ी अनहोनी प्रतीत होती है। एक तरफ तो धर्म के रक्षक देवता जी शूद्रों को किसी मन्दिर में जाने की आज्ञा नहीं देते। ‘ठाकुरों’ की पूजा का अधिकार सिर्फ ब्राहमण, खत्री और वैश्य को ही है। भला, उन ‘ठाकुरों’ की पूजा किए बिना शूद्रों में क्या कमी रह जाती है कि वे अपने घर में ही ‘ठाकुर’ रख लें? सन् 1921से पहले का जिकर है अभी गुरद्वारा लहर शुरू नहीं हुई थी। सिख अखबारों के माध्यम से एक दुर्घटना सुनने में आई थी। एक ‘मज़हबी’ (शुद्र वर्ण का) फौजी सरदार श्री दरबार साहिब अमृतसर दर्शन करने आया, उसे अन्दर से धक्के पड़े, उसकी निरादरी हुई। इस बेइज्जती को ना सहते हुए उसने तुरंत सिख धर्म को अलविदा कहा और विलायती टोपी पहन के आ गए। उस वक्त की हास्यास्पद हालत के अनुसार उस साहब का आदर-सत्कार हुआ। गुस्से में आ के फौजी सरदार ने खूब खरी-खरी उन सिख-धर्म के रक्षकों को सुनाई। यह हालत तो तब की थी जहाँ गुरु नानक पातशाह की इनायत से इस प्रकार की तंग-दिली काफी कम हो चुकी थी। पर जिस इलाके में खास-खास सड़कों में शूद्र, थोड़े ही साल हुए हैं कि पैर नहीं रख सकते थे, नामदेव जी के जमाने में वहाँ की कैसी हालत होगी, ये अंदाजा हम पंजाब-वासी नहीं लगा सकते। नामदेव के पिता ने ऐसे लोगों के ‘ठाकुर’ से क्या लेना था कि अपने घर में रख लेता? पर सिर्फ यही बात नहीं। जो ब्राहमण उन्हें मन्दिर में रखे हुए ‘ठाकुर’ के नजदीक नहीं जाने देते, वह उन शूद्रों के घर में रख के ठाकुर की निरादरी करने की आज्ञा कैसे दे सकते थे? संन् 1939 का जिकर है, पंजाब के एक गाँव में एक अजीब झगड़ा हुआ सुना गया। गाँव के ‘मज़हबी’ सिखों ने अपना अलग गुरद्वारा बनाया और श्री गुरु ग्रंथ साहिब खरीद के ले आए। पर गाँव के सिखों (उच्च जाति वाले) ने उनकी खासी मार-कूट की, सिर्फ इस अपराध के लिए उन्होंने श्री गुरु ग्रंथ साहिब को ‘अशुद्ध’ कर डाला। गुरद्वारा-लहर के द्वारा सारी सिख कौम में जागृति आ जाने के बावजूद, उस सतिगुरु के नाम-लेवा सिखों में ऐसी तंग-दिली देखी गई, जो जोर-शोर से ‘नीचों’ से प्यार करता रहा। नामदेव और नामदेव जी के पिता को अपने घर में ‘ठाकुर’ रखने की आज्ञा मिल गई होगी?

सो, ना तो नामदेव किसी मन्दिर में ‘ठाकुर’ को दूध पिलाने गए और ना ही उनका कोई ‘ठाकुर’ अपने घर में रखा हुआ था। पंजाब में ही अपने आस-पड़ोस में ध्यान से देखें। कितने वर्जित नीच जाति वालों ने अपने घर में ‘ठाकुर’ रखे हुए हैं और मन्दिर की बजाए अपने ही घर में पूजा करते हैं?

सोने की कटोरी?

फिर एक और बात हैरानी वाली है। नामदेव जी लिखते हैं:

सुोइन कटोरी अंम्रित भरी॥ लै नामे हरि आगै धरी॥ ”

अगर घर में ही ‘ठाकुर’ रखे हुए थे, तो क्या नामदेव जी इतने धनवान थे कि ‘ठाकुर’ को दूध पिलाने के लिए उन्होंने सोने की कटोरी बनवाई हुई थी? वैसे अगर नामदेव जी की बात पर ऐतबार करना है तो उन्होंने ‘सुोइन कटोरी’ किसी ‘ठाकुर’ के आगे नहीं थी रखी। वह तो “हरि आगै धरी’ थी। हाँ, सवाल ये था कि क्या नामदेव जी सचमुच धनी थे कि कटोरी सोने की बनवाई हुई थी। हो सकता है कि अपने ईष्ट की पूजा के लिए पैसे जोड़-जोड़ के सोने की कटोरी बनवा ली हो। पर क्या नामदेव जी कपड़े सीने के लिए भी सोने की सुई ही बरतते थे? वे खुद लिखते हैं:

‘सोने की सूई रुपे का धागा॥ नामे का चितु हरि सिउ लागा॥’

अगर सिर्फ ‘सूई’ का वर्णन होता तो शायद मानना पड़ जाता, पर ‘चाँदी’ का धागा इस्तेमाल ही नहीं किया जा सकता। यहाँ तो बात ही और है। जैसे कपड़ा सीने के लिए ‘सूई’ आगे-आगे चलती है और उसके पीछे-पीछे ‘धागा’ चल के कपड़े को सिल देता है, वैसे ही ‘गुरु का शब्द’ आगे-आगे चल के सिख की सूझ को भेद के ऊँचा करके, पवित्र करके, शुद्ध बना के, जिंद को प्रभु-चरणों से सिल देता है। इसी तरह ‘सुोइन कटोरी’ से भाव है ‘सतिगुरु के शब्द की इनायत से पवित्र हुआ हृदय’।

घर को बापु:

दूध पिलाने वाले शब्द को जरा सा ध्यान से पढ़ें। ‘नाही त घर को बापु रिसाइ’; सिर्फ यही शब्द पढ़ के यह साखी प्रचलित हो गई प्रतीत होती है कि नामदेव के पिता ने घर से बाहर जाने के समय ‘ठाकुरों’ को दूध पिलाने का काम नामदेव को सौंपा। पर, ऐसे शब्द तो गुरबाणी में और भी कई जगह आते हैं, जैसे;

‘सउकनि घर की कंति तिआगी’ (आसा महला ५)

‘घर के जिठेरे की चूकी काणि’   (आसा महला ५)

‘घर की नाइकि घर वासु न देवै’ (आसा महला ५)

‘घर की बिलाई अवर सिखाई मूसा देखि डराई रे’ (आसा महला ५)

‘घरि वासु न देवै दुतर माई’ (सूही महला ५)

‘घरि रहु रे मन मुगध इआनै’ (मारू महला १)

‘घरु मेरा इह नाइकि हमारी’ (आसा महला ५)

‘घरु महि पंच वरतदे पंचे वीचारी’ (आसा महला ३)

‘घर महि निज घरु पाइआ, सतिगुरु देइ वडाई’ (वडहंसु महला ३)

‘घर महि ठाकुरु नदरि न आवै’ (सूही महला ५)

ऐसे और भी कई प्रमाण श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में से मिल सकते हैं जिनसे साफ साबित होता है कि यहाँ शब्द ‘घर’ का अर्थ ‘शरीर’ है। इसी तरह नामदेव जी इस तुक ‘नाही त घर को बापु रिसाइ’ का अर्थ है, ‘आत्मा, जिंद, मन’। शब्द ‘रिसाइ’ का भी ख्याल रखना। ‘रूठना’ नहीं (देखें अर्थों में)।

दूध किस को पिलाया?

इस सारी विचार के होते हुए भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि नामदेव जी ने दूध पिलाया था, क्योंकि इस बात का जिकर उनके शबदों में भी है और भक्त रविदास जी भी गवाही देते हैं। फिर दूध किस को पिलाया, कैसे पिलाया? ये बात समझने के लिए गुरु इतिहास की तरफ नजर मारें।

गुरु हरि गोविंद साहिब जी का सांडू भाई सांई दास डरोली (जिला मोगा, पंजाब) का रहने वाला था। रिश्ते में तो ये सांडू था, पर था सतिगुरु जी के चरणों का भौरा। बड़ा गहरा और सच्चा प्यार था सतिगुरु जी के साथ इसका। भाई सांई दास ने रिहायश के लिए नया घर बनाया। लोग नए मकानों की उद्घाटन करते हैं। सांई दास जी के दिल में तरंग उठी: पहले सतिगुरु जी आ के चरण डालें, घर पवित्र हो जाए, फिर इसमें बसेंगे। रिश्ता बहुत नजदीक का था, संदेशा भेज सकता था। पर सांई दास के तो वे दिल के पातशाह थे। संदेश भेजने में वह पातशाह की निरादरी समझता था। सोचा, वे तो दिल की जानने वाले हैं, खुद ही मेहर करेंगे और दर्शन बख्शेंगे। घर तैयार है; पर सांई दास अपने प्रीतम के इन्तजार में है; इधर भी;

‘एक समै मो कउ गहि बांधै तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ॥’

श्री अमृतसर साहिब में बैठे सतिगुरु जी के अंदर भी खींच पड़ने लग पड़ी। एक और चरण-भँवरा नानक-मत्ते बैठा इन्तजार कर रहा था। सो, हजूर पहले नानक-मक्ता पहुँचे, परिवार को सीधा डरोली भेज दिया और नानक-मत्ते से रुख्सत हो खुद भी यहाँ आ गए। भाई सांई दास ने इस तरह सिदक-प्यार से सतिगुरु जी को अपने हृदय-तख्त पर बैठाया था कि उसने भक्त नामदेव जी के उस उत्तम वाक्य को यथार्थ कर दिखाया:

“मेरी जीवनि मेरे दास॥ ”

रहती दुनिया तक भाई साई दास जी का जीवन मानव जाति के लिए प्रकाश-स्तंभ का काम करता रहेगा

प्रेम की तारें:

जेठ-आसाढ का महीने के दिन थे। दो गरीब से लोग, एक पिता और दूसरा पुत्र, एक जंगल में लकड़ियाँ काट रहे थे। आजीविका के लिए ये इनका रोज मर्रा का काम था। घर से रोटी पकवा के ले आनी, पानी की मश्क भर लानी और किसी वृक्ष पर टांग देनी। एक दिन दोपहर तक मेहनत करके ये दोनों पिता-पुत्र लगे रोटी खाने। पानी की मुश्क को हाथ लगाया, तो पानी बरफ़ जैसा ठंडा-ठार। ये दोनों थे गुरु हरि गोबिंद साहिब जी के सिख और बड़ा प्यार करने वाले सिख। मश्क को हाथ लगाते ही सारे जिस्म में, मानो, प्यार की बिजली की लहर चल गई; स्वत: ही बोल उठे: ये ठंडा पानी पहले हमारे दिल का साई गुरु हरि गोबिंद साहिब पीएं। अपनी भूख-प्यास सब भूल गई। गुरु चरणों को दिल में बैठा के एक-दूसरे का अलिंगन कर लिया। फिर क्या था: ‘तउ फुनि मो पै जबाबु न होइ’ वाली खेल बरत गई। हजूर उन दिनों भाई सांई दास के प्रेम में खिचे हुए डरोली आए थे, उस जंगल से 20-25 मील की दूरी थी। शायद नजदीक आए हुए सुन के ही इन दोनों गरीब सिखों में इतनी प्रबल इच्छा जाग उठी हो। कड़कती दोपहर, हजूर झटपट उठे, जल्दी से घोड़ा कसाया। भाई सांई दास चलित देख के हैरान, बोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी, पर आखिर पूछ ही लिया: हजूर! इतनी जल्दबाजी में किधर? आगे से दो-हरफी ही जवाब मिला, ‘बड़ी प्यास’। भाई सांई दास के देखते-देखते घोड़ा हवा से बातें करने लगा। और पलों में ही वहाँ आ पहुँचे जहाँ ये दोनों जिंदें इश्क की छोटी सी खेल के पीछे सिर-धड़ की बाज़ी लगाए बैठी थीं। ये थे भाई साधु और भाई रूपा, जिनका नाम सदा के लिए सिख इतिहास में चमकता रहेगा। इनके पास उस वक्त दूध तो नहीं था, पर तरले इनके भी भक्त नामदेव जी के समान ही थे।

‘दूधु पीअहु गोबिंदे राइ। दूधु पीआहु मेरे मनु पतीआइ॥
नही त घर को बापु रिसाइ॥’

जब पातशाह आए तो इन ‘नाम में रंगे प्रेमियों’ ने ‘सुोइन कटोरी अुम्रित भरी’ हजूर के आगे धर दी, दिल का तख़्त पातशाह के बैठने के लिए बिछा दिया। पातशाह जी प्यार के वश हो के बोल उठे:

‘ऐक भगतु मेरे हिरदै वसै’ और उनको देख-देख के मस्त हुए। ‘तुमरो दूधु बिदर को पानो’ कहने वाले प्यार-पुँज ने उन प्यारों से दूध जैसा मीठा पानी पीया। साधु और उसके पुत्र रूपे के भाग्य जाग उठे। वह अब अपने असल ‘घर’ में पहुँच गए जहाँ ‘नामे’ की तरह उनको भी ‘हरि का दरसनु भइआ’।

इह सुंदर नाट सदा ही:

इस जगत-रंगभूमी में मनुष्य जीवन के ऐसे सुंदर नाट्य होते आ रहे हैं और जब तक जगत कायम है होते रहेंगे। नामदेव भी तो किसी सुंदर ‘गुरु’ का बिका हुआ ही था, जिसका शुकरगुजार हो के वह कहता है:

‘सफल जनमु मो कउ गुरि कीना’

क्या भाई साधु और रूपे की तरह किसी वक्त भक्त नामदेव जी अपने सतिगुरु के दीदार कक कसक में नहीं आ सकते थे? जिन्हें अपना पुराना दब-दबा कायम रखने की गर्ज थी, उन्होंने शाहों के शाह पातशाह साहिब कलगीधर जी से देवी की पूजा करवा दी, उन्होंने धन्ने भक्त से एक ब्राहमण के आगे मिन्नतें करा के ‘ठाकुर’ को भोग लगवा दिया; नामदेव क्या बेचारा था? इससे भी एकादशी के बर्त रखवाए, ब्राहमण देवताओं को भोजन खिलवाए और ‘ठाकुर’ को दूध भी पिलवाया। अजीब खेल है! उच्च जाति के ब्राहमण देवते का ‘ठाकुर’ सिर्फ शूद्रों से ही प्रसन्न हो के दूध पीता रहा और खीर खाता रहा। ब्राहमण भक्त तो झूठ-मूठ ही भोग लगवाते चले आ रहे हैं।

गरीब के हिल्लोरे:

नामदेव जी के बारे में असल बात ये लगती है। इस बात में तो शक नहीं हो सकता कि शूद्र होने के कारण गरीबी भी अवश्य हिस्से आई होनी थी। गरीब को जा के पूछिए कैसे घर-घर में लस्सी के तरले लेते फिरते हैं। ईश्वर की मेहर से कहीं नामदेव जी को गाय लेने का मौका मिल गया। वे और उसके बच्चे कितने चाव-मल्लार में होंगे कि आज दूध मिलेगा, अपनी ही गाय का दूध मिलेगा। ये खुशी नामदेव जी को अपने सतिगुरु के चरणों में ले पहुँची। और जैसे नामदेव से दो साल बाद भाई साधु और रूपे ने एक मश्क ठंडे पानी से इश्क की खेल खेली, वैसे ही नामदेव भी अपने सतिगुरु को दूध पिलाने बैठ गया। उस ईश्वरीय मौज में बैठा नामदेव कह रहा है:

‘दूधु पीअहु गोबिंदे राइ॥ दूधु पीअहु मेरो मनु पतीआइ॥ नाही त घर को बापु रिसाइ॥’

जैसे भाई साधु और रूपे के दिल का पातशाह करड़ी कहर की धूप में तेजी से घोड़े पर आ पहुँचा, वैसे ही नामदेव के दिल का साई सतिगुरु भी आखिर आ पहुँचा और नामदेव को प्यार करने लगा। कुदरती नियम के अनुसार यह मानवीय स्वभाव शुरू से ही एकसार चला आ रहा है। प्यार के करिश्में इसी तरह ही सतियुग, त्रेते, द्वापर में होते आए हैं, अब भी हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे।

नामदेव जी अपने ‘गुरु’ को ‘गोबिंद राइ, हरि, नाराइण’ उसी तरह कहते हैं जैसे सतिगुरु जी की वाणी में ‘गुरु’ को यूँ कहा गया है:

‘गुरु करता, गुरु करनै जोगु॥ गुरु परमेसरु, है भी होगु॥’

विरोधी सज्जन:

भक्त वाणी के विरोधी सज्जन इस शब्द के बारे में यूँ लिखते हैं:

“उक्त शब्द में मूर्ति अथवा बुत-पूजा की मर्यादा का उपदेश है। कपला गऊ को हिन्दू विचारों के अनुसार बहुत पवित्र माना गया है। गोबिंद राय से भाव कृष्ण जी है। यदि भक्त जी को पत्थर में से ईश्वर के दर्शन हुए तो अब भी होने चाहिए।

“चाहे नामदेव जी ने कुछ-कुछ दूसरे शब्दों में मूर्ति-पूजा का खण्डन भी किया है, पर जब मंडन है फिर खंडन के क्या अर्थ? या खण्डन करना था या मण्डन। इससे तो ये साबित हुआ कि भक्त जी का कोई सिंद्धांत ही नहीं था।

“कई पीछे खींचने वाले (सनातनी, हिन्दू सिख) बुत-पूजा के अर्थ टेढ़े-मेढ़े करके टालते हैं, या, यह कहते हैं कि शब्द पहली अवस्था के हैं। पर अगर ये पहले उपदेश थे, तो इस अज्ञान को प्रचारने के हित नामदेव-रचना में शामिल रखने का क्या लाभ....?

‘भक्त नामदेव जी निर्गुण के भक्त होते तो देहुरे जा के पूजा करते ही क्यों? आप ने शिव-द्वारों और देवी-द्वारों की सख्त निंदा की है, पर ठाकुर-द्वारों की पूजा करनी बताई है। ये द्वैतता क्यो? ”

हम उपरोक्त लिखे लेख में विरोधी सज्जन के इन ऐतराजों के बारे में खुली विचार कर चुके हैं। यहाँ सिर्फ इतना ही लिखना बाकी रह गया है कि नामदेव जी ने अपने किसी भी शब्द में ठाकुर-द्वारों की पूजा करनी नहीं बताई। शब्द ‘गोबिंद राइ’ का अर्थ ‘कृष्ण जी’ नहीं किया जा सकता, क्योंकि भक्त जी शब्द ‘हरि’ और ‘नाराइणु’ भी बरतते हैं।

कृष्ण भक्ति:

इस उपरोक्त शीर्षक तहत भक्त वाणी के विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: “भक्त जी भले ही रामचंद्र जी के उपासक भी थे, पर कृष्ण-उपासना में उनकी ज्यादा लगन प्रतीत होती है। हो सकता है कि पहले भक्त जी रामचंद्र के उपासक होंगे, बाद में कृष्ण-भक्ति का पल्ला पकड़ा, क्योंकि भक्त जी की रचना में रामचंद्र-भक्ति का कुछ-कुछ खण्डन भी मिलता है, पर कृष्ण-उपासना के विरुद्ध तो एक शब्द तक भक्त जी नहीं लिख सकते। इससे साबित होता है कि भक्त जी कृष्ण-उपासक थे।”

इससे आगे उस सज्जन जी ने हवाले के तौर पर वही शब्द दिए हैं, जिस पर हम अभी खुली विचार कर चुके हैं।

नामदेव जी के तिलंग राग वाले शब्द ‘हले यारां’ और राग बसंत के ‘आउ कलंदर’ शब्द का हवाला दे के विरोधी सज्जन जी लिखते हैं: “भक्त नामदेव जी कृष्ण-उपासना के इतने श्रद्धालु थे कि मस्ती में आ के वे फर्क ही नहीं कर पाते थे कि ये सांवले केशव (कृष्ण जी) हैं या कि मुग़ल। कहीं कृष्ण जी को कलंदर से तसबीह दी जाती है।”

हम “आउ कलंदर’ शब्द के बारे में थोड़ी सी विचार ऊपर दे आए हैं। ‘हले यारां’ शब्द के बारे में विचार शब्द के टीके में पेश करेंगे।

आखिर में जा के विरोधी सज्जन यूँ लिखते हैं: “निर्णय हो गया कि नामदेव जी गुरमति के सिद्धांत से बहुत निम्न स्तर पर हैं। भक्त जी की कृष्ण-भक्ति का गुरमति भली प्रकार खण्डन करती है। सो, जब नामदेव जी की रचना में कृष्ण-भक्ति का उपदेश है, हर हालत में मानना पड़ेगा कि कि व्यापक ईश्वर को मानने वाले शब्द आपके नहीं हैं।”

भक्त नामदेव जी के कुल 61 शब्द हैं। हम ऊपर बता आए हैं कि इनमें से 10 शब्द ऐसे हैं जिनके अर्थ करने में टीकाकार सज्जन भुलेखा खाते रहे हैं। ये अनोखी दलील है कि इन 10 शबदों को ना समझ सकने के कारण हम ये फैसला कर लें कि बाकी के 51 शब्द भक्त नामदेव जी के हैं ही नहीं।

ज़ात-पात:

इस शीर्षक तहत विरोधी सज्जन लिखते हैं: “श्री नामदेव जी जात-पाति के पक्के हामी थे। अपनी जाति को नीच जाति समझते थे। ब्राहमणों से तंग आकर ये भी कहते हैं कि मेरा धोबी (छींपे) के घर जनम ही क्यों हुआ।... वे समझते थे कृष्ण जी छीपे खुद बनाते हैं।... श्री नामदेव जी छीपा जाति से आजाद ना हो सके।...जात-पात के अति पाबंद थे। उस वक्त जाति-पाति की चर्चा भी बहुत भारी थी। शूद्र संज्ञा की व्याधि के कारण ब्राहमणों ने मन्दिरों में जाने की आज्ञा नहीं दी थी और आपको ढेढ भी कहते थे....।

“गुरमति का सिद्धांत बहुत ऊँचा और स्वच्छ है। इस अवस्था तक भक्त नामदेव जी नहीं पहुँच सके। जनम की जाति माननी अज्ञानता है।”

जरवाणा (अत्याचारी शासक) कमजोर को मारता भी है और रोने भी नहीं देता। नामदेव जी अपने करोड़ों भाईयों पर ब्राहमणों द्वारा हो रहे अत्याचार के विरुद्ध पुकार करते हैं। इस पुकार का अर्थ सिर्फ ये ही निकाला गया है कि ‘जनम की जाति मानना अज्ञानता है’।

पर सज्जन जी! गुरु पातशाह की अपनी वाणी में से उदाहरण के तौर पर निम्न-लिखित प्रमाणों को थोड़ा सा ध्यान से पढ़िए:

नामा जैदेउ कंबीर त्रिलोचनु, अउजाति रविदास चमिआरु चमईआ॥
...जो जो मिलै साधू जन संगति, धनु धंना जटु, सैणु मिलिआ हरि दईआ॥७॥४॥ (बिलावल महला ४॥ पंना ८३५)
कलजुगि नामु प्रधानु पदारथु, भगत जना उधरे॥
...नामा जैदेउ कबीरु त्रिलोचनु, सभि दोख गए चमरे॥२॥१॥

... (चमरे = चमार रविदास के) (मारू महला ४ पंना ९९५)

साध संगि नानक बुधि पाई, हरि कीरतनु आधारो॥
...नामदेउ त्रिलोचनु कबीर दासरो, मुकति भइओ चमिआरो॥२॥१॥१०॥ (गुजरी महला ५, पंना ४९८)

रविदासु चमारु उसतति करे, हरि कीरति निमख इक गाइ॥
...पतित जाति उतमु भइआ चारि वरन पए पगि आइ॥२॥
...नामदेअ प्रीति लगी हरि सेती, लोकु छीपा कहै बुलाइ॥
...खत्री ब्राहमण पिठि दे छोडे, हरि नामदेउ लीआ मुखि लाइ॥ (सूही महला ४॥ पंना ७३३)

जैदेव तिआगिओ अहंमेव॥ नाई उधरिओ सैनु सेव॥६॥१॥ (बसंतु महला ५ पंना ११९२)

सतिगुरु जी तो इन भक्तों की महिमा कर रहे हैं। पर हमारा सज्जन कहता है कि ये लोग गुरमति के सिद्धांत तक नहीं पहुँच सके।

ੴ (इक ओअंकार) सतिगुर प्रसादि॥

भक्त कबीर जी के साथ

भाईचारिक जान-पहिचान

जनम और देहांत:

कबीर जी की अपनी वाणी में से ये पता चलता है कि उनका जन्म शहर बनारस (काशी) में हुआ था।

मैकालिफ़ ने कबीर जी का जीवन लिखते हुए लिखा है कि भक्त जी का जनम जेठ की पूरनमासी संवत् 1455 (मई सन् 1398) को हुआ था। उम्र के आखिरी हिस्से में कबीर जी मगहर जा बसे थे। वही मघ्घर सुदी 11 संवत् 1575 (नवंबर संन 1518) को उनका देहांत हुआ था। मैकालिफ के लिखने के अनुसार कबीर जी की कुल उम्र 119 साल 5 महीने 27 दिन थी।

शंका:

गुरु नानक देव जी की हिन्दू तीर्थों की तरफ पहली ‘उदासी’ सन 1507 से संन 1515 तक आठ साल रही थी। इसी ही ‘उदासी’ के समय उन्होंने सारे भक्तों की वाणी भी एकत्र की। मैकालिफ के अनुसार ये निष्कर्ष निकालना पड़ता है कि सतिगुरु जी भक्त कबीर जी को मिले थे।

कबीर जी ने एक-दो शबदों में भक्त नामदेव जी, जैदेव जी, रविदास जी और त्रिलोचन जी का वर्णन किया है, पर गुरु नानक देव का कहीं भी नहीं। रविदास जी कबीर जी के समकाली भी थे। संन 1515 तक सतिगुरु जी का नाम सारे भारत में मशहूर हो चुका था। अगर सतिगुरु जी भक्त कबीरा जी के समकाली होते, तो भक्त जी सतिगुरु नानक देव जी का जिकर भी जरूर करते। यह ठीक है कि गुरु नानक देव जी ने भी कबीर जी का वर्णन कहीं नहीं किया, पर उन्होंने तो किसी भी भक्त का वर्णन अपनी वाणी में नहीं किया। यह अपना-अपना लिखने का तरीका है।

सो, यही ठीक लगता है कि भक्त कबीर जी का देहांत संन् 1518 से कहीं पहले हो चुका था।

जन्म के बारे में बेमतलब की कहानी:

भक्त कबीर जी के जन्म के बारे में मैकालिफ ने एक बहुन ही अनहोनी सी बेमतलब कहानी दी है कि: बनारस में एक ब्राहमण रहता था जो रामानंद जी की सेवा किया करता था। एक दिन वह अपने साथ अपनी बाल-विधवा लड़की को भी रामानंद के पास ले गया। लड़की ने माथा टेका, तो रामानंद जी ने पुत्रवती होने की आसीस दे दी। लड़की का पिता घबराया, पर आशिर्वाद अटल रहा और उस बाल-विधवा से बालक ने जन्म लिया। इस बालक को वे बनारस से बाहर नजदीक ही एक तालाब पर छोड़ आए। वहाँ एक मुसलमान जुलाहा आ निकला, वह बच्चे को अपने घर ले आया। मौलवी से नाम रखवाया। उस जुलाहे के घर कोई औलाद नहीं थी। उसने इस बालक को अपना पुत्र बना के इसकी पालना की। ये थे कबीर, जो फिर सारे भारत में अपनी भक्ति के कारण प्रसिद्ध हुआ।

अनहोनी बात:

कबीर जी ने अपनी वाणी में कई बार लिखा है कि आप जाति के जुलाहे थे। भारत में अभी उच्च जाति का मान व फखर बहुत था (अब भी कहाँ कम है?) ब्राहमण लोग अपना दबदबा कायम रखने के लिए बार-बार यही मेहणे मारते होंगे कि है तो आखिर नीच जोलाहा ही। तभी तो कबीर जी ने इनको यूँ कबीर वंगार के कहा:

“तुम कत ब्राहमण, हम कत सूद॥ हम कत लोहू, तुम कत दूध॥ ”

ये कितनी अनहोनी सी बात है कि कबीर जी के जीवन-लिखारी को यह पता मिल गया कि कबीर जी बाल-विधवा ब्राहमणी के पेट से पैदा हुए हैं, पर कबीर जी को 120 साल की उम्र तक भी अपने उच्च जाति में से होने का पता नहीं चल सका। वह अपने आप को आखिर तक जोलाहे की संतान ही समझते रहे।

जिस रामानंद जी के आशिर्वाद से कबीर जी का जन्म बताया जा रहा है, उन्होंने भी अपने चेले कबीर को कभी यह भेद की बात नहीं बताई। (रामानंद जी ने अपने एक ब्राहमण सेवक को श्राप दे के चमार के घर जन्म दिला के रविदास बना दिया बताया जाता है। कैसी अजीब बात है! यह श्राप भी गुप्त ही रहा। सिर्फ भक्त-माल के लिखारी के कानों में ही ये बात आ पहुँची थी)।

अनोखा आशिर्वाद:

कबीर जी का जन्म एक अनोखे आशिर्वाद से जोड़ना किसी चालाक दिमाग की खोज लगती है। ये कोई श्रद्धालु भी हो सकता है, जो कबीर जी को उच्च कुल में से पैदा हुआ देखना और दिखाना चाहता हो। पर ये कोई दुष्ट भी हो सकता है, जो कबीर जी का जन्म इस तरह शक के दायरे में ला के उनके रसूख को कम करने की फिक्र में हो, ताकि कबीर जी ने ब्राहमणों की धार्मिक ठेकेदारी पर जो करारी चोट मारी है, उसका कुछ असर कम किया जा सके। इन सभी भक्तों की वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में पढ़ कर देखें। ब्राहमण के कर्मकांड आदि के पसारे के जाल की आपने अच्छी तरह से कलई खोली है। पर इनका जीवन भी पढ़ के देखें। किसी को बीठुल-मूर्ति का पुजारी बना दिया गया, किसी को पण्डित से लिए हुए ठाकुर का पुजारी दिखाया गया है।

ये हम ही हैं, जो दोनों विरोधी बातों को ठीक मानते जा रहे हैं। बल्कि यहाँ तक आ पहुँचे हैं कि भगतों के कई शबदों को मूर्ति-पूजा के हक में मान रहे हैं। कैसी हास्यास्पद श्रद्धा है!

जिस कबीर जी को दुखदाई लोग ‘कूटन’, ‘नचण’, ‘तसकर’ आदि नीच नामों से याद करते थे और आगे से कबीर जी हस के धैर्य से सिर्फ ये कह देते कि हे भाई!

‘कूटनु किसै कहहु संसार॥ सगल बोलन के माहि बीचारु॥ ” (गौंड, पंना ८७२)

जिस कबीर के जीवन से एक चोर की स्वाभिमान-हीन कहानी जोड़ी गई है, उस महापुरुख का ऐसे लोगों द्वारा लिखा लिखाया जीवन जरा ध्यान से पढ़ने की आवश्यक्ता है। जिस जाति को वंगार के कबीर जी ने कहा:

“जौ तूं ब्रहिमणु ब्राहमणी जाइआ॥ तउ आन बाट काहे नही आइआ॥ ”

उस जाति को ये सच्ची और खरी चुभन कोइ कम नहीं लग रही थी। उसने अपना वार जरूर करना था। सो, हमने कबीर जी का जीवन उनकी अपनी ही वाणी में से देखना है।

यहाँ एक और मुश्किल आ जाती है। हमारे ही इतिहासकारों ने लिख दिया कि भगतों की वाणी गुरु अरजन देव जी ने एकत्र की थी। इस बारे में मैकालिफ़ लिखता है कि:

‘यहाँ ये मानना पड़ता है कि उस वाणी में भगतों द्वारा उनके उपासकों के पास आने पर कुदरती तौर पर कुछ अदला-बदली भी आ गई थी। ”

अगर ये वाणी बदली हुई ही है, तो इसमें कबीर जी का जीवन तलाशने का क्या लाभ? ये तो ऐतबार के लायक ही ना रही। इसमें से तलाशा हुआ ‘जीवन’ भी कैसे भरोसे-योग्य हो सकता है? सो, हमने ये भी साबित करना है कि कबीर जी की ये वाणी बदली हुई नहीं है। ये बात तब ही सिद्ध हो सकती है जब हम ये ढूंढ सकें कि गुरु नानक देव जी ने स्वयं ही ये वाणी इकट्ठी की थी। (पढ़ें मेरा अगला लेख ‘भक्त कबीर जी और गुरु नानक देव जी’)।

हिन्दू कि मुसलमान?

अ. ये ख्याल बिल्कुल ही ग़लत है कि कबीर जी मुसलमान थे। बाबा फरीद जी और भग्रत कबीर जी की सारी वाणी पढ़ के देखें, ध्यान से पढ़ के देखें। ये बात साफ तौर पर दिखाई दे रही है। फरीद जी हर जगह इस्लामी शब्दावली का प्रयोग करते हैं: मुलकुलमौत, पुरसलात (पुल सिरात), अकलि लतीफ़, गिरीवान, मरग आदि सब मुसलमानी शब्द ही हैं। ख्याल भी उन्होंने इस्लामी ही दिए हैं, जैसे;

“मिटी पई अतोलवी, कोइ न होसी मितु॥ ”

यहाँ मुर्दा दबाने की ओर इशारा है।

कबीर जी की वाणी में सारे शब्द हिन्दके हैं। सिर्फ वहीं इसलामी शब्द मिलेंगे जहाँ किसी मुसलमान से बहस है। परमात्मा के वास्ते भी कबीर जी ने आम तौर पर वही नाम प्रयोग किए हैं जो हिन्दू लोग अपने अवतारों के लिए बरतते हैं और जो सतिगुरु जी ने भी बहुत बार बरते हैं: पीतांबर, राम, हरि, नाराइन, सारंगि धर, ठाकुर आदि।

इस उपरोक्त विचार से सहज ही ये निष्कर्ष निकलता है कि बाबा फरीद जी मुसलमानी घर और इस्लामी विचारों में पले थे, कबीर जी हिन्दू घर और हिन्दू-सभ्यता में। हाँ, हिन्दू कुरीतियों और कुकर्मों को कबीर जी ने दिल खोल के नश्र किया है। ये बात भी यही जाहिर करती है कि हिन्दू-घर में जन्म होने व पलने के कारण कबीर जी हिन्दू-रस्मों और मर्यादाओं को अच्छी तरह जानते थे।

आ. गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई भक्त वाणी के शीर्षक को ध्यान से पढ़ के देखो। ये शीर्षक गुरु साहिब के लिखे हुए हैं। सिर्फ फरीद जी के वास्ते शब्द ‘शेख’ प्रयोग करते हैं, बाकी सबके लिए ‘भक्त’। ‘शेख’ मुसलमानी शब्द है, मुसलमान के लिए ही बरता जा सकता है। ‘भक्त’ हिन्दका शब्द है और सिर्फ हिन्दू के लिए ही बरता जा सकता है।

इ. अगर कबीर जी के जन्म के बारे में वह अनुचित मनघड़ंत कहानी मान ली जाए, तो कबीर जी जन्म से ही एक मुसलमान जुलाहे के घर पले, उसने उनका नाम भी मौलवी से ही रखवाया। हरेक मुसलमान अपने पुत्र की सुन्नत छोटी उम्र में करवा देता है। पर सुंनत के बारे में कबीर जी का आसा राग का शब्द पढ़ कर देखिए:

सकति सनेहु     करि सुंनति करीऐ, मै न बदउगा भाई॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा, आपन ही कटि जाई॥२॥ सुंनति कीए तुरकु जे होइगा, अउरत का किआ करीऐ॥ अरध सरीरी नारि न छोडै, ता ते हिनदू ही रहीऐ॥३॥

इस शब्द से साफ जाहिर है कि ना ही कबीर जी की सुंनत हुई हुई थी और ना ही वे इसके हक में थे। मुसलमान जुलाहे के घर पले कबीर जी की सुन्नत क्यों नहीं करवाई गई?

यहाँ एक मजेदार बात भी याद रखने वाली है। कबीर जी मुसलमानी पक्ष का वर्णन करते हुए घर की साथिन और मुसलमानी शब्द ‘अउरत’ बरतते हैं। पर अपना पक्ष बयान करते वक्त हिन्दू शब्द ‘अरध सरीरी नारि’ प्रयोग करते हैं।

ई. हिन्दू व्यवस्था में ऊँची-नीची जाति का भेदभाव आम प्रसिद्ध है। मुसलमान कौम में किसी को शूद्र नहीं कहा जा सकता। अगर कबीर जी मुसलमान जुलाहे होते तो कोई भी ब्रामण उन्हें शूद्र कहने की दलेरी ना करता, खास तौर पर शासन ही मुसलमान पठानों का था। हिन्दू जुलाहे को ही शूद्र कहा जा सकता था, तभी आगे से कबीर जी उक्तर दिया था:

‘तुम कत ब्राहमणु, हम कत सूद॥ ”

उ. मुसलमान अपनी बोली में अपने लिए शब्द ‘दास’ का इस्तेमाल नहीं करते। पर कबीर जी ने कई जगहों पर अपने आप को ‘दासु कबीरु’ करके लिखा है।

ऊ. आसा राग के शब्द नं: 26 में कबीर जी लिखते हैं:

हम गोरू, तुम गुआर गुसाई, जनम जनम रखवारे॥
कबहूं न पारि उतारि चराइहु, कैसे खसम हमारे॥२॥
तूं बाम्नु, मै कासीक जुलहा... ... ...

भाव: कई जन्मों से हमारे रखवाले बने चले आ रहे हो। हम तुम्हारी गाईयां बने रहे, तुम हमारे ग्वाले (खसम मालिक) बने रहे। पर तुम (लोग) अब तक नकारे ही साबित हुए।

(ये ठीक है कि) तू काशी का ब्राहमण है (तुझे मान है अपनी विद्या का) मैं जुलाहा हूँ (जिसे तुम्हारी विद्या पढ़ने का हक नहीं) ... ... ...

कोई मुसलमान जुलाहा यह नहीं मानता कि ब्राहमण अभी तक उसका गोसाई ग्वाला है और वह उसकी गाय।

क. राग गौंड का निम्न-लिखित शब्द ध्यान से पढ़ें:

नरू मरै, नरु कामि न आवै॥ पसू मरै, दस काज सवारै॥१॥ .. ... ... हाड जले जैसे लकरी का तूला केस जले जैसे घास का पूला॥२॥ कहु कबीर तब ही नरु जागै॥ जम का डंडु मूड महि लागै॥३॥२॥ (पंना ८७०)

शरीर की अंतिम दशा का सहज स्वभाविक वर्णन करते हुए भी कबीर जी हिन्दू-मर्यादा ही बताते हैं कि मरने पर जिस्म आग की भेट हो जाता है। इस शब्द में किसी भी मज़हब की बाबत कोई बहस नहीं है। साधारण तौर पर इन्सानी हालत बयान की गई है। इस साधारण हालत के बताने में भी सिर्फ जलाने के रिवाज का जिक्र साफ़ साबित करता है कि कबीर जी मुसलमान नहीं थे, हिन्दू घर के जम-पल थे।

नोट: और देखें नीचे दिए गए शब्द;

गउड़ी ११,१६, आसा ८, बिलावल ४, रामकली २, केदारा ६, भैरउ १५॥

ख. भक्त जी का नाम मुसलमानों वाला प्रतीत होता है। पर सिर्फ इससे ही यकीन बना लेना कि कबीर जी मुसलमान थे, बहुत भुलेखे वाली बात है। पूर्वियों में रामदीन, गंगा दीन आदि अनेक नाम होते हैं पर होते वे हिन्दू हैं।

ग. राग मलार में भक्त रविदास जी का एक शब्द है, जिसको बेपरवाही से पढ़ने पर कबीर जी के मुसलमान होने का भुलेखा लग सकता है।

(उस शब्द को समझने के लिए पढ़ें मेरा–‘भक्त वाणी सटीक हिस्सा दूसरा’)

मगहर:

आम हिन्दू लोगों का विश्वास था कि जो मनुष्य बनारस में रहते हुए शरीर त्यागे, वह मुक्त हो जाता है, क्योंकि ये नगरी शिव जी की है। एक नगर है मगहर, अयोध्या से 85 मील पूर्व की तरफ और गोरखपुर से 15 मील पश्चिम में। हिन्दू इस नगर को श्रापित मानते थे। ये ख्याल बना हुआ था कि जो मनुष्य मगहर में शरीर त्यागता है, वह गधे की जूनि पड़ता है।

कबीर जी ने लोगों का ये वहम दूर करने के लिए बनारस छोड़ के मगहर जा बसे थे। गउड़ी राग के इस शब्द में कबीर जी यूँ लिखते हैं;

‘अब कहु राम कवन गति मोरी॥ तजीले बनारस, मति भई थोरी॥

सगल जनमु सिवपुरी गवाइआ॥ मरती बार मगहरि उठि आइआ॥’

दो वार:

राग रामकली के तीसरे शब्द में (पंना ९६९) कबीर जी इस प्रकार लिखते हैं:

“तोरे भरोसे मगहर बसिओ, मेरे तन की तपति बुझाई॥

पहिले दरसनु मगहर पाइओ, फुनि कासी बसे आई॥२॥ ”

ऐसा प्रतीत होता है कि कबीर जी दो बार मगहर रहे हैं। दूसरी बार तो लोगों का ये भ्रम दूर करने के लिए गए कि मगहर मरने पर गधे की जूनि मिलती है। पहली बार जाने का कारण इस शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दू लोग काशी को ज्ञान प्राप्त होने का स्थान माने बैठे थे। कबीर जी ने उनका ये भुलेखा दूर करना था। यही जिक्र है इस शब्द के दूसरे बंद में।

केसाधारी:

कई बार देखने में आता है कि जब कोई सिख किसी विरोधी का नुकसान देख के खुश होता है, तो कुदरती तौर पर कह देता कि फलाने का कीर्तन सोहिला पढ़ा गया। ऐसा क्यों? क्योंकि सिख किसी के मर जाने पर, उसके शरीर का संस्कार के बाद सोहिले की वाणी का पाठ करते हैं। शब्द ‘सोहिला’ (‘कीर्तन सोहिला’ गलत प्रयोग है) मुहावरे के तौर पर भी बरता जाने लग पड़ा है। पर, सिर्फ सिखों में ही, क्योंकि, वाणी ‘सोहिला’ का संबंध सिर्फ सिखों से है।

भांग पीने वाले कई सिखों ने भांग का नाम ही ‘सुख निधान’ रख लिया है। ये शब्द गुरबाणी में आम प्रयोग में मिलता है: सुखों का खजाना। एक सिख अखबार ने हास्य-रस की बातें लिखने वाले कालम का नाम ही रख डाला ‘सुख निधान’ की मौज में। गुरु ग्रंथ साहिब जी की में शब्द ‘सुख निधान’ अनेक बार पढ़े जाने के कारण ये मुहावरा भी एक सिख की जीभ पर चढ़ सकता था (वैसे ये ठीक नहीं है कि इस पवित्र शब्द को नशे का नाम देना)।

मनुष्य अपनी बोली में उन चीजों के नाम (मुहावरे के तौर पर भी) सहज ही बरतने को राजी हो जाता है, जिनके साथ उसका हर रोज सामना होता है। दुकानदार, किसान, लोहार आदि लोगों के मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल हुए शब्द आम तौर पर अलग-अलग होंगे। श्री गुरु ग्रंथ साहिब में ‘केसा का करि चवरु ढुलावा’ जैसे वह वाक्य जिस में शब्द ‘केस’ बरता गया है, पढ़ के सहज ही इस नतीजे पर पहुँचना पड़ता है कि ऐसे वाक्यों के लिखने वाले ‘केसाधरी’ ही हो सकते हैं।

कबीर जी के नीचे दिए हुए शब्द भी इस सिलसिले में पाठकों के वास्ते दिलचस्पी का कारण बनेंगे:

क. रामकली ४ (पंना ९६९)

...संता मानउ, दूता डानउ, इह कुटवारी मेरी॥
...दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ, केस चवर करि फेरी॥१॥

ख. मारू ६ (पंना ११०४)

...काहे कीजत है मनि भावनु॥
...जब जमु आइ केस ते पकरै, तह हरि को नामु छडावन॥१॥ रहाउ॥

ग. मारू १२॥ (पंना ११०६)

...जउ जम आइ केस गहि पटकै, ता दिन किछु न बसाहिगा॥
...सिमरन भजनु दइआ नही कीनी, तउ मुखि चोटा खाहिगा॥2॥

भक्त वाणी के विरोधी सज्जन

कबीर जी के बारे:

मुसलमान से हिंदू:

विरोधी सज्जन लिखता है: ‘असल में कबीर जी का जन्म माता नीमा पिता नीरू (मुहम्मद अली) मुसलमान जुलाहे के घर हुआ। इनका असल नाम ‘कबीर-उ-दीन’ था।...’

‘कबीर जी को इस्लाम मत से तसल्ली नहीं हुई, तब कबीर जी ने रामानंद जी को गुरु धारण किया, जो कि पक्के वैश्नव वैरागी थे, छूत-छात के हामी थे। स्वामी रामानंद जी ने कबीर जी को कंठी तिलक आदि वैरागी साधुओं वाले चिन्ह दे कर चेला बना लिया।’

विरोधी सज्जन जी ने घाड़त तो घड़ी, पर कहानी बना नहीं सके।

क. हिंदू मत किसी जन्म के मुसलमान को हिंदू नहीं बना सकता था

ख. कबीर जी पठानों के शासनकाल में हुए हैं। उस मुस्लिम राज में कोई मुसलमान अपना मज़हब छोड़ के हिन्दू नहीं बन सकता था। ये शरह का कानून सख्ती से लागू था।

ग. छूत-छात के हामी रामानंद जी ने मुसलमान (मलेछ?) को अपना चेला कैसे बना लिया?

घ. चेले का नया नाम विरोधी सज्जन ने घड़ा ही नहीं। शायद भूल गए। मुसलमानी नाम ही रहने दिया।

ङ. तिलक की तो कबीर जी ने स्वयं ही निंदा की हुई है। रामानंद जी के पास से कैसे ये चिन्ह स्वीकार कर लिया?

च. पर, जिस महापुरुष को विरोधी सज्जन वैश्णव बैरागी कह रहे हैं, उनके बारे में गुरु अमरदास जी कह लिखते हैं:

‘नामा छीबा, कबीरु जुोलाहा, पूरे गुर ते गति पाई॥ ”

मांग के खाने का प्रचार:

इस शीर्षक तहत विरोधी सज्जन लिखता है: “कबीर जी की बाबत आम तौर पर प्रसिद्ध है कि आप मेहनत-कमाई करके खाते थे। पर कबीर जी की रचना में राजयोग की अवस्था के चिन्ह बिल्कुल नहीं मिलते। इसके उलट मांग के खाने और निखटू बनने के काफी सबूत मिलते हैं।

बतौर सबूत विरोधी सज्जन कबीर जी के शलोकों में से शलोक नंबर 150 152, 159 और 168 का हवाला दिया है। आगे लिखता है:

‘ऊपर आए प्रमाणों से साबित होता है कि कबीर जी मांग के खाने और निखटू हो के बिना काम वाले बन के जिंदगी बिताने को अच्छा समझते थे। आप फरमाते हैं कि सारा देश खुला है, जहाँ दिल करे माँगते-खाते फिरो। खुद भी घर के काम-धंधे छोड़ के माँगने लग पड़े थे।...’

विरोधी सज्जन जी ने कबीर जी के इन शलोकों को समझने में काफी गलती कर बैठे हैं। पाठक सज्जन मेरा ‘सटीक सलोक भक्त कबीर जी’ पढ़ें।

3. विद्या का खण्डन:

इस शीर्षक तहत विरोधी सज्जन लिखता है: कबीर जी पढ़ने का खण्डन करते हैं। तभी उनके बहुत सारे चेले पढ़ाई से वंचित ही हैं। कबीर जी अपनी रचना में खुद फरमाते हैं कि विद्या की जरूरत नहीं।”

आगे निम्न-लिखित प्रमाण दिए गए हैं:

अ. ‘बिदिआ न परउ, बादु नही जानउ।’

आ. सलोक नं: 45, ‘कबीर मै जानिओ पढ़िबो भलो...’

ये प्रमाण दे के विरोधी सज्जन लिखता है: ‘साबित होता है कि कबीर जी ने विद्या पढ़ने का खण्डन किया है। पर गुरमति के अंदर ‘विदिआ विचारी ता परउपकारी’ के उपदेश दे के हर सिख के लिए लाजमी करार दिया गया है कि वह विद्या प्राप्त करे।”

जिस शब्द का हवाला दे के विरोधी सज्जन जी ने कबीर जी को पढ़ाई-लिखाई के विरुद्ध समझा है, उसमें कबीर जी ये कह रहे हैं कि आत्मिक जीवन के लिए किसी चोंच-ज्ञान की आवश्यक्ता नहीं है। विरोधी सज्जन को ये ऐतराज लिखने के समय ‘आसा दी वार’ में गुरु नानक देव जी निम्न-लिखित शलोक लगता है याद नहीं रहे;

‘पढ़ि पढ़ि गडी लदीअहि, पढ़ि पढ़ि भरीअहि साथ।...’

शलोक नं: 45 में भी कबीर जी ने भी यही बात कही है (पढ़ें मेरा ‘सटीक सलोक कबीर जी’)

4. भूखे भगति न कीजै:

इस शीर्षक के तहत विरोधी सज्जन लिखता है: ‘कबीर जी का मत ये है कि भूखे से भक्ति नहीं होती।... अगर भक्त साहिब की मर्जी के मुताबिक चीजें ना मिले तो वे माला फेंकनेको भी तैयार हैं।...। है भी ठीक। फकीरों का काम खाली बैठ के खाना है, ना कि मेहनत-कमाई करके।...। भक्त कबीर जी का रोटी के लिए विलाप करना गुरमति के विरुद्ध है।...। कबीर जी के इस लिखत से साफ जाहिर है कि कबीर जी के रब में रोटियां देने की सामर्थ्य नहीं थी....। कबीर जी का रब पर भरोसा नहीं है.....। उससे रजाईयों के माँग की शर्त और कहना कि अगर तूने ना दीं तो अपनी माला-रूप चपड़ास संभाल ले; ये बहुत ही निम्न स्तर की बाते हैं।’

जब किसी शब्द का ठीक से अर्थ समझने के प्रयत्न ही ना किए जाएं, गलती तो होनी ही हुई। आज से चालीस-पचास साल पहले जब सिख-दीवानों में ढोलकी-छैणों से हले और जोटियों की धारनाओं पर शब्द गाने का रिवाज था, कबीर जी ने इस शब्द ‘भूखे भगति न कीजै’ के साथ ही निम्न-लिखित धारना आम तौर पर बरती जाती थी:

“आह लै फड़ माला आपणी साथों भुखिआं भक्ति ना होवे।”

शब्द की हरेक तुक के साथ पढ़ी हुई यह धारना भी उसी भाव की ओर ले जाती है, जिधर जाने की विरोधी सज्जन ने गलती की है।

कबीर जी के शब्द ‘करवतु भला’ के साथ भी आम तौर पर नीचे दी हुई हले की धारना गाई जाती थी:

इक वारी राम बोलदी, जे मैं जाणदी सजण कंड देणी।

पर जो सज्जन एक उच्च कोटि के विद्वान महाकवि महापुरुष के विरुद्ध इस तरह की कटु कलम चलाने का हौसला कर रहा है, पड़ताल के नियम यही माँग करते हैं कि वह पहले पूरी मेहनत करके उस महापुरुष की वाणी को समझने का प्रयत्न करे। बाजारी जैसे निरादरी भरे कटाक्ष शोभा नहीं देते।

“जे तउ पिरीआ दी सिक हिआउ न ठाहि कही दा।”

जिस शब्द पर विरोधी सज्जन ने ऊपर लिखी हुई टीका-टिप्पणी की हुई है वह शब्द श्री गुरु ग्रंथ साहिब में सोरठि राग में दर्ज है। पाठक सज्जन इस टीके में उसका अर्थ पढ़ने की कृपा करें। कबीर जी ने मोटी-मोटी तीन बातें कहीं हैं:

(भूखे) तृष्णा के अधीन रह के भक्ति नहीं हो सकती। तृष्णा और स्मरण का मेल नहीं है।

‘मागउ राम ते सभ थोक’।

संतोख के धुरे से सिर्फ जीवन-निर्वाह की ही माँग।

जरूरी नोट:

विरोधी सज्जन भक्त वाणी के विरुद्ध अपना सबसे बड़ा गिला यूँ लिखते हैं: “बहुत हैरानी है कि (भक्त-मत) हिन्दू-मुसलमान भक्तों, भाटों-डूमों आदि के तो 930 शबदों को पवित्र बीड़ में जगह दी जा सकी, परंतु खालसे के अमृत दाते साहिब श्री गुरु गोबिंद सिंह की पवित्र वाणी को बीड़ में जगह देनी गुनाह समझी जाती है।”

भक्त-वाणी आदि के श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज होने के संबंध में जो कहानी विरोधी सज्जन जी ने घड़ी है उसके बारे में हम खुली विचार कर चुके हैं। हमारी समझ से वह कहानी बिलकुल मन-घड़ंत है और परख कसौटी पर पूरी नहीं उतरती।

पर भक्त-वाणी आदि के विरोधी सज्जनों को चाहिए कि श्री गुरु ग्रंथ साहिब के अंग इस वाणी के विरुद्ध इतनी कड़वी कलम चलाने की बजाय वे अपना असल सवाल पंथ के आगे रख दें।

आखिर पाँचवां तख़्त साहिब की स्थापना करने के बारे में विचार भी तो पंथ के सामने आ ही गया है। ऐसे सवालों पर गंभीरता और धैर्य से विचार होनी चाहिए।

विरोधी सज्जन का गिला है कि श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महराज की मुख वाक वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में क्यों दर्ज नहीं की जाती। ये बड़ा ही गंभीर सवाल है। पर यहाँ एक मुश्किल भी है। अभी तक इस बात पर मतभेद चला आ रहा है कि दसवाँ-ग्रंथ की सारी वाणी ही श्री मुख-वाक है अथवा इसके कोई खास-खास हिस्से।

सो, पहले तो सारे समूचे गुरु पंथ के प्रतिनिधियों के एकत्र में ये निर्णय होना चाहिए कि श्री मुख-वाक वाणी है कितनी। उसके बाद ये विचार हो सकेगी कि गुरु-पंथ को यह अधिकार प्राप्त है कि श्री दसवाँ पातशाह जी की वाणी को श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज कर ले।

पंथ के किसी एक जत्थे को ये हक नहीं हो सकता कि वह सारे पंथ की जगह खुद ही कोई फैसला कर ले। इस तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाने का भारी खतरा है। किसी एक जत्थे की ओर से, श्री गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुई वाणी के विरुद्ध कड़वी कलम उठानी भी बहुत हानिकारक काम है।

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गुरमुख सिख को आदर

जैसे तउ सफल बन बिखै, बिरखा बिबिधि,
जा कउ फल मीठे, खगु ता पहि चलि जात है॥
जैसे परबत बिखै, देखीअहि पाखान बहु,
जा महि हीरा खोज, ताहि खोजी ललचात है॥
जैसे तउ जलधि मधि, बसत अनंत जंत,
मुकता अमोल जा महि, हंसु खोजि खात है॥
तैसे गुर चरन सरन हरि असंख सिख,
जा महि गुर गिआन, ताहि लोकु लपटात है॥366॥ (भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: सफल बन बिखै = फलों वाले वृक्षों के जंगल में। बिबिधि = कई किस्मों के। खगु = पंक्षी। पहि = पास।

बिखै = में। देखीअहि = देखे जाते हैं। पाखान = पत्थर। खोज = तलाश। ललचात है = लालच करता है।

जलधि = समुंदर। मधि = में। बसत = बसते हैं। मुकता = मोती। खोजि = खोज के।

असंख = अनगिनत। जा महि = जिसके अंदर, जिसके हृदय में। लोकु = जगत। लपटात है = चरणों में लगता है।

भक्त कबीर जी
और
गुरु नानक साहिब

इस लेख में हमने ये देखना है कि कबीर जी की वाणी गुरु नानक देव जी साहिब जी खुद ले के आए थे, गुरु अरजन देव जी ने इकट्ठी नहीं की।

जीवात्मा और परमात्मा को विवाह के दृष्टांत के माध्यम से कबीर जी आसा राग में एक शब्द में यूँ लिखते हैं;

तनु रैनी मनु पुन रपि करि हउ, पाचउ तत बराती॥ राम राइ सिउ भावरि ले अहु, आतम तिह रंगि राती॥१॥ गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा॥ मेरे ग्रिह आए राजा राम भतारा॥१॥ रहाउ॥ नाभि कमल महि बेदी रचि ले, ब्रहम गिआन उचारा॥ राम राइ सो दूलहु पाइओ, अस बडभाग हमारा॥२॥ सुरि नर मुनि जन कउतक आए, कोटि तेतीस उजानां॥ कहि कबीर मोहि बिआहि चले हैं, पुरख एक भगवाना॥३॥२॥२४॥ (पंना 482)

इस शब्द में एक तुक ‘ब्रहम गिआन उचारा’ और ‘अस बड भाग हमारा’ के द्वारा कबीर जी ने सिर्फ इशारे मात्र ही ये बात बताई है कि ये मिलाप सतिगुरु” जी के शब्द के द्वारा प्रभु की मेहर से हुआ है। तुक ‘पाचउ तत बराती’ में सिर्फ रम्ज़ ही दी है कि इस विवाह कारज के लिए सत्य, संतोख, दया, धर्म आदिक की जरूरत पड़ती है। सतिगुरु नानक देव जी ने यह इशारे-मात्र बताई हुई बातें खोल के इसी ही राग के एक शब्द में इस प्रकार लिखी हैं;

आसा महला १॥ करि किरपा आपनै घरि आइआ ता मिलि सखीआ काजु रचाइआ॥ खेलु देखि मनि अनदु भइआ सहु वीआहण आइआ॥१॥ गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु॥ हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु॥१॥ रहाउ॥ गुरू दुआरै हमरा वीआहु जि होआ जां सहु मिलिआ तां जानिआ॥ तिहु लोका महि सबदु रविआ है आपु गइआ मनु मानिआ॥२॥ आपणा कारजु आपि सवारे होरनि कारजु न होई॥ जितु कारजि सतु संतोखु दइआ धरमु है गुरमुखि बूझै कोई॥३॥ भनति नानकु सभना का पिरु एको सोइ॥ जिस नो नदरि करे सा सोहागणि होइ॥४॥१०॥ (पंना 351)

गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा॥
मेरे ग्रिह आए राजा राम भतारा॥ –कबीर जी

गावहु गावहु कामणी बिबेक बीचारु॥
हमरै घरि आइआ जगजीवनु भतारु॥ –गुरू नानक देव जी

साफ दिखाई देता है कि ये शब्द उचारने के वक्त गुरु नानक देव जी के सामने भक्त कबीर जी का शब्द मौजूद था, और जो जो ईश्वरीय रास्ते की बातें कबीर जी ने इशारे से लिखी हैं, सतिगुरु जी ने विस्तार से बता दी हैं। दोनों ही शब्द एक ही राग में हैं। यकीन से ये कहा जा सकता है कि सतिगुरु जी भक्त जी के शब्द को अपनी वाणी के साथ संभाल के रखना चाहते थे।

भैरव राग में कबीर जी का एक शब्द है:

सो मुलां जो मन सिउ लरै॥ गुर उपदेसि काल सिउ जुरै॥ कालपुरख का मरदै मानु॥ तिसु मुला कउ सदा सलामु॥१॥ है हजूरि कत दूरि बतावहु॥ दुंदर बाधहु सुंदर पावहु॥१॥ रहाउ॥ काजी सो जु काइआ बीचारै॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै॥ सुपनै बिंदु न देई झरना॥ तिसु काजी कउ जरा न मरना॥२॥ सो सुरतानु जु दुइ सर तानै॥ बाहरि जाता भीतरि आनै॥ गगन मंडल महि लसकरु करै॥ सो सुलतानु छत्र सिरि धरै॥३॥ जोगी गोरखु गोरखु करै॥ हिंदू राम नामु उचरै॥ मुसलमान का एकु खुदाइ॥ कबीर का सुआमी रहिआ समाइ॥४॥३॥११॥ (पंना ११५९)

इस शब्द के ‘बंद’ 2 की तुकों को सामने रख के गुरु नानक देव जी का निम्न-लिखित शलोक नं: 5 पढ़ें, जो रागु रामकली की वार महला ३ में पउड़ी नं: १२ के साथ दर्ज है:

महला १॥ सो पाखंडी जि काइआ पखाले॥ काइआ की अगनि ब्रहमु परजाले॥ सुपने बिंदु न देई झरणा॥ तिसु पाखंडी जरा न मरणा॥ बोलै चरपटु सति सरूपु॥ परम तंत महि रेख न रूपु॥५॥ (पंना ९५२)

एक तो, तुकें ही सांझी हैं:

‘काइआ की अगनि ब्रहमु परजारै’ – कबीर जी

...‘काइआ की अगनि ब्रहमु परजालै’ –गुरू नानक देव जी

‘सुपनै बिंदु न देई झरना’ –कबीर जी

...‘सुपनै बिंदु न देई झरणा’ –गुरू नानक देव जी

दूसरे, ‘पाखंडी’ आदि शब्दों का अर्थ करने में वही तरीका बरता है जो कबीर जी ने शब्द ‘मुल्ला’ आदि के लिए।

शब्द ‘मुलां’ के दोनों अक्षर ‘म’ और ‘ल’ ले के शब्द ‘मन’ और ‘लरै’ बरते हैं: ‘सो मुलां जो मन सिउ लरै॥’

इसी तरह सतिगुरू नानक देव जी शब्द ‘पाखण्डी’ के अक्षर ‘प’ और ‘ख’ ले कर शब्द ‘पखाले’ बरते हैं: ‘सो पाखंडी जि काइआ पखाले॥’

इस बात में कोई शक नहीं रह जाता कि ये शलोक उचारने से पहले गुरु नानक देव जी कबीर जी का ये शब्द ध्यान से पढ़ चुके थे। ये एक कुदरती नियम है कि अगर आप किसी कवि अथवा लिखारी की कोई कविता या लेख प्यार से बार-बार पढ़ते रहें, तो उसके बहुत सारे शब्द आपकी रोजमर्रा की ‘बोली’ में शामिल हो जाएंगे। यदि आप भी कवि या लिखारी हो, तो उन शब्दों के अलावा उस कवि व लिखारी के लिखने का ढंग भी कई जगह सहज-सुभाय आपकी अपनी लिखत में प्रकट हो जाएगा।

जब कबीर जी और गुरु नानक साहिब जी की वाणी को आमने-सामने रख के देखने पर कई जगहों पर, शब्दों, विचारों व लिखने के ढंग की परस्पर गहरी सांझ मिले तो इससे सिर्फ यही नतीजा निकाला जा सकता है कि कबीर जी के वह वह शब्द, वे वे ख्याल और ख्यालों को प्रकट करने के तरीके सतिगुरु जी को विशेष तौर पर प्यारे लगे थे।

आसा राग में कबीर जी लिखते हैं:

‘कीओ सिंगारु मिलन के ताई॥ हरि न मिले जगजीवनु गुसाई॥१॥ हरि मेरो पिरु हउ हरि की बहुरीआ॥ राम बडे मै तनक लहुरीआ॥१॥ रहाउ॥ धन पिर एकै संगि बसेरा॥ सेज एक पै मिलनु दुहेरा॥२॥ धंनि सुहागनि जो पीअ भावै॥ कहि कबीर फिरि जनमि न आवै॥३॥८॥३०॥ (पंना ४८३)

इस शब्द में कबीर जी ने कई बातें इशारे मात्र ही बताई हैं:

‘मै तनक लहुरीआ’ में सिर्फ इशारा ही किया है। पर वह अज्ञानता कौन सा है, वह विस्तार से नहीं बताया।

‘मिलनु दुहेरा’ क्यों है? – ये बात शब्द ‘तनक लहुरीआ’ में ही गुप्त रखी है।

‘पीअ भावै’– पर कैसे पति को भाए? ये ख्याल भी खोला नहीं है।

ये सारी गूढ़ बातें समझने के लिए गुरु नानक देव जी के आसा राग में दिए हुए निम्न-लिखित दो शब्द ध्यान से पढ़ें:

एक न भरीआ गुण करि धोवा॥ मेरा सहु जागै हउ निस भरि सोवा॥१॥ इउ किउ कंत पिआरी होवा॥ सहु जागै हउ निस भरि सोवा॥१॥ रहाउ॥ आस पिआसी सेजै आवा॥ आगै सह भावा कि न भावा॥ किआ जाना किआ होइगा री माई॥ हरि दरसन बिनु रहनु न जाई॥१॥ प्रेमु न चाखिआ मेरी तिस न बुझानी॥ गइआ सु जोबनु धन पछतानी॥३॥ अजै सु जागउ आस पिआसी॥ भईले उदासी रहउ निरासी॥१॥ रहाउ॥ हउमै खोइ करे सीगारु॥ तउ कामणि सेजै रवै भतारु॥४॥ तउ नानक कंतै मनि भावै॥ छोडि वडाई अपणे खसमि समावै॥१॥ रहाउ॥२६॥ (पंना 356)

आसा महला १॥ पेवकड़ै धन खरी इआणी॥ तिसु सह की मै सार न जाणी॥१॥ सहु मेरा एकु दूजा नही कोई॥ नदरि करे मेलावा होई॥१॥ रहाउ॥ साहुरड़ै धन साचु पछाणिआ॥ सहजि सुभाइ अपणा पिरु जाणिआ॥२॥ गुर परसादी ऐसी मति आवै॥ तां कामणि कंतै मनि भावै॥३॥ कहतु नानकु भै भाव का करे सीगारु॥ सद ही सेजै रवै भतारु॥४॥२७॥ (पंना 357)

इन तीनों ही शबदों को इकट्ठे दो-चार बार ध्यान से पढ़ें। कितने ही सांझे शब्द हैं, क्या सुंदर मिलते-जुलते विचार हैं। जो बातें कबीर जी ने एक शब्द ‘लहुरीआ’ में गुप्त रख दी हैं, वह गुरु नानक देव जी ने इन दो शबदों में समझा दी हैं। अगर पाठक सज्जन पूरी तरह से इन तीन शबदों में अपनी तवज्जो जोड़ेंगे, और अन्य सुनी हुई साखियों के आसरे से बने हुए ख्यालों को इस वक्त नजदीक नहीं फटकने देंगे, तब उनको ये बात साफ हो जाएगी कि गुरु नानक देव जी ने जब ये दोनों शब्द उचारे और लिखे थे, उस वक्त भक्त कबीर जी का यह शब्द उनके ख्यालों में मौजूद था।

आसा राग के एक शब्द में भक्त कबीर जी लिखते हैं:

सासु की दुखी ससुर की पिआरी, जेठ कै नामि डरउ रे॥ सखी सहेली ननद गहेली, देवर कै बिरहि जरउ रे॥१॥ मेरी मति बउरी मै रामु बिसारिओ, किन बिधि रहनि रहउ रे॥ सेजै रमतु नैन नही पेखउ, इहु दुखु का सउ कहउ रे॥१॥ रहाउ॥ बाप सावका करै लराई, माइआ सद मतवारी॥ बडे भाई कै जब संगि होती, तब हउ नाह पिआरी॥२॥ कहत कबीर पंच को झगरा, झगरत जनमु गवाइआ॥ झूठी माइआ सभु जगु बाधिआ, मै राम रमत सुखु पाइआ॥३॥३॥२५॥ (पंना 482)

कविता के दृष्टिकोण और विचारों की उड़ान के पक्ष से ये शब्द, ध्यान से पढ़ने वाले के दिल को एक गहरी कसक मारता है। माया-ग्रसित जिंद की ये एक बड़ी दर्दनाक कहानी है। दर्दों के महिरम सतिगुरु नानक देव जी की आँखों से ये शब्द कैसे हट सकता था? सारी दर्द भरी दास्तान के आखिर में पहुँच के ही आधी पंक्ति में ‘सुख’ की सांस आती है। इतनी बड़ी दर्द-कहानी का इलाज कबीर जी ने तो एक रम्ज़ में ही बता के बस कर दिया। पर, सतिगुरु नानक देव जी ने उस इलाज को परहेज समेत विस्तार से इस प्रकार से बयान किया है;

आसा महला १॥ काची गागरि देह दुहेली, उपजै बिनसै दुखु पाई॥ इहु जगु सागरु दुतरु किउ तरीऐ, बिनु हरि गुर पारि न पाई॥१॥ तुझ बिनु अवरु न कोई मेरे पिआरे, तुझ बिनु अवरु न कोइ हरे॥ सरबी रंगी रूपी तूं है, तिसु बखसे जिसु नदरि करे॥१॥ रहाउ॥ सासु बुरी घरि वासु न देवै, पिर सिउ मिलण न देइ बुरी॥ सखी साजनी के हउ चरन सरेवउ, हरि गुर किरपा ते नदरि धरी॥२॥ आपु बीचारि मारि मनु देखिआ, तुम सा मीतु न अवरु कोई॥ जिउ तूं राखहि तिव ही रहणा, दुखु सुखु देवहि करहि सोई॥३॥ आसा मनसा दोऊ बिनासत, त्रिहु गुण आस निरास भई॥ तुरीआवसथा गुरमुखि पाईऐ, संत सभा की ओट लही॥४॥ गिआन धिआन सगले सभि जप तप, जिसु हरि हिरदै अलख अभेवा॥ नानक राम नामि मनु राता, गुरमति पाए सहज सेवा॥५॥२२॥ (पंना 355)

कबीर जी ने ‘सास’ के सारे परिवार का हाल बता के दुखों की लंबी कहानी बयान की है। पर सतिगुरु जी ने उस ‘सासु बुरी’ का थोड़ा सा वर्णन करके, उसके और उसके परिवार के पंजे में से निकलने का रास्ता दिखाने पर जोर दिया है। इन दोनों शबदों को आमने-सामने रखने पर यह कहना गलत नहीं है कि सतिगुरु नानक देव जी के पास कबीर जी का यह शब्द मौजूद था, जब उन्होंने अपना शब्द उचारा।

गुरु ग्रंथ साहिब जी के श्री राग में भगतों की वाणी आरम्भ करने के वक्त, पहले ही शब्द का (जो कबीर जी का उचारा हुआ है) शीर्षक इस प्रकार है:

“सिरी राग॥ कबीर जीउ का॥ एकु सुआनु कै घरि गावणा॥ ”

इस शीर्षक के तीसरे हिस्से को ध्यान से विचारने की आवश्यक्ता है। शब्द ‘कै’ व्याकरण अनुसार ‘संबंधक’ है। अगर इसका संबंध ‘सुआन’ के साथ होता, तो इसके आखिर में मात्रा ‘ु’ ना होती।, जैसे;

कीमति सो पावै, आपि जाणावै, आपि अभुल, न भुलए॥

जै जैकारु करहि तुधु भावहि, गुर कै सबदि अमुलए॥९॥२॥५॥ (सूही छंत महला १ घरु ४)

इसी संबंधक ‘कै’ का संबंध शब्द ‘गुर’ के साथ है, इस वास्ते शब्द ‘गुर’ के साथ ‘ु’ मात्रा नहीं रह सकती। इसी तरह;

दासु कबीरु तेरी पनह समाना॥

भिसतु नजीकि राखु रहमाना॥४॥७॥१५॥ (भैरउ)

शब्द ‘नजीकि’ व्याकरण के अनुसार ‘संबंधक’ है। अगर इसका संबंध शब्द ‘भिसतु’ के साथ होता, तो इसकी आखिर में मात्रा ‘ु’ ना होती। इसका अर्थ यूँ है: हे रहमान! (मुझे अपने) नजदीक रख, (मेरे लिए यही) भिसतु है।

सो, उपरोक्त शीर्षक के ‘संबंधक’ का संबंध उस सारे ही शब्द के साथ है जिसके आरम्भ में यह शब्द है ‘ऐकु सुआनु’। वह शब्द इस ही राग में गुरु नानक देव जी का है, जो इस प्रकार है:

सिरी रागु महला १ घरु॥ एकु सुआनु दुइ सुआनी नालि॥ भलके भउकहि सदा बइआलि॥ कूड़ु छुरा मुठा मुरदारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥१॥ मै पति की पंदि न करणी की कार॥ हउ बिगड़ै रूपि रहा बिकराल॥ तेरा एकु नामु तारे संसारु॥ मै एहा आस एहो आधारु॥१॥ रहाउ॥ मुखि निंदा आखा दिनु राति॥ पर घरु जोही नीच सनाति॥ कामु क्रोधु तनि वसहि चंडाल॥ धाणक रूपि रहा करतार॥२॥ फाही सुरति मलूकी वेसु॥ हउ ठग वाड़ा ठगी देसु॥ खरा सिआणा बहुता भारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥३॥ मै कीता न जाता हरामखोरु॥ हउ किआ मुहु देसा दुसटु चोरु॥ नानकु नीचु कहै बीचारु॥ धाणक रूपि रहा करतार॥४॥२९॥ (पन्ना २४)

गुरु ग्रंथ साहिब के शीर्षक को ध्यान से पढ़ कर देखें। इनको दर्ज करने में सतिगुरु अरजन देव जी बड़े संकोच से काम लिया है। ‘महला १,३,४’ के हिंदसे को कैसे पढ़ना है; यह मुश्किल से पांच-सात बार ही सारे गुरु ग्रंथ साहिब में इशारे मात्र बताया गया है कि ‘पहला, तीजा और चौथा’ पढ़ना है। इस संकोच और संक्षेप का इतना ख्याल रखा है कि कई बार शब्द ‘घरु’ भी छोड़ दिया है, और, सिर्फ अगला ‘हिंदसा’ ही लिखा है। देखें गउड़ी राग में कबीर के शब्द नंबर 62, 66, 67, 68, 69; गउड़ी ९, गउड़ी ११, गउड़ी १२, गउड़ी १३। गुरु नानक देव जी के उपरोक्त शब्द का ‘घरु ४’ है। कबीर जी के शब्द के आरम्भ में भी शब्द ‘घरु ४’ ही इस्तेमाल किया जा सकता था। पर यी तीन अक्षर लिखने की जगह ‘ऐकु सुआनु कै घरि गावणा’ के ग्यारह अक्षर क्यों लिखे गए हैं? इसमें भी कोई राज़ की बात है। आइऐ, कबीर जी का वह शब्द पढ़ के देखें:

जननी जानत, सुत बडा होतु है, इतना कु न जानै, जि दिन दिन अवध घटतु है॥ मोर मोर करि, अधिक लाडु धरि, पेखत ही जमराउ हसै॥१॥ ऐसा तैं जगु भरमि लाइआ॥ कैसे बूझै, जब मोइआ है माइआ॥१॥ रहाउ॥ कहत कबीर छोडि बिखिआ रस, इतु संगति निहचउ मरणा॥ रमईआ जपहु प्राणी, अनत जीवण बाणी, इनि बिधि भव सागरु तरणा॥२॥ जां तिसु भावै ता लागै भाउ॥ भरमु भुलावा विचहु जाइ॥ उपजै सहजु, गिआन मति जागै॥ गुर प्रसादि अंतरि लिव लागै॥३॥ इतु संगति नाही मरणा॥ हुकमु पछाणि ता खसमै मिलणा॥१॥ रहाउ दूजा॥ (पन्ना ९१)

शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है कि जगत माया के मोह में फस के गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है। बंद नंबर 1 में माँ के मोह की मिसाल दी है। बंद 2 में जीव को ‘बिखिआ रस’ से कबीर जी सचेत करते हैं और कहते हैं कि ‘इतु संगति’ आत्मिक मौत हो जाती है। ‘बिखिआ’ के कौन से ‘रस’ हैं, माया के कौन से चस्के हैं? –कबीर जी ने इस विचार को खोल के नहीं बताया। ‘मरणा’ से क्या भाव है? यह भी विस्तार से नहीं समझाया। अब इस शब्द के साथ मिला के गुरु नानक देव जी ऊपर दिया हुआ शब्द पढ़ें। ‘बिखिआ रस’ कौन-कौन से हैं? काम, क्रोध, निंदा, पर घर, फाही तवज्जो, झूठ आदि ये सारे ‘बिखिआ’ के ‘रस’ हैं। ‘मरणा’ क्या है? ‘धाणक रूपि रहा कर्तार’।

बस! इन दोनों शबदों में यह गहरी सांझ बताने के लिए ही उपरोक्त शीर्षक खास तौर पर दिया गया है।

रामकली राग में कबीर जी के पहले दो शब्द ध्यान से पढ़ने वाले हैं। पहले शब्द में लिखते हैं

काइआ कलालनि लाहनि मेलउ, गुर का सबदु गुड़ु कीनु रे॥ त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर, काटि काटि कसु दीनु रे॥ कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि जास कउ जपु तपु देउ दलाली रे॥ एक बूंद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ दलाली रे॥१॥ रहाउ॥ भवन चतुरदस भाठी कीनी, ब्रहम अगनि तनि जारी रे॥ मुद्रा मदक सहज धुनि लागी, सुखमन पोचनहारी रे॥२॥ ...निझर धार चुऐ अति निरमल, इह रस मनूआ रातो रे॥ कहि कबीर सगले मद छूछे, इहै महा रसु साचो रे॥१॥ (पंना 968)

दूसरे शब्द में लिखते हैं:

गुड़ु करि गिआनु, धिआनु करि महूआ, भउ भाठी मन धारा॥ सुखमन नारी सहज समानी, पीवै पीवनहारा॥१॥ अउधू मेरा मनु मतवारा॥ उनमद चढा, मदन रसु चाखिआ, त्रिभवण भइआ उजिआरा॥१॥ रहाउ॥ (पंना 969)

रामकली राग में कबीर जी के इन शबदों को सामने रख के गुरु नानक देव जी के नीचे दिए हुए शब्द पढ़ें। कितनी गहरी समानता है। कबीर जी के दोनों शबदों में बरते हुए शब्द ‘सुखमन’ का भी गुरु नानक देव जी के शब्द में साफ निर्णय हो जाता है। ये बात भी प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है कि इस शब्द को लिखने के वक्त सतिगुरु जी के पास भक्त जी के यह दोनों शब्द मौजूद थे:

आसा महला १॥ गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि धावै करि करणी कसु पाईऐ॥ भाठी भवनु प्रेम का पोचा इतु रसि अमिउ चुआईऐ॥१॥ बाबा मनु मतवारो नाम रसु पीवै सहज रंग रचि रहिआ॥ अहिनिसि बनी प्रेम लिव लागी सबदु अनाहद गहिआ॥१॥ रहाउ॥ पूरा साचु पिआला सहजे तिसहि पीआए जा कउ नदरि करे॥ अंम्रित का वापारी होवै किआ मदि छूछै भाउ धरे॥२॥ गुर की साखी अंम्रित बाणी पीवत ही परवाणु भइआ॥ दर दरसन का प्रीतमु होवै मुकति बैकुंठै करै किआ॥३॥ सिफती रता सद बैरागी जूऐ जनमु न हारै॥ कहु नानक सुणि भरथरि जोगी खीवा अंम्रित धारै॥४॥४॥३८॥ (पन्ना ३६०)

कबीर जी और गुरु नानक देव जी का एक उद्देश्य एक ही है: योगी को शराब से मना कर रहे हैं। आईए दोनों में समानताएं देखें; क्रमांक कबीर जी के शब्द की पंक्ति गुरु नानक देव जी की पंक्ति 1 ‘भवन चतुरदस भाठी’।2।1। ‘भाठी भवनु’।1। 2 ‘सुखमन’ (मन की सुख अवस्था) पोचनहारी’।2।2। ‘प्रेम का पोचा’।1। 3 ‘सगले मद छूछे’।4।1। ‘किआ मदि छूछै भाउ धरे’।2। 4 ‘त्रिसना कामु क्रोधु मद मतसर, काटि काटि कसु दीनु रे’।1।1। ‘करणी कसु।1। 5 ‘गुड़ु करि गिआनु’।1।2। ‘गुड़ु करि गिआनु’।1। 6 ‘अउधू मेरा मनु मतवारा। रहाउ।’ ‘बाबा मन मतवारो’। रहाउ।

नोट: मजेदार बात ये है कि दोनों महापुरुषों ने ‘मनु मतवारो’ रहाउ की तुक में बरते हैं।

ये इतनी गहरी समानता सबब से नहीं हो गई। कबीर जी के ये दोनों शब्द गुरु नानक साहिब के पास मौजूद थे।

रामकली के चौथे शब्द में कबीर जी लिखते हैं:

संता मानउ, दूता डानउ, इह कुटवारी मेरी॥ दिवस रैनि तेरे पाउ पलोसउ, केस चवर करि फेरी॥१॥ हम कूकर तेरे दरबारि॥ भउकहि आगै बदनु पसारि॥१॥ रहाउ॥ (पंना 969)

भाव: हे प्रभु! मैं तेरे दर पर (बैठा हुआ एक) कुक्ता हूँ, और मुँह आगे करके भौंक रहा हूँ (भाव, तेरे दर पर मैं जो तेरी महिमा करता हूँ, यह अपने शरीर को विकार रूपी कुक्तों से बचाने के लिए है, जैसे एक कुक्ता किसी पराई गली के कुक्तों को अपने आप की सुरक्षा के लिए भौकता है।)।1।

अपने इस शरीर-शहर की रक्षा करने के लिए मेरा फर्ज यह है कि मैं भले गुणों का ‘अभिनंदन’ करूँ, और विकारों को मार भगाऊँ। दिन-रात हे प्रभु! तेरे चरन परसूँ, और अपने केसों का चवर तेरे ऊपर झुलाऊँ।1।

यही ख्याल गुरु नानक देव जी ने बिलावल राग के पहले शब्द में यूँ लिखा है:

तू सुलतानु कहा हउ मीआ, तेरी कवन वडाई॥
जो तू देहि सु कहा सुआमी, मै मूरख कहण न जाई॥१॥ .. .. ..
एते कूकर हउ बेगाना, भउका इस तन ताई॥ .. ...॥४॥१॥

रामकली के दसवें शब्द में कबीर जी लिखते हैं:

बंधचि बंधनु पाइआ॥ मुकतै गुरि अनलु बुझाइआ॥ जब नख सिख इहु मनु चीना॥ तब अंतरि मजनु कीना॥१॥ पवनपति उन्मनि रहनु खरा॥ नही मिरतु न जनमु जरा॥१॥ रहाउ॥ उलटीले सकति सहारं॥ पैसीले गगन मझारं॥ बेधीअले चक्र भुअंगा॥ भेटीअले राइ निसंगा॥२॥ चूकीअले मोह मइ आसा॥ ससि कीनो सूर गिरासा॥ जब कुंभकु भरिपुरि लीणा॥ तह बाजे अनहद बीणा॥३॥ बकतै बकि सबदु सुनाइआ॥ सुनतै सुनि मंनि बसाइआ॥ करि करता उतरसि पारं॥ कहै कबीरा सारं॥४॥१॥१०॥ (पंना 971)

शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है। इस केन्द्रिय भाव को सारे शब्द में विस्तार से बयान किया है। ‘रहाउ’ में बताया है कि जीवात्मा की सबसे उच्च अवस्था वह है जब ये ‘उनमन’ में पहुँचती है। इस अवस्था को जन्म-मरण और बुढ़ापा नहीं छू सकते। इस अवस्था की बाकी की सारी हालत सारे शब्द में बताई गई है, और ये सारी हालत उस केंद्रिय तबदीली का नतीजा है। ये ‘उनमन’ कैसे बनी? नाम-जपने की इनायत से। कबीर जी कहते हैं कि यही असल भेद की बात है।

इस भेद की बात को जो कबीर जी ने शब्द के आखिरी ‘बंद’ में बताई है, गुरु नानक साहिब ने अपने एक शब्द में खुले विस्तार से बयान किया है। वह शब्द भी रामकली राग में ही है और छंद की चाल भी इसी शब्द जैसी ही है; देखें,

रामकली महला १॥ जा हरि प्रभि किरपा धारी॥ ता हउमै विचहु मारी॥ सो सेवकि राम पिआरी॥ जो गुर सबदी बीचारी॥१॥ सो हरि जनु हरि प्रभ भावै॥ अहिनिसि भगति करे दिनु राती, लाज छोडि हरि के गुण गावै॥१॥ रहाउ॥ धुनि वाजे अनहद घोरा॥ मनु मानिआ हरि रसि मोरा॥ गुर पूरै सचु समाइआ॥ गुरु आदि पुरखु हरि पाइआ॥२॥ सभि नाद बेद गुरबाणी॥ मनु राता सारगि पाणी॥ तह तीरथ वरत तप सारे॥ गुर मिलिआ हरि निसतारे॥३॥ जह आपु गइआ भउ भागा॥ गुर चरणी सेवकु लागा॥ गुरि सतिगुरि भरमु चुकाइआ॥ कहु नानक सबदि मिलाइआ॥४॥१०॥ (पंना 879)

मारू राग में कबीर जी लिखते हैं:

बनहि बसे किउ पाईऐ, जउ लउ मनहु न तजहि बिकार॥ जिह घरु बनु समसरि कीआ, ते पूरे संसार॥१॥ सार सुखु पाईऐ रामा॥ रंगि रवहु आतमै राम॥१॥ रहाउ॥ जटा भसम लेपन कीआ, कहा गुफा महि बासु॥ मनु जीते जगु जीतिआ, जा ते बिखिआ ते होइ उदासु॥२॥२॥ (पंना 1103)

नोट: बंद नं: 2 में कबीर जी कहते हैं ‘मनु जीते जगु जीतिआ’। गुरु नानक देव जी ‘जपु’ में लिखते हैं ‘मनि जीतै जगु जीतु’। कबीर जी कहते हैं कि गृहस्थ छोड़ के जटा भस्म आदि लगा के गुफा में जा के बैठने से माया से निजात नहीं मिलती। अगर जगत को जीतना है, अगर माया पर काबू पाना है तो अपने मन को जीतो। सतिगुरु नानक देव जी भी इस गलत त्याग का वर्णन करते हुए ही कहते हैं कि ये मुंद्रा, झोली, बिभूत आदि कुछ नहीं सवारेंगे, मन को जीतो। देखें, ये शब्दों की समानता, विषय की समानता और विचारों की समानता।

बसंतु कबीर जी॥ जोइ खसमु है जाइआ॥ पूति बापु खेलाइआ॥ बिनु स्रवणा खीरु पिलाइआ॥१॥ देखउ लोगा कलि को भाउ॥ सुति मुकलाई अपनी माउ॥१॥ रहाउ॥ पगा बिनु हुरीआ मारता॥ बदनै बिनु खिर खिर हासता॥ ....॥३॥३॥

इस सारे शब्द में कबीर जी माया के हाल का प्रभाव बता रहे हैं, माया-ग्रसित जीव की दशा बयान कर रहे हैं, और ‘कलि को भाउ’ शब्द को इस्तेमाल करते हैं। यही शब्द गुरु नानक देव जी ने बरते हैं आसा राग के एक शब्द में, जहाँ आप माया-ग्रसित जगत की हालत बताते हैं:

ताल मदीरे घट के घाट॥ दोलक दुनीआ वाजै वाज॥
नारदु नाचै कलि का भाउ॥ जती सती कह राखहि पाउ॥१॥

सारंग कबीर जी॥ राजास्रम मिति नही जानी तेरी॥ .. ... ...नारी ते जो पुरखु करावै, पुरखन ते जो नारी॥ कहु कबीर साधू को प्रीतमु, तिसु मूरति बलिहारी॥४॥२॥

नोट: नारी से पुरुष पैदा करने और पुरुष से नारी पैदा करने का ख्याल गुरु नानक देव जी ने भी बताया है। सतिगुरु जी अकालपुरुख की अगाध कथा ही बयान करने के समय ये ख्याल करते प्रकट हैं;

रामकली महला १॥ पुरख महि नारि, नारि महि पुरखा, बूझहु ब्रहम गिआनी॥ धुनि महि धिआनु, धिआन महि जानिआ, गुरमुखि अकथ कहानी॥३॥९॥

इस उपरोक्त विचार को सामने रख के सिख धर्म का कोई विरोधी सच्चाई की टेक पर टिक के दूषण लगाने के लायक नहीं हो सकता कि सतिगुरु नानक देव जी ने वाणी लिखने के लिए भक्त कबीर जी से कोई चीज मांगने की कोशिश की थी। जब हम दोनों महापुरुषों की लिखी वाणी की ओर ध्यान मारते हैं तो इतने बड़े समुंदर में यह ग्यारह-बारह शब्दों की सांझ नकल असल के नतीजे पर ले जाने की जगह सिर्फ यही कहलवा सकती है कि सतिगुरु नानक देव जी भक्त कबीर जी की वाणी को अपने पास संभाल के बड़े प्यार से पढ़ते भी थे, क्योंकि दोनों के ख्याल मिलते थे, दोनों ही महापुरुष उस वक्त के धार्मिक भुलेखों, कुरीतियों व ज्यादतियों के विरुद्ध एक ही किस्म की आवाज उठा रहे थे।

कबीर जी के कुल शब्द 224 हैं। इसके अलावा उनकी निम्न-लिखित 4 बाणियाँ और हैं: ‘बावन अखरी’, ‘पंद्रह थिती’, ‘सत वार’ और ‘शलोक’। सतिगुरु नानक देव जी की वाणी का वेरवा यूँ है:

शब्द---------------------209
अष्टपदियां--------------123
छंत------------------------25
कुल जोड़-----------------357
तीन ‘वारों’ में पउड़ीयां----73
वारों में शलोक------------229
सलोक वारां ते वधीक-------32
सलोकों का जोड़-----------261

जिस सज्जनों को सचमुच ये जरूरत है कि भक्त कबीर जी और गुरु नानक देव जी की वाणी का आपस में सही रिश्ता मालूम करें, उनके लिए ये उपरोक्त प्रमाण संतोषजनक होने चाहिए। इन शबदों के बारे में सीधी और साफ बात ये है कि गुरु नानक देव जी के पास ये शब्द मौजूद थे।

पर ये नहीं हो सकता कि सतिगुरु जी ने सिर्फ यही 10-12 शब्द लिए हों। इन्सानी जिंदगी के बारे में कबीर जी और सतिगुरु नानक देव जी के असूल पूरी तरह से मिलते हैं और गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज हुए कबीर जी के सारे ही शब्द सतिगुरु जी खुद ले के आए हैं और इस वक्त तक अपने असल रूप में हैं।

कबीर जी की वाणी गुरु अमरदास जी के पास

अब तक हमने गुरु नानक देव जी और कबीर जी की वाणी का परस्पर अध्ययन करके देखा है कि सतिगुरु नानक देव जी के पास भक्त जी की वाणी मौजूद थी। हम यह भी देख आए है कि गुरु नानक देव जी की सारी वाणी गुरु अमरदास जी के पास पहुँच गई थी। इसके साथ ही भक्त कबीर जी की वाणी पहुँचनी कुदरती बात थी। ये बात गुरु अमरदास जी की वाणी में से भी प्रत्यक्ष साबित हो रही है कि उनके पास कबीर जी की वाणी मौजूद थी।

गुजरी की वार महला ३ की पउड़ी नं: 4 के साथ कबीर जी का एक शलोक दर्ज है। यह शलोक कबीर जी के शलोकों में नं: 58,59 के अंक तहत है:

कबीर मुकति दुआरा संकुड़ा, राई दसवै भाइ॥ मनु तउ मैगलु होइ रहा, निकसिआ किउ करि जाइ॥ ऐसा सतिगुरु जे मिलै, तुठा करे पसाउ॥ मुकति दुआरा मोकला, सहजे आवउ जाउ॥१॥४॥

इस शलोक के साथ गुरु अमरदास जी का भी एक शलोक लिखा हुआ है:

नानक मुकति दुआरा अति नीका, नाना होइ सु जाइ॥ हउमै मनु असथूलु है, किउकरि विचुदे जाइ॥ सतिगुर मिलिऐ हउमै गई, जोति रही सभ आइ॥ इहु जीउ सदा मुकतु है, सहजे रहिआ समाइ॥२॥४॥

सरसरी निगाह से देखने पर साफ दिखता है कि इन दोनों शलोकों में काफी समानता है, जो सबब से नहीं हो गई। गुरु अमरदास जी कबीर जी के शलोक की प्रथाय ही यह शलोक उचार रहे हैं।

2. शलोक कबीर जी:

कबीर जो मै चितवउ ना करै, किआ मेरे चितवे होइ॥
अपना चितविआ हरि करै, जो मेरे चिति न होइ॥219॥

इसी के साथ गुरु अमरदास जी का शलोक है:

महला ३॥ चिंता, भि आपि कराइसी, अचिंतु भि आपे देइ॥
नानक सो सालाहीऐ, जि सभना सार करेइ॥२२०॥

यहाँ भी ऊपरी नज़र से दिख रहा है गुरु अमरदास जी ने यह शलोक कबीर जी के संबंध में उचारा है।

3. बिहागड़े राग की पउड़ी नं: 17 के दोनों शलोक देखिए। पहला शलोक कबीर जी का है:

कबीर मरता मरता जगु मुआ, मरि भि न जानै कोइ॥
ऐसी मरनी जो मरै, बहुरि न मरना होइ॥१॥

इस शलोक के साथ दूसरा शलोक गुरु अमरदास जी का है:

महला ३॥ किआ जाणा किव मरहगे कैसा मरणा होइ॥ जेकर साहिबु मनहु न बीसरै ता सहला मरणा होइ॥ मरणै ते जगतु डरै, जीविआ लोड़ै सभु कोइ॥ गुर परसादी जीवतु मरै हुकमै बूझै सोइ॥ नानक ऐसी मरनी जो मरे ता सद जीवणु होइ॥२॥१७॥

‘अैसी मरनी जो मरै’ – कबीर जी

‘नानक अैसी मरनी जो मरे’ – गुरु अमरदास जी

कबीर जी ने ‘अैसी मरनी’ को पहली तुक ‘मरि भि न जानै कोइ’ में इशारे मात्र ही बताया है। पर गुरु अमरदास जी ने अपने शलोक में ‘अैसी मरनी’ की खोल के व्याख्या कर दी है, और आखिर में कबीर जी की ही तुक ‘अैसी मरनी जो मरै’ को दोहरा दिया है।

कबीर जी के ‘अैसी मरनी’ के ख्याल की व्याख्या गुरु अमरदास जी तब ही कर सकते थे, जब कबीर जी की वाणी उनके पास मौजूद होती।

4. रामकली की वार महला ३ पउड़ी २:

सलोक कबीर जी॥ कबीर महिदी करि कै घालिआ, आपु पीसाइ पीसाइ॥ तै सह बात न पुछीआ, कबहू न लाई पाइ॥१॥

महला ३॥ नानक महिदी करि कै रखिआ, सो सहु नदरि करे॥ आपे पीसै आपे घसै, आपे ही लाइ लएइ॥ इहु पिरम पिआला खसम का, जै भावै तै देइ॥

इन दोनों श्लोकों की सांझ किसी टीका-टिप्पणी की मुहताज नहीं है और ये समनता तभी बन सकी, जब गुरु अमरदास जी के पास कबीर जी की वाणी मौजूद थी।

एक और समानता:

अब तक हमने सतिगुरु जी और कबीर जी की वाणी का परस्पर अध्ययन करके यह देखा कि शबदों में कई तुकें समान हैं, कई शब्द और विचार समान से हैं। इतनी समानता है जिससे निसंदेह हम इस नतीजे पर पहुँच गए हैं कि कबीर जी की वाणी गुरु नानक साहिब के पास मौजूद थी। अब हम एक और अजब तरह की समानता पाठकों के सामने पेश करते हैं।

शब्द ‘त्रिकुटी’ हठ-जोगियों में बरता जाता है। कबीर जी से पहले दुनिया के लोग बताते हैं कि ‘त्रिकुटी’ मनुष्य के माथे पर उस स्थान पर है जहाँ ईड़ा, पिंगला, सुखमना, नाड़ियां का मेल होता है। शब्द त्रिकुटी, दो शब्दों ‘त्रि’ और ‘कुटी’ से बना है। ‘कुटी’ का अर्थ है ‘टेढ़ी लकीर’। त्रिकुटी-तीन टेढ़ी लकीरें (जो मनुष्य के माथे पर पड़ जाती है)। मनुष्य के माथे पर दोनों भरवटों के बीच में नाक से थोड़ा ऊपर, जो जगह है, वहाँ ये तीनों नाड़ियां: ईड़ा, पिंगला और सुखमना मिलती मानी जाती हैं। माथे पर तीन टेढ़ी लकीरें भी यहीं बनती हैं। ईड़ा वह नाड़ी है जिसके आसरे मनुष्य की बाँई नास चलती है। पिंगला वह नाड़ी है जिसके आसरे दाई नास चलती है। दोनों नाड़ियां सुखमना नाड़ी में मिलती हैं। उस जगह का नाम ‘त्रिकुटी’ रखा गया है। कबीर जी ने ये शब्द अपनी वाणी में तीन बार इस्तेमाल किया है, पर उस भाव में नहीं जिसमें हठ-जोगियों ने। गुरु ग्रंथ साहिब जी की सारी वाणी में ये शब्द11 (ग्यारह) बार इस्तेमाल किया हुआ मिलता है। इसका अर्थ हर जगह एक ही है। पर, वह अर्थ नहीं जो हठ-योग में है। शब्द ‘त्रिकुटी’ के इस्तेमाल का वेरवा यूँ है:

कबीर जी ----------------3 बार
गुरु नानक देव जी -------2 बार
गुरु अमरदास जी --------2 बार
गुरु रामदास जी ---------1 बार
गुरु अरजन साहिब जी---3 बार
जोड़ --------------------11

इस शब्द का भाव समझने के लिए सारे ही प्रमाण यहाँ दिए जा रहे हैं:

क. कबीर जी:

1. ब्रिहसपति बिखिआ देइ बहाइ॥ तीनि देव एक संगि लाइ॥
...तिनि नदी तह त्रिकुटी माहि॥ अहिनिसि कसमल धोवहि नाहि॥ (गउड़ी वार सत)

भाव: उस त्रिकुटी वाली हालत में (‘तह त्रिकुटी माहि’) माया के तीन गुणों की तीन नदियां (तीनि नदी) चल रही हैं।

2. बोलहु भईआ राम की दुहाई॥ पीवहु संत सदा मति दुरलभ,
...सहजे पिआस बुझाई॥१॥ रहाउ॥ ... ... ...
...नगरी एकै नउ दरवाजे, धावतु बरजि रहाई॥
...त्रिकुटी छूटै दसवा दरु खूलै, ता मनु खीवा भाई॥३॥३॥ (केदारा कबीर जी)

भाव: ‘राम की दुहाई’ बोलने से, प्रभु की शरण पड़ने से, त्रिकुटी छूट जाती है, दसवाँ द्वार खुल जाता है, और मन खीवा हो जाता है।

3. जनम मरन का भ्रम गइआ, गोबिद लिव लागी॥
...जीवत सुंन समानिआ, गुर साखी जागी॥१॥ रहाउ॥ ....
...त्रिकुटी संधि मै पेखिआ, घट हू घट जागी॥
...ऐसी बुधि समाचरी, घट माहि तिआगी॥२॥११॥ (बिलावल कबीर जी)

भाव: जब ‘गुर साखी जागी’, तब ‘त्रिकुटी संधि मै पेखिआ घट हू घटि जागी’।

उपरोक्त सारी तुकों का अर्थ: मेरे अंदर सतिगुरु जी की शिक्षा से (ऐसी बुद्धि) जाग उठी है कि मेरी जनम-मरण की भटकना समाप्त हो गई है, प्रभु चरणों में मेरी तवज्जो जुड़ गई है, और मैं जगत में विचरता हुआ ही उस हालत में टिका रहता हूँ जहाँ माया के फुरने नहीं उठते।1। रहाउ।.. ... ...

(सतिगुरु की शिक्षा से बुद्धि के जागने पर) मैंने त्रिकुटी को भेद लिया है, अब मुझे हरेक घट में प्रभु की ज्योंति जगती दिखाई दे रही है। मेरे अंदर ऐसी मति पैदा हो गई है कि मैं अंदर से विरक्त हो गया हूँ।2।

ख. गुरु नानक देव जी:

1. त्रिबिधि करम कमाईअहि, आसा अंदेसा होइ॥
...किउ गुर बिनु त्रिकुट छुटसी, सहजि मिलिऐ सुखु होइ॥
...निज घरि महलु पछाणीऐ, नदरि करे मलु धोइ॥३॥१॥ (सिरी राग)

2. निधि सिधि निरमल नामु बीचारु॥ पूरनु पूरि रहिआ बिखु मारि॥
...त्रिकुटी छूटी बिम मझारि॥ गुर की मति जीइ आई कारि॥१॥१॥ (गउड़ी असटपदीआ)

भाव: अ. गुरु के बिना त्रिकुटी नहीं छूटती। आ. जब गुरु की मति काम में आए, तो बिमल प्रभु में लीन होने से त्रिकुटी छूटती है।

ग. गुरु अमरदास जी:

1. त्रैगुण सभा धातु है, दूजा भाउ विकारु॥ पंडितु पढ़ै बंधन मोह बाधा, नह बूझै बिखिआ पिआरि॥
..सतिगुरि मिलिऐ त्रिकुटी छूटै, चउथै पदि मुकति दुआरु॥२॥१८॥५१। (सिरी राग)

2. त्रै गुण अचेत नामु चेतहि नाही, बिनु नावै बिनसि जाई॥१५॥
...ब्रहमा बिसनु महेसु त्रै मूरति, त्रिगुणि भरमि भुलाई॥१६॥
...गुर परसादी त्रिकुटी छूटै, चउथै पदि लिव लाई॥१७॥२॥ (रामकली असटपदीआ)

घ. गुरु रामदास जी:

1. हरि कीरति गुरमति जसु गाइओ, मनि उघरै कपट कपाट॥
...त्रिकुटी फोरि भरमु भउ भागा, लजु भानी मटुकी माट॥३॥६॥ (माली गाउड़ा)

ङ. गुरु अरजन साहिब:

जीवत मुए मुए से जीवे॥
...हरि हरि नामु अवखधु मुखि पाइआ, गुर सबदी रसु अंम्रितु पीवै॥ रहाउ॥
...काची मटुकी बिनसि बिनासा॥ जिसु छूटै त्रिकुटी, तिसु निज घरि वासा॥२॥१३॥ (आसा)

2. जिउ काजर भरि मंदरु राखिओ, जो पैसे कालूखी रे॥
...दूरहु ही ते भागि गइओ है, जिसु गुर मिलि छुटकी त्रिकुटी रे॥१॥४॥३७॥ (आसा)

नोट: इस शब्द ‘त्रिकुटी’ का अर्थ गुरु अरजन साहिब जी खुद ही स्पष्ट करते हैं;

3. माथै त्रिकुटी द्रिसटी करूरि॥ बोलै कउड़ा जिहबा की फूड़ि॥
...सदा भूखी पिरु जानै दूरि॥१॥
...ऐसी इसत्री इक रामि उपाई॥
...उनि सभु जगु खाइआ, हम गुरि राखे मेरे भाई॥१॥ रहाउ॥

नोट: इस आखिरी प्रमाण को पढ़ के अब कोई शक नहीं रह जाता कि शब्द ‘त्रिकुटी’ का अर्थ ‘त्यूड़ी’। और, ये मिटती है गुरु की शरण पड़ने से। सारे बारह के बारह ही प्रमाण ध्यान से पढ़ के देखें, हरेक में यही अर्थ फिट बैठता है। जैसे संस्कृत शब्द ‘निकटि’ से प्राकृत और पंजाबी शब्द ‘नेड़े’ है; जैसे शब्द ‘कटक’ से है ‘कड़ा’, वैसे ही शब्द ‘त्रिकुटी’ का बदला हुआ प्राकृत और पंजाबी रूप है ‘त्योड़ी’, तीन टेढ़ी लकीरें, जो माथे पर पड़ती हैं जब मनुष्य के अंदर खिझ (बौखलाहट) हो। संस्कृत का अक्षर ‘ट’ प्राकृत और पजाबी के अक्षर ‘ड़’ बन गया है। और व्यंजन ‘क’ से स्वर ‘अ’। निकटि = निअड़ि, नेड़े। कटक = कड़अ, कड़ा। त्रिकुटी = त्रि उड़ी, त्रिउड़ी। सो, ‘त्रिकुटी छूटती है’ भाव है ‘खिझ दूर होती है’। खिझ-बौखलाहट = क्रोध-झल्लाहट।

कबीर जी से लेकर गुरु अरजन साहिब जी तक ‘त्रिकुटी’ का एक ही भाव बताया है, और, उसका इलाज भी एक ही बताया है। यह एक अजीब और मजेदार घटना है कि कबीर जी का शब्द ‘त्रिकुटी’ का दिया हुआ अर्थ गुरु नानक साहिब को भी मालूम था, और उनके पीछे गुरु अमरदास जी और गुरु रामदास जी को भी। ऐसी बातें ब-सबब नहीं बनतीं। कबीर जी के कुछ शब्द हम ऊपर दे आए हैं, जिनसे स्पष्ट तौर पर साबित हो गया है कि गुरु नानक देव जी ने अपने कई शब्द कबीर जी के शबदों की प्रथाय उचारे हैं। इस ‘त्रिकुटी’ शब्द का नया ख्याल भी सतिगुरु जी ने कबीर जी से ही लिया है। पर, अगर गुरु नानक देव जी की सारी वाणी गुरु अंगद देव जी के द्वारा गुरु अमरदास जी के पास ना आई होती, तो इनको उनकी वाणी पढ़ने का पूरा अभ्यास ना होता, तो अमरदास जी शब्द ‘त्रिकुटी’ वाला नया ख्याल हू-ब-हू उनकी तरह ही ना दोहराते।

इस सारी विचार के सामने अब ये बात पक्की हो गई है कबीर जी की वाणी गुरु नानक देव जी खुद ले के आए थे।

गुरु:

जैसे अहि अगनि कउ बालकु बिलोकि धावै, गहि गहि राखै माता, सुतु बिललात है॥
ब्रिथावंतु जंतु जैसे चाहत अखादि खादि, जतन कै, वैदु जुगवत, न सुहात है॥
जैसे पंथापंथु नाहि बूझत बिबेक अंधु, करु गहै, अटपटी चाल चलिओ जात है॥
कामना करत तैसे कनक औ कामिनी की, राखै निरलेपु गुरु सिखु अकुलात है॥३६९॥ (भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: अहि = साँप। कउ = को। बिलोकि = देख के। धावै = दौड़ता है। गहि = पकड़ के। सुतु = पुत्र।

ब्रिथावंतु = रोगी। चाहत खादि = खानी चाहता है। अखादि = ना खाने वाली चीज। जतन कै = जतन से। जुगवत = रोकता है।

पंथापंथु = पंथ अपंथ, अच्छा बुरा रास्ता। करु = हाथ। गहै = पकड़े।

कामना = लालसा। कनक = सोना। कामिनी = स्त्री। अकुलात है = व्याकुल होता है, जल्दबाजी करता है।

भक्त कबीर जी और हठ-जोग

जीवन अगुवाई का तरीका:

जो भी प्राण-धारी जगत में आया है (बड़े महापुरुष से ले के साधारण सजिंद जीव तक) कोई भी इस शारीरिक जामें में सदा यहाँ नहीं रह सका। यह कुदरती नियम धूर से चला आ रहा है। इस जगत-रंग-भूमि में हरेक पात्र अपनी-अपनी जिंमेवारी निभा के आने वाली नस्लों के लिए जगह खाली कर गया है। हमारी ये धरती विज्ञानिकों के अंदाजे के मुताबिक दो अरब साल से बनी है, यहाँ इतने लंबे समय में बेअंत ही आए और चले गए। पर महापुरुषों के डाले हुए पूरने बनाए हुए राह उनकी अपनी पवित्र वाणी और उनका जीवन-इतिहास, रहती दुनिया तक किसी ना किसी शकल में मौजूद रहेंगे और धरती के लोगों के लिए प्रकाश-स्तम्भ का काम करेंगे। जो जो सौभाग्यशाली मनुष्य अपने ईष्ट गुरु पैग़ंबर के पवित्र वचनों पर श्रद्धा रख के उनके डाले हुए पद्चिन्हों पर चलने की कोशिश करते हैं, वे इस जीवन-यात्रा में मुश्किलों से बच जाते हैं। जैसे हिंदू, मुसलमान, ईसाई आदि कौमों के पास वेद, कुरान, अंजील आदि धर्म-पुस्तकें हैं जो उन लोगों की अगुवाई कर रही हैं। वैसे ही सिख कौम के पास श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की पवित्र वाणी है, जो सिख के जीवन की अगुवाई कर सकती है।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब:

पर गुरु ग्रंथ साहिब की बीड़ सिर्फ गुरु साहिबान की ही वाणी नहीं है। इसमें कई भक्तों की वाणी है, और इस समूचे संग्रह का नाम गुरु ग्रंथ साहिब है। जब हम इस पवित्र वाणी के संग्रह को सिर निवाते हैं तो हमें ये विचार कभी भी नहीं आया, और ना ही आना चाहिए कि हम सिर्फ उस वाणी को सिर निवाते हैं जो सतिगुरु जी की अपनी ही है। हम इस सारी ही वाणी का सतकार करते हैं। सारी ही को समूचे तौर पर ‘गुरु’ कहते हैं। जब हमारे दीन-दुनिया के पातशाह सतिगुरु जी ने अपने ही तख्त पर अपने साथ ही इन सौभाग्यशाली भक्तों को बैठा लिया, तो सिर निवाने वाले सिख का सिर, बिना किसी भेद-भाव के, बिना किसी बँटवारे के, इन सारे महापुरुषों के इकट्ठे-मिले-जुले और सांझे आत्मिक स्वरूप के आगे झुकता है।

हमारे भुलेखे:

पर इन भक्तों के बारे हिंदू कौम में और कई भुलेखों के कारण सिखों में भी अजीब श्रद्धा-हीन और हास्यास्पद साखियां चली आ रही हैं। भक्त नामदेव जी को बीठुल मूर्ति का पुजारी बताया जा रहा है, भक्त कबीर जी को हठ-योगी और प्राणायामी कहा जाता है। अगर इनकी वाणी गुरु ग्रंथ साहिब में ना दर्ज हुई होती, तो लोगों के इनके बारे में बने ख्यालों की पड़ताल करने की हमें जरूरत नहीं थी। पर, हैरानी तो यह है कि गुरु ग्रंथ साहिब में इन भक्तों की दर्ज हुई वाणी में से हवाले दे के सिख-विद्वान ही ये साबित कर रहे हैं कि भक्त किसी समय मूर्ति-पूजक व हठ-योगी रहे हैं।

ये महान विद्वान सज्जन श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी का टीका करते हुए यूँ लिखते हैं: ‘हठ-योग द्वारा राज-योग में पहुँचना अथवा मूर्तियों द्वारा ध्यान पक्का करके फिर निराकार में जाना ये गलत तरीके नहीं, पर हैं ख़तरों से भरे हुए। कई हठ-योग तक ही रह गए। कई मूर्ति-पूजा तक ही रह गए। इसलिए कीर्तन और स्मरण के द्वारा सीधा पहुँच जाना काफी आसान और सही रास्ता है’।

“गुरु जी ने ये बताने के लिए कि उस तरीके से इतनी परिपक्वता को पहुँचा हुआ नामदेव नाम-जपने की प्रशंसा करता है। उनकी पहली अवस्था की सिधि और शब्द भी दिए हैं, एक उस सज्जन की भी बात बन जाए जिसने दोनों रास्ते अच्छी तरह अपनाए हैं। कबीर जी के हठ-योग के शब्द भी इसीलिए रखे हैं।’

इनके दिए ख्याल अनुसार:

1. गुरु साहिब के नुक्ता-ए-निगाह से योगाभ्यास और मूर्तिपूजा आत्मिक जीवन में गलत उद्यम नहीं हैं।

2. गुरु ग्रंथ साहिब में भक्त नामदेव जी के वह शब्द भी दर्ज हैं, जो मूर्तिपूजा के हक में हैं।

3. ये शब्द इस वास्ते दर्ज किए गए हैं कि ‘स्मरण’ को ‘मूर्तिपूजा’ से ऊँचा और बढ़िया तरीका साबित करने के लिए एक पक्की गवाही दी जा सके।

4. कबीर जी की वाणी में वह शब्द भी दर्ज हैं, जो हठ-योग के हक में हैं।

जोग-साधना, मूर्तिपूजा और गुरमति:

गुरु अरजन देव जी फरमाते हैं:

पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई, मै कीए करम अनेका॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै, दीजै बुधि बिबेका॥१॥ रहाउ॥ ... पूजा अरचा बंदन डंडउत, खटु करमा रतु रहता॥ हउ हउ करत बंधन महि परिआ, नह मिलीऐ इह जुगता॥५॥ जोग सिख आसण चउरासीह, ए भी करि करि रहिआ॥ वडी आरजा फिरि फिरि जनमै, हरि सिउ संगु न गहिआ॥६॥ (पंना 642)

(सोरठि महला ५ असटपदी)

साफ लिखा है कि मूर्ति पूजा और योगाभ्यास आदि तरीकों से परमात्मा नहीं मिल सकता।

फिर आगे सूही राग में लिखते हैं:

घर महि ठाकुरु नदरि न आवै॥ गल महि पाहणु लै लटकावै॥१॥ ... जिसु पाहण कउ ठाकुरु कहता॥ ओहु पाहणु लै उस कउ डुबता॥२॥ गुनहगार लूण हरामी॥ पाहण नाव न पार गिरामी॥३॥३॥९॥ (पंना 738) (सूही महला ५)

यहाँ भी साफ शब्दों में सतिगुरु जी ने मूर्तिपूजा को गलत रास्ता बताया है।

हमारी अपनी ही धारणा:

सारे गुरु ग्रंथ साहिब में सतिगुरु जी द्वारा कहीं भी ऐसे शब्द लिखे नहीं मिलते, जहाँ उन्होंने कहा हो कि फलाने भक्त के फलाने शब्द मूर्ति-पूजा के हक में हैं। फिर अगर गुरु ग्रंथ साहिब में कच्ची वाणी भी दर्ज हैतो इसे समूचे तौर पर ‘गुरु’ का दर्जा कैसे मिल सकता है?

यह भी बहुत कमजोर दलील है कि भक्तों के अन्य-पूजा व अन्य-मार्गों के शब्द इसलिए दर्ज किए गए हैं कि अन्य-पूजा के विरुद्ध इन भक्तों की गवाही बड़ी पक्की समझी जाएगी, क्योंकि इन्होंने दोनों रास्ते अच्छी तरह चल के देखे थे। अगर सतिगुरु जी कच्चे रास्ते की ये पक्की गवाही दर्ज ना कर जाते, तो क्या सिखों को उन पर ऐतबार नहीं था बनना? जब सतिगुरु नानक देव जी पहली ‘उदासी’ के समय बनारस गए थे, तो ‘सालगराम’ की पूजा की निंदा तो वहाँ ही कर दी थी। पहली ‘उदासी’ तो अभी शुरू ही हुई थी। यह वर्णन संन् 1507-08 का है। क्या सतिगुरु जी के नाम-लेवा सिखों को अपने गुरु के उस महावाक्य पर भरोसा ना बंधा होगा? जगन्नाथपुरी जा के भी उन्होंने किसी मूर्ति की आरती की जगह सारी कुदरत में बस रहे कर्तार की आरती बताई थी।

कबीर जी के शबदों में हठ-योग:

ये बात भी बिल्कुल ही निर्मूल है कि कबीर जी के कुछ शब्द हठ-योग के पक्ष में हैं, अथवा कबीर जी को प्रभु-प्राप्ति का रास्ता हठ-योग से मिला था। भक्त रविदास जी कबीर जी के समकाली हुए थे, और दोनों ही एक ही शहर (बनारस) के रहने वाले थे। रविदास जी साफ लिखते हैं;

हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे॥ हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे॥१॥ रहाउ॥
हरि के नाम कबीर उजागर॥ जनम जनम के काटे कागर॥१॥

भाव: कबीर जी ने स्मरण से प्राप्ति की।

इसमें कोई शक नहीं कि कबीर जी के कई शबदों में हठ-योग के साधनों का जिक्र आता है, पर वे हठ-योग के पक्ष में नहीं, बल्कि निंदा के लिए हैं। अगर हठ-योग साधना का वर्णन करना ही उसके हक में समझा जाना है, तो सतिगुरु नानक देव जी की कितनी ही वाणी हठ-योगियों के बारे में है। ‘सिध गोसटि’ में जो वर्णन ही इन जोगियों का है। पर, सतिगुरु जी कभी भी हठ-योगी नहीं रहे।

हठ-योग के बारे में कबीर जी के विचार:

कबीर जी के सारे 224 शबदों में तकरीबन 26 शब्द ऐसे हैं जिनमें कबीर जी ने ‘जोग’ का जिकर किया है। यदि इन शबदों को ध्यान से पढ़ें, तो हठ-योग के बारे में कबीर जी के विचार यूँ सामने आते हैं;

1. प्रभु का नाम स्मरणा ही योग का बढ़िया ढंग है और यह नाम प्रभु की मेहर से मिलता है (आसा, 7)। साँस-साँस नाम जपना ही सुखमना नाड़ी का अभ्यास है (गउड़ी 18)। स्मरण के आनंद के मुकाबले में प्राणायाम आदि साधनाएं होछे से काम हैं (गउड़ी 52)।

2. जोग, जप, तप, सन्यास, तीर्थ आदि -ये सारे साधन करते हुए भी जनम-मरण का चक्कर बना रहता है (आसा, 5)। नंगे रह के जंगलों में भटकना, सिर मुना के फकीर बन जाना, बाल-जती बने रहना; ऐसा कोई साधन मनुष्य को संसार-समुंदर से पार नहीं कर सकता (गउड़ी, 4)। कोई जोगी हो, सरेवड़ा हो, सन्यासी हो, पंडित हो; जो मनुष्य बंदगी नहीं करता, उसका अहंकार दूर नहीं होता (गउड़ी, 51)। योगाभ्यास और प्राणायाम आत्मिक जीवन के राह में कपट ही हैं, ये माया की खातिर डिंभ ही हैं (बिलावल, 8)।

3. जोगी लोग शराब में धुत हो के ईड़ा, पिंगला, सुखमना वाला अभ्यास करते हैं। कबीर जी इस होछे नशे से रोकते हैं और कहते हैं कि मैं परमात्मा के ‘नाम महा रस’ की एक बूँद के बदले जप, तप, तीर्थ, व्रत, ईड़ा, पिंगला, सुखमना का अभ्यास; सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हूँ (रामकली, 1, 2)।

उन 26 शबदों के बारे में:

वैसे तो भक्त-वाणी के टीके में जहाँ कहीं भी जरूरत पड़ी है, हठ-योग से संबंध रखने वाले सारे शबदों में किसी प्रकार के पड़ते भुलेखे को पूरी तरह से स्पष्ट करने की कोशिश की गई है; पर इस विचार से उन शबदों को एक ही समय में सामने रख कर ज्यादा अच्छी तरह से सारी बातों का निर्णय किया जा सके, यहाँ उन सारे ही शबदों में से आवश्यक्ता अनुसार हवाले दिए जाते हैं, ता कि पाठक सज्जन खुद तसल्ली कर लें कि गुरु ग्रंथ साहिब में कबीर जी का कोई भी शब्द हठ-योग के हक में नहीं है।

1. बसंत – 2

सभ मत माते कोऊ न जाग॥ संग ही चोर घरु मुसन लाग॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: सब जीव (किसी ना किसी विकार में) मस्त हुए पड़े हैं, कोई जाग नहीं रहा (दिखाई देता); और इन जीवों के अंदर ही (उठ के, कामादिक) चोर इनका (हृदय-रूप) घर लूट रहे हैं।1। रहाउ।

पंडित जन माते पढ़ि पुरान॥ जोगी माते जोग धिआन॥१॥

अर्थ: पंडित लोग पुराण (आदि धर्म-पुस्तकें) पढ़ के अहंकार में मस्त हैं; योगी योग साधना के गुमान में ग्रस्त हैं

इसु देही के अधिक काम॥ कहि कबीर भजि राम नाम॥

अर्थ: कबीर कहता है: हे भाई! प्रभु का नाम स्मरण कर (के सचेत रह, यह स्मरण) जीव के बहुत काम आता है।

नोट: इस शब्द में कबीर जी योग साधना को नाम स्मरण से नीचे दर्जे का बता रहे हैं।

2. गउड़ी – 34

न मै जोग धिआन चितु लाइआ॥ बिनु बैराग न छूटसि माइआ॥१॥

अर्थ: मैंने तो जोग (के बताए हुए) ध्यान (भाव, समाधियों) पर ध्यान नहीं दिया (क्योंकि इससे वैराग पैदा नहीं होता, और) वैराग के बिना माया (के मोह) से निजात नहीं मिल सकती।

शब्द का भाव: प्रभु का एक ‘नाम’ ही ऐसा है, जो माया के मोह से बचा के सही जीवन का राह दिखा सकता है। ना कोई अन्य व्यक्ति और ना ही कोई और साधन इस बात के समर्थ हैं

कहु कबीर खोजउ असमान॥ राम समान न देखउ आन॥२॥३४॥

सोरठि –3

मन रे सरिओ न एकै काजा॥ भजिओ न रघुपति राजा॥१॥ रहाउ॥

बन खंड जाइ जोगु तपु कीनो, कंद मूलु चुनि खाइआ॥

नादी बेदी सबदी मोनी, जम कै पटै लिखाइआ॥२॥

अर्थ: हे मन! तूने प्रकाश-रूपी परमात्मा का भजन नहीं किया, तुझसे ये काम भी (जो करने-योग्य था) नहीं हो सका।1। रहाउ।

कई लोगों ने जंगलों में जा के योग साधे, तप किए, गाजर-मूली आदि चुन-खा के गुजारा किया। जोगी, कर्मकांडी, अलख कहलाने वाले जोगी, मौनधारी; ये सारे जम के लेखे में ही लिखे गए (भाव, इनके साधन मौत के डर से नहीं बचा सकते)।2।

सोरठि – 1

मन रे संसारु अंध गहेरा॥ चहु दिस पसरिओ है जम जेवरा॥१॥ रहाउ॥
कबित पढ़ै पढ़ि कबिता मूए, कपड़ केदारै जाई॥
जटा धारि धारि जोगी मूए, तेरी गति इनहि न पाई॥२॥१॥

अर्थ: हे मेरे मन! (अज्ञानता के कारण स्मरण से टूट के) जगत में अंधेरगर्दी मची हुई है, चारों तरफ जमों की फाही बिखरी हुई है (भाव, लोग ऐसे-ऐसे काम कर रहे हैं जिससे और ज्यादा अज्ञानता में फसते जाएं)। रहाउ।

(विद्वान) कवि लोग अपनी-अपनी काव्य-रचना पढ़ने (भाव, विद्या के गुमान) में ही मस्त हैं, कापड़ी (आदि) साधु केदार (नाथ) आदि तीर्थों पे जा जा के जीवन-व्यर्थ गवाते हैं। जोगी लोग जटा रख-रख के ही ये समझते रहे कि यही राह ठीक है पर, (हे प्रभु!) तेरे बारे में सूझ इन लोगों को भी ना पड़ी।2।

रामकली – 6

नोट: ‘रहाउ’ की तुक में सारे शब्द का केन्द्रिय भाव होता है। यहाँ बताया गया है कि जो मनुष्य अपने आप को गुरु के हवाले करके नाम स्मरण करता है, प्रभु-मिलाप वाली अवस्था से उसकी जान-पहचान हो जाती है। इस शब्द के तीन बंद हैं, तीनों में उस मिलाप अवस्था के लक्षण दिए हैं:

1.ये जगत उसको प्रभु की बनाई हुई एक बगीची प्रतीत होती है, जिसमें ये जीव-जंतु, शाखाएं, फूल-पत्र आदि हैं। 2. जैसे भौरा फूल के रस में मस्त हुआ फूल की पंखुड़ियों में ही अपने आप को कैद करा लेता है, जैसे पक्षी अपने पंखों से हवा को झकोला दे के आकाश में उड़ता है, वैसे ही स्मरण करने वाला नाम-रस में मस्त होता है और प्रभु-चरणों में ऊँची उड़ाने लगाता है; और 3. उसके हृदय में एक ऐसी कोमलता पैदा होती है, जिसकी इनायत से उसकी तृष्णा मिट जाती है।

जानी जानी रे राजा राम की कहानी॥
अंतरि जोति राम परगासा, गुरमुखि बिरलै जानी॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: हे भाई! जे कोई अपने आप को गुरु के हवाले करता है, वह प्रकाश-रूप परमात्मा के मिलाप की अवस्था को समझ लेता है, उसके अंदर राम का प्रकाश हो जाता है, पर इस अवस्था से जान-पहचान करने वाला होता कोई विरला है।1। रहाउ।

नोट: यहाँ बंद नं: 2 में बरते हुए शब्द ‘बारह’ और ‘सोरह’ से ये अंदाजा लगाना भूल है कि कबीर जी प्राणायामी थे।

नोट: ‘रहाउ’ के केन्द्रिय ख्याल को सामने रख के सारे शब्द के अर्थ टीके में पढ़ें।

भैरउ – 10

निज पद ऊपरि लागो धिआनु॥
राजा राम नामु मोरा ब्रहम गिआनु॥ रहाउ॥

अर्थ: (हे जोगी!) मेरी तवज्जो उस (प्रभु के चरण-रूप) घर में जुड़ी हुई है, जो मेरा अपना असल घर है, प्रकाश-रूप प्रभु का नाम (हृदय में बसना ही) मेरे लिए ब्रहम-ज्ञान है।1। रहाउ।

नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में होता है, बाकी के बंद ‘रहाउ’ की तुक का विकास होते हैं। ‘रहाउ’ में कबीर जी कहते हैं कि मेरी तवज्जो उस घर में जुड़ी हुई है जो घर केवल मेरा अपना है; प्रकाश-स्वरूप परमात्मा का नाम हृदय में बसाना ही मेरे लिए ‘ब्रहमज्ञान’ है।

इस अवस्था में पहुँच के असल जीवन कैसा बन जाता है? –इसकी व्याख्या शब्द के तीन बंदों में है:

मति श्रेष्ठ हो के प्रभु में टिकती है और ‘मेर-तेर’ मिट जाती है।

मन विकारों की ओर से रुक जाता है, अंदर ठंड पड़ जाती है, अज्ञानता दूर हो जाती है, प्रभु-चरणों में लगन बन जाती है।

अज्ञानता के अंधेरे में से निकल के प्रकाश मिल जाता है, सूझ ऐसी उच्ची हो जाती है कि सदा एक-रस बनी रहती है।

शब्द में सारे शब्द जोगियों वाले बरते गए हैं, क्योंकि किसी जोगी के साथ वार्तालाप की गई है। जोगी को समझाते हैं कि प्रभु का नाम हृदय में बसना ही सबसे ऊँचा ज्ञान है, और ये नाम ही जीवन में सुंदर तब्दीली लाता है।

नोट: सारी व्याख्या टीके में पढ़ें।

गउड़ी – 51

जोगी करहि जोगु भल मीठा, अवरु न दूजा भाई॥
रुंडित मुंडित एकै सबदी, एहि कहहि सिधि पाई॥१॥
हरि बिनु भरमि भुलाने अंधा॥
जा पहि जाउ आपु छुटकावनि, ते बाधे बहु फंदा॥१॥ रहाउ॥

शब्द का भाव: कोई जोगी हो, सरेवड़ा हो, संयासी हो, पंडित हो, सूरमा हो, दानी हो– कोई भी हो, जो मनुष्य प्रभु की बंदगी नहीं करता उसका अहंकार दूर नहीं हुआ और अहम् दूर हुए बिना वह अभी मझधार में ही भटक रहा है। जीवन के लिए सही प्रकाश करने वाला प्रभु का नाम ही है और ये नाम (सिर्फ) सतिगुरु से मिलता है।

गउड़ी–4

नंगे रह के जंगलों में भटकना, सिर मुनवा के फकीर बन जाना, बालजती बने रहना; ऐसा कोई भी साधन मनुष्य को संसार-सागर से पार नहीं कर सकता। केवल परमात्मा का नाम ही बेड़ा पार करता है।

नगन फिरत जौ पाईऐ जोगु॥
बन का मिरगु मुकति सभु होगु॥१॥

आसा–5

जोगी जती तपी संनिआसी बहु तीरथ भ्रमना॥
लुंजित मुंजित मोनि जटाधर, अंति तऊ मरना॥
ता ते सेवीअले रामना॥
रसना राम नाम हितु जा कै, कहा करै जमना॥ रहाउ॥५॥

भाव: जोग, जत, तप, सन्यास, तीर्थ आदि– ये सारे साधन करते हुए भी जनम-मरण का चक्कर बना रहता है।

आसा–7

असल योगी वह है जो माया-ग्रसित आत्मा को उठा के माया के प्रभाव से ऊँचा ले जाता है। ऐसे जोगी को (जैसे) नौ खजाने मिल जाते हैं।

प्रभु का नाम स्मरणा ही असल जोग है, और यह नाम प्रभु की मेहर से मिलता है।

ऐसा जोगी नउनिधि पावै॥
तल का ब्रहमु ले गगनि चरावै॥१॥ रहाउ॥
सभ जोगतण राम नामु है, जिस का पिंड पराना॥
कहु कबीर जे किरपा धारै, देइ सचा नीसाना॥४॥७॥

बिलावलु–11

जनम मरन का भ्रमु गइआ, गोबिद लिव लागी॥
जीवत सुंन समानिआ, गुर साखी जागी॥१॥ रहाउ॥ ... ...
त्रिकुटी संधि, मै पेखिआ, घट हू घट जागी॥
ऐसी बुधि समाचारी, घट माहि तिआगी॥२॥

नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है। यहाँ ‘गुर साखी जागी’ का नतीजा बयान किया गया है।

अर्थ: (मेरे अंदर) सतिगुरु की शिक्षा से ऐसी बुद्धि जाग उठी है कि मेरी जनम-मरण की भटकना समाप्त हो गई है, प्रभु चरणों में मेरी तवज्जो जुड़ गई है, और मैं जगत में विचरता हुआ ही उस हालत में टिका रहता हूँ, जहाँ माया के फुरने नहीं उठते।1। रहाउ।...

नोट: सिर्फ शब्द ‘त्रिकुटी’ के इस्तेमाल से ये अंदारजा लगाना गलत है कि कबीर जी प्राणायाम करते थे।

बंद नं: 2 का अर्थ:

(सतिगुरु की शिक्षा से बुद्धि के जागने से) मैंने अंदरूनी खिझ दूर कर ली है, अब मुझे हरेक घट में प्रभु की ज्योति जलती हुई दिखाई दे रही है; मेरे अंदर ऐसी मति पैदा हो गई है कि अंदर से विरक्त हो गया हूँ।2।

गउड़ी–53

सुरति सिम्रिति दुइ कंनी मुंदा, परमिति बाहरि खिंथा॥
सुंन गुफा महि आसणु बैसणु कलप बिबरजित पंथा॥१॥
मेरे राजन मै बैरागी जोगी॥ मरत न सोग बिओगी॥१॥ रहाउ॥

शब्द का भाव: असल जोगी वह है जो गृहस्थ में रहते हुए भी प्रभु की याद में तवज्जो जोड़ता है, अपने मन में विकारों के फुरने और कल्पनाएं नहीं उठने देता, जगत को नाशवान जान के इसके मोह में नहीं फसता, दुनिया के काम–काज करता हुआ भी श्वास–श्वास स्मरण करता है, और याद की इस तार को कभी टूटने नहीं देता। ऐसे जोगी को माया कभी भ्रमित नहीं कर सकती।

नोट: शब्द की व्याख्या पढ़ें टीके में।

रामकली–7

ऐसा जोगु कमावहु जोगी॥ जपु तपु संजमु गुरमुखि भोगी॥१॥ रहाउ॥

भाव: हे जोगी! गृहस्थ में रहते हुए ही सतिगुरु के सन्मुख रहो। गुरु के बताए राह पर चलना ही जप है, यही तप है, और यही संयम है; बस! यही जोग-अभ्यास करो।1। रहाउ।

गउड़ी–46

शब्द का भाव: जिस मनुष्य पर प्रभु मेहर करता है, वह गुरु के शब्द की इनायत से अपने मन को विकारों से रोक लेता है। वह निर्बाह के लिए मेहनत-कमाई तो करता है, पर उसकी तवज्जो सदा प्रभु चरणों में रहती है;

उनमनि मनूआ सुंनि समाना, दुबिधा दुरमति भागी॥
कहु कबीर अनभउ इकु देखिआ, राम नाम लिव लागी॥४॥२॥४६॥

अर्थ: हे कबीर! कह: (जिस पर प्रभु की मेहर हो) उस मनुष्य का मन बिरह अवस्था में पहुँच के उस हालत में लीन हो जाता है जहाँ विकारों के फुरने नहीं उठते। उसकी दुबिधा और उसकी बुरी मति सभ नाश हो जाती है, वह यह आश्चर्यजनक चमत्कार अपने अंदर देख लेता है; उसकी सूरति प्रभु के नाम में जुड़ जाती है।

सोरठि–10

संतहु मन पवनै सुखु बनिआ॥ किछु जोगु परापति गनिआ॥ रहाउ॥

नोट: कई सज्जनों ने दूसरी तुक का अर्थ किया है: मैं समझता हूँ कि मुझे जोग की प्राप्ति हो गई है। जोगु परापति = जोग की प्राप्ति।

पर शब्द ‘जोगु’ के अंत में ‘ु’ मात्रा है। इसका अर्थ ‘जोग की’ नहीं हो सकता। जैसे ‘गुरु परसाद करै’ में शब्द ‘गुरु का’ नहीं किया जा सकता।

अपने किसी बनाए हुए ख्याल के अनुसार कबीर जी की वाणी में प्रयोग हुए शब्द ‘जोगु’ को हर जगह ‘योग-साधन’ प्रयोग हुआ समझ लेना ठीक नहीं है। शब्द में जो शब्द जिस रूप में बरते गए हैं, उनको निष्पक्ष हो के समझने का प्रयत्न करें। क्या तुक ‘करन करावन करनै जोग’ में शब्द ‘जोग’ का अर्थ ‘योग साधना’ ही करेंगे?

परापति जोग-हासिल करने के लायक (जोगा = काबिल)।

अर्थ: हे संत जनो! (मेरे) पवन (जैसे चंचल) मन को (अब) सुख मिल गया है, (अब यह मन प्रभु का मिलाप) हासिल करने के लायक थोड़ा बहुत समझा जा सकता है। रहाउ।

बिलावलु–8

आसन पवन दूरि करि बवरे॥ छोडि कपट नितु हरि भजु बवरे॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: हे झल्ले जोगी! योगाभ्यास और प्राणायाम को त्याग, इस पाखण्ड को छोड़ और सदा बँदगी कर। रहाउ।

नोट: इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुक में कबीर जी खुले शब्दों में जोग-अभ्यास और प्राणयाम को ‘कपट’ कह रहे हैं और किसी जोगी को समझाते हैं कि ये गलत रास्ता छोड़ दे, ये माया की खातिर ही एक डंभ है।

जोग-अभ्यास प्राणायाम की बाबत कबीर जी के अपने स्पष्ट ख्याल छोड़ के, और स्वार्थी लोगों द्वारा रची गई मन-घड़ंत कहानियों पर डुल के कबीर जी को जोग-अभ्यासी मिथ लेना भारी भूल है।

मारू–2

इस शब्द में तो साफ तौर पर कहा है;

बनहि बसे किउ पाईअै?

‘जटा भसम लेपन कीआ, कहा गुफा महि बासु’।

गउड़ी–52

जह कछु अहा तहा किछु नाही, पंच ततु तह नाही॥
ईड़ा पिंगला सुखमन बंदे, ए अवगन कत जाही॥१॥
तागा तूटा गगनु बिनसि गइआ, तेरा बोलत कहा समाई॥
एह संसा मो कउ अनदिनु बिआपै, मो कउ को न कहै समझाई॥१॥ रहाउ॥

शब्द का भाव: जिस मनुष्य की लिव प्रभु के चरणों में लगती है उसके अंदर से जगत का और अपने शरीर का मोह मिट जाता है। एक ऐसी आश्चर्यजनक खेल बनती है कि उसके मन में भेदभाव का नामो-निशान नहीं रह जाता। इस आनंद के सामने उसको प्राणयाम आदि साधन होछे से काम (‘अवगुण’) दिखते हैं।

नोट: सारे शब्द की व्याख्या टीके में पढ़ें।

रामकली–9

जोगी लोग शराब बना के पीते थे ताकि तवज्जो अन्य झमेलों से हट के जल्दी एकाग्र हो सके। हमारे भी कई भुल्लड़ सिख तवज्जो टिकाने के लिए भांग पीते हैं। सतिगुरु जी की वाणी में तो प्रभु के नाम को सुख-निधान कहा गया है, पर इन भांग के आशिकों ने भांग को ही ‘सुख निधान’ कहना शुरू कर दिया है, और हमारा एक अखबार भी इसी नाम का प्रयोग कर के ‘सुख निधान की मौज में’ कालम बना के ऊल-जलूल लिखता रहता है। कर्तार के रंग!

नशे, नशे ही हैं। इनका काम है इन्सान की जमीर को कमजोर करना, चाहे किसी ही बहाने पीओ। पर देखें अपने देश की अधोगति! अगर जोगी एक-दम साबत बोतल चढ़ा जाए, उसे पक्की हुई सूझ वाला समझा जाता था। कबीर इस पाखण्ड को कहाँ छुपने देते थे? उन्होंने इसकी खासी कलई खोली। रामकली राग के इस पहले शब्द में विकार-पैदा करने वाली शराब के मुकाबले पर नाम-अमृत तैयार करने की जुगति बताते हैं।

जोगी तो शराब में धुत हो के ईड़ा, पिंगला, सुखमना वाला अभ्यास करते थे; कबीर जी ‘नाम महा रस’ तैयार करने की विधि सिखाते हैं, और कहते हैं कि जोगियों के जप तप और अभ्यास के मुकाबले यह ‘नाम रस’ इतना ऊँचा और स्वादिष्ट है कि मैं इसकी एक बूँद के बदले ये सारे जप, तप, तीर्थ, व्रत, संजम, ईड़ा, सुखमना का अभ्यास; सब कुछ कुर्बान करने को तैयार हूँ। फरमाते हैं:

कोई है रे संतु सहज सुख अंतरि, जा कउ जपु तपु देउ दलाली रे॥
एक बूँद भरि तनु मनु देवउ जो मदु देइ कलाली रे॥१॥ ...
तीरथ बरत नेम सुचि संजम, रवि ससि गहनै देउ रे॥
सुरति पिआल सुधा रसु अंम्रितु, एह महा रसु पेउ रे॥३॥

रवि = पिंगला सुर। ससि = ईड़ा सुर।

प्राणायाम करने वालों के लिए ईड़ा, पिंगला और सुखमना ये तीनों नाड़ियाँ एक साथ ही जरूरी हैं। ये नहीं हो सकता कि कोई हठ-योगी ‘ईड़ा-पिंगला’ को तो किसी के आगे गिरवी रखने को तैयार हो जाए, और सिर्फ एक सुखमना नाड़ी को संभाले रखे। कबीर जी के शब्द ‘रवि ससि’ से ईड़ा, पिंगला और सुखमना तीनों का ही भाव लेना है। कहते हैं कि नाम रस के सामने इस अभ्यास का कौड़ी भी मूल्य नहीं है। सो, कबीर जी के इस शब्द के बंद नं: 2 में प्रयोग किए गए शब्द ‘सुखमन’ से ‘सुखमना नाड़ी’ का भाव नहीं निकलता, इसका अर्थ है ‘मन की सुख-अवस्था’।

भवन चतुरदस भाठी कीनी, ब्रहम अगनि तनि जारी रे॥
मुद्रा मदक सहज धुनि लागी, सुखमन पोचनहारी रे॥२॥

अर्थ: चौदह भवनों को मैंने भट्ठी बनाया है, अपने शरीर में ईश्वरीय ज्योति रूपी आग जलाई है (भाव सारे जगत के मोह को मैंने शरीर में ही ब्रहमाग्नि से जला दिया है)। हे भाई! मेरी लगन सहज अवस्था में लग गई है, यह मैंने उस ‘नाली’ का डट्टा बनाया है (जिसमें से शराब निकलती है), मेरे मन की सुख अवस्था उस ‘नाली’ पे पोचा दे रही है (भाव, ज्यों-ज्यों मेरा मन अडोल होता है, सुख–अवस्था में पहुँचता है, त्यों-त्यों मेरे अंदर नाम-अमृत का प्रभाव चलता है)।

सो, यहाँ भी किसी प्रकार के हठ-योग की प्रशंसा नहीं है।

रामकली–2

इस शब्द में भी जोगियों के शब्द के मुकाबले में ‘नाम रसु’ का ही जिक्र है। जोगी गुड़, महूए और फूल आदि मिला के भट्ठी में शराब निकालते थे। वे शराब पी के प्राणायाम के द्वारा सुखमना नाड़ी में प्राण टिकाते थे। ‘नाम’ का रसिया इनकी जगह ऊँची मति, प्रभु चरणों में जुड़ी तवज्जो, और प्रभु का भउ– इनकी सहायता से सहज अवस्था में पहुँचता है, और इस तरह नाम-अमृत पीने का अधिकारी हो जाता है।

गुड़ु करि गिआनु धिआनु करि महूआ, भउ भाठी मन धारा॥
सुखमन नारी सहज समानी, पीवै पीवनहारा॥१॥
अउधू मेरा मनु मतवारा॥
उनमद चढा, मदन रसु चाखिआ, त्रिभवन भइआ उजिआरा॥१॥ रहाउ॥ (पंना: 969)

भाव: हे जोगी! मेरा (भी) मन मस्त हुआ हुआ है; मुझे (तुरीया अवस्था की) मस्ती चढ़ी हुई है, (पर) मैंने (शब्द की जगह) मस्त करने वाला (नाम–) रस चखा है, (उसकी इनायत से) सारे ही जगत में मुझे उसकी ज्योति जल रही दिखती है।1। रहाउ।

(नाम-रस-रूप शब्द निकालने के लिए) मैंने आतम-ज्ञान का गुड़, प्रभु के चरणों में जुड़ी तवज्जो को महूए के फूल और अपने मन में टिकाए प्रभु के भय को भट्ठी बनाया है। (जिस ज्ञान-ध्यान और भय से उपजा नाम-रस पी के, मेरा मन) सहज अवस्था में लीन हो गया है (जैसे जोगी शराब पी के अपने प्राण) सुखमन नाड़ी में टिकाता है। अब मेरा मन नाम-रस को पीने के काबिल हो के पी रहा है।1।

गउड़ी.18

ऐसा गिआन कथै बनवारी॥ मन रे पवन द्रिढ़ु सुखमन नारी॥ रहाउ॥

अर्थ: ऐसा ज्ञान प्रभु खुद ही प्रकट करता है (प्रभु के साथ मिलाप वाला स्वाद प्रभु खुद ही बख्शता है, इसलिए) हे मन! श्वास–श्वास नाम जप– यही है सुखमना नाड़ी का अभ्यास।

शब्द का भाव: प्रभु की कृपा से जो मनुष्य पूरन गुरु का उपदेश ले के ‘स्मरण’ करता है, वह सदा अपने अंतरात्मे नाम-अमृत में डुबकी लगाए रहता है, और सदा प्रभु में ही जुड़ा रहता है।

गउड़ी–27

उआ कउ कहीऐ सहज मतवारा॥ पीवत राम रसु गिआन बीचारा॥१॥ रहाउ॥

भाव: जिस मनुष्य ने अपनी तवज्जो माया से ऊँची करके राम–रस पीया है, उसको कुदरती तौर पर मस्त हुआ कहते हैं।

शब्द का भाव: नाम स्मरण करते–करते मन माया में डोलने से हट जाता है, नाम में जुड़े रहने की लगन बढ़ती जाती है, शरीर का मोह मिट जाता है, और मानव जीवन की अस्लियत की असल समझ पड़ जाती है।

नोट: ‘रहाउ’ के बंद को सामने रख के सारे शब्द की व्याख्या टीके में पढ़ें।

केदारा–3

शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में होता है, और सारे शब्द में उसका विस्तार होता है।

बोलहु भईआ राम की दुहाई॥
पीवहु संत सदा मति दुरलभ, सहजे पिआस बुझाई॥१॥ रहाउ॥

अर्थ: हे भाई! मुड़–मुड़ के नाम का जाप जपो। हे संत जनो! (प्रभु के नाम का जाप–रूप अमृत) पीयो। (इस नाम रूपी अमृत के पीने से) तुम्हारी मति हमेशा के लिए ऐसी बन जाएगी, जो मुश्किल से बना करती है। (ये अमृत) सहज अवस्था में (पहुँचा के, माया की) प्यास बुझा देता है।1। रहाउ।

इस ‘राम की दुहाई’ की इनायत से जो तब्दीली आती है उसका जिकर शब्द के चारों बँदों में है, कि

‘उलटो पवनु फिरावउ’ – मैं अपने टेढ़े जाते चंचल मन को (माया की ओर से) मना कर रहा हूँ।

‘राम की दुहाई’ के सदके ‘त्रिकुटी छूटै’ – मन की खिझ दूर होती है, माथे की तिउड़ हट जाती है, ‘दसवा दरु खुलै’ –दिमाग़ खुल जाता है, प्रभु-चरणों से संबंध पैदा कर लेता है।

नोट: किसी जोगी से विचार-चर्चा होने की वजह से अल्फाज़ तो जोगियों वाले बरते हैं, पर ये सारी तब्दीली ‘राम की दुहाई’ के कारण है, स्मरण का सदका है। यहाँ भी जोगियों की शराब की निंदा की है, तभी शब्द ‘कलवारि, भाठी, खीवा आदि सारे इस्तेमाल किए हुए हैं।

‘रहाउ’ की तुक को सामने रख के सारे शब्द का अर्थ टीका में पढ़ें।

सिरीरागु–3

‘रहाउ’ की तुक में शब्द का मुख्य भाव होता है। इस शब्द की ‘रहाउ’ की तुकों को ध्यान से विचारें। प्रभु के मिलाप की बज रही जिस तार का यहाँ जिक्र है सारे शब्द में उसीकी व्याख्या है।

राम नाम अनहद किंगुरी बाजै॥ जा की दिसटि नाद लिव लागै॥१॥ रहाउ॥

शब्द का भाव:

गुरु के शब्द में जुड़ने से मन में प्रभु के मिलाप की तार बजने लग पड़ती है। उस स्वाद का असल रूप बताया नहीं जा सकता, पर दिमाग और दिल उसके स्मरण और प्यार में भीगे रहते हैं; श्वास–श्वास याद में बीतता है, सारे जगत में प्रभु ही सबसे बड़ा दिखता है, केवल उसके प्यार में ही मन मस्त रहता है।

रामकली–10

नोट: शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ की तुक में है। इस केन्द्रिय भाव को सारे शब्द में विस्तार से बयान किया गया है। ‘रहाउ’ में बताया है:

पवनपदि उनमनि रहनु खरा॥ नही मिरतु न जनमु जरा॥१॥ रहाउ॥

भाव: जीवात्मा की सबसे ऊँची अवस्था वह है जब यह ‘उनमन’ में पहुँचता है इस अवस्था को जनम–मरन और बुढ़ापा छू नहीं सकते।

इस अवस्था और सारी हालत सारे शब्द में बताई गई है, और यह सारी हालत उसी केन्द्रिय तब्दीली का नतीजा है। ‘गगन, भुअंग, ससि, सूर, कुंभक’ आदि शब्दों के द्वारा जो हालत बयान की गई है यह सारी ‘उनमन’ में पहुँचे हुए नतीजे के कारण है। पहले आत्मा ‘उनमन’ में पहुँची है, और देखने को उसके बाहरी चक्र–चिन्ह बने हैं, उनका बयान सारे शब्द में है। खुले शब्दों में यूँ कह लो कि यहाँ ये जिक्र नहीं कि ‘गगन, भुअंग, ससि, सूर, कुंभक’ आदि वाले साधन करने का नतीजा निकला ‘उनमन’। बल्कि ‘उनमन’ की व्यवहारिक हकीकत का हाल है। ये ‘उनमन’ बनी कैसे?

बकतै बकि सबदु सुणाइआ॥ सुनतै सुनि मंनि बसाइआ॥ करि करता उतरसि पारं॥ कहै कबीरा सारं॥४॥१॥१०॥

भाव: कबीर कहता है (इस सारी तब्दीली में) असल राज की बात (ये है) – उपदेश करने वाले सतिगुरु ने, जिसको अपना शब्द सुनाया, अगर उसने ध्यान से सुन के अपने मन में बसा लिया, तो परमात्मा का स्मरण कर के वह पार लांघ गया।

नोट: सारे शब्द के अर्थ टीके में पढ़ो।

गउड़ी–47

मेरे मन मन ही उलटि समाना॥
गुर परसादि अकलि भई अवरै, नातरु था बेगाना॥१॥ रहाउ॥

शब्द का मुख्य भाव ‘रहाउ’ के तुक में निहित होता है। यहाँ ‘रहाउ’ में मन को संबोधन किया है और कहा है: हे मेरे मन! जीव पहले तो प्रभु से बेगाना-बेगाना सा रहता है, सतिगुरु की कृपा से जिस मनुष्य की समझ और तरह की हो जाती है, वह अपने मन की विकारों की तरफ की दौड़ को ही पलट के प्रभु में लीन हो जाता है। सो, इस मुख्य भाव को सामने रखने से, इस शब्द के पहले बंद में दिए हुए छह चक्रों के भेदने से यह मतलब कभी नहीं निकल सकता कि कबीर जी योग-समाधि की प्रोढ़ता कर रहे हैं। वह तो बल्कि कह रहे हैं कि गुरु की शरण आ के मन को माया की ओर से रोकने वाले मनुष्य के छहों चक्र भेदे गए समझो। नर्म से शब्दों में कह रहे हैं कि इन छह चक्रों को भेदने की आवश्यक्ता नहीं है।

शब्द का भाव: जब सतिगुरु जी के उपदेश की इनायत से मनुष्य की समझ में तब्दीली आती है तो इसका मन विकारों की तरफ से हटता है और इसकी तवज्जो प्रभु की महिमा में जुड़ती है। ज्यों-ज्यों प्रभु की याद और प्रभु का प्यार हृदय में बसता है, जीवन में एक अजीब सरूर पैदा होता है; पर वह सरूर बयान नहीं किया जा सकता।

नोट: शब्द के अर्थ टीके में पढ़ें।

भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन जी ‘जोग-अभ्यास’ के शीर्षक तहत भक्त कबीर जी के बारे में यूँ लिखते हैं: ‘कबीर जी जोग-अभ्यास के पक्के श्रद्धालु थे। राज-योग गुरु मार्ग से वंचित थे, जैसे कि आप की रचना से सिद्ध होता है।’

इससे आगे विरोधी सज्जन जी ने कबीर जी की वाणी में से कुछ शबदों के हवाले दिए हैं। इनके द्वारा किए ऐतराजों पर विचार टीके में हरेक शब्द के अर्थ देते वक्त की जाएगी। यहाँ सिर्फ इतनी ही विनती की जाती है कि जिस कबीर जी को यह सज्जन जी ‘गुरु मार्ग से वंचित’ समझ रहे हैं, उनकी बाबत श्री गुरु अमरदास जी इस प्रकार फरमाते हैं;

नामा छीबा कबीरु जुोलाहा, पूरे गुर ते गति पाई॥
ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि, हउमै जाति गवाई॥
सुरि नर तिन की बाणी गावहि, कोइ न मेटै भाई॥३॥५॥२२॥ (सिरी रागु महला ३, पंना: 67)

गुरु का शब्द:

जैसे बिनु लोचन, बिलोकीऐ न रूपु रंगु,
स्रवण बिहून, रागु नादु न सुणीजीऐ॥
जैसे बिनु जिहबा, न उचरै सबदु,
अरु नासका बिहून, बास बासना न लीजीऐ॥
जैसे बिनु कर, करि सकै न किरत करम,
चरन बिहून, भउन गउनु कत कीजीऐ॥
असन बसन बिनु धीरजु न धरै देह,
बिनु गुर सबद नह प्रेम–रसु पीजीऐ॥५३॥ (भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: लोचन = आँखें। बिलोकीऐ न = देखा नहीं जा सकता। स्रवण = कान। बिहून = बिना। न उचरै = नहीं बोल सकता। अरु = और। नासका = नाक। बास = सुगंधि। कर = हाथ। करि सकै न = कर नहीं सकता। भउन = धरती। गउन = रटन। कत कीजीऐ = कहाँ किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता।

असन = भोजन (अश् = to eat)। बसन = बस्त्र। देह = शरीर। नह पीजीऐ = नहीं पीया जा सकता।

सिख के लक्षण:

जोई कुला धरम करम कै सुचार चार,
सोई परवार विखै श्रेष्ठ बखानीऐ॥
बनज–बिउहारि साचो शाह सनमुख जोई,
सोई तउ बनौटा निह–कपट कै मानीऐ॥
सुआमी काम सावधान, मानत नरेश, आनि,
सोई सुआमी–कारजी प्रसिद्धु पहिचानीऐ॥
गुर–उपदेसु परवेसु रिद अंतरि है,
सबदि सुरति, सोई सिखु जगि जानीऐ॥ (भाई गुरदास जी)

पद्अर्थ: जोई = जो स्त्री। कै = के द्वारा, में। चार = सुंदर। सुचार चार = सुंदर कुशलता वाली। बखानीऐ = कही जातीर है। बिउहारि = व्यवहार में। साचो = सच्चा, ईमानदार। सनमुख = सामने। जोई = जो। बनौटा = दलाल। निह = कपट = कपट हीन, ईमानदार। कै = करि, कर के, जान के। मानीऐ = माना जाता है, आदर पाता है। काम = कामों में। सावधान = ध्यान देने वाला। नरेश = (नर+ईश) राजा। आनि = ला के। कारजी = काम करने वाला। रिद अंतरि है = (जिसके) दिल में है। सबदि = शब्द में। सुरति = ध्यान। जगि = जगत में। जानीऐ = जाना जाता है।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh