श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 834 जपि जगंनाथ जगदीस गुसईआ ॥ सरणि परे सेई जन उबरे जिउ प्रहिलाद उधारि समईआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपि = जपा कर। जगंनाथ = जगत का नाथ। जगदीस = जगत का ईश्वर। गुसईआ = धरती का पति। उबरे = विकारों से बच गए। उधारि = पार उतार करके।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जगत के नाथ, जगत के ईश्वर, धरती के पति प्रभु का नाम जपा कर। जो मनुष्य प्रभु की शरण आ पड़ते हैं, वह मनुष्य (संसार-समुंदर में से) बच निकलते हैं, जैसे प्रहलाद (आदि भक्तों) को (परमात्मा ने संसार-समुंदर से) पार लंघा के (अपने चरणों में) लीन कर लिया।1। रहाउ। भार अठारह महि चंदनु ऊतम चंदन निकटि सभ चंदनु हुईआ ॥ साकत कूड़े ऊभ सुक हूए मनि अभिमानु विछुड़ि दूरि गईआ ॥२॥ पद्अर्थ: भार अठारह = सारी बनस्पति (प्राचीन विचार चला आ रहा है कि हरेक पौधे के एक-एक पक्ता ले के तौलने पर 18 भार तोल बनता है। एक भार बराबर है पाँच मन कच्चे का)। निकटि = नजदीक। साकत = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य। ऊभ सुक = (धरती पर) खड़े हुए सूखे वृक्ष। मनि = मन में। विछुड़ि = विछुड़ के।2। अर्थ: हे भाई! सारी बनस्पतियों में चंदन सबसे श्रेष्ठ (वृक्ष) है, चंदन के नजदीक (उगा हुआ) हरेक पौधा चंदन बन जाता है। पर परमात्मा से टूटे हुए माया-ग्रसित प्राणी (उन पौधों जैसे हैं जो धरती से खुराक मिलने पर भी) खड़े हुए ही सूख जाते हैं, (उनके) मन में अहंकार बसता है, (इस वास्ते परमात्मा से) विछुड़ केवे कहीं दूर पड़े रहते हैं।2। हरि गति मिति करता आपे जाणै सभ बिधि हरि हरि आपि बनईआ ॥ जिसु सतिगुरु भेटे सु कंचनु होवै जो धुरि लिखिआ सु मिटै न मिटईआ ॥३॥ पद्अर्थ: गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = गिनती, मर्यादा, सीमा। आपे = खुद ही। सभ बिधि = सारी मर्यादा। भेटे = मिलता है। कंचनु = सोना। धुरि = धुर दरगाह से।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा कैसा है और कितना बड़ा है; यह बात वह स्वयं ही जानता है। (जगत की) सारी मर्यादाएं उसने खुद ही बनाई हुई हैं। (उस मर्यादा के अनुसार) जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह सोना बन जाता है (स्वच्छ जीवन वाला बन जाता है)। हे भाई! धुर दरगाह से (जीवों के किए कर्मों के अनुसार जीवों के माथे ऊपर जो लेख) लिखे जाते हैं, वह लेख (किसी के अपने उद्यम से) मिटाए मिट नहीं सकता (गुरु को मिल के ही लोहे से कंचन बनता) है।3। रतन पदारथ गुरमति पावै सागर भगति भंडार खुल्हईआ ॥ गुर चरणी इक सरधा उपजी मै हरि गुण कहते त्रिपति न भईआ ॥४॥ पद्अर्थ: गुरमति = गुरु की मति से। पावै = (मनुष्य) पा लेता है। सागर = समुंदर। इक सरधा = एक परमात्मा का प्यार। कहते = कहते हुए। खुल्ईआ = खुल्हईआ। त्रिपति = तृप्ति।4। अर्थ: हे भाई! (गुरु के अंदर) भक्ति के समुंदर (भरे पड़े) हैं, भक्ति के खजाने खुले पड़े हैं, गुरु की मति पर चल के ही मनुष्य (ऊँचे आत्मिक गुण) रत्न प्राप्त कर सकता है। (देखो) गुरु के चरणों में लग के (ही मेरे अंदर) एक परमात्मा के लिए प्यार पैदा हुआ है (अब) परमात्मा के गुण गाते हुए मेरा मन भरता नहीं है।4। परम बैरागु नित नित हरि धिआए मै हरि गुण कहते भावनी कहीआ ॥ बार बार खिनु खिनु पलु कहीऐ हरि पारु न पावै परै परईआ ॥५॥ पद्अर्थ: परम बैरागु = सबसे ऊँचा वैराग, सबसे उच्च लगन। भावनी = प्यार। बार बार = बारंबार। कहीऐ = स्मरणा चाहिए। पारु = परला छोर। परै परईआ = परे से परे।5। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य सदा ही परमात्मा का ध्यान धरता रहता है उसके अंदर सबसे ऊँची लगन बन जाती है। प्रभु के गुण गाते-गाते जो प्यार मेरे अंदर बना है, (मैंने तुम्हें उसका हाल) बताया है। सो, हे भाई! बार बार, हरेक पल, हरेक छिन, परमात्मा का नाम जपना चाहिए (पर, यह याद रखो कि) परमात्मा परे से परे है, कोई जीव उस (की हस्ती) का परला छोर ढूँढ नहीं सकता।5। सासत बेद पुराण पुकारहि धरमु करहु खटु करम द्रिड़ईआ ॥ मनमुख पाखंडि भरमि विगूते लोभ लहरि नाव भारि बुडईआ ॥६॥ पद्अर्थ: पुकारहि = पुकारते हैं, (इस बात पर) जोर देते हैं। धरमु = (षट् = करमी। खट कर्मी) धर्म। खट करम = छह धार्मिक कर्म (विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करने और कराने, दान देना और लेना)। द्रिढ़ईआ = दृढ़ करते हैं। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। पाखंड = पाखण्ड में। भरमि = भटकना में। विगूते = दुखी होते हैं। नाव = (जिंदगी की) बेड़ी। भारि = भार से।6। अर्थ: हे भाई! वेद-पुरान-शास्त्र (आदि धर्म पुस्तकें इसी बात पर) जोर देते हैं (कि खट-कर्मी) धर्म कमाया करो, इन छह धार्मिक कर्मों के बारे में ही दृढ़ करते हैं। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (इसी) पाखण्ड में भटकना में (पड़ कर) दुखी होते रहते हैं, (उनकी जिंदगी की) बेड़ी (अपने ही पाखण्ड के) भार से लोभ की लहर में डूब जाती है।6। नामु जपहु नामे गति पावहु सिम्रिति सासत्र नामु द्रिड़ईआ ॥ हउमै जाइ त निरमलु होवै गुरमुखि परचै परम पदु पईआ ॥७॥ पद्अर्थ: नामे = नाम से ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। द्रिढ़ईआ = हृदय में पक्का करो। जाइ = दूर होती है। त = तब। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। गुरमुखि = गुरु के द्वारां। परचै = (नाम में) परचता है। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा।7। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपा करो, नाम में जुड़ के ही उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त करोगे। (अपने हृदय में परमात्मा का) नाम दृढ़ करके टिकाए रखो, (गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य के लिए ये हरि-नाम ही) स्मृतियों-शास्त्रों का उपदेश है। (हरि-नाम के द्वारा ही जब मनुष्य के अंदर से) अहंकार दूर हो जाता है, तब मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है। गुरु की शरण पड़ कर मनुष्य (परमात्मा के नाम में) पतीजता है, तब सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेता है।7। इहु जगु वरनु रूपु सभु तेरा जितु लावहि से करम कमईआ ॥ नानक जंत वजाए वाजहि जितु भावै तितु राहि चलईआ ॥८॥२॥५॥ पद्अर्थ: वरनु = वर्ण,रंग। जितु = जिस (काम) से। लावहि = तू लगाता है। से = वह (बहुवचन)। जंत = जीव (बहुवचन)। वाजहि = बजते हैं। जितु = जिस (राह) में। भावै = तुझे अच्छा लगता है। तितु राहि = उस राह पर।8। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) यह सारा जगत तेरा ही रूप है तेरा ही रंग है। जिस तरफ तू (जीवों को) लगाता है, जीव वही कर्म करते है। जीव (तेरे बाजे हैं) जैसे तू बजाता है, वैसे ही बजते हैं। जिस राह पर चलाना तुझे अच्छा लगता है, उसी राह पर जीव चलते हैं।8।2। बिलावलु महला ४ ॥ गुरमुखि अगम अगोचरु धिआइआ हउ बलि बलि सतिगुर सति पुरखईआ ॥ राम नामु मेरै प्राणि वसाए सतिगुर परसि हरि नामि समईआ ॥१॥ पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु के द्वारा, गुरु की शरण पड़ कर। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। हउ = मैं। बलि बलि = सदके। मेरै प्राणि = मेरी जिंद में, मेरे हरेक श्वास में। परसि = छू के। नामि = नाम में।1। अर्थ: हे भाई! मैं गुरु महापुरुख से सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। गुरु की शरण पड़ कर मैं उस अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु का नाम स्मरण कर रहा हूँ जिस तक ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। गुरु ने परमात्मा का नाम मेरे हरेक सांस में बसा दिया है। गुरु (के चरणों) को छू के परमात्मा के नाम में लीन रहता हूँ।1। जन की टेक हरि नामु टिकईआ ॥ सतिगुर की धर लागा जावा गुर किरपा ते हरि दरु लहीआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: टेक = आसरा। टिकईआ = टिका दी है, बना दी है। धर = आसरा। जावा = जाऊँ, मैं (जीवन-राह पर) चलता जा रहा हूँ। धर लागा = पल्ला पकड़ के। ते = से, के द्वारा। लहीआ = पा लिया है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं गुरु का पल्ला पकड़ के (जीवन-राह पर) चला जा रहा हूँ, गुरु की मेहर से मैंने परमात्मा (के महल) का दरवाजा ढूँढ लिया है। (गुरु ने) परमात्मा का नाम (मुझ) दास (की जिंदगी) का सहारा बना दिया है।1। रहाउ। इहु सरीरु करम की धरती गुरमुखि मथि मथि ततु कढईआ ॥ लालु जवेहर नामु प्रगासिआ भांडै भाउ पवै तितु अईआ ॥२॥ पद्अर्थ: मथि = मथ के, रिड़क के, सुधार के। ततु = मक्खन, ऊँचा आत्मिक जीवन। प्रगासिआ = प्रकाश कर दिया है (गुरु ने), प्रकट कर दिया है। भांडै तितु = उस (हृदय-) बर्तन में। भाउ = प्यार, प्रेम। अईआ = आ पड़ा है।2। अर्थ: हे भाई! यह (मानव) शरीर (एक ऐसी) धरती है जिसमें (रोजाना किए जा रहे) कर्म (-बीज) बीजे जा रहे हैं। (जैसे) दूध को मथ-मथ के मक्खन निकाल लिया जाता है (वैसे ही,) गुरु की शरण पड़ कर (इन रोजाना किए जा रहे कर्मों को मथ-मथ के सुधार के ऊँचा आत्मिक जीवन प्राप्त कर लिया जाता है)। (जिस हृदय-रूप बर्तन में गुरु परमात्मा का) महान कीमती नाम प्रकट कर देता है, उस (हृदय-) बर्तन में प्रेम आ बसता है।2। दासनि दास दास होइ रहीऐ जो जन राम भगत निज भईआ ॥ मनु बुधि अरपि धरउ गुर आगै गुर परसादी मै अकथु कथईआ ॥३॥ पद्अर्थ: होइ = हो के, बन के। रहीऐ = रहना चाहिए। जो जन = जो मनुष्य। निज = अपने खास। अरपि = अर्पण करके। धरउ = मैं धरता हूँ। परसादी = कृपा से ही। अकथु = जिसका सही स्वरूप बयान ना किया जा सके। कथईआ = मैं महिमा कर रहा हूँ।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा के खास भक्त बन जाते हैं, उनके दासों के दासों के दास बन के रहना चाहिए। मैंने (अपने) गुरु के आगे (अपना) मन भेट कर दिया है, अपनी अक्ल भेट कर दी है। गुरु की कृपा से ही मैं उस परमात्मा की महिमा करता हूँ, जिसका सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता।3। मनमुख माइआ मोहि विआपे इहु मनु त्रिसना जलत तिखईआ ॥ गुरमति नामु अम्रित जलु पाइआ अगनि बुझी गुर सबदि बुझईआ ॥४॥ पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य। मोहि = मोह में। विआपे = फसे रहते हैं। तिखईआ = तृष्णा, प्यास। अंम्रित जलु = अमृत जल, आत्मिक जीवन देने वाला जल। अगनि = अग्नि (तृष्णा की)। गुर सबदि = गुरु के शब्द ने।4। अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (सदा) माया के मोह में फसे रहते हैं, (उनका) यह मन (माया की) तृष्णा (की आग) में जलता रहता है। (जिस मनुष्य ने) गुरु की शिक्षा ले के आत्मिक जीवन वाला नाम-जल पा लिया (उसके अंदर से तृष्णा की) आग बुझ गई, गुरु के शब्द ने बुझा दी।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |