श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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राम गुरि मोहनि मोहि मनु लईआ ॥ हउ आकल बिकल भई गुर देखे हउ लोट पोट होइ पईआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे (मेरे) राम! गुरि = गुरु ने। मोहनि = मोहन ने। गुरि मोहनि = मोहन गुरु ने, प्यारे गुरु ने। मोहि लीआ = मोह लिया, अपने वश में कर लिया है। हउ = मैं। आकल बिकल = (disturbed, unnerved) व्याकुल, घबराई हुई। आकल बिकल भई = अपनी चतुराई समझदारी गवा बैठी हूँ। लोट पोट = काबू से बाहर, अपने मन के काबू से बाहर।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) राम! प्यारे गुरु ने (मेरा) मन अपने वश में कर लिया है। गुरु के दर्शन करके (अब) मैं अपनी चतुराई समझदारी गवा बैठी हूँ, मेरा अपना आप मेरे वश में नहीं रहा (मेरा मन और मेरी ज्ञान-इंद्रिय गुरु के वश में हो गई हैं)।1। रहाउ।

हउ निरखत फिरउ सभि देस दिसंतर मै प्रभ देखन को बहुतु मनि चईआ ॥ मनु तनु काटि देउ गुर आगै जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखईआ ॥२॥

पद्अर्थ: निरखत फिरउ = (फिरूँ) मैं तलाशती फिरती हूँ। सभि = सारे। दिसंतर = देश+अंतर, देशान्तर। को = का। मनि = (मेरे) मन में। चईआ = चाव। काटि = काट के। देउ = देऊँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। मारगु = रास्ता। पंथु = रास्ता। दिखईआ = दिखा दिया है।2।

अर्थ: हे भाई! (मेरे) मन में प्रभु के दर्शन करने की तीव्र इच्छा पैदा हो चुकी है, मैं सारे देशों-देशांतरों में (उसको) तलाशती फिरती हूँ (थी)। जिस (गुरु) ने (मुझे) प्रभु (के मिलाप) का रास्ता दिखा दिया है, उस गुरु के आगे मैंअपना तन काट के भेट कर रही हूँ (अपना आप गुरु के हवाले कर रही हूँ)।2।

कोई आणि सदेसा देइ प्रभ केरा रिद अंतरि मनि तनि मीठ लगईआ ॥ मसतकु काटि देउ चरणा तलि जो हरि प्रभु मेले मेलि मिलईआ ॥३॥

पद्अर्थ: आणि सदेसा = संदेश ला के। देइ = देता है। केरा = का। रिद अंतरि = हृदय में। मनि = मन में। तनि = तन में। लगईआ = लगता है। मसतकु = माथा, सिर। काटि = काट के। देउ = मैं देता हूँ। तलि = नीचे।3।

अर्थ: हे भाई! (अब अगर) कोई प्रभु का संदेश ला के (मुझे) देता है, तो वह मेरे दिल, मेरे मन, मेरे तन को प्यारा लगता है। हे भाई! जो कोई सज्जन मुझे प्रभु से मिलाता है, मैं अपना सिर काट के उसके पैरों के नीचे रखने को तैयार हूँ।3।

चलु चलु सखी हम प्रभु परबोधह गुण कामण करि हरि प्रभु लहीआ ॥ भगति वछलु उआ को नामु कहीअतु है सरणि प्रभू तिसु पाछै पईआ ॥४॥

पद्अर्थ: चलु = आ चल। सखी = हे सहेली! प्रभु परबोधह = हम प्रभु (के प्यार) को जगाएं, झकझोलें। कामण = टूणे, मोहित करने वाले गीत, वह गीत जो बारात के आगमन पर लड़कियाँ दूल्हे को वश में करने के लिए गाती हैं। करि = कर के। लहीआ = ढूँढ लें। भगति वछलु = भक्ति से प्यार करने वाला। कहीअतु = कहा जाता है। उआ को = उसका।4।

अर्थ: हे सखी! आ चल, हे सखी! आ चल। हम (चल के) प्रभु (के प्यार) को जगा दें, (आत्मिक) गुणों वाले मोहक गीत (कामिनी) गा के उस प्रभु-पति को वश में करें। ‘भक्ति से प्यार करने वाला’ (भक्त वछल) - ये उसका नाम कहा जाता है। (हे सखी! आ) उसकी शरण पड़ जाएं, उसके दर पर गिर पड़ें।4।

खिमा सीगार करे प्रभ खुसीआ मनि दीपक गुर गिआनु बलईआ ॥ रसि रसि भोग करे प्रभु मेरा हम तिसु आगै जीउ कटि कटि पईआ ॥५॥

पद्अर्थ: खिमा = किसी की ज्यादती को सहने का स्वभाव। सीगार = श्रृंगार, सजावट। मनि = मन में। दीपक = दीया। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। बलईआ = जलाती है, जगाती है। रसि रसि = बड़े स्वाद से। भोग करे = मिलाप आनंद लेता है। जीउ = जिंद। कटि कटि = बार बार कट कट के।5।

अर्थ: हे सखी! जो जीव-स्त्री खिमा वाले स्वभाव को अपने आत्मिक जीवन की सजावट बनाती है, जो अपने मन में गुरु से मिली आत्मिक जीवन की सूझ (का) दीपक जगाती है, प्रभु-पति उस पर प्रसन्न हो जाता है। प्रभु उसके आत्मिक मिलाप को बड़े ही आनंद से भोगता है। हे सहेली! मैं उस प्रभु-पति के आगे अपने प्राणों को बार-बार वारने को तैयार हूँ।5।

हरि हरि हारु कंठि है बनिआ मनु मोतीचूरु वड गहन गहनईआ ॥ हरि हरि सरधा सेज विछाई प्रभु छोडि न सकै बहुतु मनि भईआ ॥६॥

पद्अर्थ: कंठि = गले में। मोतीचूरु = सिर का एक गहना। गहन = गहने। मनि = मन में। भईआ = प्यारा लगता है।6।

अर्थ: हे सखी! परमात्मा के नाम (की हरेक सांस में याद) की माला मैंने (अपने) गले में डाल ली है (याद की इनायत से सुंदर हो चुके अपने) मन को मैंने सबसे बढ़िया मोतीचूर गहना बना लिया है। हरि-नाम की श्रद्धा की मैंने (अपने हृदय में) सेज बिछा दी है, मेरे मन को वह प्रभु-पति बहुत प्यारा लग रहा है (अब तुझे विश्वास है कि) प्रभु-पति मुझे छोड़ के नहीं जा सकता।6।

कहै प्रभु अवरु अवरु किछु कीजै सभु बादि सीगारु फोकट फोकटईआ ॥ कीओ सीगारु मिलण कै ताई प्रभु लीओ सुहागनि थूक मुखि पईआ ॥७॥

पद्अर्थ: कीजै = करते रहें। सभु सीगारु = सारा श्रृंगार। फोकट = फोका, व्यर्थ। मिलण कै ताई = मिलने के लिए। लीओ सुहागनि = सोहागनि को अपनी बना लिया। मुखि = (सिर्फ श्रृंगार करने वाली के) मुँह पर।7।

अर्थ: हे सहेली! (अगर) प्रभु-पति कुछ और कहता रहे, और, (जीव-स्त्री) कुछ और करती रहे, तो (उस जीव-स्त्री का) सारा किया हुआ श्रृंगार (सारा धार्मिक उद्यम) व्यर्थ चला जाता है, बिल्कुल फोका बन जाता है। (उसके) मुँह पर तो थूकें ही पड़ीं, और प्रभु पति ने तो (किसी और) सोहागनि को अपनी बना लिया।7।

हम चेरी तू अगम गुसाई किआ हम करह तेरै वसि पईआ ॥ दइआ दीन करहु रखि लेवहु नानक हरि गुर सरणि समईआ ॥८॥५॥८॥

पद्अर्थ: चेरी = दासी। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। गुसाई = धरती का पति। किआ हम करह = हम क्या कर सकती हैं? तेरै वसि = तेरे बस में। दीन = गरीबों पर।8।

अर्थ: हे प्रभु! हम तेरी दासियाँ हैं तू अगम्य (पहुँच से परे) और धरती का पति है। हम जीव-स्त्रीयां (तेरे आदेश के बाहर) कुछ नहीं कर सकती, हम तो सदा तेरे वश में हैं। हे नानक! (कह:) हे हरि! हम कंगालों पर मेहर कर, हमें अपने चरणों में रख, हमें गुरु के चरणों में जगह दिए रख।8।5।

बिलावलु महला ४ ॥ मै मनि तनि प्रेमु अगम ठाकुर का खिनु खिनु सरधा मनि बहुतु उठईआ ॥ गुर देखे सरधा मन पूरी जिउ चात्रिक प्रिउ प्रिउ बूंद मुखि पईआ ॥१॥

पद्अर्थ: मै मनि = मेरे मन में। मै तनि = मेरे तन में। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। सरधा = तमन्ना। सरधा मन = मन की तमन्ना। चात्रिक मुखि = पपीहे के मुँह में।1।

अर्थ: हे सखी! मेरे मन में, मेरे तन में, अगम्य (पहुँच से परे) मालिक-प्रभु का प्यार पैदा हो चुका है, मेरे मन में घड़ी-घड़ी उसके मिलाप की तीव्र इच्छा पैदा हो रही है। हे सखिए! गुरु का दर्शन करके मेरी यह इच्छा पूरी होती है, जैसे ‘प्रिउ प्रिउ’ करते पपीहे के मुँह में (बरखा की) बूँद पड़ जाती है।1।

मिलु मिलु सखी हरि कथा सुनईआ ॥ सतिगुरु दइआ करे प्रभु मेले मै तिसु आगै सिरु कटि कटि पईआ ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सखी = हे सहेली! कथा = महिमा। सुनईआ = सुनिए। मेले = मिलाता है। मै सिरु = मेरा सिर। पईआ = पड़ाता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे सखी! आ, इकट्ठे बैठें, एक साथ बैठें (और, बैठ के) परमात्मा की महिमा सुनें। जिसके ऊपर गुरु मेहर करता है, उसको प्रभु (साथ) मिला देता है। उस (गुरु) के आगे मेरा सिर बार-बार कुर्बान जाता है।1। रहाउ।

रोमि रोमि मनि तनि इक बेदन मै प्रभ देखे बिनु नीद न पईआ ॥ बैदक नाटिक देखि भुलाने मै हिरदै मनि तनि प्रेम पीर लगईआ ॥२॥

पद्अर्थ: रोमि रोमि = हरेक रोम में। बेदन = बिरहा की पीड़ा। बैदक = वैद्य, हकीम। नाटिक = नाड़ी, नब्ज़। देखि = देख के। पीर = पीड़ा।2।

अर्थ: हे सखिए! मेरे हरेक रोम में, मेरे मन में, मेरे तन में (प्रभु से विछोड़े की) पीड़ा है, प्रभु का दर्शन किए बिना मुझे शांति नहीं मिलती। हकीम (मेरी) नब्ज़ देख के (ही) ग़लती खा जाते हैं, (हकीम को नहीं पता कि) मेरे हृदय में, मेरे मन में, मेरे तन में तो प्रभु-प्यार की पीड़ा उठ रही है।2।

हउ खिनु पलु रहि न सकउ बिनु प्रीतम जिउ बिनु अमलै अमली मरि गईआ ॥ जिन कउ पिआस होइ प्रभ केरी तिन्ह अवरु न भावै बिनु हरि को दुईआ ॥३॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। सकउ = सकूँ। अमल = नशा। अमली = नशई मनुष्य। पिआस = चाहत, चाहत, तमन्ना। केरी = की। को दुईआ = कोई दूसरा।3।

अर्थ: हे सखी! जैसे कोई नशेड़ी मनुष्य नशे के बग़ैर मरने वाला (लाचार) हो जाता है, वैसे ही मैं प्रीतम-प्रभु के मिलाप के बिना एक छिन एक पल भी नहीं रह सकती। हे सखिए! जिस जीव-स्त्रीयों को प्रभु-पति के मिलाप की तमन्ना होती है, उन्हें प्रभु के बिना और कोई दूसरा अच्छा नहीं लगता।3।

कोई आनि आनि मेरा प्रभू मिलावै हउ तिसु विटहु बलि बलि घुमि गईआ ॥ अनेक जनम के विछुड़े जन मेले जा सति सति सतिगुर सरणि पवईआ ॥४॥

पद्अर्थ: आनि = आ के। विटहु = से। घुमि गईआ = सदके जाती हूँ।4।

अर्थ: हे सखिए! जो कोई आ के मुझे मेरा प्यारा प्रभु मिला दे, तो मैं उससे सदके कुर्बान जाती हूँ। हे सखिए! जब सतिगुरु की शरण पड़ते हैं, तो सतिगुरु अनेक जन्मों के विछुड़ों को (प्रभु के साथ) मिला देता है।4।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh