श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 839 किआ जपु जापउ बिनु जगदीसै ॥ गुर कै सबदि महलु घरु दीसै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ जपु = और कौन सा जप? जापउ = मैं जपूँ? जगदीस = (जगत+ईश) जगत का मालिक। सबदि = शब्द से, शब्द में जुड़ने से। महलु = परमात्मा का ठिकाना। दीसै = दिख सकता है।1। रहाउ। अर्थ: गुरु के शब्द में जुड़ के (परमात्मा का स्मरण करने से परमात्मा का) दर-घर दिख सकता है (परमातमा के चरणों में टिक सकते हैं, इसलिए) जगत के मालिक परमात्मा के स्मरण के बिना मैं और कोई भी जाप नहीं जपता।1। रहाउ। दूजै भाइ लगे पछुताणे ॥ जम दरि बाधे आवण जाणे ॥ किआ लै आवहि किआ ले जाहि ॥ सिरि जमकालु सि चोटा खाहि ॥ बिनु गुर सबद न छूटसि कोइ ॥ पाखंडि कीन्है मुकति न होइ ॥२॥ पद्अर्थ: भाइ = प्रेम में। भाउ = प्रेम। दूजै भाइ = (प्रभु को भुला के) किसी और प्रेम में। जम दरि = जम के दर पर। बाधे = बंधे हुए। आवण जाणे = जनम जनम के चक्कर। किआ लै = क्या ले के, खाली-हाथ। जाहि = चले जाते हैं। सिरि = सिर पर। जमकालु = मौत, जमराज, मौत का डर, आत्मिक मौत। सि = ऐसे लोग। खाहि = खाते हैं। न छूटसि = खलासी प्राप्त नहीं करेगा। कोइ = कोई जीव। पाखंडि = पाखण्ड से। पाखंडि कीन्है = किए हुए पाखण्ड से, पाखण्ड करने से। मुकति = (आत्मिक मौत से) मुक्तिं2। अर्थ: जो जीव (परमात्मा को बिसार के) किसी अन्य मोह में फंसे रहते हैं वह (आखिर) पछताते हैं। वे जमराज के दर पर बँधे रहते हैं, उनके जनम-मरण का चक्कर बना रहता है। जगत में खाली हाथ आते हैं (भाव, स्मरण सेवा आदि की आत्मिक राशि-पूंजी तो इकट्ठी ना की, व और जोड़ा हुआ कमाया धन-पदार्थ जगत में ही रह गया)। उनके सिर पर आत्मिक मौत (हर वक्त खड़ी रहती है) और वे (नित्य इस आत्मिक मौत की) चोटें सहते रहते हैं। गुरु के शब्द के बिना कोई मनुष्य आत्मिक मौत से नहीं बच सकता। पाखण्ड करने से (बाहर से धार्मिक भेस बनाने से) विकारों से खलासी नहीं मिल सकती।2। आपे सचु कीआ कर जोड़ि ॥ अंडज फोड़ि जोड़ि विछोड़ि ॥ धरति अकासु कीए बैसण कउ थाउ ॥ राति दिनंतु कीए भउ भाउ ॥ जिनि कीए करि वेखणहारा ॥ अवरु न दूजा सिरजणहारा ॥३॥ पद्अर्थ: आपे = (परमात्मा) स्वयं ही। सचु = सदा कायम रहने वाला। कीआ = (ये ब्रहमण्ड सदा-स्थिर प्रभु ने खुद ही) बनाया है। कर = हाथ (बहुवचन)। जोड़ि = जोड़ कर। कर जोड़ि = हाथ जोड़ के, हाथ हिला के, उद्यम करके, हुक्म करके। अंडज = ब्रहमाण्ड। फोड़ि = तोड़ के, नाश करके। जोड़ि = जोड़ के, (फिर) पैदा करके। विछोड़ि = विछोड़ के, तोड़ के नाश करके। कीए = बनाए हैं। बैसण कउ = बैठने के लिए, (जीवों के) बसने के लिए। दिनंतु = दिन। भउ = डर। भाउ = प्यार। जिनि = जिस (परमात्म) ने। करि = (पैदा) करके। अवरु = (कोई) और।3। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा) स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है, (ये ब्रहमण्ड उस सदा स्थिर प्रभु ने) हुक्म करके (स्वयं ही) पैदा किया है। इस ब्रहमण्ड को नाश करके, (फिर) पैदा करके, (फिर) नाश करके (फिर आप ही पैदा कर देता है)। हे भाई! (ये) धरती (और) आकाश (परमात्मा ने जीवों के) बसने के लिए जगह बनाई है। (परमात्मा ने स्वयं ही) दिन और रात बनाए हैं, (जीवों के अंदर) डर और प्यार (भी परमात्मा ने खुद ही पैदा किए हैं)। हे भाई! जिस (परमात्मा) ने (सारे जीव) पैदा किए हैं, (इनको) पैदा करके (स्वयं ही इनकी) सम्भाल करने वाला है। हे भाई! (परमात्मा के बिना) कोई और दूसरा (इस ब्रहिमण्ड को) पैदा करने वाला नहीं है।3। त्रितीआ ब्रहमा बिसनु महेसा ॥ देवी देव उपाए वेसा ॥ जोती जाती गणत न आवै ॥ जिनि साजी सो कीमति पावै ॥ कीमति पाइ रहिआ भरपूरि ॥ किसु नेड़ै किसु आखा दूरि ॥४॥ पद्अर्थ: त्रितीआ = तृतीया, पूरनमासी के बाद का तीसरा दिन। महेसा = शिव। उपाए = पैदा किए। वेसा = वेश, स्वरूप। जोति = प्रकाश, रोशनी। जाती = जाति, हस्ती। जिनि = जिस (कर्तार) ने। सो = वह परमात्मा। कीमति = कद्र, मूल्य। आखा = मैं कहूँ।4। अर्थ: परमात्मा ने ही ब्रहमा, विष्णु और शिव को पैदा किया, परमात्मा ने ही देवियाँ-देवते आदि अनेक हस्तियाँ पैदा कीं। दुनियां को रौशन करने वाली इतनी हस्तियां उसने पैदा की हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। जिस परमात्मा ने (ये सारी सृष्टि) पैदा की है वह (ही) इसकी कद्र जानता है (भाव, इससे प्यार करता है, और) इसमें हर जगह मौजूद (इसकी सम्भाल करता) है। मैं क्या बताऊँ कि किस के वह परमात्मा नजदीक है और किस से दूर? (भाव, परमात्मा ना किसी के नजदीक है ना ही किसी से दूर, हरेक में एक-समान व्यापक है)।4। चउथि उपाए चारे बेदा ॥ खाणी चारे बाणी भेदा ॥ असट दसा खटु तीनि उपाए ॥ सो बूझै जिसु आपि बुझाए ॥ तीनि समावै चउथै वासा ॥ प्रणवति नानक हम ता के दासा ॥५॥ पद्अर्थ: चउथि = पूरनमासी के बाद का चौथा दिन। चारे बेद = ऋग, यजुर, साम, अथर्व वेद। खाणी चारे = जगत उत्पक्ति की चारों खानें (अण्डज, जेरज, सेतज और उतभुज)। बाणी भेदा = अलग अलग बोलियां। असट = आठ। असट दसा = (आठ और दस) अठारह पुराण। खटु = छै (शास्त्र) (सांख, योग, न्याय, विषौशिक, मीमांसा, वेदांत)। तीनि = (माया के) तीन गुण (रजो, सतो, तमो)। समावै = समाप्त कर लिए। चउथै = चौथे (पद) में, आत्मिक अडोलता में। ता के = उस (गुरमुख) के।5। अर्थ: परमात्मा ने स्वयं ही चार वेद पैदा किए हैं, स्वयं ही (जगत उत्पक्ति की) चार खाणियां पैदा की हैं और खुद ही जीवों की अलग-अलग बोलियां बना दी हैं। अकाल पुरख ने खुद ही अठारह पुराण छह शास्त्र और (माया के) तीन (गुण) पैदा किए हैं। इस भेद को वही मनुष्य समझता है जिस को परमात्मा खुद समझ बख्शे। नानक विनती करता है: मैं उस मनुष्य का दास हूँ जो माया के तीन गुणों का प्रभाव मिटा के आत्मिक अडोलता में टिका रहता है।5। पंचमी पंच भूत बेताला ॥ आपि अगोचरु पुरखु निराला ॥ इकि भ्रमि भूखे मोह पिआसे ॥ इकि रसु चाखि सबदि त्रिपतासे ॥ इकि रंगि राते इकि मरि धूरि ॥ इकि दरि घरि साचै देखि हदूरि ॥६॥ पद्अर्थ: पंच भूत = पाँच तत्वों में ही प्रवृत जीव। बेताला = जीवन विधि से, ताल से टूटे हुए जीव, भूतने। अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञान-इंद्रिय। चरु = पहुँचना) जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। निराला = (निर+आलय) जिसका कोई खास घर नहीं, जो किसी खास एक शरीर घर में नहीं, निर्लिप। इकि = कई, अनेक जीव। भ्रमि = भटकना में पड़ के। भूखे = माया की भूख के अधीन, तृष्णा में लिप्त। रसु = नाम रस। त्रिपतासे = माया से तृप्त। राते = रंगे हुए। मरि = (आत्मिक मौत) मर के, आत्मिक जीवन गवा के। धूरि = मिट्टी। दरि = प्रभु के दर से। घरि साचै = सदा स्थिर प्रभु के घर में। देखि = देख के।6। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: सर्व-व्यापक (पुरख) परमात्मा स्वयं तो ज्ञान-इन्द्रियों की पहुँच से परे है और निर्लिप है पर उसके पैदा किए हुए जो जीव पाँच तत्वों में ही प्रवृक्त हैं वे सही जीवन विधि से टूटे हुए हैं। (ऐसे) अनेक जीव भटकना के कारण तृष्णा-अधीन हैं, माया के मोह में फंसे हुए हैं। पर कई ऐसे (भाग्यशाली) हैं जो (परमात्मा के नाम का) स्वाद चख के गुरु के शब्द में जुड़ के माया की ओर से तृप्त हैं, और परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुए हैं। पर एक ऐसे हैं जो आत्मिक मौत सहेड़ के मिट्टी हुए पड़े हैं (बिल्कुल ही जीवन गवा चुके हैं)। एक ऐसे हैं जो प्रभु को अपने अंग-संग देख के उस सदा स्थिर प्रभु के दर पे टिके रहते हैं उसके चरणों में जुड़े रहते हैं।6। झूठे कउ नाही पति नाउ ॥ कबहु न सूचा काला काउ ॥ पिंजरि पंखी बंधिआ कोइ ॥ छेरीं भरमै मुकति न होइ ॥ तउ छूटै जा खसमु छडाए ॥ गुरमति मेले भगति द्रिड़ाए ॥७॥ पद्अर्थ: झूठा = झूठ का वयापारी जीव। पति = इज्जत। नाउ = नाम, इज्जत। सूचा = पवित्र। पिंजरि = पिंजरे में। बंधिआ = कैद किया हुआ। छेरीं = पिंजरे की जाली की खाली जगहों, छेदों में। भरमै = भटकता है। मुकति = पिंजरे से मुक्ति। तउ = तब ही। खसमु = मालिक, पति। द्रिढ़ाए = दृढ़ कर दे, हृदय में पक्का कर देता है।7। अर्थ: जो मनुष्य दुनियावी पदार्थों का ही प्रेमी बना रहता है, उसको (लोक-परलोक में कहीं भी) आदर-सम्मान नसीब नहीं होता। जिस मनुष्य का मन विकारों से कौए की तरह काला हो जाए वह (माया में फंसा रह के) कभी भी पवित्र नहीं हो सकता। कोई पक्षी पिंजरे में कैद हो जाए, वह पिंजरे की विरलों में चाहे भटकता फिरे (पर, इस तरह वह पिंजरें की) कैद में से निकल नहीं सकता। तब ही पिंजरे में से आजाद होगा जब उसका मालिक उसको आजादी देगा (वैसे ही माया के मोह में कैद जीव को मालिक प्रभु खुद ही खलासी देता है)। प्रभु उसको गुरु की मति से जोड़ता है, अपनी भक्ति उसके हृदय में पक्की कर देता है।7। खसटी खटु दरसन प्रभ साजे ॥ अनहद सबदु निराला वाजे ॥ जे प्रभ भावै ता महलि बुलावै ॥ सबदे भेदे तउ पति पावै ॥ करि करि वेस खपहि जलि जावहि ॥ साचै साचे साचि समावहि ॥८॥ पद्अर्थ: खसटी = छेवीं तिथि। खटु दरसन = छह भेस (जोगी, सन्यासी, जंगम, बोधी, सरेवड़े, बैरागी)। प्रभ = प्रभु की खातिर, प्रभु को मिलने के लिए। अनहद = एक रस, बिना बजाए बजने वाला। सबदु = महिमा की धुनि। निराला = अलग ही, (भेषों के आडंबरों से) अलग ही। प्रभ भावै = प्रभु को पसंद आ जाए। महलि = अपनी हजूरी में। सबदे = महिमा की वाणी से। भेदे = भेद डाले, मोहित कर लिए। तउ = तब। पति = इज्जत। वेस = धार्मिक पहरावे। जलि जावहि = जल जाते हैं। साचै = सदा स्थिर प्रभु में। साचे = सदा स्थिर प्रभु का रूप हो के। साचि = सदा स्थिर प्रभु के नाम के स्मरण से।8। अर्थ: प्रभु को मिलने के लिए (जोगी-सन्यासी आदि) छह भेस बनाए गए, पर एक-रस महिमा का शब्द (का बाजा इन भेखों के बाजे से) अलग ही बजता है (भिन्न प्रभाव डालता है)। अगर प्रभु को (कोई भाग्यशाली) भा जाए, तो उसको प्रभु अपने चरणों में जोड़ लेता है। जब कोई मनुष्य महिमा की वाणी के द्वारा (अपने मन को प्रभु की याद में) परो लेता है, तब वह (प्रभु की हजूरी में) आदर-सम्मान पाता है। जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के नाम स्मरण से सदा-स्थिर प्रभु का रूप हो जाते हैं वे सदा-स्थिर प्रभु में लीन हो जाते हैं। पर, (भेखी साधु) धार्मिक भेस कर-कर के ही खपते रहते हैं और (तृष्णा की अग्नि में) जलते रहते हैं।8। सपतमी सतु संतोखु सरीरि ॥ सात समुंद भरे निरमल नीरि ॥ मजनु सीलु सचु रिदै वीचारि ॥ गुर कै सबदि पावै सभि पारि ॥ मनि साचा मुखि साचउ भाइ ॥ सचु नीसाणै ठाक न पाइ ॥९॥ पद्अर्थ: सरीरि = (जिसके) शरीर में। सचु = दान, सेवा। सात समुंदु = पाँच ज्ञान इन्द्रिया और मन व बुद्धि। नीरि = (नाम-) जल से। सीलु = पवित्र आचरण। मजनु = स्नान। सचु = सदा स्थिर प्रभु। वीचारि = बिचार के, टिका के। सबदि = शब्द से। पावै पारि = पार लंघा लेता है। सभि = सारे सात समुंद्रों को। मनि = मन में। मुखि = मुँह में। साचउ = सदा स्थिर प्रभु। भाइ = प्रेम में। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम। नीसाणै = नीसाण के कारण, राहदारी के कारण।9। अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर दूसरों की सेवा व संतोख (पलते) हैं, जिस मनुष्य की पाँचों ज्ञान-इंद्रिय मन व बुद्धि परमात्मा के पवित्र नाम-जल से पवित्र भरपूर हो जाती हैं, जो मनुष्य सदा स्थिर प्रभु को अपने दिल में टिका के (अंतर-आत्मे) पवित्र-आचरण-रूप स्नान करता रहता है, वह मनुष्य गुरु के शब्द की इनायत से सभी को (भाव पाँचों ज्ञान-इंद्रिय मन व बुद्धि को विकारों के प्रभाव से बचा के) पार लंघा लेता है। जिस मनुष्य के मन में सदा-स्थिर प्रभु बसता है, जिस मनुष्य की जीभ पर सदा-स्थिर प्रभु ही बसता है जो सदा प्रभु के प्रेम में लीन रहता है, सदा-स्थिर नाम उसके पास (जीवन-यात्रा में) राहदारी है, इस राहदारी के कारण (उसके रास्ते में विकार आदि की कोई) रोक व्यवधान नहीं पड़ता।9। असटमी असट सिधि बुधि साधै ॥ सचु निहकेवलु करमि अराधै ॥ पउण पाणी अगनी बिसराउ ॥ तही निरंजनु साचो नाउ ॥ तिसु महि मनूआ रहिआ लिव लाइ ॥ प्रणवति नानकु कालु न खाइ ॥१०॥ पद्अर्थ: असट = आठ। असटमी = आठवीं। असट सिधि = आठ सिद्धियां (अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशिता, वशिता)। बुधि = अक्ल। साधै = काबू में रखता है। सचु = सदा स्थिर प्रभु। निहकेवलु = (निष्कैवल्य) पवित्र। करमि = (प्रभु की) मेहर से। अराधै = स्मरण करता है। पउण = रजो गुण। पाणी = सतो गुण। अगनी = तमो गुण। बिसराउ = अभाव। तिसु महि = उस परमात्मा में। प्रणवति = विनती करता है। कालु = आत्मिक मौत।10। अर्थ: जो मनुष्य (जोगियों वाली) आठ सिद्धियां हासिल करने की चाहत रखने वाली बुद्धि को अपने काबू में रखता है (भाव, जो मनुष्य सिद्धियाँ प्राप्त करने की लालसा से ऊपर रहता है), जो पवित्र-स्वरूप सदा-स्थिर प्रभु को उसकी मेहर से (सदा) स्मरण करता है, जिसके हृदय में रजो, सतो और तमो गुण का अभाव रहता है, उसके हृदय में निर्लिप परमात्मा बसता है, सदा-स्थिर प्रभु का नाम बसता है। जिस मनुष्य का मन उस अकाल-पुरख में सदा लीन रहता है, नानक कहता है, उसको आत्मिक मौत नहीं खाती (आत्मिक मौत उसके आत्मिक जीवन को बर्बाद नहीं करती)।10। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |