श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 859 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु रागु गोंड चउपदे महला ४ घरु १ ॥ जे मनि चिति आस रखहि हरि ऊपरि ता मन चिंदे अनेक अनेक फल पाई ॥ हरि जाणै सभु किछु जो जीइ वरतै प्रभु घालिआ किसै का इकु तिलु न गवाई ॥ हरि तिस की आस कीजै मन मेरे जो सभ महि सुआमी रहिआ समाई ॥१॥ पद्अर्थ: चउपदे = चार पदों वाले शब्द। मनि = मन में। चिति = चिक्त में। मन चिंदे = मन मांगे। पाई = पाया, तू हासिल कर लेगा। जीइ = जीअ में। घालिआ = की हुई मेहनत। हरि तिस की = ‘तिसु हरि की’, उस परमात्मा की।1। नोट: ‘हरि तिस की’ में से शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है। नोट: ‘जीइ’ शब्द ‘जीउ’ से ‘जीइ’ अधिकरण कारक एक वचन। अर्थ: हे भाई! अगर तू अपने मन में अपने चिक्त में सिर्फ परमात्मा पर भरोसा रखे,? तो तू अनेक ही मन मांगे फल हासिल कर लेगा, (क्योंकि) परमात्मा वह सब कुछ जानता है जो (हम जीवों के) मन में घटित होता है, परमात्मा किसीकी की हुई मेहनत को रक्ती भर भी व्यर्थ नहीं जाने देता। सो, हे मेरे मन! उस मालिक परमात्मा की सदा आस रख, जो सब जीवों में मौजूद है।1। मेरे मन आसा करि जगदीस गुसाई ॥ जो बिनु हरि आस अवर काहू की कीजै सा निहफल आस सभ बिरथी जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! जगदीस = (जगत+ईस) जगत का मालिक। अवर काहू की = किसी और की। सभ = सारी। बिरथी = व्यर्थ। जाई = जाती है।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! जगत के मालिक धरती के साई की (सहायता की) आस रखा कर। परमात्मा के बिना जो भी किसी की भी आस की जाती है, वह आस सफल नहीं होती, वह आस व्यर्थ जाती है।1। रहाउ। जो दीसै माइआ मोह कुट्मबु सभु मत तिस की आस लगि जनमु गवाई ॥ इन्ह कै किछु हाथि नही कहा करहि इहि बपुड़े इन्ह का वाहिआ कछु न वसाई ॥ मेरे मन आस करि हरि प्रीतम अपुने की जो तुझु तारै तेरा कुट्मबु सभु छडाई ॥२॥ पद्अर्थ: सभु = सारा। मत गवाई = कहीं गवा ना लेना। इन्ह कै हाथि = इनके हाथ में। इहि = यह, वे। बपुड़े = बेचारे। वाहिआ = लागाई हुई वाह, लगाया हुआ जोर। न वसाई = बस नहीं चलता, सफल नहीं होता। तारै = पार लंघाता है।2। अर्थ: हे मेरे मन! जो यह सारा परिवार दिखाई दे रहा है, यह माया के मोह (का मूल) है। इस परिवार की आस रख के कहीं अपना जीवन व्यर्थ ना गवा बैठना। इन संबन्धियों के हाथ में कुछ नहीं। ये बेचारे क्या कर सकते हैं? इनका लगाया हुआ जोर सफल नहीं हो सकता। सो, हे मेरे मन! अपने प्रीतम प्रभु की ही आस रख, वही तुझे पार लंघा सकता है, तेरे परिवार को भी (हरेक बिपता से) छुड़वा सकता है।2। जे किछु आस अवर करहि परमित्री मत तूं जाणहि तेरै कितै कमि आई ॥ इह आस परमित्री भाउ दूजा है खिन महि झूठु बिनसि सभ जाई ॥ मेरे मन आसा करि हरि प्रीतम साचे की जो तेरा घालिआ सभु थाइ पाई ॥३॥ पद्अर्थ: परमित्री = (प्रमित = माया) माया की। करहि = तू करेगा। कितै कंमि = किसी भी काम में। परमित्री आस = माया की आस। भाउ दूजा = प्रभु के बिना और प्यार। थाइ पाई = सफल करेगा।3। अर्थ: हे भाई! अगर तू (प्रभु को छोड़ के) और माया आदि की आस बनाएगा, कहीं ये ना समझ लेना कि माया तेरे किसी काम आएगी। माया वाली आस (प्रभु के बिना) दूसरा प्यार है, ये सारा झूठा प्यार है, ये तो एक छिन में नाश हो जाएगा। हे मेरे मन! सदा कायम रहने वाले प्रीतम प्रभु की ही आस रख, वह प्रभु तेरी की हुई सारी मेहनत सफल करेगा।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |