श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 870 रागु गोंड बाणी भगता की ॥ कबीर जी घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ संतु मिलै किछु सुनीऐ कहीऐ ॥ मिलै असंतु मसटि करि रहीऐ ॥१॥ पद्अर्थ: असंतु = अ+संतु, जो संत नहीं, बुरा मनुष्य। मसटि = चुप।1। अर्थ: अगर कोई भला मनुष्य मिल जाए तो (उसकी शिक्षा) सुननी चाहिए, और (जीवन के राह की गुंझलें) पूछनी चाहिए। पर अगर कोई बुरा आदमी मिल जाए, तो वहाँ चुप रहना ही ठीक है।1। बाबा बोलना किआ कहीऐ ॥ जैसे राम नाम रवि रहीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किआ बोलना = कैसी बातचीत? जैसे = जिसके सदका। रवि रहीऐ = जुड़े रहें।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! (जगत में रहते हुए) कैसे बोल बोलें, जिनकी इनायत से परमात्मा के नाम के साथ तवज्जो टिकी रहे?।1। रहाउ। (नोट: बाकी के सारे शब्द में इस प्रश्न का उक्तर है।) संतन सिउ बोले उपकारी ॥ मूरख सिउ बोले झख मारी ॥२॥ पद्अर्थ: बोले = बोलने से। उपकारी = भलाई की बात। झख मारी = व्यर्थ की खप खपाई।2। अर्थ: (क्योंकि) भलों के साथ बात करने से कोई भलाई की बात निकलेगी, और मूर्ख से बात करने पर बेकार की झख मारने वाली बात होगी।2। बोलत बोलत बढहि बिकारा ॥ बिनु बोले किआ करहि बीचारा ॥३॥ पद्अर्थ: बोलत = (असंत से) बोलते हुए। बढहि = बढ़ते हैं। बिनु बोले = यदि (संत से भी) ना बोलें। बिचारा = विचार की बात।3। अर्थ: (फिर) ज्यों-ज्यों (मूर्ख के साथ) बातें करेंगे (उसके कुसंग में) विकार ही विकार बढ़ते हैं; (पर इसका मतलब ये नहीं कि किसी के भी साथ उठना-बैठना नहीं चाहिए)। अगर भले मनुष्यों के साथ भी नहीं बोलेंगे, (भाव, अगर भलों के पास भी नहीं बैठेंगे) तो विचार की बातें कैसे कर सकते हैं?।3। कहु कबीर छूछा घटु बोलै ॥ भरिआ होइ सु कबहु न डोलै ॥४॥१॥ पद्अर्थ: छूछा = (गुणों से) वंचित। बोलै = बहुत सी फालतू बातें करता है। भरिआ = जो गुणवान है।4। अर्थ: हे कबीर! सच बात ये है कि (जैसे) खाली घड़ा बोलता है, अगर वह (पानी के साथ) भरा हुआ हो तो वह कभी छलकता नहीं (इसी तरह बहुत फालतू बातें गुणहीन मनुष्य ही करता है। जो गुणवान है वह अडोल रहता है। सो, जगत में कोई ऐसा उद्यम करें, जिससे गुण ग्रहण कर सकें, और ये गुण मिल सकते हैं भले लोगों के पास से ही)।4।1। शब्द का भाव: भले लोगों की संगत में रहने से भलाई सीखी जाती है, और परमात्मा की ओर की लगन बनी रहती है। पर अगर बुरे लोगों की संगत में बैठेंगे तो एक तो वहाँ बेकार की झखमारी ही होगी, दूसरा विकारों की तरफ रुचि बढ़ जाने का ख़तरा बना रहता है। गोंड ॥ नरू मरै नरु कामि न आवै ॥ पसू मरै दस काज सवारै ॥१॥ पद्अर्थ: नरू = मनुष्य। दस काज = कई काम।1। अर्थ: (मेरे कभी विचार में भी नहीं आता कि मैं किस शरीर पर गुमान करके बुरे काम करता रहता हूँ, मेरा असल तो यही है ना कि) जब मनुष्य मर जाता है तो मनुष्य (का शरीर) किसी काम नहीं आता, पर पशु मरता है तो (फिर भी उसका शरीर मनुष्य के) कई काम सँवारता है।1। अपने करम की गति मै किआ जानउ ॥ मै किआ जानउ बाबा रे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करम की गति = जो कर्म मैं कर रहा हूँ उनकी हालत, जो काम मैं किए जा रहा हूँ उनका अच्छा भला। मै किआ जानउ = मैं क्या जानूँ? मुझे क्या पता? मुझे समझ नहीं आती। अपने...जानउ = जो काम मैं नित्य किए जा रहा हूँ, उनमें मुझे कोई भलाई नहीं दिख रही (भाव, मैं बुरे काम ही किए जा रहा हूँ)। रे बाबा = हे पिता!।1। रहाउ। अर्थ: हे बाबा! मैं कभी सोचता ही नहीं कि मैं कैसे नित्य के कर्म किए जा रहा हूँ, (मैं बुरी तरफ ही लगा रहता हूँ, और) मुझे ख्याल ही नहीं आता।1। रहाउ। हाड जले जैसे लकरी का तूला ॥ केस जले जैसे घास का पूला ॥२॥ पद्अर्थ: तूला = गट्ठा। घास = घास। पूला = मुट्ठा, पुलिंदा।2। अर्थ: (हे बाबा! मैंने कभी सोचा ही नहीं कि मौत आने से इस शरीर की) हड्डियां लकड़ी के ढेर की तरह जल जाती हैं, और (इसके) बाल घास के पूले की तरह जल जाते हैं (और जिस शरीर का बाद में ये हाल होता है, उस पर सारी उम्र मैं ऐसे ही गर्व करता रहता हूँ)।2। कहु कबीर तब ही नरु जागै ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै ॥३॥२॥ पद्अर्थ: जागै = बुरे कर्मों से सचेत हो जाता है। डंडु = डण्डा। मूंड महि = सिर पर।3। अर्थ: पर, हे कबीर! सच ये है कि मनुष्य इस मूर्खता से तब ही जागता है (तब ही पछताता है) जब मौत का डंडा इसके सिर पर आ बजता है।3।2। नोट: शरीर की आखिरी दशा का सहज-स्वभाव वर्णन करते हुए भी कबीर जी हिन्दू मर्यादा ही बताते हैं कि मरणोपरांत शरीर अग्नि भेट हो जाता है। इस शब्द में किसी भी मजहब की बाबत कोई बहस नहीं है; साधारण तौर पर इन्सानी हालत बयान की है। इस साधारण हालत के बताने में भी सिर्फ जलाने के रिवाज का जिक्र साफ जाहिर करता है कि कबीर जी मुसलमान नहीं थे, हिन्दू घर में ही जन्मे-पले थे। शब्द का भाव: मनुष्य अपने शरीर की ममता में फस के विकार करता रहता है। ये कभी भी नहीं सोचता कि प्रभु की याद के बिना ये शरीर तो पशु के शरीर से भी बेकार का है, और यहीं जल के राख हो जाता है। मरने के वक्त पछताने का क्या लाभ? गोंड ॥ आकासि गगनु पातालि गगनु है चहु दिसि गगनु रहाइले ॥ आनद मूलु सदा पुरखोतमु घटु बिनसै गगनु न जाइले ॥१॥ पद्अर्थ: आकासि = आकाश में। गगनु = चेतन सत्ता, वह चेतनता जो सारे जगत की सत्ता का मूल है। पातालि = पाताल में। चहु दिसि = चारों तरफ। रहाइले = मौजूद है। मूलु = कारण, आरम्भ। घटु = शरीर। न जाइले = नाश नहीं होती।1। अर्थ: (ये जीवात्मा जिसका अंश है वह) चेतन-सत्ता आकाश से पाताल तक हर तरफ मौजूद है, वही (जीवों के) सुख का मूल कारण है। वह सदा कायम रहने वाला है, वह ही (है जिसको) उत्तम पुरुष (परमात्मा कहते) हैं। (जीवों का) शरीर नाश हो जाता है, पर (शरीर में बसती जीवात्मा का श्रोत) चेतन-सत्ता नाश नहीं होती।1। मोहि बैरागु भइओ ॥ इहु जीउ आइ कहा गइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मुझे। बैरागु भइओ = (और बातों से) उपरामता हो रही है, मुझे और बातें ग़ैर जरूरी प्रतीत होती हैं; और बातों से हट के मुझे यह सोच आ रही है कि। जीउ = जीवात्मा। इहु...गइओ = कहा ते इह जीउ आय कहा गयो? ना कहीं से आता है ना कहीं जाता है, ये जीवात्मा कभी नहीं मरती।1। रहाउ। अर्थ: मेरा निष्चय अब इस बात पर टिक गया है कि ये जीवात्मा कभी मरती नहीं (क्योंकि ये जीवात्मा उस सर्व-व्यापक सदा-स्थिर चेतन-सत्ता का अंश है)।1। रहाउ। पंच ततु मिलि काइआ कीन्ही ततु कहा ते कीनु रे ॥ करम बध तुम जीउ कहत हौ करमहि किनि जीउ दीनु रे ॥२॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। रे = हे भाई! ततु = हवा, आग, मिट्टी आदि तत्व जो जगत रचना का मूल है। करम बध = पिछले किए कर्मों का बँधा हुआ। करमहि = कर्मों को। किनि = (चेतना सत्ता के बिना और) किस ने? जीउ दीनु = वजूद दिया, हस्ती में लाया।2। अर्थ: पाँच तत्वों ने मिल के ये शरीर बनाया है (पर इन तत्वों का भी कोई अलग अस्तित्व नहीं है), ये तत्व भी और कहाँ से बनने थे? (ये भी चेतन-सत्ता से ही बने हैं)। तुम लोग, हे भाई! ये कहते हो कि जीवात्मा किए हुए कर्मों की बँधी हुई है, (पर, दरअसल बात ये है कि) कर्मों को भी पहले चेतन-सत्ता के बिना और किसने वजूद में लाना था? (भाव, कर्मों को भी पहले ये चेतन-सत्ता ही अस्तित्व में वजूद में लाती है)।2। हरि महि तनु है तन महि हरि है सरब निरंतरि सोइ रे ॥ कहि कबीर राम नामु न छोडउ सहजे होइ सु होइ रे ॥३॥३॥ पद्अर्थ: निरंतरि = अंदर एक रस। सोइ = वह गगन ही, वह चेतन सत्ता ही। सहजे...होइ = (ये यकीन बन जाता है कि) जो कुछ जगत में हो रहा है (रजा के अनुसार) सहज ही हो रहा है।3। अर्थ: हे भाई! उस चेतन-सत्ता प्रभु के अंदर ये (जीवों का) शरीर वजूद में आता है और शरीरों में वह प्रभु बसता है। सबके अंदर वही है, कहीं भी दूरी नहीं है। सो, कबीर कहता है: ऐसे चेतन-सत्ता परमात्मा का नाम मैं कभी नहीं भुलाउंगा, (नाम जपने की इनायत से ये समझ आती है कि) जो कुछ जगत में हो रहा है सहज ही (उस चेतन-सत्ता प्रभु की रज़ा में) हो रहा है।3।3। नोट: राग सोरठि में रविदास जी लिखते हैं: सरबे एकु अनेकै सुआमी, सभ घट भुोगवै सोई॥ यहाँ देखें कबीर जी की आखिरी तुक “सहजे होइ सु होइ रे”। दोनों बनारस के रहने वाले और समकाली थे। एक-दूसरे के साथ प्यार और विचारों में गहरी समानता थी। शब्द का भाव: सर्व-व्यापक परमात्मा ही सारी सृष्टि का कर्ता है। जीवात्मा उसी की अंश है, जीवों के शरीर को बनाने वाला भी प्रभु ही है, और जीवों के कर्मों को पहले वही अस्तित्व में ले के आया। जो कुछ हो रहा है, सहज ही उसी की रजा के अनुसार हो रहा है। रागु गोंड बाणी कबीर जीउ की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ भुजा बांधि भिला करि डारिओ ॥ हसती क्रोपि मूंड महि मारिओ ॥ हसति भागि कै चीसा मारै ॥ इआ मूरति कै हउ बलिहारै ॥१॥ पद्अर्थ: भुजा = बाँह। भिला = शिलाए पत्थर। भिला करि = पत्थर बना के; ढीम की तरह। डारिओ = फेंक दिया। क्रोधि = (महावत ने) गुस्से में (आ के)। हसती मूंड महि = हाथी के सर पर। हउ = मैं।1। अर्थ: मेरी बाँहे बाँध के ढेम की तरह (मुझे इन लोगों ने हाथी के आगे) फेंक दिया है, (महावत ने) गुस्से में आ के हाथी के सिर के ऊपर (चोट) मारी है। पर हाथी (मुझे पैरों के तले लिताड़ने के बजाय) चिल्लाता हुआ (और तरफ को) भागता है, (जैसे कह रहा हो-) मैं बलिहार जाऊँ इस अच्छे आदमी पर।1। आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरु ॥ काजी बकिबो हसती तोरु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आहि = है। ठाकुर = हे ठाकुर! जोरु = ताकत, आसरा। बकिबो = बोलता है। तोरु = चला।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे प्रभु! काज़ी तो कह रहा है कि (इस कबीर पर) हाथी चढ़ा दे, पर मुझे तेरा भरोसा है (सो, तेरी इनायत से मुझे कोई फिक्र नहीं है)।1। रहाउ। रे महावत तुझु डारउ काटि ॥ इसहि तुरावहु घालहु साटि ॥ हसति न तोरै धरै धिआनु ॥ वा कै रिदै बसै भगवानु ॥२॥ पद्अर्थ: रे = हे! वा कै = उस के।2। अर्थ: (काज़ी कहता है:) इस हाथी पर चोट मार और (कबीर की तरफ़) हाँक, नहीं तो मैं तेरा सर उतरवा दूँगा। पर हाथी चलता ही नहीं (वह तो ऐसे दिखता है जैसे) प्रभु के चरणों में मस्त है (जैसे) उसके हृदय में परमात्मा (प्रकट हो के) बस रहा है।2। किआ अपराधु संत है कीन्हा ॥ बांधि पोट कुंचर कउ दीन्हा ॥ कुंचरु पोट लै लै नमसकारै ॥ बूझी नही काजी अंधिआरै ॥३॥ पद्अर्थ: पोट = पोटली। कुंचरु = हाथी। अंधिआरै = अंधेरे में।3। अर्थ: मेरी पोटली बाँध के (इन्होंने मुझे) हाथी के आगे फेंक दिया, भला मैंने अपने प्रभु के सेवक ने इनका क्या बिगाड़ा था? पर काज़ी को (तुअस्सब के) अंधेरे में ये समझ नहीं आई, (और उधर) हाथी (मेरे शरीर की बनी हुई) पोटली को बार-बार सिर झुका (के नमस्कार कर) रहा है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |