श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पांडे तुमरा रामचंदु सो भी आवतु देखिआ था ॥ रावन सेती सरबर होई घर की जोइ गवाई थी ॥३॥

पद्अर्थ: सरबर = लड़ाई। जाइ = स्त्री।3।

अर्थ: हे पांडे! तेरे श्री रामचंद्र जी भी आते हुए देखे हैं (भाव, जिस श्री रामचंद्र जी की तू उपासना करता है, उनकी बाबत भी तुझसे ऐसा ही कुछ हमने सुना है कि) रावण से उनकी लड़ाई हो गई, क्योंकि वे पत्नी (सीता जी को) गवा बैठे थे।3।

नोट: ‘रामायण’ और ‘उक्तर राम चरित्र’ आदि पुस्तकों में कई दूषण भी श्री रामचंद्र जी पर आरोपित किए गए हैं, चाहे वह भक्ति-भाव में लपेटे हुए हैं: बाली को छिप के मारना, एक राक्षणी को मारना, सीता जी को घर से निकाल देना इत्यादिक। ये दूषण लगा के उनमें पूरी श्रद्धा रखनी असंभव हो जाती है।

हिंदू अंन्हा तुरकू काणा ॥ दुहां ते गिआनी सिआणा ॥ हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीति ॥ नामे सोई सेविआ जह देहुरा न मसीति ॥४॥३॥७॥

पद्अर्थ: तुरकू = मुसलमान। जह = जिसका। देहुरा = मन्दिर।4।

अर्थ: सो हिन्दू दोनों ही आँखें गवा बैठा है, पर मुसलमान की एक आँख ही खराब हुई है। इन दोनों से ज्यादा समझदार वह व्यक्ति है जिसको (प्रभु की हस्ती का सही) ज्ञान हो गया है। (हिन्दू ने एक आँख तो तब गवाई जब वह अपने ईष्ट के बारे में श्रद्धा-हीन कहानियां घड़ने लग पड़ा; और दूसरी गवाई, जब वह परमात्मा को सिर्फ मन्दिर में बैठा समझ के) मन्दिर को पूजने लग पड़ा, मुसलमान (की हज़रत मुहम्मद साहिब में पूरी श्रद्धा होने के कारण एक आँख तो साबत है पर दूसरी गवा बैठा है, क्योंकि रब को सिर्फ मस्जिद में ही जान के) मस्जिद को ही खुदा का घर समझ रहा है। मैं नामदेव उस परमात्मा का स्मरण करता हूँ जिसका ना कोई खास मन्दिर है ना ही मस्जिद।4।3।7।

नोट: कई विद्वान सज्जनों ने विचार रखा है कि भक्त नामदेव जी ने इस शब्द में ‘हास्य रस’ का प्रयोग किया है। पर, सच्चाई बयान करके किसी गलत रास्ते पर जाते को सही रास्ता दिखाना और बात है, और किसी के धार्मिक जजबातों का मजाक उड़ाना ठोकर मारनी बहुत ही दुखद कार्य है। ये बात नहीं मानी जा सकती कि भक्त जी इस तरह किसी का दिल दुखा सकते थे, या, ऐसे दुख देने वाले वाक्य को सतिगुरु जी उस ‘वाणी बोहिथ’ में दर्ज करते जो सिख के जीवन का आसरा है। ये कहना कि हास्य रस के माध्यम से बड़े-बड़े देवताओं के बड़े-बड़े कामों को परमात्मा की महिमा के सामने तुच्छ बताया है, फबता नहीं है। किसी लड़के को मार देना कोई बहुत बड़ा काम नहीं है, अपनी स्त्री गवा लेनी कोई महानता भरा काम नहीं, और टांग तुड़वा लेनी कोई फखर वाला काम नहीं है। फिर, इन ‘बड़े कामों’ के मुकाबले में परमात्मा के किसी भी बड़े काम का यहाँ कोई वर्णन नहीं है। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी को अपने प्राणों का आसरा समझने वाले सिख ने तो ये देखना है कि उसे ये शब्द पढ़ते हुए क्या सहारा मिलता है, क्या रौशनी मिलती है। किसी के धार्मिक जज़बातों का मज़ाक उड़ा के उसके दिल को ठोकर मारनी धर्म का मार्ग नहीं हो सकता। हमें इसमें से सच्चाई की किरण की आवश्यक्ता है; हमें इसमें से ऊँची उड़ान की जरूरत है जो हमें भी ऊँचा कर सके। हमने किसी का मज़ाक उड़ा के ये नहीं समझ लेना कि इस शब्द में से हमें जीवन-राह मिल गया है।

जो किसी शब्द को खिला हुआ सुंदर फूल समझ लें, तो ‘रहाउ’ की तुक उस फूल का ‘मकरंद’ होता है। ‘रहाउ’ में वह केन्द्रिय रम्ज़ हुआ करती है, जिसका विस्तार सारे शब्द में किया जाता है। इसी नियम को यदि इस शब्द में भी ध्यान से बरतेंगे, तो वह सुगंधि जो इस ‘रहाउ-मकरंद’ में छुपी हुई है, सारे खिले हुए फूल में से महक देने लग जाएगी, सारी रम्ज़ खुल जाएगी। शब्द के तीन बंदों में किसी पांडे को संबोधन कर रहे हैं। सो, ‘रहाउ’ में प्रयोग किया गया शब्द ‘रे’ भी उसी पांडे के लिए ही है। इस तुक में पांडे को अपना हाल बताते हैं कि मैंने तो बीठल का दीदार कर लिया। तू तो मूर्ख ही रहा, तुझे दीदार ना हुए। बाकी सारे शब्द में पांडे को उसकी खामियां गिना रहे हैं, जिन्होंने उसे बीठल के दर्शन नहीं करने दिए।

यहाँ एक ओर मजेदार बात देखने वाली है। अगर नामदेव जी का ‘बीठल’ किसी मन्दिर में स्थापित किया हुआ होता, तो उस मन्दिर में रहने वाले ‘पांडे’ को तो उसके दर्शन, जब वह चाहता, हो सकते थे, क्योंकि पांडा उच्च जाति का था। पर, शूद्र नामदेव को ‘बीठल’ के दर्शन कैसे हुए? इसे तो शूद्र होने के कारण बल्कि धक्के पड़ सकते थे। पर, दरअसल बात ये है कि नामदेव का ‘बीठल’ किसी मन्दिर में स्थापित किया हुआ ‘बीठल’ नहीं था, वह ‘बीठल’ वह था ‘जह देहुरा न मसीति’। क्या अभी भी कोई शक रह जाता है कि भक्त नामदेव जी किसी मन्दिर में स्थापित ‘बीठल’ के पुजारी नहीं थे? वे तो बल्कि मन्दिर में स्थापित ‘बीठल’ की पूजा करने वाले पांडे को कह रहे हैं कि तू मूर्ख ही रहा, तुझे अभी तक बीठल के दर्शन नहीं हो सके।

पांडे को ‘बीठल’ के दर्शन क्यों नहीं हो सके? इसका उक्तर शब्द के सारे पदों में है। मुख्य बात ये कही है कि पांडा अंधा है और इसकी दोनों आँखें बंद हैं। ज्ञान-दाता गुरु के साथ लगना; ये है आत्मिक तौर पर आँख वाले बंदे की एक आँख। परमात्मा का सही स्वरूप; यह है दूसरी आँख। पांडे ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए गायत्री का पवित्र जाप किया, महादेव की ओट ली, श्री रामचंद्र जी के पैरों पर गिरा; पर इनमें से किसी के भी साथ ना जुड़ा किसी पर भी श्रद्धा ना बनाई, बल्कि इनके बारे में ऐसी कहानियाँ घड़ लीं कि पूर्ण श्रद्धा बन ही ना सके। शब्द गायत्री महादेव और रामचंद्र के साथ प्रयोग किए गए शब्द ‘तुमरी’ और ‘तुमरा’ खास तौर पर समझने-योग्य हैं। भाव ये है कि हे पांडे! जिस गायत्री आदि को ‘तू’ अपना ज्ञान-दाता कहता है, उसमें ‘तू खुद ही’ नुक्स बताए जा रहा है। फिर तेरा सिदक कैसे बंधे? ज्ञान की एक आँख गई। दूसरी का भी यही हाल हुआ। ‘बीठल’ था, माया से परे और सर्व व्यापक। पर, पांडे ने उसको मन्दिर में कैद कर दिया; सिर्फ उसकी मूर्ति को ‘बीठल’ समझा जो मन्दिर में थी, संसार में बसता ‘बीठल’ उसको ना दिखा।

तुर्क इस बात से बचा रहा इसने हज़रत मुहम्मद साहिब में पूरा सिदक बनाया है। पर एक गलती ये भी कर गए, इसने मस्जिद को खुदा का घर समझ लिया है, इसने सिर्फ काबे में ही रब को देखने की कोशिश की है। सो, एक आँख से काना रह गया।

गुरु नानक साहिब को ये शब्द क्यों भा गया? उन्होंने भक्त जी के वतन से क्यों इसे संभाल के ले लिया? अब उपरोक्त विचार के समक्ष उक्तर स्पष्ट है: 1. गुरु (ग्रंथ साहिब) की वाणी सिख के जीवन का आसरा है, पर इसमें कहीं कोई शक नहीं रहना चाहिए कि फलाना शब्द तो हमें नहीं जचता; 2. अगर पांडे के महादेव की तरह सिख ने भी अपने प्रीतम को श्राप देने वाला मान लिया; तो जैसे पांडा महादेव को पूजता तो है पर उससे काँपता भी रहता है कि कहीं श्राप ना मिल जाए, सिख का भी यही हाल रहेगा, गुरु के चरणों से रीझ के बलिहार नहीं जा सकेगा, क्योंकि उसे यही डर बना रहेगा कि गुरु गुस्से में आ के श्राप दे सकता है; 3. सिख का पूज्य अकालपुरुख हर जगह विद्यमान है, और सिख का तीर्थ उसका अपना हृदय है, जहाँ नित्य जुड़ के सिख स्नान करता है।

रागु गोंड बाणी रविदास जीउ की घरु २    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

मुकंद मुकंद जपहु संसार ॥ बिनु मुकंद तनु होइ अउहार ॥ सोई मुकंदु मुकति का दाता ॥ सोई मुकंदु हमरा पित माता ॥१॥

पद्अर्थ: मुकंद = (संस्कृत: मुकुन्द मुकुं ददाति इति = One who gives salvation) मुक्ति दाता प्रभु। संसार = हे संसार! हे लोगो! अउहार = (संस्कृत: अवहार्य = to be taken away) नाशवान (भाव, व्यर्थ जाने वाला)।1।

अर्थ: हे लोगो! मुक्ति दाते प्रभु को हमेशा स्मरण करते रहो, उसके स्मरण के बिना ये शरीर व्यर्थ ही चला जाता है। मेरा तो माता-पिता ही वह प्रभु ही है, वही दुनिया के बंधनो से मेरी रक्षा कर सकता है।1।

जीवत मुकंदे मरत मुकंदे ॥ ता के सेवक कउ सदा अनंदे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीवत = जीते हुए, सारी उम्र। मरत = मरने के वक्त भी। ता के = उस मुकंद के।1। रहाउ।

अर्थ: माया के बंधनो से मुक्ति देने वाले प्रभु की बंदगी करने वाले को सदा ही आनंद बना रहता है, क्योंकि वह जीवित ही प्रभु को स्मरण करता है और मरते हुए भी उसी को याद करता है (सारी उम्र ही प्रभु को याद रखता है)।1। रहाउ।

मुकंद मुकंद हमारे प्रानं ॥ जपि मुकंद मसतकि नीसानं ॥ सेव मुकंद करै बैरागी ॥ सोई मुकंदु दुरबल धनु लाधी ॥२॥

पद्अर्थ: प्रानं = जिंद, आसरा। मसतकि = माथे पर। नीसानं = निशान, नूर। सेव मुकंद = मुकंद की सेवा। बैरागी = वैरागवान। दुरबल = कमजोर को, निर्धन को। लाधी = (मुझे) मिल गई।2।

अर्थ: प्रभु का स्मरण मेरे प्राणों (का आसरा बन गए) हैं, प्रभु को स्मरण करके मेरे माथे के भाग्य जाग उठे हैं; प्रभु की भक्ति (मनुष्य को) वैरागवान कर देती है, मुझ गरीब को प्रभु का नाम ही धन प्राप्त हो गया है।2।

एकु मुकंदु करै उपकारु ॥ हमरा कहा करै संसारु ॥ मेटी जाति हूए दरबारि ॥ तुही मुकंद जोग जुग तारि ॥३॥

पद्अर्थ: उपकारु = मेहर, भलाई। कहा करै = कुछ बिगाड़ नहीं सकता। दरबारि = दरबारी, प्रभु की हजूरी में बसने वाले। जोग जुग = जुगों जुगों में। तारि = तारनहार।3।

अर्थ: यदि एक परमात्मा मुझ पर मेहर करे, तो (मुझे चमार-चमार कहने वाले ये) लोग मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। हे प्रभु! (तेरी भक्ति ने) मेरी (नीच) जाति (वाली आत्मिक हीनता भरी अवस्था को मेरे अंदर से) मिटा दिया है, क्योंकि मैं सदा तेरे दर पर रहता हूँ; तू ही सदा मुझे (दुनिया के बंधनो व मजबूरियों, मुथाजियों से) पार लंघाने वाला है।3।

उपजिओ गिआनु हूआ परगास ॥ करि किरपा लीने कीट दास ॥ कहु रविदास अब त्रिसना चूकी ॥ जपि मुकंद सेवा ताहू की ॥४॥१॥

पद्अर्थ: परगास = प्रकाश। कीट = कीड़े, निमाणे। चूकी = समाप्त हो गई। ताहू की = उस मुकंद की ही। जपि = जपूँ, मैं जपता हूँ।4।

अर्थ: (प्रभु की बँदगी से मेरे अंदर) आत्मिक जीवन की सूझ पैदा हो गई है, प्रकाश हो गया है। मेहर करके मुझ निमाने दास को प्रभु ने अपना बना लिया है। हे रविदास! कह: अब मेरी तृष्णा खत्म हो गई है, मैं अब प्रभु को स्मरण करता हूँ, नित्य प्रभु की ही भक्ति करता हूँ।4।1।

शब्द का भाव: परमात्मा का स्मरण किया करो। स्मरण नीचों को ऊँचा बना देता है, तृष्णा समाप्त कर देता है।

गोंड ॥ जे ओहु अठसठि तीरथ न्हावै ॥ जे ओहु दुआदस सिला पूजावै ॥ जे ओहु कूप तटा देवावै ॥ करै निंद सभ बिरथा जावै ॥१॥

पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ (६८)। दुआदस सिला = बारह शिवलिंग (सोमनाथ, बद्रीनाथ, केदार, बिषोश्वर, रामेश्वर, नागेश्वर, बैजनाथ, भीमशंकर आदि)। कूप = कूआँ। तटा = (नडाग) तालाब।1।

नोट: सालग्राम की पूजा विष्णु की पूजा है। ‘सिला’ की पूजा शिव की पूजा है।

अर्थ: यदि कोई मनुष्य अढ़सठ तीर्थों का स्नान (भी) करे, और बारहों शिवलिंगों की पूजा भी करे, अगर (लोगों के भले के लिए) कूएं तालाब (आदि) बनवाए; पर अगर वह (गुरमुखों की) निंदा करता है, तो उसकी यह सारी मेहनत व्यर्थ जाती है।1।

साध का निंदकु कैसे तरै ॥ सरपर जानहु नरक ही परै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: केसै करे = नहीं तैर सकता। सरपर = जरूर।1। रहाउ।

अर्थ: साधु गुरमुखि की निंदा करने वाला मनुष्य (जगत की गिरावटों में से) पार नहीं लांघ पाता, यकीन जानिए वह सदा नर्क में ही पड़ा रहता है।1। रहाउ।

जे ओहु ग्रहन करै कुलखेति ॥ अरपै नारि सीगार समेति ॥ सगली सिम्रिति स्रवनी सुनै ॥ करै निंद कवनै नही गुनै ॥२॥

पद्अर्थ: कुलखेति = कुलक्षेत्र (कुरुक्षेत्र तीर्थ) पर (जा के)। ग्रहन करै = ग्रहण (के समय पर स्नान) करे। अरपै = भेटा करे, दान करे। स्रवनी = कानों से।2।

अर्थ: यदि कोई मनुष्य कुरुक्षेत्र पर (जा के) ग्रहण (का स्नान) करे, गहनों समेत अपनी पत्नी (ब्राहमणों को) दान कर दे, सारी स्मृतियाँ ध्यान से सुने; पर अगर वह भले लोगों की निंदा करता है, तो इन सारे कामों का कोई लाभ नहीं।2।

जे ओहु अनिक प्रसाद करावै ॥ भूमि दान सोभा मंडपि पावै ॥ अपना बिगारि बिरांना सांढै ॥ करै निंद बहु जोनी हांढै ॥३॥

पद्अर्थ: प्रसाद = भोजन, ठाकुरों का भोग। मंडपि = जगत में। बिगारि = बिगाड़ के। सांढै = सवारे। हांढै = भटकता है।3।

अर्थ: यदि कोई मनुष्य ठाकुरों को कई तरह के भोग लगाए, भूमि का दान करे (जिसके कारण) जगत में उसकी प्रसिद्धि हो, (और) यदि वह अपना नुकसान करके भी दूसरों के काम सवारे, तो भी अगर वह भले लोगों की निंदा करता है तो वह कई जूनियों में भटकता है।3।

निंदा कहा करहु संसारा ॥ निंदक का परगटि पाहारा ॥ निंदकु सोधि साधि बीचारिआ ॥ कहु रविदास पापी नरकि सिधारिआ ॥४॥२॥११॥७॥२॥४९॥

जोड़ु ॥

पद्अर्थ: कहा = क्यों? परगटि = प्रगटे, प्रकट हो जाता है। पहारा = दुकान, (ठग की) दुकान। सोधि साधि = अच्छी तरह विचार के। “कहु, रविदास! सोधि साधि बीचारिआ, पापी निंदकु नरकि सिधारिआ” = अनवै।4।

अर्थ: हे दुनिया के लोगो! तुम (संतों की) निंदा क्यों करते हो? (भले ही बाहर से कई तरह के धार्मिक कर्म करे, पर यदि कोई मनुष्य संत की निंदा करता है तो सारे धार्मिक कर्म एक ठगी ही हैं, और) निंदक की ये ठगी भरी दुकान की पोल खुल जाती है। हे रविदास! हमने अच्छी तरह विचार के देख लिया है कि संत का निंदक कुकर्मी रहता है और नर्क में पड़ा रहता है।4।2।11।7।2।49।

भाव: गुरमुखों के निंदक का कोई भी धार्मिक उद्यम उस निंदक का उद्धार नहीं कर सकता।

नोट: गोंड राग के शबदों का वेरवा:
महला ४----------------06
महला ५----------------22
अष्टपदी महला ५-----01
कबीर जी---------------11
नामदेव जी-------------07
रविदास जी -----------02
कुल जोड़---------------49

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh