श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 884 रामकली महला ५ ॥ अंगीकारु कीआ प्रभि अपनै बैरी सगले साधे ॥ जिनि बैरी है इहु जगु लूटिआ ते बैरी लै बाधे ॥१॥ पद्अर्थ: अंगीकारु = अंग से लगाना, पक्ष, सहायता। अंगीकारु कीआ = पक्ष किया, अंग से लगाया, चरणों में जोड़ा, बाँह पकड़ी। प्रभि अपनै = अपने प्रभु ने। सगले = सारे। बैरी = (कामादिक) वैरी। साधे = वश में कर दिए। जिनि = जिसने। जिनि बैरी = (कामादिक) जिस जिस वैरी ने (शब्द ‘जिनि’ एकवचन है)। ते = वह (बहुवचन)। लै = पकड़ के।1। अर्थ: हे भाई! प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्य को अपने चरणों से लगा लिया, उसके उसने (कामादिक) सारे ही वैरी वश में कर दिए। (कामादिक) जिस जिस वैरी ने ये जगत लूट लिया है, (प्रभु ने उसके) वह वैरी पकड़ के बाँध दिए।1। सतिगुरु परमेसरु मेरा ॥ अनिक राज भोग रस माणी नाउ जपी भरवासा तेरा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मेरा = मेरा (रक्षक)। माणी = मैं भोगता हूँ। जपी = जपता रहूँ। भरवासा = आसरा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरा तो गुरु रखवाला है, परमात्मा रक्षक है (वही) मुझे कामादिक वैरियों से बचाने वाला है। हे प्रभु! मुझे तेरा ही आसरा है (मेहर कर) मैं तेरा नाम जपता रहूँ (नाम की इनायत से ऐसा प्रतीत होता है कि) मैं राज (-पाट) के अनेक भोगों के रस ले रहा हूँ।1। रहाउ। चीति न आवसि दूजी बाता सिर ऊपरि रखवारा ॥ बेपरवाहु रहत है सुआमी इक नाम कै आधारा ॥२॥ पद्अर्थ: चीति = चिक्त में। आवसि = आती। रहत है = रहता है। सुआमी = हे स्वामी! कै अधारा = के आसरे।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा (जिस मनुष्य के) सिर पर रखवाला बनता है, उस मनुष्य के चिक्त में (परमात्मा के नाम के बिना, काम आदि का) कोई फुरना उठता ही नहीं। हे मालिक प्रभु! सिर्फ तेरे नाम के आसरे वह मनुष्य (दुनिया की अन्य गरजों से) बेपरवाह रहता है।2। पूरन होइ मिलिओ सुखदाई ऊन न काई बाता ॥ ततु सारु परम पदु पाइआ छोडि न कतहू जाता ॥३॥ पद्अर्थ: होइ = (होय) हो जाता है। ऊन = ऊणा, थोड़ा, मुथाज। काई बाता = किसी बात। ततु = मूल, जगत का मूल। सारु = निचोड़, असल जीवन उद्देश्य। परम पदु = सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा। कतहू = किसी और तरफ।3। अर्थ: हे भाई! जिसको सारे सुख देने वाला प्रभु मिल जाता है, वह (ऊँचे आत्मिक गुणों से) भरपूर हो जाता है। वह किसी बात से मुथाज नहीं रहता। वह मनुष्य जगत के मूल-प्रभु को पा लेता है, वह सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा पा लेता है, और, इसको छोड़ के किसी ओर तरफ नहीं भटकता।3। बरनि न साकउ जैसा तू है साचे अलख अपारा ॥ अतुल अथाह अडोल सुआमी नानक खसमु हमारा ॥४॥५॥ पद्अर्थ: बरनि न साकउ = मैं बयान नहीं कर सकता। साचे = हे सदा कायम रहने वाले! अलख = हे अलख! अलख = जिसका सही स्वरूप् बयान ना किया जा सके। अतुल = जिसके गुणों को तोला ना जा सके, जिसके बराबर का और कोई ना मिल सके। थाह = गहराई।4। अर्थ: हे सदा कायम रहने वाले! हे अलख! हे बेअंत! मैं बयान नहीं कर सकता कि तू कैसा है। हे नानक! (कह:) हे बेमिसाल प्रभु! हे अथाह! हे अडोल मालिक! तू ही मेरा पति है।4।5। रामकली महला ५ ॥ तू दाना तू अबिचलु तूही तू जाति मेरी पाती ॥ तू अडोलु कदे डोलहि नाही ता हम कैसी ताती ॥१॥ पद्अर्थ: दाना = (दिल की) जानने वाला। अबिचलु = अटल, सदा कायम रहने वाला। पाती = पाति, कुल। अडोलु = जिस पर माया के झकोलों का असर ना हो सके। ताती = ताति, चिन्ता।1। अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! तू मेरे दिल की जानने वाला है, तू सदा कायम रहने वाला है, तू ही मेरी जाति है, तू ही मेरा कुल है (ऊँची जाति कुल का गुमान होने की जगह मुझे यही भरोसा है कि तू हर वक्त मेरे अंग-संग है)। हे पातशाह! माया के झोंके तेरे ऊपर असर नहीं कर सकते, तू (माया के मुकाबले में) कभी डोलता नहीं (अगर मेरे पर तेरी कृपा रहे तो) मुझे भी कोई चिन्ता-फिक्र नहीं छू सकती।1। एकै एकै एक तूही ॥ एकै एकै तू राइआ ॥ तउ किरपा ते सुखु पाइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: एकै = एक ही। राइआ = हे पातशाह! तउ = तेरी। ते = से।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु पातशाह! (हम जीवों का) सिर्फ एक तू ही (पति) है, तू ही है। तेरी मेहर से ही हम सुख हासिल करते हैं।1। रहाउ। तू सागरु हम हंस तुमारे तुम महि माणक लाला ॥ तुम देवहु तिलु संक न मानहु हम भुंचह सदा निहाला ॥२॥ पद्अर्थ: सागरु = समुंदर। हम = हम जीव। महि = में, अंदर। माणक = मोती। तिलु = रक्ती भर भी। संक = शंका, झिझक। भुंचह = हम भोगते हैं। निहाला = प्रसन्न।2। नोट: ‘भुंचह’ है वर्तमान काल, उत्तम पुरख, बहुवचन। अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! तू समुंदर है, हम तेरे हंस हैं, तेरे (चरणों) में रह के (तेरी महिमा के) मोती और लाल प्राप्त करते हैं। (ये मोती-लाल) तू हमें देता है (हमारे अवगुणों की तरफ़ देख के) तू रक्ती भर भी झिझक नहीं करता। हम जीव वह मोती-लाल सदा प्रयोग करते है और प्रसन्न रहते हैं।2। हम बारिक तुम पिता हमारे तुम मुखि देवहु खीरा ॥ हम खेलह सभि लाड लडावह तुम सद गुणी गहीरा ॥३॥ पद्अर्थ: मुखि = मुँह में। खीरा = दूध। सभि = सारे। सद = सदा। गुणी = गुणों के मालिक। गहीरा = गहरा, गंभीर।3। अर्थ: हे मेरे प्रभु पातशाह! हम जीव तेरे बच्चे हैं, तू हमारा पिता है, तू हमारे मुँह में दूध डालता है। (तेरी गोद में) हम खेलते हैं, सारे लाड करते हैं, तू गुणों का मालिक सदा गंभीर रहता है (हम बच्चों के अवगुणों की ओर नहीं देखता)।3। तुम पूरन पूरि रहे स्मपूरन हम भी संगि अघाए ॥ मिलत मिलत मिलत मिलि रहिआ नानक कहणु न जाए ॥४॥६॥ पद्अर्थ: पूरन = सर्व व्यापक। पूरि रहे = हर जगह मौजूद है। संपूरन = मुकंमल तौर पर। संगि = (तेरे) साथ। अघाए = तृप्त हो गए। मिलत = मिलते हुए, मिलने का प्रयत्न करते हुए। मिलि रहिआ = (पूरी तरह से) मिल जाता है।4। अर्थ: हे मेरे प्रभु-पातशाह! तू सर्व-व्यापक है, सम्पूर्ण तौर पर हर जगह मौजूद है, हम जीव भी तेरे चरणों में रह के (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त रहते हैं। हे नानक! (कह: प्रभु-पातशाह की मेहर से जो जीव उस प्रभु को) मिलने का प्रयत्न हर वक्त करता रहता है, वह हर वक्त उसे मिला रहता है, और, उस जीव की आत्मिक अवस्था का बयान नहीं किया जा सकता।4।6। रामकली महला ५ ॥ कर करि ताल पखावजु नैनहु माथै वजहि रबाबा ॥ करनहु मधु बासुरी बाजै जिहवा धुनि आगाजा ॥ निरति करे करि मनूआ नाचै आणे घूघर साजा ॥१॥ पद्अर्थ: कर = हाथ। करि = (क्रिया) कर के, बनाके। ताल = छैणे। पखावजु = जोड़ी, तबला। नेनहु = आँखों को। माथै = (हरेक जीव के) माथे पर (लिखे लेख)। वजहि = बजते हैं। करनहु = कानों में। मधु = मधुर, मीठी। बासुरी = बाँसुरी। जिहवा = जीभ। धुनि = (ध्वनि) आवाज, लगन। आगाजा = गरजती है। निरति = नाच। करे करि = कर कर के। नाचै = नाचता है। निरति...नाचै = मन हर वक्त नाचता है। आणे = आणि, ला के, पहन के। घूघर = घुंघरू।1। नोट: ‘करु’ है एकवचन और ‘कर’ बहुवचन (करु = एक हाथ )। अर्थ: हे भाई! (हरेक जीव के) माथे पर (लिखे लेख, मानो) रबाब बज रहे हैं, (हरेक जीव के) कानों में (माया ही कर स्रोत, जैसे) मीठी (सुर वाली) बाँसुरी बज रही है, (हरेक जीव को) जीभ का चस्का (मानो) राग बन गया है। (हाथ माया कमाने में लगे हुए हैं, आँखें मायावी पदार्थों को ही देख रही हैं)। (हरेक मनुष्य का) मन (रबाब, बाँसुरी आदि इन साजों से) (मनुष्य के) हाथों को छैणे बना के और आँखों को तबला बना के; (पिछले किए कर्मों के संस्कारों को) घुंघरू आदि साज बना के हर वक्त (माया के हाथ में) नाच रहा है।1। राम को निरतिकारी ॥ पेखै पेखनहारु दइआला जेता साजु सीगारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = की। निरतकारी = नृत्यकारी, नाच। पेखै = देखता है। पेखनहारु = देखने की सामर्थ्य वाला। जेता = जितना ही, सारा ही। सीगारी = श्रृंगार।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जगत में) परमात्मा (की रची हुई रचना) का नाच हो रहा है। (इस नाच को) देखने की सामर्थ्य वाला दयावान प्रभु (नाच के) इस सारे साज-श्रृंगार को खुद देख रहा है।1। रहाउ। आखार मंडली धरणि सबाई ऊपरि गगनु चंदोआ ॥ पवनु विचोला करत इकेला जल ते ओपति होआ ॥ पंच ततु करि पुतरा कीना किरत मिलावा होआ ॥२॥ पद्अर्थ: आखार मंडली = (नृत्यकारी वाला) आखाड़ा। धरणि = धरती। सबाई = सारी। गगनु = आकाश। पवनु = हवा, श्वास। विचोला = (जीवात्मा और शरीर का) मिलाप कराए रखने वाला। जल ते = पानी से, पिता की बूँद से। ओपति = उत्पक्ति। करि = कर के। पुतरा = शरीर, पुतला। किरत = (पिछले जन्मों के) किए कर्मों के अनुसार।2। अर्थ: (हे भाई! सब जीवों के मनों के नाचने के लिए) सारी धरती अखाड़ा बनी हुई है, इसके ऊपर आकाश चंदोआ (चाँदनी) बन के तना हुआ है। (जो शरीर) पानी से पैदा होता है (उसका और जीवात्मा का) मिलाप कराए रखने वाला (हरेक जीव के अंदर चल रहा हरेक) श्वास है। पाँच तत्वों को मिला के (परमात्मा ने हरेक जीव का) शरीर बनाया हुआ है। (जीव के पिछले किए हुए) कर्मों के अनुसार शरीर का मिलाप प्राप्त होया हुआ है।2। चंदु सूरजु दुइ जरे चरागा चहु कुंट भीतरि राखे ॥ दस पातउ पंच संगीता एकै भीतरि साथे ॥ भिंन भिंन होइ भाव दिखावहि सभहु निरारी भाखे ॥३॥ पद्अर्थ: दुइ = दोनों। जरे = जल रहे हैं। चरागा = दीए। चहु कुंट भीतरि = सारी सृष्टि में। पातउ = पात्र। दस पातउ = दस पात्र, दस इंद्रिय। पंच = पांच (कामादिक)। संगीता = डूंम, संगीतकार। एकै भीतर = एक (शरीर) में ही। साथे = इकट्ठे, एक साथ। हुइ = हो के। भिंन = अलग। दिखावहि = दिखाते हैं। सभहु = सब में। निरारी = निराली, अलग। भाखे = बोली, प्रेरणा, कामना।3। अर्थ: (हे भाई! नृत्यकारी वाले इस धरती-अखाड़े में) चाँद और सूरज, दो दीए जल रहे हैं, चारों तरफ (रौशनी देने के लिए) टिकाए हुए हैं। (हरेक जीव की) दस इंद्रिय और पाँचों (कामादिक) संगीतकार एक ही शरीर में इकट्ठे हैं। ये सारे अलग-अलग हो के अपने-अपने भाव (कलोल) दिखा रहे हैं, सब में अलग-अलग प्रेरणा (कामना) है।3। घरि घरि निरति होवै दिनु राती घटि घटि वाजै तूरा ॥ एकि नचावहि एकि भवावहि इकि आइ जाइ होइ धूरा ॥ कहु नानक सो बहुरि न नाचै जिसु गुरु भेटै पूरा ॥४॥७॥ पद्अर्थ: घरि घरि = हरेक घर में, हरेक इन्द्रिय में। घटि घटि = हरेक शरीर में। तूरा = (माया का) बाजा। एकि = कई (माया के बाजे)। नचावहि = (जीवों को) नचाते हैं। भवावहि = भटकाते फिरते हैं। इकि = बेअंत जीव। होइ धूरा = मिट्टी हो के, ख्वार हो के। आइ = (आय) आ के। जाइ = (जाए) जा के, मर के। आइ जाइ = जनम मरण के चक्कर में पड़ के। नानक = हे नानक! बाहुरि = बार बार। जिसु भेटै = जिसे मिल जाता है।4। नोट: ‘इकि’ है ‘इक/एक’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! दिन-रात हरेक (जीव की हरेक) इन्द्रिय में ये नृत्य हो रहा है। हरेक शरीर में माया का बाजा बज रहा है। माया के कई बाजे जीव को नचा रहे हैं, कई बाजे जीव को भटकाते फिरते हैं, बेअंत जीव (इनके प्रभाव तहत) ख्वार हो हो के जनम-मरण के चक्कर में पड़ रहे हैं। हे नानक! कह: जिस जीव को पूरा गुरु मिल जाता है, वह (माया के हाथों में) बार बार नहीं नाचता।4।7। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |