श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 886 कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भ्रमि आइओ ॥ बडै भागि साधसंगु पाइओ ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमि भ्रमि भ्रमि = बार बार भटक भटक के। आइओ = तू (इस मनुष्य जन्म में) आया है। वडै भागि = बड़ी किस्मत से। पाइओ = तूने हासिल किया है। साध संगु = गुरु का साथ।1। अर्थ: हे भाई! (अनेक किस्म के) करोड़ों जन्मों में भटक के (अब तू मनुष्य जनम में) आया है, (और, यहाँ) बड़ी किस्मत से (तुझे) गुरु का साथ मिल गया है।1। बिनु गुर पूरे नाही उधारु ॥ बाबा नानकु आखै एहु बीचारु ॥२॥११॥ पद्अर्थ: उधारु = (करोड़ों जन्मों से) पार उतारा। बाबा = हे भाई! नानकु आखै = नानक बताता है।2। अर्थ: हे भाई! नानक (तुझे) यह विचार की बात बताता है; पूरे गुरु की शरण पड़े बिना (अनेक जूनियों से) पार-उतारा नहीं हो सकता।2।11। रागु रामकली महला ५ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ चारि पुकारहि ना तू मानहि ॥ खटु भी एका बात वखानहि ॥ दस असटी मिलि एको कहिआ ॥ ता भी जोगी भेदु न लहिआ ॥१॥ पद्अर्थ: चारि = चार वेद। (नोट: गिनती बताने वाला शब्द ‘चारि’ सदा मात्रा ‘ि’ लगी होती है)। पुकारहि = जोर दे के कहते हैं। खटु = छह शास्त्र। एका बात = (यही) एक बात। वखानहि = बयान करते हैं। दस असटी = अटारह पुराणों (असटी = अष्टी, आठ)। मिलि = मिल के। एको = एक ही (एकवचन)। जोगी = हे जोगी! भेदु = (हरेक के हृदय में बज रही सुरीली किंगरी का) भेद। लहिआ = मिल गया।1। अर्थ: हे जोगी! चार वेद पुकार-पुकार के कह रहे हैं (कि) सभ जीवों में (परमात्मा की ज्योति-रूप सुंदर किंगरी हर जगह बज रही है) पर तू यकीन नहीं करता। हे जोगी! छह शास्त्र भी यही बात कह रहे हैं। अठारह पुराणों ने मिल के भी यही वचन किए हैं। पर हे जोगी! (हरेक के हृदय में बज रही सुंदर किंग का) भेद तूने नहीं समझा।1। किंकुरी अनूप वाजै ॥ जोगीआ मतवारो रे ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: किंकुरी = किंगरी। अनूप = उपमा रहत, बेमिसाल, बहुत सुंदर। वाजै = (पहले ही) बज रही है। रे जोगीआ = हे जोगी! मतवारो = मतवाला, (अपनी किंगरी बजाने के लिए) मस्त।1। रहाउ। अर्थ: (अपनी छोटी सी किंगरी बजाने में) मस्त हे जोगी! (देख, पहले ही) सुन्दर किंग बड़ी सुरीली बज रही है (हरेक जीव के हृदय में ईश्वरीय लहर चल रही है; यही है सुंदर किंग)।1। रहाउ। प्रथमे वसिआ सत का खेड़ा ॥ त्रितीए महि किछु भइआ दुतेड़ा ॥ दुतीआ अरधो अरधि समाइआ ॥ एकु रहिआ ता एकु दिखाइआ ॥२॥ पद्अर्थ: प्रथमे = पहले (युग में) सतियुग में। खेड़ा = नगर। सत = दान। त्रितीए महि = त्रेते युग में। दुतेड़ा = दुफेड़ा, कमी। अरधो अरध = आधे आधे में। एकु रहिआ = (धर्म का सिर्फ) एक (पैर) रह गया। एकु = एक परमात्मा। दुतीआ = द्वापर युग।2। अर्थ: (हे जोगी! तू यही समझता आ रहा है कि) पहले युग (सतियुग) में दान का नगर बसता था (भाव, दान करने का कर्म प्रधान था)। और त्रेते युग में (धर्म के अंदर) कुछ दरार आ गई (धरम-बैल की तीन लातें ही रह गई)। (हे जोगी! तूने यही यकीन बनाया हुआ है कि) द्वापर युग आधे में (आ के) टिक गया (भाव, द्वापर युग में धरम-बैल की दो लातें रह गई) और (अब जब कलियुग में धरम-बैल सिर्फ) एक (लात वाला हो के) रह गया है, तब (दान, तप, यज्ञ आदिक की जगह नाम-स्मरण का) एक ही (रास्ता मूर्ति-पूजा ने जीवों को) दिखाया है (पर, तुझे ये भुलेखा है कि एक परमात्मा के रचे हुए जगत में अलग-अलग युगों में अलग-अलग धर्म-आदर्श हो गए। परमात्मा की बनायी हुई मर्यादा हमेशा एक समान रहती है, उसमें कोई तब्दीली नहीं आती)।2। एकै सूति परोए मणीए ॥ गाठी भिनि भिनि भिनि भिनि तणीए ॥ फिरती माला बहु बिधि भाइ ॥ खिंचिआ सूतु त आई थाइ ॥३॥ पद्अर्थ: एकै सूत = एक सूत्र में, एक ही धागे में, एक परमात्मा की चेतन सत्ता में। सूति = सूत्र में। गाठी = गाँठें, शक्लें, सख्शियतें। भिनि भिनि = भिन्न भिन्न, अलग अलग। तणीए = तनी हुई हैं। माला = संसार चक्र। बहु बिधि = कई तरीकों से। बहु भाइ = कई युक्तियों से। सूत = (माला का) धागा।, (जीवों में परमात्मा की चेतन सत्ता)। आई थाइ = (आई थाय), (सारी माला) एक जगह में आ जाती है (सारी सृष्टि एक परमात्मा में ही लीन हो जाती है)।3। अर्थ: (देख, हे जोगी! जैसे माला के एक ही धागे में कई मणके परोए हुए होते हैं, और, उस माला को मनुष्य फेरता रहता है, वैसे ही) जगत के सारे जीव-मणके परमात्मा की सत्ता-रूप धागे में परोए हुए हैं (संसार-चक्र की) ये माला कई तरीकों से कई युक्तियों से फिरती रहती है। (जब परमात्मा अपना) सत्ता-रूप धागा (इस जगत-माला में से) खींच लेता है, तब (सारी माला एक ही) जगह में आ जाती है (सारी सृष्टि एक ही परमात्मा में लीन हो जाती है)।3। चहु महि एकै मटु है कीआ ॥ तह बिखड़े थान अनिक खिड़कीआ ॥ खोजत खोजत दुआरे आइआ ॥ ता नानक जोगी महलु घरु पाइआ ॥४॥ पद्अर्थ: चहु महि = चारों (युगों) में। एकै मटु = एक (परमात्मा) का ही (जगत-) मठ। (नोट: जोगियों का निवास स्थान ‘मठ’ कहलाता है। ये जगत सारे जीव-जोगियों का निवास स्थान है)। तह = इस (जगत मठ में)। बिखड़े = मुश्किल। अनिक खिड़किआ = (अनिक खिड़कियां), अनेक जूनें। दुआरे = (गुरु के) द्वार पर। नानक = हे नानक! जोगी = जोगी ने, प्रभु के चरणों में जुड़े मनुष्य ने। महलु = प्रभु का महल। घरु = प्रभु का घर। महलु घरु = प्रभु के चरणों में निवास।4। अर्थ: (देख, हे जोगी! जोगियों के मठ की तरह ही ये जगत भी एक मठ है) चारों ही युगों में (हमेशा से ही) यह जगत-मठ एक (परमात्मा) का ही बनाया हुआ है। इस जगत-मठ में जीव को परेशान करने के लिए अनेक (विकार-रूपी) मुश्किल जगहें हैं (और विकारों में फंसे हुए जीवों के लिए) अनेक ही जूनियाँ हैं (जिनमें से जीवों को गुजरना पड़ता है, जैसे किसी घर की खिड़की में से गुजरते हैं) हे नानक! (कह: हे जोगी!) जब कोई मनुष्य (परमात्मा के देश की) तलाश करता-करता (गुरु के) दर पर आ पहुँचता है, तब प्रभु-चरणों में जुड़े उस मनुष्य को परमात्मा का महल परमात्मा का घर मिल जाता है।4। इउ किंकुरी आनूप वाजै ॥ सुणि जोगी कै मनि मीठी लागै ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥१२॥ पद्अर्थ: इउ = इस तरह, (भाव, खोज करते हुए गुरु के दर पर पहुँच के)। सुणि = सुन के। कै मनि = के मन में। जोगी कै मनि = प्रभु चरणों में जुड़े मनुष्य के मन में।1। रहाउ दूजा। अर्थ: (हे जोगी!) इस तरह खोज करते-करते गुरु के दर पर पहुँच के मनुष्य को समझ आ जाती है कि हरेक हृदय में (परमात्मा के चेतन-सत्ता की) सुंदर किंगुरी बज रही है। (यह सुंदर किंगरी बजती) सुन-सुन के परमात्मा के चरणों में जुड़े हुए मनुष्य के मन में (यह किंगरी) मीठी लगने लग जाती है।1। रहाउ दूजा। नोट: पहले ‘रहाउ’ की तुकों में ‘अनूप किंकुरी’ का वर्णन किया गया है। बंद 4 में गुरु के दर पर पहुँचने की ताकीद की गई है। ‘दूजे रहाउ’ में ये बताया गया है कि गुरु के दर पर पहुँचने से अपने अंदर रुमक रही लहर का आनंद आने लग जाता है। आवश्यक नोट: ‘रहाउ’ की तुक में सारे शब्द का केन्द्रिय भाव है। पहले दो बंदों में किसी जोगी का ध्यान उसके अपने ही घार्मिक भुलेखों की तरफ दिलाया गया है। तीसरे चौथे छंद में सतिगुरु जी अपना मत प्रकट कर रहे हैं। रामकली महला ५ ॥ तागा करि कै लाई थिगली ॥ लउ नाड़ी सूआ है असती ॥ अ्मभै का करि डंडा धरिआ ॥ किआ तू जोगी गरबहि परिआ ॥१॥ पद्अर्थ: तागा = धागा (नाड़ियाँ)। करि कै = बना के। थिगली = टाकी (शरीर के अलग अलग अंग)। लउ = नगंदे, तरोपे। सूआ = सूई। असती = अस्थि, हड्डी। अंभै का = पानी का (रक्त बूँद का)। डंडा = (भाव, शरीर)। गरबहि = अहंकार में।1। अर्थ: (हे जोगी! उस जगत-नाथ ने नाड़ियों को) धागा बना के (सारे शारीरिक अंगों की) टाकियाँ जोड़ दी हैं। (इस शरीर गोदड़ी की) नाड़ियां तरोपे का काम कर रही हैं, (और, शरीर की हरेक) हड्डी सुई का काम करती है। (उस ने माता-पिता की) रक्त-बूँद से (शरीर-) डंडा खड़ा कर दिया है। हे जोगी! तू (अपनी गोदड़ी का) भला क्या मान करता है?।1। जपि नाथु दिनु रैनाई ॥ तेरी खिंथा दो दिहाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नाथु = (सारे संसार का) पति। रैनाई = रात। खिंथा = गुदड़ी (शरीर)। दो दिहाई = दो दिन कायम रहने वाली, नाशवान।1। रहाउ। अर्थ: हे जोगी! तेरा ये शरीर दो दिनों का ही मेहमान है। दिन-रात (जगत के) नाथ-प्रभु का नाम जपा कर।1। रहाउ। गहरी बिभूत लाइ बैठा ताड़ी ॥ मेरी तेरी मुंद्रा धारी ॥ मागहि टूका त्रिपति न पावै ॥ नाथु छोडि जाचहि लाज न आवै ॥२॥ पद्अर्थ: गहरी = संघनी। बिभूत = राख। लाइ = (लाय) लगा के। मेरी तेरी = मेर तेर में। मागहि = तू माँगता है। टूका = टुकड़े, रोटियां। त्रिपति = अघाना, तृप्ति। छोडि = छोड़ के। जाचहि = तू मांगता है। लाज = शर्म।2। अर्थ: (हे जोगी! अपने शरीर पर) खूब सारी राख मल के तू समाधि लगा के बैठस हुआ है, तूने (कानों में) मुंद्राएं (भी) पहनी हुई हैं (पर तेरे अंदर) मेर-तेर बस रही है। हे जोगी! घर-घर से तू टुकड़े माँगता-फिरता है, तेरे अंदर शांति नहीं है। (सारे जगत के) नाथ को छोड़ के तू (लोगों के दर से) मांगता है। हे जोगी! तुझे (इस बात से) शर्म नहीं आती?।2। चल चित जोगी आसणु तेरा ॥ सिंङी वाजै नित उदासेरा ॥ गुर गोरख की तै बूझ न पाई ॥ फिरि फिरि जोगी आवै जाई ॥३॥ पद्अर्थ: चलचित जोगी = (चल+चिक्त) हे डोलते मन वाले जोगी! वाजै = बज रही है। उदासेरा = उदासी, उपराम, भटकता। गोरख = गोपाल (गो = धरती। रख = रक्षा करने वाला)। तै = तू। बूझ = समझ। फिरि = बार बार।3। नोट: ‘जिस नो’ में से शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे डावाँडोल मन वाले जोगी! तेरा आसन (जमाना किसी अर्थ का नहीं अर्थात बेमतलब है)। (लोगों को दिखाने के लिए तेरी) सिंगी बज रही है, पर तेरा मन सदा भटकता फिरता है (ये सिंगी तो एकाग्रता के लिए थी)। हे जोगी! (इस तरह) उस सबसे बड़े गोरख (अर्थात जगत-रक्षक प्रभु) की तुझे समझ नहीं आई। (ऐसा) जोगी तो बार-बार जनम-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है।3। जिस नो होआ नाथु क्रिपाला ॥ रहरासि हमारी गुर गोपाला ॥ नामै खिंथा नामै बसतरु ॥ जन नानक जोगी होआ असथिरु ॥४॥ पद्अर्थ: रहरासि = अरदास, आरजू। गुर = हे सबसे बड़े! गोपाला = हे सृष्टि के रक्षक! नामै = (तेरा) नाम ही। खिंथा = गुदड़ी। असथिरु = अडोल।4। अर्थ: हे जोगी! जिस मनुष्य पर (सारे जगत का) नाथ दयावान होता है (वह मनुष्य परमात्मा के आगे ही विनती करता है, और कहता है:) हे गुर गोपाल! हमारी अरदास तेरे दर पर ही है। तेरा नाम ही मेरी गोदड़ी है, तेरा नाम ही मेरा (भगवा) कपड़ा है। हे दास नानक! (ऐसा मनुष्य असल) जोगी है, और वह कभी डोलता नहीं है।4। इउ जपिआ नाथु दिनु रैनाई ॥ हुणि पाइआ गुरु गोसाई ॥१॥ रहाउ दूजा ॥२॥१३॥ पद्अर्थ: इउ = इस तरह। हुणि = अब, इसी जनम में। रहाउ दूजा। अर्थ: हे जोगी! जिस मनुष्य ने दिन-रात इस तरह (जगत के) नाथ को स्मरण किया है, उसने इसी जन्म में सबसे बड़े जगत-नाथ का मिलाप हासिल कर लिया है।1। रहाउ दूजा।2।13। नोट: पहले ‘रहाउ’ के शब्दों ‘जपि नाथु’ की व्याख्या अगले सारे बंदों में करके ‘दूसरे ‘रहाउ’ में कहते हैं ‘इउ जपिआ’। रामकली महला ५ ॥ करन करावन सोई ॥ आन न दीसै कोई ॥ ठाकुरु मेरा सुघड़ु सुजाना ॥ गुरमुखि मिलिआ रंगु माना ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वह (परमात्मा) ही। आन = (अन्य) दूसरा और। सुघड़ु = गंभीर। सुजाना = समझदार। गुरसिख = गुरु से। रंगु = आत्मिक आनंद। माना = भोगा, आनंद लिया।1। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा ही सब कुछ करने-योग्य है और (सबमें व्यापक हो के सब जीवों से) कराने वाला है। (कहीं भी) उसके बिना कोई दूसरा नहीं दिखता। हे भाई! मेरा वह मालिक प्रभु गंभीर स्वभाव वाला है और सबके दिल की जानने वाला है। गुरु के द्वारा, जिसको वह मिल जाता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद पाता है।1। ऐसो रे हरि रसु मीठा ॥ गुरमुखि किनै विरलै डीठा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रे = हे भाई! ऐसो = (भाव) आश्चर्य। किनै विरलै = किसी विरले ने।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम का स्वाद आश्चर्य है, मीठा है। किसी विरले मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर उसका दर्शन किया है।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |