श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आगै राखिओ साल गिरामु ॥ मनु कीनो दह दिस बिस्रामु ॥ तिलकु चरावै पाई पाइ ॥ लोक पचारा अंधु कमाइ ॥२॥

पद्अर्थ: आगै = अपने सामने। राखिओ = रखा हुआ है। सालगिरामु = ठाकुर की मूर्ति। दह दिस = दसों दिशाओं में। चरावै = माथे पर लगाता है। पाई = पैरों पर। पाइ = (पाय) पड़ता है। पचारा = परचाने का काम। अंधु = अंधा मनुष्य।2।

अर्थ: (आत्मिक जीवन से) अंधा (मनुष्य) सालिग्राम की मूर्ति अपने आगे रख लेता है, पर उसका मन दसों दिशाओं में भटक रहा है। अंधा (मनुष्य अपने माथे पर) तिलक लगाता है, (मूर्ति के) पैरों पर (भी) पड़ता है। पर ये सब कुछ वह सिर्फ दुनिया को रिझाने के लिए ही करता है।2।

खटु करमा अरु आसणु धोती ॥ भागठि ग्रिहि पड़ै नित पोथी ॥ माला फेरै मंगै बिभूत ॥ इह बिधि कोइ न तरिओ मीत ॥३॥

पद्अर्थ: खटु करमा = शास्त्रों में बताए हुए छह धार्मिक कर्म (दान देना और लेना, यज्ञ करना और करवाना, विद्या पढ़नी और पढ़ानी)। अरु = अते। भागठि = भाग्यशाली मनुष्य, धनाढ। ग्रिहि = घर में। बिभूत = धन। मीत = हे मित्र!।3।

अर्थ: (आत्मिक जीवन से अंधा मनुष्य शास्त्रों में बताए हुए) छह धार्मिक कर्म करता है, (देव पूजा करने के लिए उसने ऊन आदि का) आसन (भी रखा हुआ है, पूजा करने के वक्त) धोती (भी पहनता है), किसी धनाढ के घर (जा के) सदा (अपनी धार्मिक) पुस्तक भी पढ़ता है, (उसके घर बैठ के) माला फेरता है, (फिर उस धनाढ से) धन-पदार्थ माँगता है - हे मित्र! इस तरीके से कोई मनुष्य कभी संसार-समुंदर से पार नहीं हुआ।3।

सो पंडितु गुर सबदु कमाइ ॥ त्रै गुण की ओसु उतरी माइ ॥ चतुर बेद पूरन हरि नाइ ॥ नानक तिस की सरणी पाइ ॥४॥६॥१७॥

पद्अर्थ: सबदु कमाइ = (शब्द कमाय) शब्द के अनुसार जीवन ढालता है। ओसु = उस मनुष्य की। उतरी = उतर जाती है। त्रै गुण की माइ = तीन गुण वाली माया। चतुर = चार। नाइ = (नाय) नाम में। पाइ = (पाय) पड़ता है।4।

नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: वह मनुष्य (ही) पण्डित है जो गुरु के शब्द के अनुसार अपना जीवन ढालता है। तीन गुणों वाली ये माया उस मनुष्य पर अपना जोर नहीं डाल सकती। उसकी बाबत तो परमात्मा के नाम में (ही) चारों वेद पूरी तरह से आ जाते हैं। हे नानक! (कह: कोई भाग्यशाली मनुष्य) उस (पण्डित) की शरण पड़ता है।4।6।17।

रामकली महला ५ ॥ कोटि बिघन नही आवहि नेरि ॥ अनिक माइआ है ता की चेरि ॥ अनिक पाप ता के पानीहार ॥ जा कउ मइआ भई करतार ॥१॥

पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। बिघन = रुकावटें। नेरि = नजदीक। ता की = उसकी। चेरि = चेरी, दासी। पानीहार = पानी भरने वाले। मइआ करतार = (मया कर्तार) कर्तार की दया।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर कर्तार की मेहर होती है, (जगत के) अनेक विकार उसका पानी भरने वाले बन जाते हैं (उस पर अपना जोर नहीं डाल सकते), अनेक (तरीकों से मोहने वाली) माया उसकी दासी बनी रहती है, (जीवों की जिंदगी के राह में आने वाली) करोड़ों रुकावटें उसके नजदीक नहीं आती।1।

जिसहि सहाई होइ भगवान ॥ अनिक जतन उआ कै सरंजाम ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। उआ कै = उसके घर में। सरंजाम = सफल (फारसी)।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मददगार परमात्मा (खुद) बनता है, उसके घर में (उसके) अनेक उद्यम सफल हो जाते हैं।1। रहाउ।

करता राखै कीता कउनु ॥ कीरी जीतो सगला भवनु ॥ बेअंत महिमा ता की केतक बरन ॥ बलि बलि जाईऐ ता के चरन ॥२॥

पद्अर्थ: कीता = पैदा किया हुआ जीव। कउनु = क्या बेचारा? कीरी = कीड़ी। भवनु = जगत। महिमा = बड़ाई। केतक = कितनी? बरन = बयान की जाए। बलि बलि = सदके, कुर्बान।2।

अर्थ: हे भाई! कर्तार जिस मनुष्य की रक्षा करता है, उसका पैदा किया हुआ जीव उस मनुष्य का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। (अगर कर्तार की मेहर हो, तो) कीड़ी (भी) सारे जगत को जीत लेती है। हे भाई! उस कर्तार की बेअंत महिमा है। कितनी बयान की जाए? उसके चरणों से सदा बलिहार जाना चाहिए।2।

तिन ही कीआ जपु तपु धिआनु ॥ अनिक प्रकार कीआ तिनि दानु ॥ भगतु सोई कलि महि परवानु ॥ जा कउ ठाकुरि दीआ मानु ॥३॥

पद्अर्थ: तिन ही = तिनि ही, उस मनुष्य ने ही। तिनि = उस ने। कलि महि = (भाव) जगत में। ठाकुरि = ठाकुर ने। मानु = आदर।3।

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को मालिक प्रभु ने आदर बख्शा, वही असल भक्त है, वही जगत में जाना-माना जाता है। उसी मनुष्य ने जप किया समझो, उसी मनुष्य ने तपसाधा जानो, उसी मनुष्य ने समाधि लगाई समझो, उसी मनुष्य ने अनेक किस्म के दान दिए जानो (वही असल जपी है, वही असल तपी है, वही असल जोगी है, वही असल दानी है)।3।

साधसंगि मिलि भए प्रगास ॥ सहज सूख आस निवास ॥ पूरै सतिगुरि दीआ बिसास ॥ नानक होए दासनि दास ॥४॥७॥१८॥

पद्अर्थ: साध संगि = गुरु की संगति में। मिलि = मिल के। प्रगास = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। सहज निवास = आत्मिक अडोलता का ठिकाना। सूख निवास = सुखों का श्रोत। आस निवास = आशाओं का पूरक। सतिगुरि = सतिगुरु ने। बिसास = विश्वास, भरोसा, निश्चय। दासनि दास = दासों के दास।4।

अर्थ: हे नानक! पूरे गुरु ने जिस मनुष्यों को ये बात दृढ़ करवा दी कि परमात्मा आत्मिक अडोलता और सुखों का श्रोत है, परमात्मा ही सब की आशाएं पूरी करने वाला है, गुरु की संगति में मिल के उन मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का प्रकाश हो जाता है, वह मनुष्य प्रभु के दासों के दास बने रहते हैं।4।7।18।

रामकली महला ५ ॥ दोसु न दीजै काहू लोग ॥ जो कमावनु सोई भोग ॥ आपन करम आपे ही बंध ॥ आवनु जावनु माइआ धंध ॥१॥

पद्अर्थ: काहू लोग = किसी प्राणी को। भोग = फल मिलता है। बंध = बंधन। आवनु जावनु = जनम मरन का चक्र। धंध = धंधे।1।

अर्थ: (हे भाई! उन संत जनों ने यूँ समझा है कि अपनी मुश्किल के बारे में) किसी और प्राणी को दोष नहीं देना चाहिए। मनुष्य जो कर्म कमाता है, उसी का ही फल भोगता है। अपने किए कर्मों (के संस्कारों) के अनुसार मनुष्य खुद ही (माया के) बंधनों में (जकड़ा रहता है), माया के धंधों के कारण जनम-मरण का चक्र बना रहता है।1।

ऐसी जानी संत जनी ॥ परगासु भइआ पूरे गुर बचनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ऐसी = एसी (जीवन जुगति)। जनी = जनों ने। परगासु = (आत्मिक जीवन का) प्रकाश। बचनी = वचन से।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु के वचन पर चल के (जिस मनुष्यों के अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया, उन संत जनों ने (जीवन-जुगति को) इस तरह समझा है।1। रहाउ।

तनु धनु कलतु मिथिआ बिसथार ॥ हैवर गैवर चालनहार ॥ राज रंग रूप सभि कूर ॥ नाम बिना होइ जासी धूर ॥२॥

पद्अर्थ: कलतु = कलत्र, स्त्री। मिथिआ = नाशवान। बिसथार = (मोह का) विस्तार, पसारा। हैवर = बढ़िया घोड़े। गैवर = बढ़िया हाथी। सभि = सारे। कूर = झूठ, नाशवान। होइ जासी = हो जाएगा। धूर = मिट्टी।2।

अर्थ: हे भाई! शरीर, धन, पत्नी- (मोह के ये सारे) पसारे नाशवान हैं। बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी- ये भी नाशवान हैं। दुनियां की बादशाहियाँ, रंग-तमाशे और सुंदर नुहारें- ये भी सारे झूठे पसारे हैं। हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना हरेक चीज़ मिट्टी हो जाएगी।2।

भरमि भूले बादि अहंकारी ॥ संगि नाही रे सगल पसारी ॥ सोग हरख महि देह बिरधानी ॥ साकत इव ही करत बिहानी ॥३॥

पद्अर्थ: भरमि = भटकना में। भूले = गलत रास्ते पड़े हुए। बादि = व्यर्थ। रे = हे भाई! हरख = हर्ष, खुशी। देह = शरीर। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। इव ही = इसी तरह। बिहानी = बीत जाती है।3।

अर्थ: हे भाई! जिस पदार्थों की खातिर मनुष्य भटकना में पड़ कर जीवन के गलत रास्ते पर पड़ जाते हैंऔर व्यर्थ माण करते हैं, वह सारे पसारे किसी के साथ नहीं जा सकते। कभी खुशी में, ग़मी में, (ऐसे ही) शरीर बुड्ढा हो जाता है। परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य की उम्र इस तरह से ही बीत जाती है।3।

हरि का नामु अम्रितु कलि माहि ॥ एहु निधाना साधू पाहि ॥ नानक गुरु गोविदु जिसु तूठा ॥ घटि घटि रमईआ तिन ही डीठा ॥४॥८॥१९॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। कलि माहि = जगत में। निधाना = खजाना। साधू‘ = गुरु। पासि = पास। तूठा = प्रसन्न हुआ। घटि घटि = हरेक शरीर में। तिन ही = उस ने ही।4।

नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! जगत में परमात्मा का नाम ही आत्मिक जीवन देने वाला (पदार्थ) है। ये खजाना गुरु के पास है। हे नानक! जिस मनुष्य पर गुरु प्रसन्न होता है, परमात्मा प्रसन्न होता है, उसी मनुष्य ने सुंदर प्रभु को हरेक शरीर में देखा है।4।8।19।

रामकली महला ५ ॥ पंच सबद तह पूरन नाद ॥ अनहद बाजे अचरज बिसमाद ॥ केल करहि संत हरि लोग ॥ पारब्रहम पूरन निरजोग ॥१॥

पद्अर्थ: पंच सबद = पाँच किस्मों के साज़ (तंती, चमड़े, धात, घड़ा व फूक मार के बजाने वाले, ये पांच)। तह = उस आत्मिक अवस्था में। नाद = आवाज़। पूरन नाद = घनघोर आवाज। अनहद = बिना बजाए बज रहे, अनहत्। बिसमाद = हैरानी पैदा करने वाली अवस्था। केल = आत्मिक आनंद, कलोल। केल करहि = आत्मिक आनंद पाते हैं। निरजोग = निर्लिप।1।

अर्थ: हे भाई! उस आत्मिक अवस्था में (ऐसा प्रतीत होता है जैसे) पाँच किस्मों के साजों की घनघोर आवाज़ हो रही है, (जैसे मनुष्य के अंदर) एक-रस बाजे बज रहे हैं। वह अवस्था आश्चर्य और हैरानी पैदा करने वाली होती है। (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से) निर्लिप और सर्व-व्यपाक प्रभु के संतजन (उस अवस्था में पहुँच के) आत्मिक आनंद लेते रहते हैं।1।

सूख सहज आनंद भवन ॥ साधसंगि बैसि गुण गावहि तह रोग सोग नही जनम मरन ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। भवन = असथान। साधसंगि = गुरु की संगति में। बैसि = बैठ के। तह = उस अवस्था में। सोग = शोक।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की संगति में बैठ के (परमात्मा के) गुण गाते रहते हैं,वह मनुष्य आत्मिक अडोलता, आत्मिक सुख आनंद की अवस्था हासिल कर लेते हैं। उस आत्मिक अवस्था में कोई रोग, कोई ग़म, कोई जनम-मरण का चक्कर नहीं व्यापता।1। रहाउ।

ऊहा सिमरहि केवल नामु ॥ बिरले पावहि ओहु बिस्रामु ॥ भोजनु भाउ कीरतन आधारु ॥ निहचल आसनु बेसुमारु ॥२॥

पद्अर्थ: ऊहा = वहाँ, उस आत्मिक अवस्था में। केवल = सिर्फ। ओहु बिस्राम = वह आत्मिक ठिकाना। भाउ = प्रेम। आधारु = आसरा। निहचल = ना डोलने वाला। बेसुमारु = बेशुमार, अंदाजे से परे।2।

अर्थ: हे भाई! उस आत्मिक अवस्था में (पहुँचे हुए संत जन) सिर्फ (हरि-) नाम स्मरण करते रहते हैं। पर, ऐसी उच्च आत्मिक अवस्था विरले मनुष्यों को हासिल होती है। हे भाई! उस अवस्था में प्रभु-प्रेम ही मनुष्य की आत्मिक खुराक हो जाती है, आत्मिक जीवन के लिए मनुष्य को सिफत्सालाह का सहारा होता है। हे भाई! उस आत्मिक अवस्था का आसन (माया के आगे) कभी डोलता नहीं। वह अवस्था कैसी है; इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh