श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 890 बाल बिवसथा बारिकु अंध ॥ भरि जोबनि लागा दुरगंध ॥ त्रितीअ बिवसथा सिंचे माइ ॥ बिरधि भइआ छोडि चलिओ पछुताइ ॥२॥ पद्अर्थ: बिवसथा = उम्र (में)। अंध = अंजान, बेसमझ। भरि जोबनि = भरे जोबन में, भरी जवानी में। दुरगंध = गंदे कामों में, विकारों में। त्रितीआ बिवसथा = उम्र के तीसरे हिस्से में, जवानी गुजर जाने पर। सिंचे = एकत्र करता है। माइ = माया। पछुताइ = पछता के।2। अर्थ: बाल उम्र में जीव बेसमझ बालक बना रहता है, भरी-जवानी में विकारों में लगा रहता है, (जवानी गुजर जाने पर) उम्र के तीसरे पड़ाव में माया जोड़ने लग जाता है, (आखिर जब) बुड्ढा हो जाता है तो अफसोस करते हुए (संचित किए हुए धन को) छोड़ के (यहाँ से) चला जाता है।2। चिरंकाल पाई द्रुलभ देह ॥ नाम बिहूणी होई खेह ॥ पसू परेत मुगध ते बुरी ॥ तिसहि न बूझै जिनि एह सिरी ॥३॥ पद्अर्थ: चिरंकाल = काफी समय उपरांत। दुलभ = मुश्किल से मिलने वाली। देह = शरीर। बिहूणी = बिना, खाली। खेह = राख। ते = से। बुरी = खराब। मुगध = मुग्ध, मूर्ख। तिसहि = उस (प्रभु) को। जिनि = जिस प्रभु ने। सिरी = पैदा की।3। अर्थ: (हे भाई!) बड़े चिरों बाद जीव को ये दुर्लभ मानुख देह मिलती है, पर नाम से वंचित रह के ये शरीर मिट्टी हो जाता है। (नाम के बिना, विकारों के कारण) मूर्ख जीव की ये देही पशुओं और प्रेतों से भी बुरी (समझें)। जिस परमात्मा ने (इसकी) ये मनुष्य देह बनाई उसको कभी याद नहीं करता।3। सुणि करतार गोविंद गोपाल ॥ दीन दइआल सदा किरपाल ॥ तुमहि छडावहु छुटकहि बंध ॥ बखसि मिलावहु नानक जग अंध ॥४॥१२॥२३॥ पद्अर्थ: करतार = हे कर्तार! दइआल = हे दया के घर! तुमहि = तू (खुद) ही। छुटकहि = छूटते हैं, टूटते हैं। बंध = बंधन। बखसि = मेहर करके।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) बेचारे जीव भी क्या करें? हे कर्तार! हे गोबिंद! हे गोपाल! हे दीनों पर दया करने वाले! हे सदा ही कृपा के श्रोत! तू खुद ही जीवों के माया के बंधन तोड़े तब ही टूट सकते हैं। हे कर्तार! (माया के मोह में) अंधे हुए इस जगत को तूने खुद ही मेहर करके (अपने चरणों में) जोड़े रख।4।12।23। रामकली महला ५ ॥ करि संजोगु बनाई काछि ॥ तिसु संगि रहिओ इआना राचि ॥ प्रतिपारै नित सारि समारै ॥ अंत की बार ऊठि सिधारै ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के, बना के। संजोगु = मिलाप, (जिंद और शरीर के) मिलाप (का समय)। काछि = कछ के, नाप के (जैसे कोई दर्जी कपड़ा माप कतर के कमीज वगैरा बनाता है)। संगि = साथ। इआना = बेसमझ जीव। राचि रहिओ = परचा रहता है। प्रतिपारै = पालता है। सारि = सार ले के। समारै = संभाल करता है। ऊठि = उठ के।1। अर्थ: (जैसे कोई दर्जी कपड़ा नाप-काट के मनुष्य के शरीर के लिए कमीज वगैरह बनाता है वैसे ही परमात्मा ने जिंद और शरीर के) मिलाप (का अवसर) बना के (जीवात्मा के लिए शरीर-चोली) नाप-काट के बना दी। उस (शरीर-चोली) के साथ बेसमझ जीव उलझा रहता है। सदा इस शरीर को पालता-पोसता रहता है, और सदा इसकी सांभ-संभाल करता रहता है। अंत के समय जीव (इसको छोड़ के) उठ चलता है।1। नाम बिना सभु झूठु परानी ॥ गोविद भजन बिनु अवर संगि राते ते सभि माइआ मूठु परानी ॥१॥ रहाउ॥ अर्थ: हे जीव! परमात्मा के नाम के बिना यह सारा आडंबर नाशवान है। हे प्राणी! जो लोग परमात्मा के भजन के बिना और पदार्थों के साथ मस्त रहते हैं, वह सारे माया (के मोह) में ठगे जाते हैं।1। रहाउ। तीरथ नाइ न उतरसि मैलु ॥ करम धरम सभि हउमै फैलु ॥ लोक पचारै गति नही होइ ॥ नाम बिहूणे चलसहि रोइ ॥२॥ पद्अर्थ: सभु = सारा (आडंबर)। झूठु = नाशवान। परानी = हे प्राणी! उतरसि = उतरेगी। करम धरम = निहित धार्मिक कर्म। सभि = सारे। फैलु = पसारा, खिलारा। पचारै = परचावा करने से। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। रोइ = रो के, दुखी हो के।2। अर्थ: (हे भाई! माया के मोह की यह) मैल तीर्थों पर स्नान करके नहीं उतरेगी। (तीर्थ-स्नान आदि ये) सारे (निहित हुए) धार्मिक कर्म अहंकार का पसारा ही हैं। (तीर्थ-स्नान कर्मों के द्वारा अपने धार्मिक होने की बाबत) लोगों तसल्ली कराने से उच्च आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं हो सकती। परमात्मा के नाम से वंचित जीव (यहाँ से) दुखी हो हो के ही जाएंगे।2। बिनु हरि नाम न टूटसि पटल ॥ सोधे सासत्र सिम्रिति सगल ॥ सो नामु जपै जिसु आपि जपाए ॥ सगल फला से सूखि समाए ॥३॥ पद्अर्थ: पटल = पर्दा, माया का पर्दा। सोधे = विचारने से। सगल = सारे। सो = वह बंदा। जपाए = जपने की प्रेरणा करता है। से = वह लोग। सूखि = सुख में।3। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम के बिना (माया के मोह का) पर्दा नहीं टूटेगा। सारे ही शास्त्र और स्मृतियाँ विचारने से भी (ये पर्दा दूर नहीं होगा)। (जो लोग नाम जपते हैं) उनको (मनुष्य जीवन के) सारे फल प्राप्त होते हैं, वह लोग (सदा) आनंद में टिके रहते हैं। पर वही सख्श नाम जपता है जिसको प्रभु स्वयं नाम जपने के लिए प्रेरित करता है।3। राखनहारे राखहु आपि ॥ सगल सुखा प्रभ तुमरै हाथि ॥ जितु लावहि तितु लागह सुआमी ॥ नानक साहिबु अंतरजामी ॥४॥१३॥२४॥ पद्अर्थ: राखनहारे = हे रक्षा करने के समर्थ प्रभु! प्रभ = हे प्रभु! हाथि = हाथ में। जितु = जिस (काम) में। लावहि = तू लगाता है, तू जोड़ता है। तितु = उस (काम) में। लागह = हम जीव लग पड़ते हैं। सुआमी = हे मालिक! नानक = हे नानक! अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4। अर्थ: हे सबकी रक्षा करने के समर्थ प्रभु! तू खुद ही (माया के मोह से हम जीवों की) रक्षा कर सकता है। हे प्रभु! सारे सुख तेरे अपने हाथ में हैं। हे मालिक प्रभु! तू जिस काम में (हमें) लगाता है, हम उसी काम में लग पड़ते हैं। हे नानक! (कह:) मालिक प्रभु सबके दिलों की जानने वाला है।4।13।24। रामकली महला ५ ॥ जो किछु करै सोई सुखु जाना ॥ मनु असमझु साधसंगि पतीआना ॥ डोलन ते चूका ठहराइआ ॥ सति माहि ले सति समाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = उसी को ही। जाना = जान लिया है। असमझु मनु = अंजान मन। साध संगि = गुरु की संगति में। पतीआना = पतीज जाता है। ते = से। चूका = हट गया। ठहराइआ = ठहराया, टिका लिया। सति = सदा कायम रहने वाला प्रभु। ले = लेकर। समाइआ = समाया, लीन हो गया।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु का मिलाप हो जाता है, वह) सदा-स्थिर-प्रभु (का नाम) ले कर उस सदा-स्थिर प्रभु में लीन रहता है (गुरु की कृपा से प्रभु-चरणों में) टिकाया हुआ उसका मन डोलने से हट जाता है, उसका (पहला) बेसमझ मन गुरु की संगति में पतीज जाता है; जो कुछ परमात्मा करता है उसी को ही वह सुख समझता है।1। दूखु गइआ सभु रोगु गइआ ॥ प्रभ की आगिआ मन महि मानी महा पुरख का संगु भइआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभु रोगु = सारा रोग। आगिआ = आज्ञा, हुक्म, रजा। मानी = मान ली। महा पुरख का संगु = गुरु का मिलाप।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को गुरु का मिलाप हो जाता है, प्रभु की रजा उसको मीठी लगने लग जाती है, उसका सारा दुख सारे रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। सगल पवित्र सरब निरमला ॥ जो वरताए सोई भला ॥ जह राखै सोई मुकति थानु ॥ जो जपाए सोई नामु ॥२॥ पद्अर्थ: वरताए = वरताता है, कराता है। जह = जहाँ। मुकति = विकारों से मुक्ति। मुकति थानु = विकारों से बचाने वाली जगह।2। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु का मिलाप हो जाता है, गुरु) उससे परमात्मा का नाम ही सदा जपाता है; (गुरु) जहाँ उसको रखता है वही उसके लिए विकारों से मुक्ति की जगह होती है; उस मनुष्य के सारे उद्यम पवित्र होते हैं उसके सारे काम निर्मल होते हैं, जो कुछ परमात्मा करता है, उस मनुष्य को वही वही काम भले लगते हैं।2। अठसठि तीरथ जह साध पग धरहि ॥ तह बैकुंठु जह नामु उचरहि ॥ सरब अनंद जब दरसनु पाईऐ ॥ राम गुणा नित नित हरि गाईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: अठसठि = अढ़सठ (६८)। पग = चरण, पैर। धरहि = धरते हैं। साध = भले मनुष्य। तह = वहाँ। बैकुंठु = सचखंड। उचरहि = उचारे हैं। सरब = सारे। पाईऐ = पाते हैं। गाईऐ = गाते हैं।3। अर्थ: (हे भाई!) जहाँ गुरमुखि व्यक्ति (अपने) पैर रखते हैं वह स्थान अढ़सठ तीर्थ समझो, (क्योंकि) जहाँ संतजन परमात्मा का नाम उचारते हैं वह जगह सचखंड बन जाती है। जब गुरमुखों के दर्शन किए जाते हैं तब सारे आत्मिक आनंद प्राप्त हो जाते हैं, (गुरमुखों की संगति में) सदा परमात्मा के गुण गाए जा सकते हैं, सदा प्रभु की महिमा गाई जा सकती है।3। आपे घटि घटि रहिआ बिआपि ॥ दइआल पुरख परगट परताप ॥ कपट खुलाने भ्रम नाठे दूरे ॥ नानक कउ गुर भेटे पूरे ॥४॥१४॥२५॥ पद्अर्थ: आपे = आप ही। घटि = हृदय में। घटि घटि = हरेक घट में। रहिआ बिआपि = बस रहा है, भरपूर है। परताप = तेज। कपट = किवाड़, दरवाजे। भ्रम = भटकना। नाठे = भाग गए। कउ = को। गुर पूरे = पूरे गुरु जी। भेटे = मिल गए।4। अर्थ: (हे भाई!) नानक को पूरे गुरु जी मिल गए हैं, (अब नानक को दिखाई दे रहा है कि) परमात्मा खुद ही हरेक शरीर में मौजूद है, दया के श्रोत अकाल-पुरख का तेज-प्रताप प्रत्यक्ष (हर जगह दिखाई दे रहा है); (गुरु की कृपा से मन के) किवाड़ खुल गए हैं, और, सारे भ्रम कहीं दूर भाग गए हैं।4।14।24। रामकली महला ५ ॥ कोटि जाप ताप बिस्राम ॥ रिधि बुधि सिधि सुर गिआन ॥ अनिक रूप रंग भोग रसै ॥ गुरमुखि नामु निमख रिदै वसै ॥१॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। जाप = देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विशेष मंत्र पढ़ने। ताप = धूणियों आदि से शरीर को कष्ट देने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। सुर गिआन = देवताओं वाली सूझ बूझ। रसै = रस लेता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। निमख = (निमेष) आँख फड़कने जितना समय। रिदै = हृदय में।1। अर्थ: (हे भाई!) गुरु के द्वारा (जिस मनुष्य के) हृदय में आँख झपकने जितने समय के लिए भी हरि-नाम बसता है, वह (मानो) अनेक रूपों-रंगों और मायावी पदार्थों का रस लेता है। उस व्यक्ति की देवताओं वाली सूझ-बूझ हो जाती है, उसकी बुद्धि (ऊँची हो जाती है) वह रिद्धियों-सिद्धियों (का मालिक हो जाता है); करोड़ों जपों-तपों (का फल उसके अंदर) आ बसता है।1। हरि के नाम की वडिआई ॥ कीमति कहणु न जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: वडिआई = महानता।1। रहाउ। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के नाम की महत्वता बयान नहीं की जा सकती, हरि-नाम का मूल्य नहीं आँका जा सकता।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |