श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 918 बाबा जिसु तू देहि सोई जनु पावै ॥ पावै त सो जनु देहि जिस नो होरि किआ करहि वेचारिआ ॥ इकि भरमि भूले फिरहि दह दिसि इकि नामि लागि सवारिआ ॥ गुर परसादी मनु भइआ निरमलु जिना भाणा भावए ॥ कहै नानकु जिसु देहि पिआरे सोई जनु पावए ॥८॥ पद्अर्थ: बाबा = हे हरि! देहि = (आनंद की दाति) देता है। होरि वेचारिआ = और बिचारे जीव। किआ करहि = क्या कर सकते हैं? माया के आगे उनकी पेश नहीं चलती। इकि = कई जीव। भरमि = (माया की) भटकना में। दहदिसि = दसों दिशाओं से। भाणा = रजा। अर्थ: हे प्रभु जिस मनुष्य को तू (आत्मिक आनंद की दाति) देता है वह प्राप्त करता है, वही मनुष्य (इस दाति को) भोगता है जिसको तू देता है, और बेचारों की (माया के तुफान के आगे) कोई पेश नहीं चलती। कई लोग (माया की) भटकना में (असल रास्ते से) भूले हुए दसों दिशाओं में दौड़ते-फिरते हैं, कई (भाग्यशालियों को) तू अपने नाम में जोड़ के (उनका जनम) सवार देता है। (इस तरह तेरी मेहर से) जिन्हें तेरी रजा प्यारी लग जाती है, गुरु की कृपा से उनका मन पवित्र हो जाता है (और वह आत्मिक आनंद पाते हैं, पर) नानक कहता है: (हे प्रभु!) जिस को तू (आत्मिक आनंद की दाति) बख्शता है वही इसका आनंद पा सकते हैं।8। भाव: अपने उद्यम से कोई प्राणी आत्मिक आनंद नहीं ले सकता क्योंकि माया के सामने किसी की पेश नहीं चलती। जिस पर परमात्मा मेहर करता है, उनको गुरु मिलाता है। गुरु के बताए रास्ते पर चल के वह विकारों से बचे रहते हैं, और हरि-नाम में जुड़ते हैं। उनके अंदर सदा शांति और ठंड ही बनी रहती है। आवहु संत पिआरिहो अकथ की करह कहाणी ॥ करह कहाणी अकथ केरी कितु दुआरै पाईऐ ॥ तनु मनु धनु सभु सउपि गुर कउ हुकमि मंनिऐ पाईऐ ॥ हुकमु मंनिहु गुरू केरा गावहु सची बाणी ॥ कहै नानकु सुणहु संतहु कथिहु अकथ कहाणी ॥९॥ पद्अर्थ: अकथ = जिसके सारे गुण बयान नहीं किए जा सके। करह = हम करें। कितु दुआरै = किस तरीके से? सउपि = हवाले कर दो। हुकमि मंनिऐ = अगर (प्रभु का) हुक्म मान लिया जाए। केरा = का। केरी = की। अर्थ: हे प्यारे संत जनो! आओ, हम (मिल के) बेअंत गुणों वाले परमात्मा की महिमा की बातें करें, उस प्रभु की कहानियाँ सुने सुनाएं जिसके गुण बयान से परे हैं। (पर यदि तुम पूछो कि) वह प्रभु किस ढंग से मिलता है (तो उक्तर ये है कि अपना आप माया के हवाले करने की बजाए) अपना तन मन धन सब कुछ गुरु के हवाले करो (इस तरह) यदि गुरु का हुक्म मीठा लग जाए तो परमात्मा मिल जाता है। (सो, संत जनो!) गुरु के हुक्म पर चलो और सदा कायम रहने वाले प्रभु की महिमा की वाणी गाया करो। नानक कहता है: हे संत जनो सुनो, (उसको मिलने का और आत्मिक आनंद पाने का सही रास्ता यही है कि) उस अकथ प्रभु की कहानियाँ कहा करो।9। भाव: आत्मिक आनंद के दाते परमात्मा के मिलाप का एक ही रास्ता है, वह यह है कि मनुष्य पूरी तरह से अपने आप को गुरु के हवाले कर दे। बस! गुरु के बताए हुए रास्ते पर चले और परमात्मा की महिमा के गीत गाता रहे। अंदर आनंद ही आनंद बना रहेगा। ए मन चंचला चतुराई किनै न पाइआ ॥ चतुराई न पाइआ किनै तू सुणि मंन मेरिआ ॥ एह माइआ मोहणी जिनि एतु भरमि भुलाइआ ॥ माइआ त मोहणी तिनै कीती जिनि ठगउली पाईआ ॥ कुरबाणु कीता तिसै विटहु जिनि मोहु मीठा लाइआ ॥ कहै नानकु मन चंचल चतुराई किनै न पाइआ ॥१०॥ पद्अर्थ: किनै = किसी मनुष्य ने भी। मंन मेरिआ = हे मेरे मन (शब्द ‘मंन’ की (ं) एक मात्रा बढ़ाने के लिए ही है, असल शब्द है मन)। जिनि = जिस (माया) ने। एतु भरमि = इस भुलेखे में कि मोह एक मीठी चीज है। भुलाइआ = गलत रास्ते डाल दिया। तिनै = उसी (प्रभु) ने। जिनि = जिस (प्रभु) ने। ठगउली = ठग बूटी। कुरबाणु = सदके, वारने। विटहु = में से। अर्थ: हे चंचल मन! चालाकियों से किसी ने भी (आत्मिक आनंद) हासिल नहीं किया। हे मेरे मन! तू (ध्यान से) सुन ले कि किसी जीव ने भी चतुराई से (परमात्मा के मिलाप का आनंद) प्राप्त नहीं किया, (अंदर से सुंदर माया में भी फसा रहे, और, बाहर से सिर्फ बातों से आत्मिक आनंद चाहे, ये नहीं हो सकता)। ये माया जीवों को अपने मोह-जाल में फसाने के लिए बहुत बलवान है, इसने ये भुलेखा डाला हुआ है कि मोह मीठी चीज है, इस कुमार्ग पर डाले रखती है। (पर, जीव के भी क्या वश?) जिस प्रभु ने माया के मोह की ठग-बूटी (जीवों को) चिपका दी है उसी ने ही ये मोहनी माया पैदा की है। (सो, हे मेरे मन! अपने आप को माया पर कुर्बान करने की बजाए) उस प्रभु पर से कुर्बान कर जिसने मीठा मोह लगाया है (तब जाकर ये मीठा मोह खत्म होता है)। नानक कहता है: हे (मेरे) चंचल मन! चतुराईयों से किसी ने (परमात्मा के मिलाप का आत्मिक आनंद) नहीं पाया।10। भाव: यदि मनुष्य अंदर से माया के मोह में फसा रहे, और बाहर से सिर्फ चतुराई भरी बातों से आत्मिक आनंद की प्राप्ति चाहे, ऐसा हो नहीं सकता। ए मन पिआरिआ तू सदा सचु समाले ॥ एहु कुट्मबु तू जि देखदा चलै नाही तेरै नाले ॥ साथि तेरै चलै नाही तिसु नालि किउ चितु लाईऐ ॥ ऐसा कमु मूले न कीचै जितु अंति पछोताईऐ ॥ सतिगुरू का उपदेसु सुणि तू होवै तेरै नाले ॥ कहै नानकु मन पिआरे तू सदा सचु समाले ॥११॥ पद्अर्थ: समाले = संभाल, याद रख। जि = जो। मूले न = बिल्कुल नहीं। कीचै = करना चाहिए। जितु = जिस कारण। अंति = आखिर को। अर्थ: हे प्यारे मन! (अगर तू हमेशा आत्मिक आनंद चाहता है तो) सदा सच्चे प्रभु को (अपने अंदर) संभाल के रख! ये जो परिवार तू देखता है, इसने तेरे साथ नहीं निभना। (हे भाई!) इस परिवार के मोह में क्यों फंस जाता है? इसने तेरा साथ आखिर तक नहीं निभा सकना। जिस काम को करने से आखिर में हाथ मलने पड़ें, वह काम कभी भी नहीं करना चाहिए। (हे भाई!) सतिगुरु की शिक्षा (ध्यान से) सुन, ये गुरु अपदेश हमेशा याद रखना चाहिए। नानक कहता है: हे प्यारे मन! (यदि तू आनंद चाहता है तो) सदा स्थिर परमात्मा को हर वक्त (अपने अंदर) संभाल के रख।11। नोट: अगली पौड़ी नंबर 12 को इस पौड़ी के साथ मिला कर पढ़ना है, और अर्थ इस तरह करना है; तू सदा प्रभु को अपने अंदर संभाल के रख और कह: हे अगम अगोचर। भाव: सदा और आत्मिक आनंद की प्राप्ति का एक मात्र तरीका है कि मनुष्य दुनिया वाले मोह में फसे रहने की जगह अपने मन में परमात्मा की याद को बसाए रखे। बस! यही है गुरु की शिक्षा जो कभी भुलाई नहीं जानी चाहिए। अगम अगोचरा तेरा अंतु न पाइआ ॥ अंतो न पाइआ किनै तेरा आपणा आपु तू जाणहे ॥ जीअ जंत सभि खेलु तेरा किआ को आखि वखाणए ॥ आखहि त वेखहि सभु तूहै जिनि जगतु उपाइआ ॥ कहै नानकु तू सदा अगमु है तेरा अंतु न पाइआ ॥१२॥ पद्अर्थ: अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे) प्रभु! अगोचरा = हे अगोचर हरि! अगोचर = अ+गो+चर, जिस तक ज्ञान इन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। किनै = किसी ने भी। आपु = अपने स्वरूप को। जाणहे = तू जानता है। सभि = सारे। आखि = कह के। वखाणए = बयान करे। को = कोई जीव! आखहि = तू बोलता है। वेखहि = तू संभाल करता है। जिनि = जिस तू ने। अर्थ: (हे मेरे प्यारे मन! सदा प्रभु को अपने अंदर संभाल के रख, और उसके आगे ऐसे अरजोई कर-) हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे इन्द्रियों की पहुँच से परे रहने वाले प्रभु! (तेरे गुणों का) किसी ने अंत नहीं पाया। अपने (असल) स्वरूप को तू स्वयं ही जानता है, और कोई जीव तेरे गुणों का अंत नहीं पा सकता। कोई और जीव (तेरे गुणों को) कह के बयान करे भी किस तरह? ये सारे जीव (तो) तेरे ही रखे हुए एक खेल हैं। हरेक जीव में तू खुद ही बोलता है, हरेक जीव की स्वयं ही संभाल करता है (तू ही करता है) जिसने ये संसार पैदा किया है। नानक कहता है: (हे मेरे प्यारे मन! प्रभु के आगे अरदास कर-) तू सदा अगम्य (पहुँच से परे) है, (किसी जीव ने तेरे गुणों का कभी) अंत नहीं पाया।12। भाव: आत्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रभु के दर पर यूँ आरजू करते रहना चाहिए- हे प्रभु! तू बेअंत है, हरेक जीव के अंदर तू ही बोल रहा है, हरेक जीव की तू ही संभाल कर रहा है। सुरि नर मुनि जन अम्रितु खोजदे सु अम्रितु गुर ते पाइआ ॥ पाइआ अम्रितु गुरि क्रिपा कीनी सचा मनि वसाइआ ॥ जीअ जंत सभि तुधु उपाए इकि वेखि परसणि आइआ ॥ लबु लोभु अहंकारु चूका सतिगुरू भला भाइआ ॥ कहै नानकु जिस नो आपि तुठा तिनि अम्रितु गुर ते पाइआ ॥१३॥ पद्अर्थ: सुरि = देवते। मुनि जन = मुनी लोग, ऋषि। अंम्रितु = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल। गुरि = गुरु ने। मनि = मन में। सभि = सारे। इकि = कई जीव। वेखि = (गुरु को) देख के। परसणि = (गुरु के चरण) परसने के लिए। भला भाइआ = मीठा लगता है, प्यारा लगता है। ते = से। अर्थ: (आत्मिक आनंद एक ऐसा) अमृत (है जिस) को देवते मनुष्य मुनि लोग तलाशते फिरते हैं, (पर) यह अमृत गुरु से ही मिलता है। जिस मनुष्य पर गुरु ने मेहर की उसने (यह) अमृत प्राप्त कर लिया (क्योंकि) उसने सदा कायम रहने वाला प्रभु अपने मन में टिका लिया। हे प्रभु! सारे जीव-जंतु तूने ही पैदा किए हैं (तू ही इनको प्रेरित करता है, तेरी प्रेरणा से ही) कई जीव (गुरु के) दीदार करके (उसके) चरण छूने आते हैं, सतिगुरु उनको प्यारा लगता है (सतिगुरु की कृपा से उनका) लब-लोभ व अहंकार दूर हो जाता है। नानक कहता है: प्रभु जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, उस मनुष्य ने (आत्मिक आनंद रूप) अमृत गुरु से प्राप्त कर लिया है।13। भाव: जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है उसको गुरु मिलता है। गुरु से उसको आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल मिलता है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रखता है। उसके अंदर से लब-लोभ-अहंकार आदि सारे विकार दूर हो जाते हैं। भगता की चाल निराली ॥ चाला निराली भगताह केरी बिखम मारगि चलणा ॥ लबु लोभु अहंकारु तजि त्रिसना बहुतु नाही बोलणा ॥ खंनिअहु तिखी वालहु निकी एतु मारगि जाणा ॥ गुर परसादी जिनी आपु तजिआ हरि वासना समाणी ॥ कहै नानकु चाल भगता जुगहु जुगु निराली ॥१४॥ पद्अर्थ: भगत = आत्मिक आनंद पाने वाले लोग। चाल = जीवन जुगति। निराली = अलग। केरी = की। बिखम = मुश्किल। मारगि = राह पर। तजि = त्याग के। खंनिअहु = खंडे से, तलवार से। वालहु = बाल से। निकी = छोटी, बारीक। एतु मारगि = इस रास्ते पर। आपु = स्वैभाव। जुगहु जुगु = हरेक युग में, सदा ही, हर समय। अर्थ: (जो सौभाग्यशाली लोग आत्मिक आनंद भोगते हैं वही भकत हैं और उन) भक्तों की जीवन-जुगति (दुनियां के लोगों से सदा) अलग होती है, (ये पक्की बात है कि उन) भक्तों की जीवन-जुगति (औरों से) अलग होती है। वह (बड़े) मुश्किल रास्ते पर चलते हैं, वे लब-लोभ-अहंकार और माया की तृष्णा त्यागते हैं और ज्यादा नहीं बोलते (भाव, अपनी शोभा नहीं करते-फिरते)। इस रास्ते पर चलना (बड़ी मुश्किल खेल है क्योंकि ये रास्ता) खंडे की धार से ज्यादा नुकीला है और बाल से भी ज्यादा बारीक है (इस पर से गिरने की संभावना हमेशा बनी रहती है क्योंकि दुनियावी वासना मन की अडोलता को धक्का दे देती है)। पर जिन्होंने गुरु की कृपा से स्वै भाव छोड़ दिया है, उनकी (मायावी) वासना हरि-प्रभु की याद में समाप्त हो जाती है। नानक कहता है: (आत्मिक आनंद भोगने वाले) भक्त-जनों की जीवन-जुगति सदा से ही (दुनिया से ही) अलग चली आ रही है।14। भाव: आत्मिक आनंद भोगने वालों की जीवन-जुगति दुनिया के लोगों से अलग होती है। वे विकारों से बचे रहते हैं, वे अपनी शोभा नहीं चाहते पर इस रास्ते पर चलना बहुत ही मुश्किल है। गुरु की मेहर हो तो स्वै भाव खत्म किया जा सकता है। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |