श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जो आवहि से जाहि फुनि आइ गए पछुताहि ॥ लख चउरासीह मेदनी घटै न वधै उताहि ॥ से जन उबरे जिन हरि भाइआ ॥ धंधा मुआ विगूती माइआ ॥ जो दीसै सो चालसी किस कउ मीतु करेउ ॥ जीउ समपउ आपणा तनु मनु आगै देउ ॥ असथिरु करता तू धणी तिस ही की मै ओट ॥ गुण की मारी हउ मुई सबदि रती मनि चोट ॥४३॥

पद्अर्थ: फुनि = फिर, उसी हालत में, ममता में बँधे हुए ही। मेदनी = सृष्टि। उताहि = ऊपर को। उबरे = बचे हैं। विगूती = दुखी हुई है। विगूती माया = माया दुखी होती है, माया उन्हें मोहने में कामयाब नहीं होती। समपउ = अर्पण करते हुए। आगै देउ = भेटा रखूँ। असथिरु = स्थिर, सदा कायम रहने वाला। धणी = मालिक। हउ = अहंकार। सबदि = शब्द में। मनि = मन में।

अर्थ: जो जीव (माया की ममता के बँधे हुए जगत में) आते हैं वह (इस ममता में फसे हुए यहॉँ से) चले जाते हैं, बार-बार पैदा होते मरते हैं और दुखी होते हैं; (उनके लिए) ये चौरासी लाख जूनियों वाली सृष्टि रक्ती भर भी कम-ज्यादा नहीं होती (भाव, उन्हें ममता के कारण चौरासी लाख जूनियों में से गुजरना पड़ता है)। (उनमें से) बचते सिर्फ वे हैं जिनको प्रभु प्यारा लगता है (क्योंकि उनकी माया के पीछे) भटकना समाप्त हो जाती है, माया (उनकी ओर आने पर) दुखी होती है (उन्हें मोह नहीं सकती)।

(जगत में तो) जो भी दिखाई देता है नाशवान है, मैं किस को मित्र बनाऊँ? (साथ निभाने वाला मित्र तो सिर्फ परमात्मा ही है, उसके आगे ही) मैं अपनी जीवात्मा अर्पित करूँ और तन-मन की भेट रखूँ।

हे कर्तार! तू ही सदा कायम रहने वाला मालिक है। (हे पांडे!) मुझे कर्तार का ही आसरा है। प्रभु के गुण गाने पर ही अहंकार मरता है। (क्योंकि) सतिगुरु के शब्द में रंगीज के मन में ठोकर (लगती है)।43।

राणा राउ न को रहै रंगु न तुंगु फकीरु ॥ वारी आपो आपणी कोइ न बंधै धीर ॥ राहु बुरा भीहावला सर डूगर असगाह ॥ मै तनि अवगण झुरि मुई विणु गुण किउ घरि जाह ॥ गुणीआ गुण ले प्रभ मिले किउ तिन मिलउ पिआरि ॥ तिन ही जैसी थी रहां जपि जपि रिदै मुरारि ॥ अवगुणी भरपूर है गुण भी वसहि नालि ॥ विणु सतगुर गुण न जापनी जिचरु सबदि न करे बीचारु ॥४४॥

पद्अर्थ: रंगु = रंक, कंगाल। तुंगु = ऊँचा, अमीर। कोइ न बंधै धीर = कोई किसी को धीरज देने के लायक नहीं। भीहावला = डरावना। सर = समुंदर। असगाह = जिसकी गहराई नापी ना जा सके। डुगर = पहाड़। मै तनि = मेरे शरीर में। घरि = घर में, मंजिल पर। पिआरि = प्यारों को। अवगणी = अवगुणों से। भरपूर = नाको नाक भरा हुआ। लै = लेकर, पल्ले बाँध कर। मुरारि = प्रभु।

अर्थ: (जगत में) ना कोई राणा ना कोई कंगाल हमेशा जीवित रह सकता है; ना कोई अमीर ना कोई फकीर; हरेक अपनी-अपनी बारी आने पर (यहाँ से चल पड़ता है) कोई किसी को ये तसल्ली देने के लायक ही नहीं (कि तू सदा यहाँ टिका रहेगा)।

(जगत का) रास्ता बहुत मुश्किल और डरावना है, (यह एक) बहुत ही गहरे समुंदर (की यात्रा है) पहाड़ी रास्ता है। मेरे अंदर तो कई अवगुण हैं जिनके कारण दुखी हो रही हूँ, (मेरे पल्ले गुण नहीं हैं) गुणों के बगैर कैसे मंजिल तक पहुँचूं? (भाव, प्रभु चरणों में नहीं जुड़ सकती)।

गुणों वाले, गुण पल्ले बाँध के प्रभु को मिल चुके हैं (मेरा भी दिल करता है कि) उन प्यारों को मिलूँ (पर) कैसे (मिलूं)? यदि प्रभु को हमेशा हृदय में जपूँ तब ही उन गुणवान गुरमुखों जैसी बन सकती हूँ।

(माया-ग्रसित जीव) अवगुणों से नाको-नाक भरा रहता है (वैसे) गुण भी उसके अंदर ही बसते हैं (क्योंकि गुणवान प्रभु अंदर बस रहा है), पर सतिगुरु के बिना गुणों की समझ नहीं पड़ती। (तब तक नहीं पड़ती) जब तक गुरु के शब्द में विचार ना की जाए।44।

लसकरीआ घर समले आए वजहु लिखाइ ॥ कार कमावहि सिरि धणी लाहा पलै पाइ ॥ लबु लोभु बुरिआईआ छोडे मनहु विसारि ॥ गड़ि दोही पातिसाह की कदे न आवै हारि ॥ चाकरु कहीऐ खसम का सउहे उतर देइ ॥ वजहु गवाए आपणा तखति न बैसहि सेइ ॥ प्रीतम हथि वडिआईआ जै भावै तै देइ ॥ आपि करे किसु आखीऐ अवरु न कोइ करेइ ॥४५॥

पद्अर्थ: लसकरीआ = लश्करों ने, सिपाहियों ने।

(नोट: जगत एक रण-भूमि है, जहाँ विकारों से मुकाबला करना पड़ता है)।

पद्अर्थ: घर = डेरे। वजहु = तन्खाह, (भाव) रिज़क। सिरि = सिर पर। धणी = मालिक की। पलै पाइ = हासिल करके, कमा के। गढ़ि = शरीर रूप किले में। लबु = चस्का। दोही = दुहाई, राज, हकूमत। सउहे = सामने। तखति = तख्त पर। सेइ = वह सिपाही। किसु आखीऐ = किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती।

अर्थ: (इस जगत रण-भूमि में, जीव) सिपाहियों ने (शरीर रूपी) डेरे सम्भाले हुए हैं, (प्रभु-पति से) रिज़क लिखा के (यहाँ) आए हैं। जो सिपाही हरि नाम की कमाई कमा के मालिक की (रजा-रूपी) कार कमाते हैं उन्होंने चस्का-लालच व अन्य विकार मन में से निकाल दिए हैं। जिस (जीव-) सिपाही ने (शरीर-) किले में (प्रभु-) पातशाह की दुहाई डाली है (भाव, स्मरण को हर वक्त शरीर में बसाया है) वह (कामादिक पाँचों के मुकाबले पर) कभी हार के नहीं आते।

(पर जो मनुष्य) प्रभु मालिक का नौकर भी कहलवाए और सामने से (पलट) जवाब भी दे (भाव, उसके हुक्म में ना चले) वह अपनी तनख्वाह गवा लेता है (भाव, वह मेहर से वंचित रहता है), ऐसे जीव (ईश्वरीय) तख्त पर नहीं बैठ सकते (भाव, उसके साथ एक-रूप नहीं हो सकते)।

पर, प्रभु के गुण गाने प्रीतम-प्रभु के अपने हाथ में है, जो उसको भाता है उसको (वह) देता है, किसी और के आगे पुकार नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रभु स्वयं ही सब कुछ करता है, कोई और कुछ नहीं कर सकता।45।

बीजउ सूझै को नही बहै दुलीचा पाइ ॥ नरक निवारणु नरह नरु साचउ साचै नाइ ॥ वणु त्रिणु ढूढत फिरि रही मन महि करउ बीचारु ॥ लाल रतन बहु माणकी सतिगुर हाथि भंडारु ॥ ऊतमु होवा प्रभु मिलै इक मनि एकै भाइ ॥ नानक प्रीतम रसि मिले लाहा लै परथाइ ॥ रचना राचि जिनि रची जिनि सिरिआ आकारु ॥ गुरमुखि बेअंतु धिआईऐ अंतु न पारावारु ॥४६॥

पद्अर्थ: बीजउ = दूसरा। दुलीचा पाइ = आसन बिछा के, गद्दी लगा के। नरहनरु = पुरखपति। साचै नाइ = सच्चे नाम के द्वारा (मिलती है)। वणु = जंगल। त्रिणु = तिनका, घास। वणु त्रिणु = सारा जंगल बेल बूटियाँ। फिरि = घूम के, फिर के। रही = थक गई। करउ = मैं करती हूँ। हाथि = हाथ में। एकै भाइ = एकाग्र हो के। रसि = रस में, आनंद में। परथाइ = पर जगह का। परथाइ लाहा = परलोक की कमाई। सिरिआ = सृजना की। आकारु = जगत का स्वरूप। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख हो के।

अर्थ: मुझे कोई और दूसरा नहीं सूझता जो (सदा के लिए) आसन बिछा के बैठ सके (भाव, जो सारे जगत का अटल मालिक कहलवा सके); जीवों के नरक दूर करने वाला और जीवों का मालिक सदा कायम रहने वाला एक प्रभु ही है जो नाम (स्मरण) के द्वारा (मिलता) है।

(उस प्रभु की खातिर) मैं जंगल-बेला ढूँढ-ढूँढ के थक गई हूँ, (अब जब) मैं मन में सोचती हूँ (तो समझ आई है कि) लालों-रत्नों और मोतियों (भाव, ईश्वरीय गुणों) का खजाना सतिगुरु के हाथ में है; अगर मैं एक मन हो के (स्मरण करके) शुद्ध-आत्मा हो जाऊँ तो मुझे प्रभु मिल जाए। हे नानक! जो जीव प्रीतम प्रभु के प्यार में जुड़े हुए हैं वह परलोक की कमाई कमा लेते हैं।

(हे पांडे!) जिस (प्रभु) ने रचना रची है जिसने जगत का ढाँचा बनाया है, जो स्वयं बेअंत है, जिसका अंत और हदबंदी नहीं पाई जा सकती, उसको गुरु के बताए हुए राह पर चल के स्मरण किया जा सकता है।46।

ड़ाड़ै रूड़ा हरि जीउ सोई ॥ तिसु बिनु राजा अवरु न कोई ॥ ड़ाड़ै गारुड़ु तुम सुणहु हरि वसै मन माहि ॥ गुर परसादी हरि पाईऐ मतु को भरमि भुलाहि ॥ सो साहु साचा जिसु हरि धनु रासि ॥ गुरमुखि पूरा तिसु साबासि ॥ रूड़ी बाणी हरि पाइआ गुर सबदी बीचारि ॥ आपु गइआ दुखु कटिआ हरि वरु पाइआ नारि ॥४७॥

पद्अर्थ: रूड़ा = सुंदर। गारुड़ु = (मन रूप) साँप को कीलने वाला मंत्र। मतु = कहीं ऐसा ना हो। रासि = राशि, पूंजी। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। साबासि = प्रशंसा। रूड़ी = सुंदर। आपु = स्वै भाव, अहम्। वरु = पति। नारि = (जीव-) स्त्री।

(नोट: संस्कृत में अक्षर ‘ड़ा’ नहीं है, होता, तो उसका उच्चारण भी ‘ड़ा’ होता। गुरमुखी अक्षर को हम ‘ड़ड़ा’ कह के उचारते हैं। गुरु नानक देव जी गुरमुखि अक्षर बरत रहे थे)।

अर्थ: वह प्रभु ही (सबसे ज्यादा) सुंदर है, उसके बिना कोई और (भाव, उसके बराबर का) हाकिम नहीं है।

(हे पांडे!) तू मन को वश में करने के लिए (‘गुरु-शब्द रूपी) मंत्र सुन (इससे) यह प्रभु मन में आ बसेगा। (पर) कहीं कोई इस भुलेखे में ना पड़ जाए, (कि प्रभु गुरु के बिना प्राप्त हो सकता है) प्रभु (तो) गुरु की मेहर से ही मिलता है। गुरु ही सच्चा शाह है जिसके पास प्रभु का नाम-रूपी पूंजी है, गुरु ही पूर्ण पुरख है, गुरु को ही धन्य-धन्य कहो।

(जिस किसी को मिला है) सतिगुरु की सुंदर वाणी के द्वारा ही, गुरु के शब्द के विचार से ही प्रभु मिला है; (गुरु-शब्द से जिसका) अहंकार दूर हुआ है (स्वै, अहम् का) दुख काटा गया है उस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति को पा लिया है।47।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh