श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 943 पवन अर्मभु सतिगुर मति वेला ॥ सबदु गुरू सुरति धुनि चेला ॥ अकथ कथा ले रहउ निराला ॥ नानक जुगि जुगि गुर गोपाला ॥ एकु सबदु जितु कथा वीचारी ॥ गुरमुखि हउमै अगनि निवारी ॥४४॥ पद्अर्थ: पवन = प्राण। सुरति धुनि = तवज्जो की धुनि, लगन, टिकाव। अकथ = वह प्रभु जिसका सही स्वरूप बयान नहीं हो सकता। रहउ = मैं रहता हूँ। (नोट: ऊपरोक्त पौड़ी में शब्द ‘रहहु’ के जोड़ के इस शब्द से फर्क ध्यानयोग्य है, उसका अर्थ है ‘तुम रहते हो’)। पद्अर्थ: जुगि = जुग में। जुगि जुगि = हरेक युग में। गोपाल = धरती को पालने वाला। एकु सबदु = केवल एक शब्द ही। जितु = जिससे। निवारी = दूर की। अर्थ: (उक्तर:) प्राण ही अस्तित्व का मूल हैं। (ये मनुष्य जनम का) समय सतिगुरु की शिक्षा लेने का है। शब्द (मेरा) गुरु है, मेरी तवज्जो का टिकाव (उस गुरु का) सिख है। मैं अकथ प्रभु की बातें करके (भाव, गुण गा के) माया से निर्लिप रहता हूँ। और, हे नानक! वह गुरु गोपाल हरेक जुग में मौजूद है। केवल गुरु-शब्द ही है जिससे प्रभु के गुण विचारे जा सकते हैं, (इस शब्द से ही) गुरमुख मनुष्य ने अहंकार (खुदगर्जी की) आग (अपने अंदर से) दूर की है।44। मैण के दंत किउ खाईऐ सारु ॥ जितु गरबु जाइ सु कवणु आहारु ॥ हिवै का घरु मंदरु अगनि पिराहनु ॥ कवन गुफा जितु रहै अवाहनु ॥ इत उत किस कउ जाणि समावै ॥ कवन धिआनु मनु मनहि समावै ॥४५॥ पद्अर्थ: मैण = मोम। (नोट: ‘मैण’ संस्कृत के ‘मदन’ का प्राक्रित-रूप है; ‘मदन’ का अर्थ है ‘मोम’। ‘मदन’ मअण, मैण)। पद्अर्थ: सारु = लोहा। जितु = जिससे। गरबु = अहंकार। अहारु = खाना। हिव = हिम, बरफ। पिराहनु = पैराहन, चोला। जितु गुफा = जिस गुफा में। अवाहनु = अडोल, अहिल। इत उत = यहां वहां, लोक परलोक में, हर जगह। मनहि = मन में ही। धिआन = तवज्जो का निशाना, मन को एक ठिकाने रखने के लिए टिका हुआ ख्याल। अर्थ: (प्रश्न:) मोम के दातों से लोहा कैसे खाया जाए? वह कौन सा खाना है जिससे (मन का) अहंकार दूर हो जाए? अगर बरफ का मन्दिर हो, उस पर आग का चोला हो, तो उसको किस गुफा में रखें कि टिका रहे? यहां-वहां (हर जगह) किस को पहचान के (उस में ये मन) लीन रहे? वह कौन सा ध्यान है जिससे मन अपने अंदर ही टिका रहे (और बाहर ना भटके)?।45। हउ हउ मै मै विचहु खोवै ॥ दूजा मेटै एको होवै ॥ जगु करड़ा मनमुखु गावारु ॥ सबदु कमाईऐ खाईऐ सारु ॥ अंतरि बाहरि एको जाणै ॥ नानक अगनि मरै सतिगुर कै भाणै ॥४६॥ पद्अर्थ: दूजा = दूसरा, मेर तेर, भेदभाव। सारु = लोहा। अगनि = तृष्णा की आग। हउ हउ मै मै = हर वक्त ‘मैं’ का ख्याल, मैं बड़ा हो जाऊँ, मैं अमीर हो जाऊँ = हर वक्त यही ख्याल, खुदगर्जी। अर्थ: (उक्तर:) (जो मनुष्य गुरु के सन्मुख है वह) मन में से खुदगर्जी दूर करता है, भेदभाव मिटा देता है, (सब से) सांझ बनाता है। (पर) जो मूर्ख मनुष्य मन के पीछे चलता है उसके लिए जगत कठिन (राह) है (भाव जीवन दुखों की खान है)। यह (जगत का दुख-रूपी) लोहा तभी खाया जा सकता है अगर सतिगुरु का शब्द कमाएं (भाव, गुरु के हुक्म में चलें)। (बस! यह है मोम के दातों से लोहे को चबाना)। हे नानक! जो मनुष्य (अपने) अंदर और बाहर (सारे जगत में) एक प्रभु को (मौजूद) समझता है उसकी तृष्णा की आग सतिगुरु की रजा में चलने से मिट जाती है।46। सच भै राता गरबु निवारै ॥ एको जाता सबदु वीचारै ॥ सबदु वसै सचु अंतरि हीआ ॥ तनु मनु सीतलु रंगि रंगीआ ॥ कामु क्रोधु बिखु अगनि निवारे ॥ नानक नदरी नदरि पिआरे ॥४७॥ पद्अर्थ: सच भै = सच्चे प्रभु के भय में। गरबु = अहंकार। अंतरि हीआ = हृदय में। रंगि = रंग में। नदरी = (मेहर की) नजर करने वाला प्रभु। अर्थ: जो मनुष्य सदा कायम रहने वाले प्रभु के डर में रति है (भाव, जिसके अंदर सदा प्रभु का भय मौजूद है) वह अहंकार दूर कर देता है, वह (सदा) सतिगुरु के शब्द को विचारता है, (और शब्द की सहायता से) उसने (हर जगह) एक प्रभु को पहचान लिया है। जिस मनुष्य के हृदय में गुरु का शब्द बसता है उसके अंदर प्रभु (स्वयं) बसता है प्रभु के प्यार में रंग के उसका मन उसका तन शीतल हो जाता है (क्योंकि) वह अपने अंदर से काम-क्रोध रूपी जहर और तृष्णा की आग मिटा देता है। हे नानक! वह मनुष्य मेहर करने वाले प्यारे प्रभु की नजर में रहता है।47। कवन मुखि चंदु हिवै घरु छाइआ ॥ कवन मुखि सूरजु तपै तपाइआ ॥ कवन मुखि कालु जोहत नित रहै ॥ कवन बुधि गुरमुखि पति रहै ॥ कवनु जोधु जो कालु संघारै ॥ बोलै बाणी नानकु बीचारै ॥४८॥ पद्अर्थ: कवन मुखि = किस द्वार से? किस तरीके से? किस तरह? हिवै घरु = बरफ का घर। छाइआ = प्रभाव डाले रखे। सूरज = ज्ञान का सूरज। जोहत = देखता। जोधु = योद्धा, सूरमा। संघारे = मार दे। बाणी बीचारै = विचार की वाणी, ‘गोष्ठि’ के संबंध में। अर्थ: नानक कहता है, ‘गोष्ठि’ के सिलसिले में (जोगियों ने पूछा-) कैसे (मनुष्य के मन में) शीतलता का घर चंद्रमा टिका रहे (भाव, किस तरह मन मे हमेशा ठंड-शांति बनी रहे)? कैसे (मन में) ज्ञान का सूरज तपाया तपता रहे? (भाव, कैसे ज्ञान का प्रकाश हमेशा बना रहे?) कैसे काल नित्य देखने से रह जाए (भाव, कैसे हर वक्त बना हुआ मौत का सहम खत्म हो जाए?) वह कौन सी समझ है जिस के कारण गुरमुखि मनुष्य की इज्जत बनी रहती है? वह कौन सा सूरमा है जो मौत को (मौत के भय को) मार लेता है।48। सबदु भाखत ससि जोति अपारा ॥ ससि घरि सूरु वसै मिटै अंधिआरा ॥ सुखु दुखु सम करि नामु अधारा ॥ आपे पारि उतारणहारा ॥ गुर परचै मनु साचि समाइ ॥ प्रणवति नानकु कालु न खाइ ॥४९॥ पद्अर्थ: भाखत = उचारते हूए। ससि = चंद्रमा। घरि = घर में। सूरु = सूरज (ज्ञान)। सम = एक जैसा, बराबर। अधार = आसरा। गुर परचै = सतिगुरु के साथ गहरी सांझ बनाने से। साचि = सच्चे प्रभु में। प्रणवति = विनती करता है। अर्थ: (उक्तर:) (जब) सतिगुरु का शब्द उचारते हुए (हृदय में) चंद्रमा की अपार ज्योति प्रगट हो जाती है (भाव, हृदय में शांति पैदा होती है) चंद्रमा के घर में सूरज आ बसता है (भाव, शांत हृदय में ज्ञान का सूरज उग आता है, तब अज्ञानता का) अंधकार मिट जाता है। (गुरु-शब्द की इनायत से जब गुरमुखि) सुख और दुख को एक-समान समझ के ‘नाम’ को (जिंदगी का) आसरा बनाता है (भाव, जब ना सुख में और ना ही दुख में प्रभु को भुलाए) (तब) तारनहार प्रभु उसको स्वयं ही (‘दुश्तर सागर’ से) पार लंघा लेता है। नानक विनती करता है कि सतिगुरु के साथ गहरी सांझ बनाने से (गुरमुख का) मन सच्चे प्रभु में लीन रहता है, और उसको मौत का डर नहीं व्यापता।49। नाम ततु सभ ही सिरि जापै ॥ बिनु नावै दुखु कालु संतापै ॥ ततो ततु मिलै मनु मानै ॥ दूजा जाइ इकतु घरि आनै ॥ बोलै पवना गगनु गरजै ॥ नानक निहचलु मिलणु सहजै ॥५०॥ पद्अर्थ: ततु = अस्लियत, सच्चाई। नाम ततु = प्रभु के नाम की सच्चाई। सभ ही सिरि जापै = सारे जपों के सिर पर है, सारे जपों सें श्रेष्ठ है। संतापे = दुखी करता है। ततो ततु = असली तत्व, निर्मल प्रभु के नाम की सच्चाई। इकतु घरि = एक घर में (भाव, एकता के घर में)। पवन = प्राण। बोले पवना = प्राण बोलता है, रूहानी जीवन की लहर चल पड़ती है। गगनु = आकाश, दसवाँ द्वार, ईश्वरीय मिलाप की अवस्था। गरजै = गरजता है, बलवान होता है। मिलणु = मिलाप। सहजै = सहज अवस्था में, आत्मिक अडोलता में। अर्थ: प्रभु के नाम की सच्चाई (हृदय में सही करणी) सारे जापों का शिरोमणि (जाप) है। जब तक हृदय में नाम (-तत्व) सही नहीं होता, (मनुष्य को कई किस्म के) दुख सताते हैं और मौत का डर दुखी करता है। (जब हृदय में) निर्मल प्रभु के नाम की सच्चाई (भाव, ये श्रद्धा कि प्रभु का नाम ही सदा स्थिर रहने वाला है) प्रकट हो जाती है तब (मनुष्य का) मन (उस सच्चाई में) पतीज जाता है, मेर-तेर वाला स्वभाव दूर हो जाता है, मनुष्य ऐकता के घर में आ टिकता है, रूहानी जीवन की लहर चल पड़ती है, ईश्वरीय मिलाप की अवस्था बलवान हो जाती है (और, इस तरह) हे नानक! सहज अवस्था में टिकने से (जीव और प्रभु का) मिलाप (सदा के लिए) पक्का हो जाता है।50। अंतरि सुंनं बाहरि सुंनं त्रिभवण सुंन मसुंनं ॥ चउथे सुंनै जो नरु जाणै ता कउ पापु न पुंनं ॥ घटि घटि सुंन का जाणै भेउ ॥ आदि पुरखु निरंजन देउ ॥ जो जनु नाम निरंजन राता ॥ नानक सोई पुरखु बिधाता ॥५१॥ पद्अर्थ: सुंन = निर्गुण प्रभु, वह प्रभु जिसमें माया वाले फुरने नहीं उठते। सुंन मसुंन = शून्य ही शून्य, निर्मल निर्गुण प्रभु ही, निर्मल वही प्रभु जो माया के फुरनों के असर तले नहीं आ सकता। चउथे सुंन = चौथी अवस्था वाले निर्गुण प्रभु को, वह निर्गुण प्रभु जो तीन गुणी माया के असर से ऊपर है। घटि घटि सुंन का = हरेक घट में व्यापक प्रभु का, उस प्रभु का जो हरेक घट में मौजूद भी है और निर्लिप भी है। भेउ = भेद। आदि = सब का आरम्भ। बिधाता = कर्ता, विधाता, निर्माता। अर्थ: (जब हृदय में निर्मल प्रभु नाम की सच्चाई प्रकट हो जाती है तब ये यकीन हो जाता है कि) अंदर और बाहर (भाव, गुप्त और प्रकट, दिखाई देते और अदृश्य पदार्थों में हर जगह) सारी त्रिलोकी में वही प्रभु व्यापक है जिसमें माया वाले फुरने नहीं उठते (क्योंकि माया तो उसकी अपनी बनाई खेल है)। जो मनुष्य त्रिगुण माया के असर से ऊपर रहने वाले उस प्रभु को (सही तौर पर) समझ लेता है, उसको भी (चौथी अवस्था में टिका होने के कारण) पाप और पुण्य छू नहीं सकता (भाव, कोई पाप किसी कुकर्म की ओर नहीं प्रेरता और कोई पुण्य कर्म उसके अंदर किसी स्वर्ग आदि की लालसा पैदा नहीं करता)। जो मनुष्य हरेक घट में व्यापक निर्गुण प्रभु का भेद जान लेता है (भाव, जो मनुष्य ये दृढ़ कर लेता है कि प्रभु हरेक घट में मौजूद भी है, और फिर भी निर्लिप है, वह मनुष्य भी दुनिया में रहते हुए निर्लिप हो के) आदि पुरख निरंजन का रूप हो जाता है। हे नानक! जो मनुष्य माया से रहित परमात्मा के नाम का मतवाला है, वही विधाता प्रभु का रूप हो जाता है।51। सुंनो सुंनु कहै सभु कोई ॥ अनहत सुंनु कहा ते होई ॥ अनहत सुंनि रते से कैसे ॥ जिस ते उपजे तिस ही जैसे ॥ ओइ जनमि न मरहि न आवहि जाहि ॥ नानक गुरमुखि मनु समझाहि ॥५२॥ पद्अर्थ: सुंनो सुंनु = शून्य ही शून्य, निर्मल वह अवस्था जहाँ माया के फुरने ना उठें। अनहत = एक रस, सदा टिकी रहने वाली। कहा ते = किससे? कहाँ से? कैसे? सुंनि = अफुर अवस्था में। ओइ = वह लोग। सभु कोई = हरेक मनुष्य। अर्थ: हरेक मनुष्य ‘अफुर अवस्था’ का जिक्र करता है (पर व्यवहारिक जीवन में यह बात कोई विरला ही जानता है कि) सदा टिकी रहने वाली अफुर अवस्था कैसे बन सकती है (क्योंकि इस अवस्था वाला जीवन जीने से ही ये अवस्था समझ में आ सकती है)। (कहने मात्र को अगर कोई पूछे कि) अफुर अवस्था में जुड़े हुए बंदे कैसे होते हैं (तो इसका उक्तर ये है कि) वे मनुष्य उस परमात्मा जैसे ही हो जाते हैं जिससे वे पैदा हुए हैं। हे नानक! जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चल के मन को सुमति की ओर लगाते हैं, वे (बार-बार) ना पैदा होते हैं ना मरते हैं, उनके आवा-गवन का चक्कर समाप्त हो जाता है।52। नउ सर सुभर दसवै पूरे ॥ तह अनहत सुंन वजावहि तूरे ॥ साचै राचे देखि हजूरे ॥ घटि घटि साचु रहिआ भरपूरे ॥ गुपती बाणी परगटु होइ ॥ नानक परखि लए सचु सोइ ॥५३॥ नोट: दूसरी तुक का शब्द ‘तह’ बताता है कि पहली तुक के साथ ‘जह’ का प्रयोग करना है। पद्अर्थ: जह = जिस अवस्था में। नउ सर = शरीर के नौ दरवाजे। सुभर = नाको नाक भरे हुए। नउ सर सुभर = नाको नाक भरे हुए सरोवर जैसे नौ दरवाजे, उन सरोवरों जैसे नो द्वार जिनका बहना रुका हुआ है। दसवै = दसवें (सर) में। तह = उस अवस्था में। अनहत सुंन तूरे = एक रस अफुर अवस्था के बाजे। तूरे = बाजे। हजूरे = हाजर नाजर, अंग संग। गुपती बाणी = छुपी हुई लहर। सोइ = वह मनुष्य। अर्थ: (नाम की इनायत से) जब नौ द्वार नाको-नाक भर के (भाव, बाहर की ओर का बहाव बंद करके, अर्थात मायावी पदार्थों की ओर की दौड़ मिटा के) दसवें सर में (भाव, प्रभु मिलाप की अवस्था में) जा पड़ते हैं, तब (गुरमुख) एक-रस अफुर अवस्था के बाजे बजाते हैं (भाव, अफुर अवस्था उनके अंदर इतनी बलवान हो जाती है कि और कोई फुरना व विचार वहाँ आ ही नहीं सकता)। (इस अवस्था में पहुँचे हुए गुरमुख) सदा कायम रहने वाले प्रभु को अंग-संग देख के उस में टिके रहते हैं, उन्हें वह सच्चा प्रभु हरेक घट में व्यापक दिखाई देता है। (इस तरह जिस मनुष्य के अंदर वह) छुपी हुई (रूहानी जीवन की) लहर प्रकट होती है (भाव, जिस को वह अपने अंग-संग और सबमें व्यापक दिखाई दे जाता है), हे, नानक! वह मनुष्य उस सच्चे प्रभु (के नाम-रूप सौदे) की कद्र समझ लेता है।53। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |