श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 945

मन का जीउ पवनु कथीअले पवनु कहा रसु खाई ॥ गिआन की मुद्रा कवन अउधू सिध की कवन कमाई ॥ बिनु सबदै रसु न आवै अउधू हउमै पिआस न जाई ॥ सबदि रते अम्रित रसु पाइआ साचे रहे अघाई ॥ कवन बुधि जितु असथिरु रहीऐ कितु भोजनि त्रिपतासै ॥ नानक दुखु सुखु सम करि जापै सतिगुर ते कालु न ग्रासै ॥६१॥

पद्अर्थ: जीउ = जिंद, आसरा। पवनु = प्राण। रसु = खुराक। कहा = कहाँ? मुद्रा = साधन। अउधू = हे जोगी! सिध = जोग साधना में सिद्धस्त योगी। कवन कमाई = क्या मिल जाता है? अघाइ रहे = तृप्त रहते हैं। कितु भोजनि = किस भोजन से? त्रिपतासै = तृप्त रहा जाता है। सम = बराबर, एक समान। ग्रासै = ग्रसता, व्यापता।

अर्थ: (प्रश्न:) मन का आसरा प्राण कहें जाते हैं, प्राण कहाँ से खुराक़ लेते हैं? (भाव, प्राणों का आसरा कौन है?) हे जोगी! ज्ञान की प्राप्ति का कौन सा साधन है? जोग-साधना में सिद्धस्थ योगी को क्या प्राप्त हो जाता है?

(उक्तर:) हे जोगी! सतिगुरु के शब्द के बिना (प्राणों को) रस नहीं आता (भाव, गुरु का शब्द ही प्राणों का आसरा है, प्राणों की खुराक़ है)। गुरु-शब्द के बिना अहंकार की प्यास नहीं मिटती। जो मनुष्य गुरु के शब्द में रंगे जाते हैं, उनको सदा टिके रहने वाला नाम-रस मिल जाता है, वे सच्चे प्रभु में तृप्त रहते हैं (भाव, नाम में जुड़ के संतोषी हो जाते हैं)।

(प्रश्न:) वह कौन सी मति है जिसके माध्यम से मन सदा टिका रह सकता है? कौन सी खुराक़ से मन सदा तृप्त रह सके?

(उक्तर:) हे नानक! सतिगुरु से (जो मति मिलती है उससे) दुख और सुख एक-समान प्रतीत होने लगते हैं, सतिगुरु से (जो नाम-भोजन मिलता है, उसके सदका) मौत (का डर) छू भी नहीं सकता।61।

रंगि न राता रसि नही माता ॥ बिनु गुर सबदै जलि बलि ताता ॥ बिंदु न राखिआ सबदु न भाखिआ ॥ पवनु न साधिआ सचु न अराधिआ ॥ अकथ कथा ले सम करि रहै ॥ तउ नानक आतम राम कउ लहै ॥६२॥

पद्अर्थ: रंगि = रंग में, प्यार में। रसि = रस में। माता = मस्त, खीवा। ताता = जलता, खिझता। बिंदु = वीर्य। बिंदु ना राखिआ = उस मनुष्य ने वीर्य नहीं संभाला (भाव, वह कैसा जती?) पवनु न साधिआ = (प्राणायाम द्वारा) प्राण वश में नहीं किए।

अर्थ: सतिगुरु के शब्द (की कमाई किए) बिना मनुष्य (मायावी धंधों में) जल-बल के खिझता रहता है, (इस वास्ते उसका मन) प्रभु के प्यार में रंगा नहीं जाता और वह प्रभु के आनंद में मस्त नहीं होता।

जिस मनुष्य ने गुरु-शब्द नहीं उचारा, उसने जती बन के कुछ नहीं कमाया। जिसने सच्चे प्रभु को नहीं स्मरण किया, उसने प्राणायाम करके क्या लिया?

हे नानक! अगर मनुष्य अकथ प्रभु के गुण गा के (दुख-सुख को) एक-समान जान के जीवन व्यतीत करे, तो वह सारे संसार की जिंद प्रभु को प्राप्त कर लेता है।62।

गुर परसादी रंगे राता ॥ अम्रितु पीआ साचे माता ॥ गुर वीचारी अगनि निवारी ॥ अपिउ पीओ आतम सुखु धारी ॥ सचु अराधिआ गुरमुखि तरु तारी ॥ नानक बूझै को वीचारी ॥६३॥

पद्अर्थ: रंगे = (प्रभु के) प्यार में। पीआ = पीया। अपिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। पीओ = पीया। धारी = धारण किया, पाया। वीचारी = विचारवान। तरु तारी = तारी तैर, पार हो। को = कोई विरला।

अर्थ: सतिगुरु की मेहर से जो मनुष्य प्रभु के प्यार में रंगा जाता है, वह नाम-अमृत पी लेता है, और सच्चे प्रभु में मस्त (खीवा) रहता है।

जो मनुष्य गुरु- (शब्द) के द्वारा विचारवान हो गया है उसने (तृष्णा) अग्नि बुझा ली है, उसने (नाम-) अमृत पी लिया है, उसने आत्मिक सुख पा लिया है। (हे जोगी!) गुरु के राह पर चल के सच्चे प्रभु का स्मरण करके (‘दुष्तर सागर’ से) पार हो। (पर) हे नानक! कोई विरला विचारवान (इस बात को) समझता है।63।

इहु मनु मैगलु कहा बसीअले कहा बसै इहु पवना ॥ कहा बसै सु सबदु अउधू ता कउ चूकै मन का भवना ॥ नदरि करे ता सतिगुरु मेले ता निज घरि वासा इहु मनु पाए ॥ आपै आपु खाइ ता निरमलु होवै धावतु वरजि रहाए ॥ किउ मूलु पछाणै आतमु जाणै किउ ससि घरि सूरु समावै ॥ गुरमुखि हउमै विचहु खोवै तउ नानक सहजि समावै ॥६४॥

पद्अर्थ: मैगलु = (संस्कृत: मदकल) मस्त हाथी। भवना = भटकना। आपै आपु = अपने आप को। धावतु = दौड़ता (है विकारों की ओर)। वरजि = रोक के। ससि = चंद्रमा। हउमै = हउ+मैं, मैं मैं, हर वक्त मैं का ही ध्यान, अपने आप के बारे में हर वक्त, खुदगर्जी, मतलब प्रस्ती। सहजि = सहज में, अडोल अवस्था में।

अर्थ: (प्रश्न:) मस्त हाथी (जैसा) ये मन कहाँ बसता है? ये प्राण कहाँ बसतें हैं? हे जोगी (नानक!) वह शब्द कहाँ बसता है (जिससे तुम्हारे मत के अनुसार) मन की भटकना खत्म होती है?

(उक्तर:) अगर प्रभु मेहर की निगाह करे तो वह सतिगुरु मिलाता है और (गुरु के मिलने पर) ये मन अपने ही घर में (भाव, अपने आप में) टिक जाता है। (गुरु के हुक्म में चल के जब) मन अपने आपको खा जाता है (भाव, अपने संकल्प-विकल्प समाप्त कर देता है, जब मनुष्य अपने मन के पीछे चलने की बजाएगुरू के हुक्म में चलता है) तो मन पवित्र हो जाता है (क्योंकि इस तरह गुरु के उपदेशों से मनुष्य) माया की ओर दौड़ते मन को रोके रखता है।

(प्रश्न:) मनुष्य (जगत के) आदि (प्रभु) को कैसे पहचाने? अपने आत्मा को कैसे समझे? चंद्रमा के घर में सूरज कैसे टिके?

(उक्तर:) जो मनुष्य गुरु के हुक्म में चलता है वह अपने अंदर से ‘अहंकार’ दूर करता है, तब हे नानक! वह सहज अवस्था में टिक जाता है।64।

इहु मनु निहचलु हिरदै वसीअले गुरमुखि मूलु पछाणि रहै ॥ नाभि पवनु घरि आसणि बैसै गुरमुखि खोजत ततु लहै ॥ सु सबदु निरंतरि निज घरि आछै त्रिभवण जोति सु सबदि लहै ॥ खावै दूख भूख साचे की साचे ही त्रिपतासि रहै ॥ अनहद बाणी गुरमुखि जाणी बिरलो को अरथावै ॥ नानकु आखै सचु सुभाखै सचि रपै रंगु कबहू न जावै ॥६५॥

पद्अर्थ: निहचलु = अडोल हो के (भाव, भटकने से हट के)। हिरदै = हृदय में। आसणि = आसन पर। बैसै = बैठता है। निज घरि = अपने असल घर में। आछै = है। अरथावै = अर्थ समझता है, अस्लियत समझता है। सचि = सच में। रपै = रंगा रहता है।

अर्थ: जब मनुष्य गुरु के हुक्म में चल के (जगत के) मूल- (प्रभु) को पहचानता है (प्रभु के साथ सांझ डालता है), तो यह मन अडोल हो के हृदय में टिकता है। प्राण (भाव, श्वास) नाभि-रूप घर में आसन पर बैठता है (भाव, प्राणों का आरम्भ नाभि से होता है), गुरु के माध्यम से खोज करके मनुष्य अस्लियत को तलाशता है। वह शब्द (जो ‘दुश्तर सागर’ से पार लंघाता है) एक-रस अपने असल घर में (भाव, शून्य प्रभु में) टिकता है, मनुष्य उस प्रभु के द्वारा (ही) त्रिलोकी में व्यापक प्रभु की ज्योति ढूँढता है, (ज्यों-ज्यों) सच्चे प्रभु को मिलने की तमन्ना बढ़ती है (त्यों-त्यों) मनुष्य दुखों को समाप्त करता जाता है, सच्चे प्रभु में ही तृप्त रहता है।

एक-रस व्यापक ईश्वरीय जीवन-लहर को किसी विरले गुरमुख ने जाना है किसी विरले ने ये राज़ समझा है। नानक कहता है (जिसने समझा है) वह सच्चे प्रभु को स्मरण करता है, सच्चे में रंगा रहता है, उसका ये रंग कभी उतरता नहीं।65।

जा इहु हिरदा देह न होती तउ मनु कैठै रहता ॥ नाभि कमल असथ्मभु न होतो ता पवनु कवन घरि सहता ॥ रूपु न होतो रेख न काई ता सबदि कहा लिव लाई ॥ रकतु बिंदु की मड़ी न होती मिति कीमति नही पाई ॥ वरनु भेखु असरूपु न जापी किउ करि जापसि साचा ॥ नानक नामि रते बैरागी इब तब साचो साचा ॥६६॥

पद्अर्थ: देह = शरीर। मनु = चेतन सत्ता। केठै = कहाँ? किस जगह पर? असथंभु = स्तम्भ, खम्भा, सहारा। पवनु = प्राण, श्वास। सहता = आसरा लेता था। सबदि = शब्द ने। रकतु = रक्त, खून। बिंदु = वीर्य। मढ़ी = शरीर। मिति = अंदाजा। असरूपु = स्वरूप। इब = अब जबकि (शरीर मौजूद है)। तब = तब जब कि (शरीर नहीं था)।

अर्थ: (प्रश्न:) जब ना ये हृदय था ना ही ये शरीर था, तब मन (चेतन सत्ता) कहाँ रहती थी? जब नाभि के चक्र का स्तम्भ नहीं था तो प्राण (श्वास) किस घर में आसरा लेते थे? जब कोई रूप-रेख नहीं था तब शब्द ने कहाँ लगन लगाई हुई थी? जब (माँ का) रक्त और (पिता के) वीर्य से बना ये शरीर नहीं था तब जिस प्रभु का अंदाजा और मूल्य नहीं पड़ सकता उसमें ये मन लगन कैसे लगाता था? जिस प्रभु का रंग-भेख और स्वरूप नहीं दिखता, वह सदा कायम रहने वाला प्रभु कैसे देखा जाता है?

(उक्तर:) हे नानक! प्रभु के नाम में रति हुए वैरागवान को हर वक्त सच्चा प्रभु ही (मौजूद) प्रतीत होता है।66।

हिरदा देह न होती अउधू तउ मनु सुंनि रहै बैरागी ॥ नाभि कमलु असथ्मभु न होतो ता निज घरि बसतउ पवनु अनरागी ॥ रूपु न रेखिआ जाति न होती तउ अकुलीणि रहतउ सबदु सु सारु ॥ गउनु गगनु जब तबहि न होतउ त्रिभवण जोति आपे निरंकारु ॥ वरनु भेखु असरूपु सु एको एको सबदु विडाणी ॥ साच बिना सूचा को नाही नानक अकथ कहाणी ॥६७॥

पद्अर्थ: अउधू = हे जोगी! सुंनि = अफुर प्रभु में। अनरागी = प्रेमी हो के। जाति = अस्तित्व, उत्पक्ति। अकुलीणि = अकुलीण में, कुल रहत प्रभु में। गउनु = गवनु, गमन, चाल, जगत की चाल, जगत का अस्तित्व। गगनु = आकाश। विडाणी = आश्चर्य।

अर्थ: (उक्तर:) हे जोगी! जब ना हृदय था ना शरीर था, तब वैरागी का मन निरगुण प्रभु में टिका हुआ था। जब नाभि-चक्र-रूपी-स्तम्भ नहीं था तब प्राण (प्रभु के) प्रेमी हो के अपने असल घर (प्रभु) में बसते थे। जब (जगत का) का कोई रूप-रेख नहीं था तब वह श्रेष्ठ शब्द (जो ‘दुष्तर सागर’ से पार लंघाता है) कुल-रहित प्रभु में रहता था; जब जगत की हस्ती नहीं थी, आकाश नहीं था, तब आकार-रहित त्रिभवणी ज्योति (भाव, अब त्रिलोकी में व्यापक होने वाली ज्योति) स्वयं ही स्वयं थी। एक मात्र आश्चर्य शब्द-रूप प्रभु ही था, वही (जगत का) रूप-रंग और भेख था।

हे नानक! (ऐसे उस) सदा कायम रहने वाले प्रभु (को मिले) बिना, जिसका कोई सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, कोई मनुष्य सच्चा नहीं है।67।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh