श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 954 सलोकु मः १ ॥ सहंसर दान दे इंद्रु रोआइआ ॥ परस रामु रोवै घरि आइआ ॥ अजै सु रोवै भीखिआ खाइ ॥ ऐसी दरगह मिलै सजाइ ॥ रोवै रामु निकाला भइआ ॥ सीता लखमणु विछुड़ि गइआ ॥ रोवै दहसिरु लंक गवाइ ॥ जिनि सीता आदी डउरू वाइ ॥ रोवहि पांडव भए मजूर ॥ जिन कै सुआमी रहत हदूरि ॥ रोवै जनमेजा खुइ गइआ ॥ एकी कारणि पापी भइआ ॥ रोवहि सेख मसाइक पीर ॥ अंति कालि मतु लागै भीड़ ॥ रोवहि राजे कंन पड़ाइ ॥ घरि घरि मागहि भीखिआ जाइ ॥ रोवहि किरपन संचहि धनु जाइ ॥ पंडित रोवहि गिआनु गवाइ ॥ बाली रोवै नाहि भतारु ॥ नानक दुखीआ सभु संसारु ॥ मंने नाउ सोई जिणि जाइ ॥ अउरी करम न लेखै लाइ ॥१॥ नोट: इस शलोक में उन पौराणिक कथाओं के हवाले दिए गए हैं जो हिन्दुओं में आम प्रचलित हैं। पद्अर्थ: सहंसर = हजार। दान = दण्ड। हजार भगों का दण्ड जो इन्द्र देवते को गौतम ऋषि ने श्राप दे के लगाया था। इन्द्र ने ऋषि की स्त्री अहिल्या के साथ धोखे से संग किया था। परस रामु = ब्राहमण था, इसके पिता जमदगनी को सहस्रबाहु ने मार दिया था; बदले की आग में परसराम ने क्षत्रिय-कुल का नाश करना शुरू कर दिया, पर जब इसने श्री रामचंद्र जी पर अपना कोहाड़ा उठाया तो उन्होंने इसका बल खींच लिया। अजै = राजा अजै ने (जो श्री रामचंद्र जी का दादा था) एक साधू को भिक्षा में लिद दी थी, बाद में उसे खुद खानी पड़ी। निकाला = देश निकाला। दहदिसु = (सं: दशशिर) दस सिरों वाला, रावण। डउरू वाइ = डमरू बजा के, साधू का भेस बना के। सुआमी = कृष्ण जी। खुइ गइआ = गवा बैठा। एकी = एक गली। जनमेजा (जो हस्तिनापुर का राजा था) ने 18 ब्राहमणों को मार दिया था, जिसका प्रायश्चित करने के लिए इसने ऋषि ‘वैशंपाइन’ से ‘महाभारत’ सुना था। मसाइक = मशायख़, शेख (बहुवचन)। भीड़ = मुसीबत। राजे = भरथरी गोपीचंद आदि राजे। किरपन = कंजूस। संचहि = इकट्ठा करते हैं। बाली = लड़की। जिणि = जीत के। अउरी = और। अर्थ: (गौतम ऋषि ने) हजार (भगों) का दण्ड दे के इन्द्र का रुला दिया, (श्री रामचंद्र से अपना बल छिनवा के) परस राम घर आ के रोया। राजा अजै रोया जब उसको (लिद की दी हुई) भिक्षा खानी पड़ी, प्रभु की हजूरी से ऐसी ही सजा मिलती है। जब राम (जी) को देश निकाला मिला सीता लक्ष्मण विछुड़े तब राम जी भी रोए। रावण, जिसने साधु बन के सीता (का हरण करके) ले आया, लंका गवा के रोया। (पाँचों) पाण्डव, जिनके पास श्री कृष्ण जी रहते थे (भाव, जिनका पक्ष करते थे), जब (राजा वैराट के) मजदूर बने तब रोए। राजा जनमेजा चूक गया (18 ब्राहमणों को जान से मार बैठा, प्रायश्चित के लिए ‘महाभारत’ सुना, पर शंका की, इस) एक गलती के कारण पापी ही बना रहा (भाव, कोढ़ ना हटा) और रोया। शेख पीर आदि भी रोते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि अंत के समय कोई बिपता आ पड़े। (भरथरी गोपीचंद आदिक) राजा, जोगी बन के दुखी होते हैं जब घर-घर जा के भिक्षा माँगते हैं। कँजूस धन इकट्ठा करते हैं पर रोते हैं ज बवह धन (उनके पास से) चला जाता है, ज्ञान की कमी के कारण पण्डित भी ख्वार होते हैं। स्त्री रोती है जब (सिर पर) पति ना रहे। हे नानक! सारा जगत ही दुखी है। जो मनुष्य प्रभु के नाम को मानता है (भाव, जिसका मन प्रभु के नाम में पतीजता है) वह (जिंदगी की बाजी) जीत के जाता है, (‘नाम’ के बिना) कोई और काम (जिंदगी की बाजी जीतने के लिए) सफल नहीं होता। मः २ ॥ जपु तपु सभु किछु मंनिऐ अवरि कारा सभि बादि ॥ नानक मंनिआ मंनीऐ बुझीऐ गुर परसादि ॥२॥ पद्अर्थ: सभु किछु = हरेक (उद्यम)। मंनीऐ = अगर मान लें, अगर मन प्रभु के नाम में पतीज जाए। अवरि कारा = और सारे काम। बादि = व्यर्थ। मंनिआ = जो मान गया है, जिसने ‘नाम’ मान लिया है, जिसका मन नाम में पतीज गया है। मंनीऐ = माना जाता है, आदर पाता है। परसादि = कृपा से। (नोट: ‘मंनिअै’ और ‘मंनीअै’ का फर्क याद रखने योग्य है)। अर्थ: यदि मन प्रभु के नाम में पतीज जाए जो जप-तप आदि हरेक उद्यम (उसी में आ जाता है), (नाम के बिना) और सारे कर्म व्यर्थ हैं। हे नानक! ‘नाम’ को मानने वाला आदर पाता है, ये बात गुरु की कृपा से समझी जा सकती है।2। पउड़ी ॥ काइआ हंस धुरि मेलु करतै लिखि पाइआ ॥ सभ महि गुपतु वरतदा गुरमुखि प्रगटाइआ ॥ गुण गावै गुण उचरै गुण माहि समाइआ ॥ सची बाणी सचु है सचु मेलि मिलाइआ ॥ सभु किछु आपे आपि है आपे देइ वडिआई ॥१४॥ पद्अर्थ: हंस = (संस्कृत शब्द) जीवात्मा। धुरि = आदि से। करतै = कर्तार ने। लिखि = लिख के (भाव) अपने हुक्म के अनुसार। गुपतु = छुपा हुआ। अर्थ: शरीर और जीवात्मा का संजोग धुर से कर्तार ने अपने हुक्म के अनुसार बना दिया है। प्रभु सब जीवों में छुपा हुआ मौजूद है, गुरु के द्वारा प्रकट होता है, (जो मनुष्य गुरु की शरण आ के प्रभु के) गुण गाता है गुण उचारता है वह गुणों में लीन हो जाता है। (सतिगुरु की) सच्ची वाणी के द्वारा वह मनुष्य सच्चे प्रभु का रूप हो जाता है, गुरु ने सच्चा प्रभु उसको संगति में (रख के) मिला दिया। हरेक हस्ती में (अस्तित्व में) प्रभु स्वयं ही मौजूद है और स्वयं ही बड़ाई (महानता, महिमा) बख्शता है।14। सलोक मः २ ॥ नानक अंधा होइ कै रतना परखण जाइ ॥ रतना सार न जाणई आवै आपु लखाइ ॥१॥ अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य खुद अंधा हो और चल पड़े रत्न परखने, वह रत्नों की कद्र तो जानता नहीं, पर अपने आप को उजागर करा आता है (भाव, अपना अंधापन जाहिर कर आता है)।1। मः २ ॥ रतना केरी गुथली रतनी खोली आइ ॥ वखर तै वणजारिआ दुहा रही समाइ ॥ जिन गुणु पलै नानका माणक वणजहि सेइ ॥ रतना सार न जाणनी अंधे वतहि लोइ ॥२॥ पद्अर्थ: रतन = नाम रत्न, प्रभु के गुण। रतनी = रतनों की परख करने वाला सतिगुरु। वखर = (भाव) व्यापार करने वाला, वस्तु बेचने वाला। तै = और। वणजारा = वाणज्य करने वाला गुरमुख। माणक = रतन, नाम। सेइ = वही लोग। वतहि = भटकते हैं। लोइ = जगत में। केरी = की। अर्थ: प्रभु के गुण रूपी थैली सतिगुरु ने आ के खोली है, से गुत्थी बेचने वाले सतिगुरु और लेने वाले गुरमुख दोनों के हृदय में टिक रही है (भाव, दोनों को ये गुण प्यारे लग रहे हैं)। हे नानक! जिनके पास (भाव, हृदय में) प्रभु की महिमा के गुण मौजूद हैं वही मनुष्य ही नाम-रत्न का लेन-देन (व्यापार) करते हैं; पर जो इन रत्नों की कद्र नहीं जानते वे अंधों की तरह जगत में फिरते हैं।2। पउड़ी ॥ नउ दरवाजे काइआ कोटु है दसवै गुपतु रखीजै ॥ बजर कपाट न खुलनी गुर सबदि खुलीजै ॥ अनहद वाजे धुनि वजदे गुर सबदि सुणीजै ॥ तितु घट अंतरि चानणा करि भगति मिलीजै ॥ सभ महि एकु वरतदा जिनि आपे रचन रचाई ॥१५॥ पद्अर्थ: दरवाजै = इन्द्रियों के रूप में द्वार। कोटु = किला। बजर = कठोर। कपाट = किवाड़। खुलीजै = खुलते हैं। अनहद = एक रस। धुनि = सुर। तितु = उस में। घट = शरीर। जिनि = जिस प्रभु ने। अर्थ: शरीर (मानो एक) किला है, इसकी नौ इन्द्रियों के रूप में गुप्त दरवाजे (प्रकट) हैं, और दसवाँ द्वार गुप्त रखा हुआ है; (उस दसवें दरवाजे के) किवाड़ बड़े कठोर हैं खुलते नहीं, खुलते (केवल) सतिगुरु के शब्द से ही हैं, (जब ये कठोर किवाड़ खुल जाते हैं तो, मानो,) एक-रस वाले बाजे बज पड़ते हैं जो सतिगुरु के शब्द के द्वारा सुने जाते हैं। (जिस हृदय में ये आनंद पैदा होता है) उस हृदय में (ज्ञान का) प्रकाश हो जाता है, प्रभु की भक्ति करके वह मनुष्य प्रभु में मिल जाता है। जिस प्रभु ने यह सारी रचना रची है वह सारे जीवों में व्यापक है (पर उस से मेल गुरु के द्वारा ही होता है)।15। सलोक मः २ ॥ अंधे कै राहि दसिऐ अंधा होइ सु जाइ ॥ होइ सुजाखा नानका सो किउ उझड़ि पाइ ॥ अंधे एहि न आखीअनि जिन मुखि लोइण नाहि ॥ अंधे सेई नानका खसमहु घुथे जाहि ॥१॥ पद्अर्थ: राहि दसिऐ = राह बताने वाला। अंधै कै राहि दसिऐ = अंधे के राह बताने से, अगर अंधा मनुष्य राह बताए। सु = वही मनुष्य। उझड़ि = गलत राह पर। एहि = (शब्द ‘आखीअनु’ और ‘आखिअनि’ में फर्क देखने योग्य है देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। मुखि = मुँह पर। लोइण = आँखें। अर्थ: अगर कोई अंधा मनुष्य (किसी और को) राह बताए तो (उस राह पर) वही चलता है जो खुद अंधा हो; हे नानक! आँख वाला मनुष्य (अंधे के कहने पर) गलत राह पर नहीं पड़ता। (पर आत्मिक जीवन में) ऐसे लोगों को अंधे नहीं कहा जाता जिनके मुँह पर आँखें नहीं हैं, हे नानक! अंधे वही हैं जो मालिक प्रभु से टूटे हुए हैं।1। मः २ ॥ साहिबि अंधा जो कीआ करे सुजाखा होइ ॥ जेहा जाणै तेहो वरतै जे सउ आखै कोइ ॥ जिथै सु वसतु न जापई आपे वरतउ जाणि ॥ नानक गाहकु किउ लए सकै न वसतु पछाणि ॥२॥ पद्अर्थ: साहिबि = सहिब ने, प्रभु ने। जेहा जाणै = (अंधा मनुष्य) जैसे समझता है। सउ = सौ बार। जे = यद्यपि। जिथै = जिस मनुष्य के अंदर। आपे वरतउ = स्वै भाव वाला व्यवहार, अपने समझ की बर्ताव, अहंकार का जोर। जाणि = जानो। अर्थ: जिस मनुष्य को मालिक-प्रभु ने स्वयं अंधा कर दिया है वह तब ही आँख वाला हो सकता है यदि प्रभु स्वयं (आँख वाला) बनाए, (नहीं तो, अंधा मनुष्य तो) जिस तरह की समझ रखता है उसी तरह किए जाता है चाहे उसको कोई सौ बार समझाए। जिस मनुष्य के अंदर ‘नाम’-रूप पदार्थ की समझ नहीं वहाँ अहंकार वाला व्यवहार ही समझो, (क्योंकि) हे नानक! गाहक जिस सौदे को पहचान ही नहीं सकता उसका वह वणज ही कैसे करे?।2। मः २ ॥ सो किउ अंधा आखीऐ जि हुकमहु अंधा होइ ॥ नानक हुकमु न बुझई अंधा कहीऐ सोइ ॥३॥ पद्अर्थ: हुकमहु = हुक्म से, रजा में। अंधा = नेत्र हीन। नोट: अंक 2 का भाव है महला 2। अर्थ: जो मनुष्य प्रभु की रजा में नेत्र-हीन हो गया उसको हम अंधा नहीं कहते, हे नानक! वह मनुष्य अंधा कहा जाता है जो रजा को समझता नहीं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |