श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ सभे दुख संताप जां तुधहु भुलीऐ ॥ जे कीचनि लख उपाव तां कही न घुलीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु निरधनु कांढीऐ ॥ जिस नो विसरै नाउ सु जोनी हांढीऐ ॥ जिसु खसमु न आवै चिति तिसु जमु डंडु दे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति रोगी से गणे ॥ जिसु खसमु न आवी चिति सु खरो अहंकारीआ ॥ सोई दुहेला जगि जिनि नाउ विसारीआ ॥१४॥

पद्अर्थ: संताप = मन के कष्ट। भुलीऐ = भटक जाएं। कीचनि = किए जाएं। घुलीऐ = छूटते हैं। कही न = किसी भी उपाय से नहीं। कांढीऐ = कहा जाता है। हांढीऐ = भटकता है। जिसु चिति = जिस (मनुष्य) के चिक्त में। दे = देता है। डंडु = सजा। गणे = गिने जाते हैं। से = वह बँदे। खरो = बहुत। दुहेला = दुखी। जगि = जगत में। जिनि = जिस ने।

अर्थ: जब हे प्रभु! तेरी याद से टूट जाएं तो (मन को) सारे दुख-कष्ट (आ व्यापते हैं)। (तेरी याद के बिना और) अगर लाखों प्रयत्न भी किए जायं, किसी भी उपाय से (उन दुखों-कष्टों से) खलासी नहीं होती।

(हे भाई!) जिस मनुष्य को प्रभु का नाम (स्मरणा) भूल जाए वह कंगाल कहा जाता है (जैसे कोई कंगाल भिखारी दर-दर पर भटकता है, वैसे ही) वह जूनियों में भटकता फिरता है।

जिस मनुष्य के चिक्त में पति-प्रभु नहीं आता उसको जमराज सजा देता है (क्योंकि) ऐसे लोग रोगी गिने जाते हैं, ऐसा सख्श बहुत अहंकारी होता है (हर वक्त ‘मैं मैं’ ही करता है)।

जिस मनुष्य ने प्रभु का नाम भुला दिया है वही जगत में दुखी है।14।

सलोक मः ५ ॥ तैडी बंदसि मै कोइ न डिठा तू नानक मनि भाणा ॥ घोलि घुमाई तिसु मित्र विचोले जै मिलि कंतु पछाणा ॥१॥

पद्अर्थ: तैडी = तेरी। बंदसि = बंदिश, मन की स्वतंत्रता के रास्ते में रुकावट। तूं = तुझे। मनि भाणा = मन में प्यारा लगने वाला। विचोला = वकील, बीच में पड़ के मिलाने वाला। जै मिलि = जिसको मिल के। कंतु = पति।

अर्थ: हे (गुरु) नानक (जी)! तेरी कोई बात मुझे बंदिश नहीं लगती, मैं तो तुझे (बल्कि) मन में प्यारा लगने वाला देखा है।

मैं उस प्यारे बिचोलिए (गुरु) से सदके हूँ जिसको मिल के मैंने अपने पति-प्रभु को पहचाना है (पति-प्रभु के साथ सांझ डाल ली है)।1।

मः ५ ॥ पाव सुहावे जां तउ धिरि जुलदे सीसु सुहावा चरणी ॥ मुखु सुहावा जां तउ जसु गावै जीउ पइआ तउ सरणी ॥२॥

पद्अर्थ: पाव = पैर। सुहावै = सुंदर लगे। तउ धिरि = तेरी तरफ। जुलदे = चलते। जीउ = जिंद। तउ = तेरा। जसु = यश, महिमा के गीत।

अर्थ: वह पैर सुंदर हैं जो तेरी ओर चलते हैं, वह सिर भाग्यशाली है जो तेरे कदमों पर गिरता है; मुँह मन-मोहक लगता है जो तेरा यश गाता है, जीवात्मा खूबसूरत लगने लगती है जब तेरी शरण पड़ती है।2।

नोट: इस दूसरे शलोक को जरा ध्यान से समझने पर उपरोक्त शलोक के शब्द ‘बंदसि’ का भाव स्पष्ट हो जाता है: तेरी ओर आना, तेरे बताए राह पर चलना मुझे कोई बंधन नहीं प्रतीत होता, बल्कि वह पैर सुंदर जो तेरी ओर आते हैं, वह सिर सोहाना जो तेरे चरणों पर गिरता है।

पउड़ी ॥ मिलि नारी सतसंगि मंगलु गावीआ ॥ घर का होआ बंधानु बहुड़ि न धावीआ ॥ बिनठी दुरमति दुरतु सोइ कूड़ावीआ ॥ सीलवंति परधानि रिदै सचावीआ ॥ अंतरि बाहरि इकु इक रीतावीआ ॥ मनि दरसन की पिआस चरण दासावीआ ॥ सोभा बणी सीगारु खसमि जां रावीआ ॥ मिलीआ आइ संजोगि जां तिसु भावीआ ॥१५॥

पद्अर्थ: मिलि सतसंग = सत्संग में मिल के। नारी = (जिस) जीव-स्त्री ने। मंगलु = महिमा का गीत। घर का = उस (नारी) के (शरीर-) घर का। बंधानु = बंधन, मर्यादा। बहुड़ि = दोबारा। न धावीआ = भटकती नहीं। बिनठी = नाश हो गई। दुरतु = पाप। सोइ कूड़ावीआ = कूड़ की सोय, नाशवान पदार्थों की ललक (झाक)। सीलवंति = अच्छे स्वभाव वाली। परधानि = जानी मानी हुई। रिदै = हृदय में। सचावीआ = सच वाली। रीतावीआ = रीत, जीवन जुगति। दासावीआ = दासी। खसमि = पति ने। रावीआ = भोगी, अपने साथ मिलाई। संजोगि = (प्रभु की) संयोग सत्ता से। तिसु = उस (प्रभु) को।

अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने सत्संग में मिल के प्रभु की महिमा के गीत गाए, उसके शरीर घर का ठुक बन गया (उसकी सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ उसके वश में आ गई), वह फिर (माया के पीछे) भटकती नहीं, (उसके अंदर से) बुरी मति पाप व नाशवान पदार्थों की झाक खत्म हो जाती है।

ऐसी जीव-स्त्री अच्छे स्वभाव वाली हो जाती है, (सहेलियों में) आदर-मान पाती है, उसके हृदय में प्रभु के प्रति लगन टिकी रहती है, उसको अपने अंदर व सारी सृष्टि में एक प्रभु ही दिखता है, बस! यही उसकी जीवन-जुगति बन जाती है।

उस जीव-स्त्री के मन में प्रभु के दीदार की तमन्ना बनी रहती है, वह प्रभु के चरणों की ही दासी बनी रहती है।

जब उस जीव-स्त्री को पति-प्रभु ने अपने साथ मिला लिया, तो ये मिलाप ही उसके लिए शोभा और श्रृंगार होता है! जब उस प्रभु को वह जिंद-वधू प्यारी लग जाती है, तो प्रभु की संयोग-सत्ता की इनायत से वह प्रभु की ज्योति में मिल जाती है।15।

सलोक मः ५ ॥ हभि गुण तैडे नानक जीउ मै कू थीए मै निरगुण ते किआ होवै ॥ तउ जेवडु दातारु न कोई जाचकु सदा जाचोवै ॥१॥

पद्अर्थ: हभि = सारे। जीउ = हे प्रभु जी! मै कू = मुझे। थीए = मिले हैं। किआ होवै = कुछ नहीं हो सकता। तउ जेवडु = तेरे जितना। जाचकु = भिखारी। जाचोवै = माँगता है।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु) जी! सारे गुण तेरे ही हैं, तुझसे ही मुझे मिले हैं, मुझ गुण-हीन से कुछ नहीं हो सकता, तेरे जितना बड़ा कोई दातार नहीं है, मैं मँगते ने सदा तुझसे ही माँगना है।1।

मः ५ ॥ देह छिजंदड़ी ऊण मझूणा गुरि सजणि जीउ धराइआ ॥ हभे सुख सुहेलड़ा सुता जिता जगु सबाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: देह = शरीर। छिजंदड़ी = छिज गई, जर्जर हो गई। ऊणम = ऊनी, खाली। झूणा = उदास। गुरि = गुरु ने। सजणि = सज्जन ने। जीउ = जिंद। धराइआ = धरवास दिया। सुहेलड़ा = आसान। जिता = जीत लिया। सबाइआ = पूरा, सारा।

अर्थ: मेरा शरीर जर्जर होता जा रहा था, चिक्त में खिचाव सा हो रहा था और चिंतातुर हो रहा था; पर जब प्यारे सतिगुरु ने जीवात्मा को धरवास दिया तो (अब) सारे ही सुख मिल गए है, मैं सकून में टिका हुआ हूँ, (ऐसा प्रतीत होता है जैसे मैंने) सारा जहान जीत लिया है।2।

पउड़ी ॥ वडा तेरा दरबारु सचा तुधु तखतु ॥ सिरि साहा पातिसाहु निहचलु चउरु छतु ॥ जो भावै पारब्रहम सोई सचु निआउ ॥ जे भावै पारब्रहम निथावे मिलै थाउ ॥ जो कीन्ही करतारि साई भली गल ॥ जिन्ही पछाता खसमु से दरगाह मल ॥ सही तेरा फुरमानु किनै न फेरीऐ ॥ कारण करण करीम कुदरति तेरीऐ ॥१६॥

पद्अर्थ: सचा = सदा स्थिर रहने वाला। सिरि = सिर पर। छतु = छत्र। निआउ = न्याय। करतारि = इश्वर ने। साई = वही। मल = पहलवान। दरगाह मल = दरगाह के पहलवान, हजूरी पहलवान। करीम = बख्शिश करने वाला। कारण करण = सृष्टि का कर्ता।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा दरबार बड़ा है, तेरा तख्त सदा स्थिर रहने वाला है, तेरा चवर और छत्र अटल है, तू (दुनिया के सारे) शाहों के सिर पर पातशाह है।

(हे भाई!) वह न्याय अटल है जो परमात्मा को अच्छा लगता है, अगर उसे ठीक लगे तो निआसरों को आसरा मिल जाता है।

(जीवों के लिए) वही बात ठीक है जो कर्तार ने (खुद उनके लिए) की है। जिस लोगों ने पति-प्रभु के साथ सांझ डाल ली, वह हजूरी पहलवान बन जाते हैं (कोई विकार उनको छू नहीं सकता)।

हे प्रभु! तेरा हुक्म (सदा) ठीक होता है, किसी जीव ने (कभी) वह मोड़ा नहीं। हे सृष्टि के रचयता! हे जीवों पर बख्शिश करने वाले! (ये सारी) तेरी ही (रची हुई) कुदरति है।16।

सलोक मः ५ ॥ सोइ सुणंदड़ी मेरा तनु मनु मउला नामु जपंदड़ी लाली ॥ पंधि जुलंदड़ी मेरा अंदरु ठंढा गुर दरसनु देखि निहाली ॥१॥

पद्अर्थ: सोइ = सोय, खबर, शोभा। मउला = हरा हो जाता है। पंधि = (तेरे) राह पर। जुलंदड़ी = चलते हुए। अंदरु = हृदय। देखि = देख के। निहाली = प्रसन्न हुई।

अर्थ: (हे प्रभु!) तेरी शोभा सुन के मेरा तन मन हरा हो आता है, तेरा नाम जपते हुए मुझे खुशी की लाली चढ़ जाती है, तेरे राह पर चलते हुए मेरा हृदय ठंडा हो जाता है और सतिगुरु का दीदार करके मेरा मन खिल उठता है।1।

मः ५ ॥ हठ मंझाहू मै माणकु लधा ॥ मुलि न घिधा मै कू सतिगुरि दिता ॥ ढूंढ वञाई थीआ थिता ॥ जनमु पदारथु नानक जिता ॥२॥

पद्अर्थ: हठ = हृदय। मंझाहू = में। माणकु = लाल। घिधा = लिया। मैकू = मुझे। सतिगुरि = सतिगुरु ने। ढूँढ = तलाश, भटकना। वञाई = वंजाई, समाप्त कर दी है। थीआ थिता = टिक गया हूँ। पदारथु = कीमती चीज।

अर्थ: मैंने अपने हृदय में एक लाल पाया है, (पर वह मैंने कोई) मोल दे के नहीं लिया, (ये लाल) मुझे सतिगुरु ने दिया है, (इसकी इनायत से) मेरी भटकना समाप्त हो गई है, मैं टिक गया हूँ, हे नानक! मैंने मानव जीवन-रूपी कीमती वस्तु (का लाभ) हासिल कर लिया है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh