श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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क्रिपा क्रिपा करि दीन प्रभ सरनी मो कउ हरि जन मेलि पिआरे ॥ नानक दासनि दासु कहतु है हम दासन के पनिहारे ॥८॥१॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! दासनि दासु = दासो का दास। पनिहारे = पानी भरने वाले।8।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! मैं दीन तेरी शरण आया हूँ, मेरे पर मेहर कर, मेहर कर। मुझे अपने प्यारे भक्त मिला। मैं तेरे दासों का दास कहता हूँ, मुझे अपनें दासों का पानी ढोने वाला बनाए रख।8।1।

नट महला ४ ॥ राम हम पाथर निरगुनीआरे ॥ क्रिपा क्रिपा करि गुरू मिलाए हम पाहन सबदि गुर तारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! पाथर = पत्थर दिल, निर्दयी। निरगुनीआरे = गुण हीन। मिलाए = मिलाए। हम पाहन = हम पत्थरों को। सबदि = शब्द द्वारा। तारै = पार लंघा, उद्धार कर।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे राम! हम जीव निर्दयी हैं, गुणों से वंचित हैं। मेहर कर, मेहर कर, हमें गुरु से मिला। हम पत्थरों को गुरु के शब्द के द्वारा (संसार-समुंदर से) पार लंघा।1। रहाउ।

सतिगुर नामु द्रिड़ाए अति मीठा मैलागरु मलगारे ॥ नामै सुरति वजी है दह दिसि हरि मुसकी मुसक गंधारे ॥१॥

पद्अर्थ: सतिगुर = हे गुरु! द्रिढ़ाए = दृढ़ कर, हृदय में पक्का कर। मैलागरु = चंदन। मैलागरु मलगारे = चंदन का चंदन, चंदन से भी श्रेष्ठ। नामै = नाम के द्वारा। सुरति वजी है = ये सूझ प्रबल होती है कि। दह दिसि = दसों दिशाओं में। मुसक = कस्तूरी की सुगंधि। गंधारे = सुंगंधि।1।

अर्थ: हे गुरु! परमात्मा का नाम (मेरे हृदय में) पक्का कर, ये नाम बहुत मीठा है और (ठंडक पहुँचाने में) चंदन से भी श्रेष्ठ है। नाम की इनायत से ही ये सूझ प्रबल होती है कि जगत में हर तरफ परमात्मा की हस्ती की सुगंधि पसर रही है।1।

तेरी निरगुण कथा कथा है मीठी गुरि नीके बचन समारे ॥ गावत गावत हरि गुन गाए गुन गावत गुरि निसतारे ॥२॥

पद्अर्थ: निरगुण = त्रिगुण अतीत, जिस पर माया के तीनों गुणों का प्रभाव नहीं पड़ता। गुरि = गुरु के द्वारा। नीके = अच्छे। समारे = हृदय में बसाए जा सकते हैं। गावत गावत गाए = हर वक्त गाने शुरू किए। गुरि = गुरु ने। निसतारे = पार लंघा दिए।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी महिमा मीठी है, इस पर माया के तीन गुणों का प्रभाव नहीं पड़ सकता। गुरु के द्वारा (तेरी महिमा के) सुंदर वचन हृदय में बसाए जा सकते हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने हर वक्त परमात्मा के गुण गाने आरम्भ किए, गुणगान करते हुए उनको गुरु ने (संसार-समुंदर से) पार लंघा दिया।2।

बिबेकु गुरू गुरू समदरसी तिसु मिलीऐ संक उतारे ॥ सतिगुर मिलिऐ परम पदु पाइआ हउ सतिगुर कै बलिहारे ॥३॥

पद्अर्थ: बिबेकु = अच्छे बुरे की परख (करने में निपुंन)। सम दरसी = (सम = बराबर, एक समान) सबको एक समान (प्यार से) देखने वाला। तिसु = उस गुरु को। मिलीऐ = मिलना चाहिएै। उतारे = उतार के। मिलिऐ = अगर मिल जाए (शब्द ‘मिलिऐ’ और मिलीऐ’ में अंतर है)। परम पदु = सबसे उच्च आत्मिक दर्जा। हउ = मैं। कै = से।3।

अर्थ: हे भाई! गुरु अच्छे-बुरे कर्मों की परख करने में निपुण है, गुरु सब जीवों को एक जैसे प्यार से देखने वाला है। (अपने मन के सारे) शंके दूर करके उस (गुरु) को मिलना चाहिए। अगर गुरु मिल जाए, तो सबसे ऊँची आत्मि्क अवस्था प्राप्त हो जाती है। मैं गुरु से सदके हूँ।3।

पाखंड पाखंड करि करि भरमे लोभु पाखंडु जगि बुरिआरे ॥ हलति पलति दुखदाई होवहि जमकालु खड़ा सिरि मारे ॥४॥

पद्अर्थ: पाखंड = (माया आदि बटोरने के लिए धार्मिक) दिखावे। करि = कर के। करि करि = बार बार कर के। भरमे = भटकते फिरते हैं। जगि = जगत में। बुरिआरे = बहुत बुरे। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। होवहि = होते हैं (बहुवचन)। सिरि = सिर पर। मारे = मारता है, आत्मिक मौत मारता जाता है।4।

अर्थ: (हे भाई! माया आदि बटोरने के लिए अनेक धार्मिक) दिखावे वाले काम सदा कर-करके (जीव) भटकते फिरते हैं। ये लोभ और ये (धार्मिक) दिखावा जगत में ये बहुत बुरे (वैरी) हैं। इस लोक में और परलोक में (ये सदा) दुखदाई होते हैं, (इनके कारण) जमकाल (जीवों के) सिर पर खड़ा हुआ (सबको) आत्मिक मौत मारे जाता है।4।

उगवै दिनसु आलु जालु सम्हालै बिखु माइआ के बिसथारे ॥ आई रैनि भइआ सुपनंतरु बिखु सुपनै भी दुख सारे ॥५॥

पद्अर्थ: उगवै = उगता है, चढ़ता है। आलु = (आलय) घर। आलु जालु = जाल-रूपी घर के धंधे। बिखु = जहर, आत्मिक मौत लाने वाली। बिसथारे = बिखेरे। रैनि = रात। सुपनंतरु = सपनों में डूबा हुआ। सुपनै भी = सपने में भी। बिखु सारे = जहर संभालता है।5।

अर्थ: (हे भाई! जब) दिन चढ़ता है (उस वक्त लोभ-वश हो के जीव) घर के धंधे, आत्मिक मौत लाने वाली माया के पसारे आरम्भ करता है; (जब) रात आ गई (तब जीव दिन में किए धंधों के अनुसार) सपनों में डूब गया, सपनों में भी आत्मिक मौत लाने वाले दुखों को ही संभालता है।5।

कलरु खेतु लै कूड़ु जमाइआ सभ कूड़ै के खलवारे ॥ साकत नर सभि भूख भुखाने दरि ठाढे जम जंदारे ॥६॥

पद्अर्थ: कलरु खेतु = वह खेत जिसमें बंजर के कारण फसल नहीं उगती, वह बंजर हृदय खेत जिसमें नाम बीज नहीं उगता। कूड़ु = नाशवान पदार्थों का मोह। जमाइआ = बीता। खलवारे = खलिहान, अन्न गाहने की जगह। साकत नर = प्रभु से टूटे हुए मनुष्य। सभि = सारे। भूख भुखाने = भूखे ही भूखे, हर वक्त भूखे, हर वक्त तृष्णा के मारे हुए। जम दरि = जम के दर से। जंदार = बली। ठाढे = खड़े हुए।6।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्यों का ये हृदय रूपी खेत कल्लर है (बंजर है) (जिसमें बीज नहीं उग सकता। साकत) उस नाशवान पदार्थ का मोह ही बीजते रहते हैं और मोह-माया के खलवाड़े ही संचित करते रहते हैं। (इसका नतीजा ये निकलता है कि) साकत मनुष्य हर वक्त तृष्णा के मारे हुए ही रहते हैं, और बली जमराज के दर पर खड़े रहते हैं (जमों के वश पड़े रहते हैं)।6।

मनमुख करजु चड़िआ बिखु भारी उतरै सबदु वीचारे ॥ जितने करज करज के मंगीए करि सेवक पगि लगि वारे ॥७॥

पद्अर्थ: मनमुख = मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। बिखु करजु = आत्मिक मौत लाने वाला कर्जा। वीचारे = विचार के। करज के मंगीए = करजा लेने वाले, जिनके कर्जे तले फस गए, करज़ खाह, जम दूत। करि सेवक = सेवक बना के। पगि लगि = पैरों में लग के, चरण पड़ कर। वारे = रोक गए।7।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले बंदों के सिर पर आत्मिक मौत लाने वाला (विकारों का) करजा चढ़ा रहता है, गुरु के शब्द को मन में बसाने से ही ये करजा उतरता है। (जब मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, तब) कर्जा माँगने वाले इन सभी जमदूतों को (गुर-शब्द का आसरा लेने वालों का) सेवक बना के उनके चरणों से लगा के रोक दिया जाता है।7।

जगंनाथ सभि जंत्र उपाए नकि खीनी सभ नथहारे ॥ नानक प्रभु खिंचै तिव चलीऐ जिउ भावै राम पिआरे ॥८॥२॥

पद्अर्थ: जगंनाथ = जगत का नाथ। सभि जंत्र = सारे जीव। उपाए = पैदा किए हुए। नकि खीनी = नाक से छेदे हुए। नथहारे = नाथ वाले, वश में। नानक = हे नानक! खिंचै = खींचता है। भावै = अच्छा लगता है।8।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जीवों के भी क्या वश में?) ये सारे जीव जगत के नाथ-प्रभु के पैदा किए हुए हैं, नाक छेदे हुए हैं (पशुओं की तरह) सब उसके बस में हैं। जैसे प्रभु (जीवों की नाथ) खींचता है, जैसे प्यारे राम की रजा होती है वैसे ही (जीवों को) चलना पड़ता है।8।2।

नट महला ४ ॥ राम हरि अम्रित सरि नावारे ॥ सतिगुरि गिआनु मजनु है नीको मिलि कलमल पाप उतारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राम = हे राम! हरि = हे हरि! अंम्रितसरि = आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल के सरोवर में। नावारे = स्नान कराता है। सतिगुरि = गुरु में। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। मजनु = स्नान। नीको = सुंदर, अच्छा। मिलि = (गुरु को) मिल के। कलमल = पाप। उतारे = उतार लेता है।1। रहाउ।

अर्थ: हे राम! हे हरि! (जो मनुष्य तेरी मेहर से) आत्मिक जीवन देने वाले तेरे नाम-जल के सर में (अपने मन को) स्नान कराता है, (वह मनुष्य गुरु को) मिल के (अपने सारे) पाप विकार उतार लेता है। (गुरु के द्वारा) आत्मिक जीवन की सूझ ही गुरु (-सरोवर) में सुंदर स्नान है।1। रहाउ।

संगति का गुनु बहुतु अधिकाई पड़ि सूआ गनक उधारे ॥ परस नपरस भए कुबिजा कउ लै बैकुंठि सिधारे ॥१॥

पद्अर्थ: गुनु = प्रभाव, असर, लाभ। अधिकाई = ज्यादा। पढ़ि = पढ़ कर। सूआ = शूक, तोता। उधारे = उद्धार करता है। परसन परस = (स्पर्श = छूह) बहुत बढ़िया स्पर्श (श्री कृष्ण जी के चरणों की)। कउ = को। बैकुंठि = बैकुंठ में। सिधारै = पहुँचते हैं।1।

अर्थ: हे भाई! संगति का असर बहुत ज्यादा हुआ करता है, (देखो,) तोता (गनिका से ‘राम नाम’) पढ़ के गनिका को (विकारों के समुंदर से) पार लंघा गया। कुबिजा को (श्री कृष्ण जी के चरणों का) श्रेष्ठ स्पर्श प्राप्त हुआ, (वह स्पर्श) उसको बैकुंठ ले पहुँचा।1।

अजामल प्रीति पुत्र प्रति कीनी करि नाराइण बोलारे ॥ मेरे ठाकुर कै मनि भाइ भावनी जमकंकर मारि बिदारे ॥२॥

पद्अर्थ: पुत्र प्रति = पुत्र के लिए। कीनी = की हुई। कहि = कह कह के। बोलारे = बुलाता है। कै मनि = के मन में। भाइ = भा गई, पसंद आ गई, अच्छी लगी। भावनी = श्रद्धा। कंकर = (किंकर) नौकर। जम कंकर = जमराज के नौकर, जम दूत। मारि = मार के। बिदारे = नाश कर दिए।2।

अर्थ: हे भाई! अजामल की अपने पुत्र (नारायण) से की हुई प्रीति (जगत-प्रसिद्ध है। अजामल अपने पुत्र को) नारायण नाम से बुलाता था (नारायण कहते कहते उसकी प्रीति नारायण-प्रभु से भी बन गई)। प्यारे मालिक प्रभु नारायण को (अजामल की वह) प्रीति पसंद आ गई, उसने जमदूतों को मार के (अजामल से परे) भगा दिया।2।

मानुखु कथै कथि लोक सुनावै जो बोलै सो न बीचारे ॥ सतसंगति मिलै त दिड़ता आवै हरि राम नामि निसतारे ॥३॥

पद्अर्थ: कथै = (निरा) जबानी कहता है। कथि = जबानी कह के। दिढ़ता = यकीन, दृढ़ता। नामि = नाम से। निसतारे = (गुरु) पार लंघा देता है।3।

अर्थ: पर, हे भाई अगर मनुष्य निरी जबानी बातें ही करता है और बातें करके सिर्फ लोगों को ही सुनाता है (उसको खुद को इसका कोई लाभ नहीं होता); जो कुछ वह बोलता है उसको अपने मन में नहीं बसाता। जब मनुष्य (गुरु की) साधु-संगत में मिल बैठता है जब उसके अंदर श्रद्धा बनती है (गुरु उसको) परमात्मा के नाम (में जोड़ के संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।3।

जब लगु जीउ पिंडु है साबतु तब लगि किछु न समारे ॥ जब घर मंदरि आगि लगानी कढि कूपु कढै पनिहारे ॥४॥

पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साबतु = कायम। तब लगि = तब तक (शब्द ‘लगु’ और ‘लगि’ का एक ही अर्थ है)। न समारे = नहीं संभालता, आत्मिक जीवन की सांभ संभाल नहीं करता। मंदरि = घर में। आगि = आग। कूपु = कूआँ। पनिहारे = पनिहारा, पानी निकालने वाला।4।

अर्थ: हे भाई! जब तक जिंद और शरीर (का मेल) कायम रहता है, तब तक (प्रभु से टूटा हुआ मनुष्य प्रभु की याद को) हृदय में नहीं बसाता, (इसका हाल उस मनुष्य की तरह समझो, जिसके) घर-महल में जब आग लगती है तब कूआँ खोद के पानी निकालता है (आग बुझाने के लिए)।4।

साकत सिउ मन मेलु न करीअहु जिनि हरि हरि नामु बिसारे ॥ साकत बचन बिछूआ जिउ डसीऐ तजि साकत परै परारे ॥५॥

पद्अर्थ: साकत सिउ = प्रभु से टूटे हुए मनुष्य से। मन = हे मन! मेलु = संबंध, सांझ, उठना बैठना। जिनि = जिस (साकत) ने। बिसारे = भुला दिया है। डसीऐ = डसा जाता है। तजि = त्याग के। परारे = और परे।5।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम बिल्कुल ही भुला दिया है (वह साकत है, उस) साकत के साथ कभी सांझ नहीं डालनी, क्योंकि साकत के वचन के साथ मनुष्य इस तरह डंगा जाता है जैसे साँप-बिच्छू के डंक से। साकत (का संग) छोड़ के उससे परे ही बहुत ही परे रहना चाहिए।5।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh