श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बूडत कउ जैसे बेड़ी मिलत ॥ बूझत दीपक मिलत तिलत ॥ जलत अगनी मिलत नीर ॥ जैसे बारिक मुखहि खीर ॥१॥

पद्अर्थ: बूडत = डूबते। कउ = को। बूझत = बुझ रहे। दीपक = दीया। तिलत = तेल। अगनी = आग (में)। जलत = जलते हुए को। नीर = पानी। मुखहि = मुँह में। खीर = दूध।1।

अर्थ: जैसे डूब रहे को बेड़ी मिल जाए, जैसे बुझ रहे दीए को तेल मिल जाए जैसे आग में जल रहे को पानी मिल जाए, जैसे (भूख से बिलख रहे) बच्चे के मुँह में दूध पड़ जाए।1।

जैसे रण महि सखा भ्रात ॥ जैसे भूखे भोजन मात ॥ जैसे किरखहि बरस मेघ ॥ जैसे पालन सरनि सेंघ ॥२॥

पद्अर्थ: रण = लड़ाई, युद्ध। सखा = सहायक। भ्रात = भाई। भोजन मात = भोजन मात्र, सिर्फ भोजन ही। किरखहि = खेती को। बरस मेघ = बादल का बरसना। पालन = रक्षा। सेंघ = सिंघ, सिंह, शेर, बहादर।2।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह सहायक होता है) जैसे युद्ध में भाई मददगार होता है, जैसे किसी भूखे को भोजन ही सहायक होता है, जैसे खेती को बादलों का बरसना, जैसे (किसी अनाथ को) शेर (बहादुर) की शरण में रक्षा मिलती है।2।

गरुड़ मुखि नही सरप त्रास ॥ सूआ पिंजरि नही खाइ बिलासु ॥ जैसो आंडो हिरदे माहि ॥ जैसो दानो चकी दराहि ॥३॥

पद्अर्थ: गरुड़ = गारुड़ मंत्र। मुखि = मुँह में। सरप = साँप। त्रास = डर। सूआ = तोता। पिंजरि = पिंजरे में। बिलासु = बिल्ला। आंडो = (कूँज का) अण्डा। हिरदे माहि = याद में। दानो = दाने। चकी दराहि = चक्की के दर पे, चक्की की किल्ली से।3।

अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का नाम इस तरह सहायक होता है) जैसे जिसके मुँह में गारुड़ मंत्र हो उसको साँप का डर नहीं होता, जैसे पिंजरे में बैठे तोते को बिल्ला नहीं खा सकता, जैसे कुँज की याद में टिके हुए उसके अण्डे (खराब नहीं होते), जैसे दाने चक्के की किल्ली से (टिके हुए पिसने से बचे रहते हैं)।3।

बहुतु ओपमा थोर कही ॥ हरि अगम अगम अगाधि तुही ॥ ऊच मूचौ बहु अपार ॥ सिमरत नानक तरे सार ॥४॥३॥

पद्अर्थ: ओपमा = उपमा, दृष्टांत। थोर = थोड़ी ही। कही = कही है। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगाधि = अथाह। तुही = तू ही (सहायता करने वाला)। मूचौ = बड़ा। सार = लोहा, विकारों से भरे हुए, लोहे की तरह भारे।4।

अर्थ: हे भाई! मैंने तो ये थोड़े से ही दृष्टांत दिए हैं, बहुत सारे बताए जा सकते हैं (कि परमात्मा का नाम सहायता करता है)। हे अगम्य (पहुँच से परे) हरि! हे अथाह हरि! तू ही (जीवों का रक्षक है)। हे हरि! तू ऊँचा है, तू बड़ा है, तू बेअंत है। हे नानक! (कह:) नाम स्मरण करने से पापों से लोहे की तरह भारे हो चुके जीव भी संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।4।3।

माली गउड़ा महला ५ ॥ इही हमारै सफल काज ॥ अपुने दास कउ लेहु निवाजि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: इही = यही, यह (संत = शरण) ही। हमारै = मेरे लिए, मेरे हृदय में। सफल = कामयाब। काज = काम, उद्देश्य। कउ = को। लेहु निवाजि = निवाज लो, निवाज कर, मेहर कर।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! अपने दास (नानक) पर मेहर कर (और संत जनों की शरण बख्श), ये (संत-शरण) ही मेरे वास्ते मनोरथों को सफल करने वाली है।1। रहाउ।

चरन संतह माथ मोर ॥ नैनि दरसु पेखउ निसि भोर ॥ हसत हमरे संत टहल ॥ प्रान मनु धनु संत बहल ॥१॥

पद्अर्थ: संतह = संतों के। माथ मोर = मेरा माथा। नैनी = आँखों से। पेखउ = देखूँ, देखता रहूँ। निसि = रात। भोर = दिन। हसत = हाथ (बहुवचन)। संत बहल = संतों की टहल, संतों के अर्पण।1।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मेरा माथा संतों के चरणों पर (पड़ा रहे), आँखों से दिन-रात मैं संतो के दर्शन करता रहूँ, मेरे हाथ संतों की टहल करते रहें, मेरी जिंद मेरा मन मेरा धन संतों के अर्पण रहे।1।

संतसंगि मेरे मन की प्रीति ॥ संत गुन बसहि मेरै चीति ॥ संत आगिआ मनहि मीठ ॥ मेरा कमलु बिगसै संत डीठ ॥२॥

पद्अर्थ: संगि = साथ। बसहि = बसते हैं। मेरै चीति = मेरे चिक्त में। मनहि = मन में। कमलु = हृदय कमल फूल। बिगसै = खिल उठे।2।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) संतों से मेरे मन का प्यार बना रहे, संतों के गुण मेरे चिक्त में बसे रहें, संतों का हुक्म मुझे मीठा लगे, संतों को देख के मेरा हृदय-कमल खिला रहे।2।

संतसंगि मेरा होइ निवासु ॥ संतन की मोहि बहुतु पिआस ॥ संत बचन मेरे मनहि मंत ॥ संत प्रसादि मेरे बिखै हंत ॥३॥

पद्अर्थ: निवासु = बसेवा। मोहि = मुझे। पिआस = तमन्ना। मनहि = मन में। मंत = मंत्र। प्रसादि = कृपा से। बिखै = विषौ विकार। हंत = नाश हो जाते हैं।3।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) संतों से मेरा बैठना-उठना बना रहे, संतों के दर्शनों की चाहत मेरे अंदर टिकी रहे, संतों के वचन-मंत्र मेरे मन में टिके रहें, संतों की कृपा से मेरे सारे विकार नाश हो जाएं।3।

मुकति जुगति एहा निधान ॥ प्रभ दइआल मोहि देवहु दान ॥ नानक कउ प्रभ दइआ धारि ॥ चरन संतन के मेरे रिदे मझारि ॥४॥४॥

पद्अर्थ: मुकति जुगति = विकारों से मुक्ति पाने का तरीका। निधान = खजाने। प्रभ = हे प्रभु! मोहि = मुझे। रिदे मझारि = हृदय में (बसे रहें)।4।

अर्थ: हे दया के घर प्रभु! मुझे (संत जनों की संगति का) दान दे, संतों की संगति ही मेरे वास्ते सारे खजाने हैं, संतों का संग करना ही विकारों से मुक्ति प्राप्त करने का तरीका है। हे प्रभु! नानक पर दया कर कि संतों के चरण मुझ नानक के हृदय में बसते रहें।4।4।

माली गउड़ा महला ५ ॥ सभ कै संगी नाही दूरि ॥ करन करावन हाजरा हजूरि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: संगी = साथ। सभ कै संगी = सभ कै संगि, सभ जीवों के साथ। करन करावन = स्वयं करने और जीवों से करा सकने वाला। हाजरा हजूरि = सब जगह मौजूद।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं सब कुछ कर सकता है जीवों से करवा सकता है, वह हर जगह मौजूद है, सब जीवों के साथ बसता है, किसी से भी दूर नहीं है।1। रहाउ।

सुनत जीओ जासु नामु ॥ दुख बिनसे सुख कीओ बिस्रामु ॥ सगल निधि हरि हरि हरे ॥ मुनि जन ता की सेव करे ॥१॥

पद्अर्थ: जीओ = आत्मिक जीवन मिलता है। जासु = (यस्य) जिस का। बिस्राम = निवास। सगल = सारे। निधि = खजाने, निधिआं। ता की = उस परमात्मा की।1।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा का नाम सुनने से आत्मिक जीवन मिलता है, सारे दुख दूर हो जाते हैं और (हृदय में) सुख ठिकाना आ बनाते हैं, सब ऋषि-मुनि उसकी भक्ति करते हैं, (संसार के) सारे ही खजाने उस परमात्मा के पास हैं।1।

जा कै घरि सगले समाहि ॥ जिस ते बिरथा कोइ नाहि ॥ जीअ जंत्र करे प्रतिपाल ॥ सदा सदा सेवहु किरपाल ॥२॥

पद्अर्थ: कै घरि = के घर में। सगल = सारे जीव।

नोट: ‘जिस ते’ में से संबंधक ‘ते’ के कारण ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा हट गई है।

बिरथा = खाली, बगैर। जीअ = जीव।2।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! उस कृपाल प्रभु की भक्ति सदा ही करते रहो, जिसके घर में सारे ही (खजाने) टिके हुए हैं, जिस (के दर) से कोई जीव खाली नहीं जाता, जो सब जीवों की पालना करता है।2।

सदा धरमु जा कै दीबाणि ॥ बेमुहताज नही किछु काणि ॥ सभ किछु करना आपन आपि ॥ रे मन मेरे तू ता कउ जापि ॥३॥

पद्अर्थ: धरमु = इन्साफ। जा कै दीबाणि = जिस की कचहरी में। काणि = अधीनता। ता कउ = उस को।3।

अर्थ: हे मेरे मन! तू उस प्रभु का नाम जपा कर जो स्वयं ही सब कुछ करने के समर्थ है, जो बेमुथाज है जिसको किसी की अधीनता नहीं, और जिसकी कचहरी में सदा न्याय होता है।3।

साधसंगति कउ हउ बलिहार ॥ जासु मिलि होवै उधारु ॥ नाम संगि मन तनहि रात ॥ नानक कउ प्रभि करी दाति ॥४॥५॥

पद्अर्थ: कउ = को, से। हउ = अहम्। बलिहार = सदके। जासु मिलि = जिस को मिल के। उधारु = पार उतारा। संगि = साथ। मन तनहि = मन में तन में। रात = से भीगा, रंगा हुआ। प्रभि = प्रभु ने। करी = की।4।

अर्थ: हे नानक! (कह:) मैं गुरु की संगति से कुर्बान जाता हूँ जिसको मिल के (परमात्मा का नाम मिलता है, और संसार-समुंदर से) पार-उतारा हो जाता है। प्रभु ने (गुरु के माध्यम से) जिस मनुष्य को (नाम की) दाति बख्शी, वह नाम से रंगा रहता है, उसके मन में तन में नाम (बसा रहता है)।4।5।

माली गउड़ा महला ५ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि समरथ की सरना ॥ जीउ पिंडु धनु रासि मेरी प्रभ एक कारन करना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: समरथ = सब ताकतों का मालिक। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत, पूंजी। कारन करना = (करना = सृष्टि। कारन = मूल) सृष्टि का मूल।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं तो उस परमात्मा की शरण पड़ा हूँ जो सब ताकतों का मालिक है। मेरी जिंद, मेरा शरीर, मेरा धन, मेरी संपत्ति, सब कुछ वह परमात्मा ही है जो सारे जगत का मूल है।1। रहाउ।

सिमरि सिमरि सदा सुखु पाईऐ जीवणै का मूलु ॥ रवि रहिआ सरबत ठाई सूखमो असथूल ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरि = स्मरण करके। पाईऐ = प्राप्त करता है। मूलु = सहारा, आदि। सरबत ठाई = सब जगह। सूखम = बहुत ही बारीक, अदृष्य चीजें। असथूल = बहुत मोटे पदार्थ।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के सदा आत्मिक आनंद हासिल करता है, हरि-नाम ही जिंदगी का सहारा है। इन दिखाई देते-ना दिखाई देते पदार्थों में सब जगह परमात्मा ही मौजूद है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh